कर्म पथ पर - 7 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 7




कर्म पथ पर
Chapter 7



आरंभ में वृंदा को हिंद प्रभात का काम संभालने में कुछ मुशकिल हुई थी। अब तक वह केवल लेख लिखती रही थी। लेकिन यहाँ उसकी ज़िम्मेदारी बड़ी थी। पर उसने इस काम को ही अपने जीवन का मकसद बना लिया था। उसमें सीखने की लगन थी और भुवनदा एक सुलझे हुए शिक्षक। अतः कुछ दिनों में ही वह बहुत कुछ सीख गई। हिंद प्रभात रोज़ अपने क्रांतिकारी विचारों के साथ पाठकों तक पहुँचता था। शहर में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ हर गतिविधि को पत्र में प्रमुखता से स्थान दिया जाता था।
मदन, वृंदा और भुवनदा के बीच अक्सर देश व समाज की दशा को लेकर बहस होती रहती थी। मदन हिंसात्मक आंदोलन का पक्षधर था। उसका कहना था कि जिस तरह से भगतसिंह ने बहरे कानों को सुनाने के लिए एसेंबली में बम फेंका था, वैसे ही हमें भी इस सरकार की चूलें हिलाने के लिए हमें हथियार उठाने पड़ेंगे। वरना शांतिपूर्ण आंदोलनों पर लाठियां ही बरसेंगी।
लेकिन भुवनदा पक्के कांग्रेसी थे। वह बापू के मार्ग को ही उत्तम मार्ग समझते थे। उनका तर्क था कि अहिंसा अपने आप में बड़ी ताकत है। हम अपने मकसद पर शांतिपूर्ण तरीके से डटे रहें। कब तक वो हमारी आवाज़ नहीं सुनेंगे।
वृंदा मध्यमार्ग पर चलने वाली थी। उसका कहना था कि राष्ट्र की आज़ादी के लिए सबका सहयोग आवश्यक है। जो हथियार के साथ लड़ सकें वह हथियार उठाएं और जो अहिंसा के पक्षधर हैं वह असहयोग का रास्ता अपनाएं। लेकिन आंदोलन चलते रहना चाहिए।
वृंदा अपने काम के प्रति पूर्णतया समर्पित थी। यही कारण था कि काम करते हुए अक्सर उसे समय का ध्यान नहीं रह जाता था। उसके घर पहुँचते पहुँचते अक्सर देर हो जाती थी। ऐसे में कम्मो परेशान हो जाती थी। वह बहुत समय से उसके घर में काम कर रही थी। मुंशी जी के जाने के बाद वह खुद को अभिभावक के तौर पर समझती थी। इसलिए देर होने पर वृंदा को डांट लगाते हुए कहती,
"अइसन का बात है कि बखत केर खयाल भी न रहै। काम करौ पर बखत का खयाल रखा करौ। अइसन तो सेहत बिगरि जाई।"
वृंदा ‌उसकी बात का बुरा नहीं मानती थी। पिता ‌के जाने के बाद उसकी ज़िंदगी में एक ‌वही बची थी जो उसका ख्याल रखे। वह कम्मो को प्यार से समझा देती थी कि वह अखबार में काम करती है। बहुत कुछ चीज़ें देखनी पड़ती हैं। इसलिए देर हो जाती है।
आज भी वृंदा को देर हो गई थी। वह तेजी से कदम बढ़ाते हुए घर जा रही थी।
जब वह घर पहुँची तो कम्मो ने बताया कि मोहल्ले के कुछ लोग बैठक में इंतज़ार कर रहे हैं। वह बैठक में गई तो उसके पड़ोसी बनवारी लाल, उनके पिता तथा सामने मकान में रहने वाला शंकर बैठे थे। उसने नमस्ते किया और कुर्सी लेकर बैठ गई।
"कहिए चाचाजी कैसे आना हुआ ?"
वृंदा ने बनवारी लाल से पूँछा। बनवारी लाल ने कुछ ऊँचे सुर में कहा,
"आना ही पड़ा। यह शरीफ़ों का मोहल्ला है। औरतें जब तक बहुत ज़रूरी ना हो घर से नहीं निकलतीं। निकलती भी हैं तो घर के किसी मर्द को साथ लेकर। तुम हो कि अंधेरा होने के बाद घर लौटती हो।"
"चाचाजी मैं इतनी देर तक घूमती नहीं रहती हूँ। काम के सिलसिले में देर हो जाती है।"
"ऐसा क्या काम रहता है तुम्हें ?"
"मैं अखबार के दफ्तर में काम करती हूँ। अगले दिन क्या छपना है, यह निश्चित करने में देर हो जाती है।"
वृंदा की बात सुनकर बनवारी लाल ‌के पिता बोले,
"क्या जरूरत है अखबार में काम करने की ? औरत घर पर ही अच्छी लगती है। फिर तुम तो विधवा हो। मुंशी जी की इज़्जत मिट्टी में मिला रही हो। क्या वो इतना भी नहीं छोड़ गए कि इज्ज़त से घर पर बैठ कर जीवन काट सको ?"
उनकी बात पर वृंदा को क्रोध आ गया। लेकिन खुद को संयत कर बोली।
"पिताजी मुझे शिक्षित करके गए हैं। पेट भर जाए इतना छोड़ कर गए हैं। पर आज देश को हमारी ज़रूरत है। चाहें औरत हो या मर्द सबकी भागीदारी ज़रूरी है।"
शंकर इतनी देर से बैठा मुस्कुरा रहा था। वह कई बार वृंदा के साथ अनुचित चेष्ठाएं कर चुका था। वृंदा ने भी निडरता से उसे जवाब दिया था। वह उसी बात की खीझ निकालने के लिए बनवारी लाल और उनके पिता को लेकर आया था। वह बोला,
"संपादिका जी आपके इस आचरण से मोहल्ले की औरतों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, ज़रा यह भी सोंचिए।"
शंकर अक्सर वृंदा को संपादिका जी नमस्ते कह कर ताना मारता रहता था। आज तो उसने आचरण पर सवाल उठा दिया। वृंदा तिलमिला उठी। इस बार उसने खुद को रोकने की बजाय गुस्से का इज़हार किया।
"मर्यादा में रहिए। आपकी हिम्मत कैसे हुई मेरे आचरण पर सवाल उठाने की। खोट मेरे आचरण में नहीं आपके नज़रिए में है।"
शंकर तुरंत ही बनवारी लाल और उनके पिता को उकसाने के इरादे से बोला,
"देखिए, इन्हें बात करने की शालीनता भी नहीं है। अब सोंच लीजिए, इन्हें देख कर हमारी औरतों पर क्या असर होगा। सच है भाई घोर कलयुग आ गया है। इस विधवा की बेशर्मी तो देखिए।"
वृंदा से अब सहन नहीं हुआ। वह उठ कर खड़ी हो गई।
"नमस्ते अब मुझे आराम करना है।"
तीनों लोग उठ कर चले गए। उसकी भूख मर गई थी। लेकिन कम्मो के ज़ोर देने पर थोड़ा सा खा लिया। बिस्तर पर लेटी तो उसके दिमाग में वही सब घूमने लगा। वह मन ही मन सोंच रही थी। इस देश को केवल अंग्रज़ों से ही मुक्त नहीं कराना है। बल्कि समाज में भी बड़े बदलाव की आवश्यक्ता है। एक बार आज़ादी मिल जाए तो इस दिशा में भी काम शुरू हो। समाज की स्त्रियों को लेकर इस तंग सोंच को बदलना ज़रूरी है। तभी उनकी दशा सुधरेगी। नहीं तो शंकर जैसे लोग यूं ही स्त्रियों पर अपना अधिकार जमाते रहेंगे। शंकर के बारे में सोंचते हुए अचानक ही जय का चेहरा उसकी आँखों में तैर गया। उसका मन फिर घृणा से भर गया। वह सोंचने लगी कि एक तरफ तो लोग दोश के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हैं दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए विलासिता ही सब कुछ है।
इन दिनों देश लव में जो कुछ भी चल रहा था उससे वृंदा का मन बहुत दुखी रहता था। अंग्रेज़ पूरी निर्ममता के साथ अपने खिलाफ हो रहे आंदोलनों को कुचलने में लगे थे। इस निर्ममता में उनका साथ ‌देने वालों में अधिकांश अपने ही लोग थे।
वृंदा हाल ही में मानस के साथ जो कुछ हुआ, उसे याद करने लगी। कितनी चालाकी से एक हिंदुस्तानी वकील श्यामलाल टंडन ने ‌बेगुनाह मानस को दोषी करार करवा दिया।
हिंद प्रभात ने अपने स्तर पर इस केस की तहकीकात की थी। उनके रिपोर्टर ने पता लगाने का प्रयास किया था कि जिस नोट बुक का ज़िक्र मानस की कोठरी से बरामद सामान में नहीं था, वह श्यामलाल के पास कैसे पहुँची ?
वह नोट बुक रसिकलाल ने श्यामलाल को दी थी। जो उसने नोट्स लिखने के लिए मानस से ली थी। घबराहट में शायद मानस को यह बात याद नहीं रही थी।
मानस ने कोर्ट में गलत नहीं कहा था। वह हिंद की फौज संगठन से प्रभावित तो था। पर बम फेंकने की बात सुनकर पीछे हट गया था। बम कांड के बाद वह घबराकर ‌भाग गया था।

पुलिस पर ऊपर से दबाव पड़ रहा था। उन्हें ‌जल्द ही किसी को गिरफ्तार करना था। जब रसिकलाल उनके हत्थे चढ़ा तो खुद को बचाने के लिए उसने मानस का नाम बता दिया। पुलिस उसके कहने पर कानपुर उसे गिरफ्तार करने पहुँची तो पता चला कि वो बिठूर में है। पुलिस ने वहाँ से उसे गिरफ्तार कर लिया।
बेकसूर मानस को श्यामलाल की दलीलों ने गुनहगार बना दिया।