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कर्म पथ पर - 4




कर्म पथ पर
Chapter 4



घायल हाथ लिए वृंदा जब अपने घर पहुँची तो उसे देख कम्मो घबरा गई,
"हाय दइया..! यू का भया दीदी।"
"कुछ नहीं तुम जाकर दवा का डब्बा ले आओ।"
वृंदा मरहम पट्टी करना जानती थी। कम्मो भाग कर दवा का डब्बा ले आई। वृंदा के हर निर्देश का कम्मो अच्छी तरह पालन कर रही थी। कुछ ही देर में वृंदा ने घाव साफ कर पट्टी बाँध ली। कम्मो उसके लिए हल्दी वाला दूध ले आई। दूध का गिलास उसे पकड़ाते हुए वह बोली,
"अब बताओ दीदी यू चोट कैसन लागी।"
"कुछ नहीं, चलते हुए ठोकर लगी, गिर गई हाथ में चोट आ गई।"
कम्मो को उसकी ‌बात पर यकीन नहीं हुआ। वह अविश्वास से उसकी ‌तरफ देखने लगी। वृंदा जानती थी कि कम्मो मानेगी नहीं। वह टालने के लिए बोली,
"अब ऐसे घूर क्यों रही हो ? कहा ना कि गिरने से चोट लगी है।"
कम्मो जाते हुए बोली,
"तुम कहती हो तो मान लेइत है। पर तनिक संभल कर चला करो।"
कम्मो के जाने के बाद वृंदा आगे क्या करना है इस विषय में विचार करने लगी। आज जो कुछ भी हुआ, उससे इस बात का अंदाजा तो लग चुका था कि जो राह उसने चुनी है, उस पर चलना आसान नहीं होगा। लेकिन उसने अपने आपको अब हर तरह की तकलीफों के लिए तैयार कर लिया था।
ताऊजी ने उसे जो सीख दी थी उसने उस पर ही अमल करने का फैसला किया था। उसे याद है वो वक्त जब दस साल की छोटी सी अवस्था में वह विधवा हो गई थी। तब तक तो उसका गौना भी नहीं हुआ था। उसे अपने पति की सूरत भी नहीं याद थी। लेकिन मंडप के नीचे बिताए गए वक्त को छोड़ कर जिसके साथ उसने एक क्षण भी नहीं बिताया था, उसे उसकी ही मृत्यु का ज़िम्मेदार ठहराया गया।
उसे सभी सुखों से वंचित कर दिया गया। ना वो अच्छा खा सकती थी, ना ही रंगीन कपड़े पहन सकती थी। पति पत्नी के रिश्ते की समझ पैदा होने से पहले ही उसे जीवन पर्यन्त वैधव्य झेलने के लिए मजबूर कर दिया गया था।
वृंदा उस समय समझ ही नहीं पा रही थी कि उसकी गलती क्या है ? क्यों अचानक ही सब लोग उसके साथ अजीब तरह का व्यवहार करने लगे हैं ? कोर्इ ज़रूरत से अधिक हमदर्दी दिखाता था, तो कोई उससे गुनहगार की तरह पेश आता था। उसके पिता उसका मुख देखते ही रोने लगते थे।
उस कठिन दौर में उसके ताऊजी ‌ही ऐसे थे जो ना तो उसके साथ बेवजह हमदर्दी दिखाते थे, ना ही उसे जो हुआ उसके लिए उत्तरदाई मानते थे। वह बस उससे यही कहते थे कि बिटिया जो हुआ वह एक घटना थी। दुखद थी, पर उसके कारण तुम्हारा जीवन खत्म नहीं हुआ है। तुम वैसे ही रहो जैसे पहले रहती थी।
ताऊजी ने उसके पिता को समझाया था कि इतनी छोटी उम्र में उसका विवाह ना करें। उसे शिक्षित करें। पर जब वह बंगाल में गांधीजी की नीतियों का प्रचार करने गए थे, तब वृंदा के पिता ने समाज के दबाव में उसका विवाह बिना अपने बड़े भाई को बताए कर दिया। इस बात की खबर पाकर वह बहुत दुखी हुए थे।
पर वृंदा के विधवा होने के बाद वह भी अड़ गए कि वृंदा सिर्फ वैधव्य का दुख नहीं मनाएगी। स्वयं के दुर्भाग्य पर रोने की जगह शिक्षा प्राप्त कर सबल बनेगी। उनके प्रयासों के कारण ही वृंदा शिक्षित हो पाई थी।
वृंदा को किताबें पढ़ने की आदत भी ताऊजी ने ही लगवाई थी। उन किताबों ने तो उसकी दुनिया बदल दी थी। उसे एक नया नज़रिया दिया था। अपने समाज में घट रही घटनाओं की जानकारी उसे अखबार से मिलती थी। उन खबरों को पढ़ कर अक्सर बहुत कुछ उसके मन में उमड़ता था। वह उनके बारे में अपने ताऊजी के साथ विमर्श करती थी। अपने तर्क रखती थी। तब ताऊजी ने ही उसे लिखने की सलाह दी थी।
उसी दौरान उसके हाथ हिंद प्रभात की एक प्रति लगी। उमाकांत के लिखे एक लेख ने उसे बहुत प्रभावित किया। जिस व्यक्ति ने उसे हिंद प्रभात की प्रति दी थी, उसने ही उसकी मुलाकात उमाकांत से करवा दी। वृंदा से मिल कर उमाकांत समझ गए कि इस लड़की में प्रतिभा है। उन्होंने उसे हिंद प्रभात के लिए लिखने की सलाह दी। वृंदा कृष्णदत्त के छद्म नाम से लिखने लगी।
पर अब वृंदा खुल कर देश की सेवा करना चाहती थी। क्या करना है वह यही तय करने का प्रयास कर रही थी।

शाम को वृंदा बैठी हुई पुस्तक पढ़ रही थी। किंतु उसके मन में सुबह की घटनाएं घूम रही थीं। लाठीचार्ज के कारण सभी इधर उधर भागने लगे थे। उसी भगदड़ में वह संभल नहीं पाई और सड़क पर गिर गई। जिससे उसका हाथ छिल गया। उस समय वह घबरा गई थी। इसलिए बदहवास सी भाग रही थी। पर अब वह शांत थी। उसने राष्ट्रहित के मार्ग पर पहला कदम रख दिया था। अब वह उसी राह में आगे बढ़ना चाहती थी।
इस सबके बीच उसे उस युवक की याद आ गई। उसके 'ऐ लड़की .....' संबोधन को याद कर उसका मन वितृष्णा से भर गया। वह सोंचने लगी अपनी दौलत का इतना गुरूर कि शालीनता से बात भी नहीं कर सकता था। ज़रूर अमीर पिता की बिगड़ी संतान होगा। ऐसे लोग ही इस देश को आज़ादी हासिल नहीं करने देना चाहते हैं। वृंदा अपने इन्हीं विचारों में खोई थी तभी कम्मो ने आकर कहा,
"दीदी कोऊ मदन मिलै की खातिर आवा है।"
मदन का नाम सुनकर उसे कुछ अचरज हुआ। वह बाहर बैठक में चली गई।
वृंदा को देखते ही मदन उठ कर खड़ा हो गया।
"माफ करना बिना पूर्व सूचना के इस समय आया हूँ। लेकिन मुझे कुछ आवश्यक बात करनी थी।"
वृंदा ने उसे बैठने को कहा और स्वयं भी बैठ गई।
"अब सर की चोट कैसी है?"
"ठीक है बहुत गंभीर नहीं है। तुम ठीक हो?"
"हाँ..."
मदन ने आने का कारण बताते हुए कहा,
"भाईजी को तो शायद ये लोग जल्दी ना छोड़ें। ऐसे में हमारे आंदोलन की बागडोर हमें ही संभालनी होगी। हिंद प्रभात को पुनः आरंभ करना होगा।"
"पर उसके दफ्तर को तो पुलिस ने सील कर दिया है।"
"मैंने दफ्तर के लिए दूसरी जगह देख ली है। वहाँ प्रिंटिंग की भी व्यवस्था है।"
"मैं क्या मदद कर सकती हूँ।"
वृंदा इस सब में अपनी भूमिका समझ नहीं पा रही थी।
"तुम पत्र के माध्यम से हमारी मदद कर सकती हो। पहले भी तुम लिखती थी। भाईजी तुम्हारे लेखन की बहुत प्रशंसा करते थे।"
"किंतु लिखने और अखबार चलाने में फर्क है।"
"है पर तुम अकेली नहीं होगी। भुवनदा तुम्हारी सहायता करेंगे। नई प्रेस उन्हीं की है। पहले कलकत्ता में बंगाली साप्ताहिक निकालते थे। यहाँ आकर कुछ दिन हिंदी में एक साहित्यिक पत्रिका निकालने लगे। पर स्वास्थ ठीक ना रहने के कारण बंद करनी पड़ी। अब देश के काम के लिए हमारी सहायता करने को तैयार हैं।"
वृंदा कुछ सोंच में पड़ गई। एक समाचार पत्र का दायित्व लेना आसान नहीं था।
"देखो वृंदा, माना हम लोग भाईजी की तरह काम नहीं कर सकते हैं। लेकिन उनकी अनुपस्थिति में हाथ पर हाथ धर कर भी नहीं बैठ सकते। जैसे भी हो हमारा आंदोलन चलते रहना चाहिए।"
मदन का तर्क सुन कर वृंदा मान गई। मदन ने उससे कहा कि वह परसों आकर उसे नए दफ्तर ले जाएगा। वह तैयार रहे।

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