कर्म पथ पर - 8 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 8




कर्म पथ पर
Chapter 8



वृंदा और भुवनदा हिंद प्रभात के अगले ‌अंक में छपने वाले एक लेख पर आपस में विमर्श कर रहे थे। यह लेख लखनऊ और उसके आसपास के क्षेत्रों में हो रहे क्रांतिकारी आंदोलनों के बारे में था।
लेख में बाराबंकी में रहने वाली नूरजहाँ सिद्दीकी का उल्लेख था। नूरजहाँ की उम्र बीस साल थी। उसके शौहर असगर अली सरकारी स्कूल में उर्दू के टीचर थे। पुलिस ने उन पर क्रांतिकारियों के साथ मिले होने का आरोप लगा कर जेल में डाल दिया था। वहाँ असगर अली की मौत हो गई।
नूरजहाँ के मन में पुलिस की इन ज्यादतियों के लिए गुस्सा था। उसने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ बगावत का मोर्चा संभाल लिया था। नूरजहाँ ने अपने इलाके की औरतों को एकत्र कर पुलिस स्टेशन पर धावा बोला था।
वृंदा ने नूरजहाँ की शख्सियत के और भी कई पहलुओं के बारे में पता किया था। वह नूरजहाँ पर विस्तार से एक लेख लिख कर आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को उजागर करना चाहती थी। भुवनदा से उसकी इसी विषय में चर्चा हो रही थी।
भुवनदा ने उससे कहा कि पहले वह अपना लेख लिख ले फिर वो उसके साथ उस पर चर्चा करेंगे।
उसी समय रंजन दफ्तर में आया। रंजन अखबार का पत्रकार था। वह गुस्से में लग रहा था। उसे गुस्से में देख कर भुवनदा ने प्रश्न किया,
"क्या बात है। इतने क्रोध में क्यों हो ?"
रंजन बहुत उत्तेजित था। वह गुस्से में बोला,
"ये बड़े लोग खुद को क्या समझते हैं ? यदि देश के लिए कुछ कर नहीं सकते तो कम से कम देशभक्तों का मज़ाक तो ना बनाएं।"
वृंदा ने रंजन को कभी इस तरह उत्तेजित होते नहीं देखा था। वह उठी। उसने रंजन को पानी पिलाया और बोली,
"अब शांति से बैठ कर पूरी बात बताओ।"
"वृंदा दीदी, आप उस मशहूर वकील श्यामलाल टंडन को तो आप जानती हैं ?"
"हाँ, वही श्यामलाल टंडन जिन्होंने मानस पाठक का केस लड़ा था। अब क्या किया उन्होंने ?"
"उनका बेटा एक नाटक कर रहा है। इस नाटक में क्रांतिकारियों को नासमझ भटके हुए लोगों की तरह दिखाया गया है। श्यामलाल ने इस नाटक में पैसा लगाया है। यह सब सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत को खुश करने के लिए किया जा रहा है। ताकि श्यामलाल को राय बहादुर का खिताब मिल सके।"
वृंदा ने पूँछा,
"कब होगा यह नाटक ?"
"अगले हफ्ते। विलास रंगशाला में। वहीं पर आजकल रिहर्सल हो रहे हैं।"
वृंदा कुछ देर सोंचने के बाद बोली,
"वो लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं। हम वहाँ चल कर उनसे बात करते हैं।"
भुवनदा ने साथ चलने की पेशकश की पर वृंदा ने उन्हें यह कह कर रोक दिया कि अभी तो जाकर उन्हें समझाना है। यदि नहीं माने तो सब लोग चलकर वहाँ धरना देंगे।
विलास रंगशाला शहर का प्रमुख थिएटर था। यहाँ अक्सर हिंदी व अंग्रेज़ी भाषा के नाटक मंचित होते रहते थे। विलास रंगशाला में एक रिहर्सल हॉल था। यहाँ आगामी मंचित होने वाले नाटकों के रिहर्सल होते थे।
वृंदा रंजन के साथ इस रिहर्सल हॉल में बेधड़क घुस गई। उस समय हॉल में सभी रिहर्सल में लगे थे। जय अपने संवाद बोल रहा था।
"मैं अंग्रेज़ी हुकूमत की महानता को सलाम करता हूँ। अंग्रेज़ी हुकूमत ने ही हमारे समाज को एक सभ्य समाज बनाया है। मैं कुछ लोगों के बहकावे में आकर बहक गया था। पर अब मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है।"
इंद्र और बाकी के लोगों ने तालियां बजा कर जय का उत्साह बढ़ाया। उसी समय जय की दृष्टि वृंदा पर पड़ी। उसे देखते ही जय उसे पहचान गया। इंद्र उसके इस तरह घुसे चले आने से नाराज़ होकर बोला,
"क्या बात है ? आप दोनों इस तरह अंदर कैसे आ गए ?"
"ओह तुम हो, तभी यह बेहूदा नाटक खेला जा रहा है।"
वृंदा ने इंद्र की तरफ इशारा कर कहा।
इंद्र कुछ बोलता उससे पहले ही जय मंच से नीचे आकर बोला,
"यह क्या बदतमीज़ी है। एक तो बिना अनुमति के आ गईं। ऊपर से हमारे नाटक को बेहूदा कह रही हैं।"
वृंदा भी तैश में बोली,
"इस नाटक के ज़रिए क्रांतिकारियों का अपमान करने की हिम्मत कैसे हुई आपकी।"
"कैसा अपमान ?"
इंद्र ने गुस्से से पूँछा।
रंजन ने जो जानकारी अर्जित की थी उन्हें बता दी। इसके बाद तो ज़ोरदार बहस होने लगी। वृंदा डट कर अपना पक्ष रख रही थी। इंद्र उसका जवाब दे रहा था। जय चुप खड़ा सिर्फ वृंदा को देख रहा था। उसके चेहरे के हावभाव को पढ़ रहा था। करीब बीस मिनट चली बहस के बाद वृंदा बोली,
"अगर आप लोग नहीं मानेंगे तो हम शो वाले दिन यहाँ धरना प्रदर्शन करेंगे।"
इंद्र ने भी धमकी दी,
"किसी मुगालते में ना रहें। सबको जेल भिजवा देंगे।"
"तो आप नहीं मानेंगे। हम भी डरने वाले नहीं।"
कह कर वृंदा रंजन के साथ निकल गई।
वृंदा के जाने के बाद इंद्र ने पूँछा,
"कोई बता सकता है कि कौन थी यह ?"
उनमें से एक वृंदा को जानता था। उसने वृंदा और हिंद प्रभात के बारे में सब कुछ बता दिया। अचानक इस व्यवधान के कारण किसी का भी मन आगे रिहर्सल करने का नहीं कर रहा था। अतः उस दिन रिहर्सल स्थगित कर दिया गया।

जय अपने कमरे में लेटा था। वह वृंदा की उस बहस को याद कर रहा था। कैसे वह क्रांतिकारियों का समर्थन कर रही थी।
'आप लोगों को लगता है कि क्रांतिकारी कुछ भटके हुए लोग हैं। जी नहीं, वह तो देश के गरीब कुचले हुए लोगों के लिए लड़ रहे हैं। अरे आप लोग क्या समझेंगे उन्हें। आप लोग तो अपनी ही दुनिया में मस्त हैं। किसी को कुछ समझते कहाँ हैं आप लोग।'
ऐसा कहते हुए उसने अपनी नज़रें उस पर ही जमा दी थीं। उसकी वही छब जय के मन में उतर गई थी। उसमें दूसरों के लिए पीड़ा थी। एक आत्मसम्मान की झलक थी। उस छब ने जय के मन में गहरा असर किया था। जब पहली बार वह उसे दिखी थी तब भी उसके चेहरे पर आत्माभिमान था। जय के आसपास जो लड़कियां रहती थीं वह सभी उसे खुश करने में लगी रहती थीं। किसी में भी अपनी बात को विश्वास पूर्वक कहने की हिम्मत नहीं थी। लेकिन आज वृंदा कितने आत्मविश्वास के साथ बोल रही थी।
वृंदा का चेहरा उसकी आँखों से हट ही नहीं रहा था।
'आप लोग क्या समझेंगे ? आप तो अपनी ही दुनिया में मस्त हैं।'
यह शब्द बार बार उसके कानों में गूंज रहे थे। यह सब बोलते हुए वृंदा उसे ही देख रही थी। उस समय उसके चेहरे पर जय के लिए नफरत का भाव था। लेकिन वह चाह कर भी उससे नफरत नहीं कर पा रहा था। देर रात तक वह उन बातों पर विचार करता रहा जो वृंदा ने कही थीं।
अगले दिन रिहर्सल में उसका मन नहीं लग रहा था। बार बार उसे लगता था कि यह नाटक कर वे लोग सही नहीं कर रहे हैं। इंद्र उसके इस अनमनेपन से परेशान था।
"देखो तुम उस लड़की की चिंता मत करो। ऐसी लड़कियों से निपटना मुझे आता है। तुम बस शो की तैयारी करो।"
"मैं उससे डरा नहीं हूँ। पर मन में बार बार आता है कि कहीं वह सही तो नहीं बोल रही थी। आखिर क्यों इतनी तादाद में लोग सरकार का विरोध कर रहे हैं।"
"सब बेकार की बात है। जहाँ पुलिस के डंडे पड़ते हैं सब सही हो जाते हैं।"
इंद्र के समझाने पर जय ने जैसे तैसे अपना मन रिहर्सल में लगाने की कोशिश की।