कर्म पथ पर - 68 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 68

कर्म पथ पर
Chapter 68


इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर किसी विजयी सेनापति की तरह गर्व से सीना फुलाए हैमिल्टन के सामने खड़ा था। वृंदा सामने फर्श पर पड़ी थी। वह अभी भी बेहोश थी।
हैमिल्टन उसके पास आया और पंजों के बल फर्श पर बैठ गया। बेहोशी में भी वृंदा के चेहरे पर एक अजीब सी आभा थी। वह कुछ क्षणों तक उसके चेहरे को निहारता रहा। वृंदा के गाल पर हाथ फेरकर उसने कहा,
"रास्ते में इसे होश तो नहीं आया ?"
इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर ने कहा,
"आया था पर दोबारा इसे बेहोश कर दिया।"
हैमिल्टन उठकर खड़ा हो गया। वह बोला,
"इसे ऊपर वाले कमरे में पहुँचा दो।"
उसके नौकरों ने वृंदा को उठाया और ऊपर कमरे में ले गए। हैमिल्टन जाकर सोफे पर बैठ गया। उसने इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर को भी बैठने का इशारा किया। उसने नौकर को आवाज़ दी। नौकर उसके सामने सर झुका कर खड़ा हो गया। उसने शराब पीने की व्यवस्था करने को कहा।
नौकर सारी चीज़ें ले आया। उसने हैमिल्टन और इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर के लिए एक एक पैग बनाया। अपने गिलास टकरा कर दोनों ने चियर्स किया। हैमिल्टन बोला,
"यू डन अ गुड जॉब जेम्स...."
इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर ने कहा,
"थैंक्यू सर...अब अगर आप मेरा काम कर दें तो मैं भारत छोड़कर अपने मुल्क वापस चला जाऊँ। मेरा मन अब यहाँ नहीं लगता है।"
"बिल्कुल मैंने तुमसे जो वादा किया है वह पूरा करूँगा। पर एक बात बताओ तुम्हारा मन यहाँ क्यों नहीं लगता है। अगर लखनऊ में ना रहना चाहो तो किसी पहाड़ी जगह पर चले जाओ।"
"नहीं सर... मैं तो इंग्लैंड ही वापस जाऊँगा। वहाँ कैथरीन से शादी करके आराम से रहूँगा।"
"जैसा तुम चाहो। मैं तुम्हारी व्यवस्था जल्दी करवा दूँगा।"
इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर ने पूँछा,
"इस बार भी आपने इस लड़की को अपने बंगले पर बुलवाया। पर पिछली बार की तरह उसे कोठरी में बंद ना करवा कर ऊपर कमरे में क्यों भेज दिया।"
हैमिल्टन हंसकर बोला,
"तुमको इस देश में कुछ भी दिलचस्प नहीं लगता है। पर यहाँ की खुबसूरत लड़कियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। वृंदा तो और भी खूबसूरत है। इसकी अकड़ मुझे और भी अच्छी लगती है। पिछली बार इसकी अकड़ तोड़ने की कोशिश की थी। पर वह काफी नहीं था। इस बार अपने कमरे में तब तक इसका भोग करूँगा जब तक यह टूट कर मेरे पैरों पर ना गिर पड़े।"
अपनी बात कहते हुए हैमिल्टन ने अपनी फूटी हुई आँख पर हाथ रख दिया।

वृंदा की बेहोशी टूटी तो उसने देखा कि चारों तरफ मद्धम रोशनी थी। वह उठकर बैठ गई। उसके हाथ पैर खुले हुए थे। उसने चारों तरफ देखा। यह एक कमरा था। कमरे में सिर्फ एक बेड था जिस पर वह बैठी थी। सामने मेज पर एक लैंप जल रहा था। उस पर लगे शेड के कारण रौशनी हल्की थी। उसके पास एक आराम कुर्सी थी। उस पर हैमिल्टन बैठा था।
हैमिल्टन को देखते ही वृंदा बेड से उतर कर एक कोने में खड़ी हो गई। उसके हावभाव से लग रहा था कि वह डरी हुई है। हैमिल्टन उसे इस तरह डरते हुए देखकर ज़ोर से हंसा। फिर गुस्से में बोला,
"ये बकरी सोचती थी कि इस शेर से बच जाएगी। पर आकर उसके जाल में फंस गई। इस बार बच कर नहीं जा पाएगी।"
वृंदा बहुत डरी हुई थी। वह जानती थी कि इस बार हैमिल्टन के चंगुल से बच‌कर निकल पाना नामुमकिन होगा। वह जानती थी कि जान तो जानी ही है। तो वह क्यों डर कर एक बकरी की तरह अपने आप को चुपचाप उसके हवाले कर दे। वह मरते हुए भी हैमिल्टन के अहम को चोट पहुँचाना चाहती थी। अपनी हिम्मत को बांधते हुए उसने कहा,
"छल से मुझे उठवा लिया। बेहोशी में मुझे यहाँ लाकर बंद कर दिया। खुद को शेर कहते हुए शर्म नहीं आती है।"
उसकी बात से हैमिल्टन चिढ़ गया।
"डर कर कांप रही है पर बातें बड़ी बड़ी करती है।"
"हाँ मैं डरी हुई हूँ। पर तुम्हारी तरह कायर नहीं हूँ। तुम शेर क्या गीदड़ कहलाने के लायक भी नहीं हो।"
हैमिल्टन को लगा था कि वृंदा अपनी जान के लिए गिड़गिड़ाएगी। उसके हाथ पैर जोड़ेगी। पर वह उल्टा उसे कायर कह रही थी। वह आपे से बाहर हो गया।‌ दांत पीसते हुए आगे बढ़ा वृंदा बिस्तर पर चढ़ कर दूसरी तरफ आ गई। हैमिल्टन और भी चिढ़ गया। वह फिर उसकी तरफ लपका। एक बार फिर वृंदा उसकी पकड़ से निकल गई।
इस बात से हैमिल्टन था पर वह जानता था कि बंद कमरे से वृंंदा कहीं जा नहीं सकती है। कब तक इधर उधर भागेगी। हुआ भी वही। कुछ देर इधर उधर करने के बाद वृंदा थक गई। हैमिल्टन ने उसे दबोच लिया। उसके बाल पकड़ कर बोला,
"तेरी इतनी हिम्मत। पर तुझे तेरी औकात दिखाऊँगा। पहले जी भर कर तेरा उपयोग करूँगा फिर मारूँगा।"
बाल पकड़े जाने से वृंदा कष्ट में थी। पर इसके बावजूद भी वह बकरी की तरह मिनमिनाने को तैयार नहीं थी। उसने एक बार फिर हैमिल्टन के गुरूर को चोट पहुँचाई।
"मेरी औकात क्या दिखाएगा तू। आज तू नंगा हो गया है। इंसान की खाल जो तूने पहन रखी थी वह उतर चुकी है। तेरी औकात मुझे पता चल गई। तू एक गलीज़ जानवर है।"
वृंदा की इस चोट ने हैमिल्टन को पूरी तरह पागल कर दिया। उसने उसे बिस्तर पर पटक दिया। एक जानवर की तरह उस पर टूट पड़ा।
वृंदा असहनीय पीड़ा से गुज़र रही थी। हैमिल्टन उसके शरीर को नोच रहा था। पर ना जाने कौन सी शक्ति थी कि वृंदा दर्द से चीखने या रोने की जगह अपने शब्दों से हैमिल्टन को चोट पर चोट दिए जा रही थी।
अपनी हवस शांत कर हैमिल्टन आकर आराम कुर्सी पर बैठ गया। वृंदा अभी भी उसे अपशब्द कह रही थी। उसके शब्द हथौड़े की तरह हैमिल्टन के अहम को टुकड़े टुकड़े किए दे रहे थे। पर वृंदा रुक नहीं रही थी। ऐसा लगता था कि जैसे इस तरह गालियां देकर वह उसे उकसा रही थी कि वह उसकी जान ले ले।
हैमिल्टन गुस्से से उबल रहा था। उसके लिए अपने पर काबू रखना कठिन हो रहा था। वह उठा। टेबल की दराज़ से पिस्तौल निकाल कर वृंदा को गोली मार दी।
वृंदा के प्राण पखेरू उड़ गए। पर मरते हुए उसे एक सुकून था कि वह हैमिल्टन के सामने टूटी नहीं।
गुस्से में हैमिल्टन ने उसे मार तो दिया था पर वह हारा हुआ महसूस कर रहा था। वृंदा मरते हुए भी उसके सामने नहीं झुकी थी। इस बात से तिलमिला कर उसने वृंदा के मृत शरीर पर दो और गोलियां मारीं।
कुछ देर बाद वह नीचे उतरा। उसने अपने आदमियों को आदेश दिया कि वह वृंदा के शव को जंगल में दफन कर आएं।

श्यामलाल गंभीर मुद्रा में बैठे थे। भोला ने चाय और नाश्ते की ट्रे लाकर रख दी। वह धीरे से बोला,
"भइया आप और मदन भइया कुछ खा पी लो। बहुत थके हुए दिख रहे हो।"
श्यामलाल ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहा,
"पहले खा पीकर कुछ आराम कर लो फिर आगे की बात सोचना।"
जय बहुत परेशान था। मदन ने उसे समझाया कि यही सही है। बड़ी मुश्किल से जय ने थोड़ा बहुत खाया। भोला ने उसके कमरे में मदन का भी इंतजाम कर दिया था। दोनों कमरे में आराम करने चले गए।
वृंदा का कहीं पता ना चलने पर जय बहुत अधिक परेशान हो गया था। वह जल्द से जल्द उसका पता लगाना चाहता था। यह तय था कि हैमिल्टन ने ही वृंदा का अपहरण कराया है।
पिछली बार वृंदा को शहर के बाहरी हिस्से में बने हैमिल्टन के बंगले में ले जाया गया था। जय और मदन दोनों को यही अंदेशा था कि इस बार भी उसे वहीं ले जाया गया होगा। उस बंगले के बारे में पता करना आवश्यक था।
जय ने कलेक्टर रामकृष्ण अय्यर के पास मोटर देखी थी। उसे पता था कि दफ्तर के पास ही उनका घर है। वह मदन के साथ उनके घर पहुँचा। रामकृष्ण को बताया कि उसका इसी समय अपने पिता के पास लखनऊ पहुँचना बहुत ज़रूरी है। अतः अपनी मोटर से उसके पहुँचने का इंतजाम कर दे।
रामकृष्ण जो अपने संबंधियों से इतनी दूर रह रहा था यह जानकर कि जय अपने पिता के पास जाना चाहता है पिघल गया।
उसने अपनी मोटर से ड्राइवर के साथ उसे और मदन को लखनऊ पहुँचा दिया।