सोलहवाँ साल (14) ramgopal bhavuk द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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सोलहवाँ साल (14)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

चौदह

एक दिन मैं कॉलेज से निकली। सामने मामा के इकलौते साले साहब बाइक लिए खड़े थे । मुझे देखकर उन्होंने बाइक मेरे सामने खड़ी कर दी और बोले - ‘‘सुगंधा बैठ ले। ’’

मैंने कहा -‘‘नहीं मामा मैं चली जाऊँगी ।’’

‘‘अरे !बैठ ले घर छोड़ देता हूँ ।’’

मैं बाइक पर उनके साथ बैठ गई। उन्होंने बाइक इतनी तेज दौड़ा दी कि मेरे प्राण सूखने लगे । बोली ‘‘मामा गाड़ी धीरे चलायें , मुझे डर लगता है ।’’

‘‘अरे ! तू दूर क्यों बैठी है । अच्छी तरह मेरे से चिपक कर बैठ जाऽऽऽ।’’

मैंने कहा - ‘‘मामा आप ये क्या कह रहे हैं ?’’

यह सुनकर वह तुनककर बोला-‘‘ कैसी लड़की है। कुछ शहर आने का भी मजा ले। मेरे से अच्छी तरह चिपक कर बैठ जा।’

यह कहते हुए उसकी बाइक घर का रास्ता छोडकर राक्सी टॉकीज के सामने खडी थी। मैं उतर कर खडी हो गई। वह बोला- बस अभी चलते हैं इसमें नयी फिल्म लगी है। आओ इसके पोस्टर देख लें मैं वेवश सी उसके पीछे-पीछे चलकर टॉकीज की गैलरी में लगे पोस्टर देखने लगी। एक पोस्टर को देखकर उसने मेरे कोहनी मारी। मैं हट कर दूर खडी हो गई। गैलरी से बाहर निकल आई। वह भी मेरे पीछे पीछे बाइक के पास आ गया। मैं पैदल ही घर के लिए चल दी उसने फिर बाइक मेरे सामने अड़ा दी। बोला-‘‘नखरे मत कर चल बैठ, घर छोड देता हूँ।’’

मुझे फिर बैठना पड़ा। अब वह मुझे घर ले आया। जैसे ही मामी ने मुझे उसकी बाइक से उतरते देखा तो वे बोलीं -‘‘सुगंधा तू वरुण के चक्कर में न पड़ जाना। उसके लक्षण अच्छे नहीं हैं।’

उनकी यह बात सुनकर मैंने मामी से कहा-‘‘मामी आप चिंता नहीं करें। मैं आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगी।’’

इसी समय मामा आ गये तो मामी चाय बनाने रसोई घर में चली गईं।

मैं कॉलेज समय से पहुँच जाती। जब कक्षा में मैंडम नहीं होतीं, लड़कियाँ फिल्मों की बातें करने लगतीं। मैं उनका ऐसी बातों में साथ न देती। यह देखकर वे कहतीं -‘‘देहाती लोग फिल्मों का मजा क्या जानें ?’’

उनकी यह बात सुनकर मुझे मेरा गाँवटीपन, मन को स्थिर बनाये रखने की ताकत देता।

एक दिन की बात है। मेरे मुँह से गाँवटी शब्द सुनकर मामी बोलीं -‘‘देख सुगंधा तू मुझे बहुत अच्छी लगती है।......... किंतु तुम्हारी ये गाँव की बोली ‘‘का कद्दओ’’ अच्छी नहीं लगी। इसे सुनकर नारू भैया गाँवटी बोली बोलने लगा है।’’

मैंने मामी को समझाया-‘‘मामी मैं जान बूझकर ऐसे शब्द नहीं बोलती किन्तु मुझे बोलने में गाँव याद आ जाता है। उस वक्त ऐसे शब्द मुँह से निकल जाते हैं। आप पहले भी इस बारे में मुझ से कह चुकी हैं। अब मैं प्रयास करुंगी कि ऐसे शब्द न निकलें।’’

जब मामी यह सब बातें कह रहीं थीं नारू भैया हमारी बातें ध्यान से सुन रहा था। जब मामी वहाँ से चली गईं तो नारू भैया बोला-‘‘ दीदी आप बहुत अच्छी हैं। आप पर मैंने डाँट पड़वा दी। अब मैं भी सोच सोच कर बोला करूँगा। जिससे आप पर डाँट न पड़े।’’

मुझे यह सुन कर हँसी आ गई। मैंने उसे समझाया-‘‘भैया, मामी की बात का मैं बुरा नहीं मान रहीं हूँ। वे तो हमारे हित की बातें कह रही थीं।’’

मैं महसूस कर रही थी कि मैं यहाँ पढ़ने के लिये आई हूँ । मुझे अपना मन पढ़ने में लगाना चाहिये।

मैं प्रतिदिन सुबह पाँच बजे पढ़ने बैठ जाती। मामी अपने समय से उठतीं। वे उठते ही घर के कामों में लग जातीं। उनका हाथ बटाने, मैं किताबें रखकर पहुँच जाती। इससे मामी को मुझ पर दया आ जाती। वे कहतीं -‘‘बेटी थोड़ा और पढ़ लेतीं। ये झाड़ू पोंछा का काम तो देर सबेर हो ही जाता है। यूनिवर्सिटी की परीक्षा है। अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गईं तो हमारी भी इज्जत बढ़ेगी।’’

मैं उन्हें संतुष्ट करने के लिये कहती -‘‘मामी जी आधा घंटे में कुछ नहीं होता। सुबह का ही तो काम है। इधर मामा जी ऑफिस जाते हैं। उधर इसी समय नल आते हैं। आप भी क्या करें? नारू भैया को इसी समय स्कूल भेजना पड़ता है। सौ काम एक साथ रहते हैं। घंटे भर में दिन भर के काम, फिर फुर्सत ही फुर्सत।’’

हमारी प्रिया को ही देखो अपने मन की करती है। सुबह से शाम तक टी.व्ही. से चिपकी रहेगी। अरे! इसकी भी इस वर्ष मिडिल की पढ़ाई है।’’

‘‘मामी जी प्रिया अभी नासमझ है। जब समझ आयेगी तब देखना।’’

‘‘हाँ, देख लिया।, पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं।’’

यों बातों- बातों में काम निपट जाता।घर से के.आर.जी. कॉलेज दूर था। मामा ने गलियों में से निकल कर शॉर्टकट का रास्ता बतला दिया था। कॉलेज जाते समय मेरी गति तेज रहती। कॉलेज पहुँच कर राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में सम्मिलित हो जाती। उसके पूरे समय कॉलेज चलता रहता। समय पर छुट्टी होती। जब मैं घर आती, सभी घर लौट आते। मेरे लौटने पर ही सभी चाय लेते। इससे मुझे लगता -‘‘मामा- मामी मुझे कितना चाहते हैं।’’

हमारे इस यह महाविद्यालय की साख कन्या महाविद्यालय के रूप में देशभर में है। इसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम वर्ष भर चलते रहते हैं। इन दिनों एक कवि सम्मेलन का आयोजन विश्व में पनप रहे आतंकबाद की समस्या का हल विषय पर किया गया। सभी कवियों को ऐसी रचनाओं का पाठ करना था जिसमें आतंकबाद की समस्या का हल निहित हो। मैं कुछ तुकान्त- अतुकान्त कविताए तो लिखने लगी थी किन्तु इतनी विकराल समस्या का हल बड़े-बड़े विश्व स्तर के राजनीतिज्ञ नहीं खोज सके। क्या हल हो सकता है इस समस्या का? मेरे सोच में बात रहने लगी। मैंने भी इस विषय पर एक कविता लिख डाली। इतने बड़े मंच पर कवि सम्मेलन में उसका पाठ करने के लिए आयोजकों को अपना नाम लिखा दिया।

यथा समय कवि सम्मेलन शुरू हो गया। मुझे भी कविता पाठ के लिए बुलाया गया। मैं धड़कते दिल से माइक पर पहुँच गई। शरारती लड़कियों की आवाज मेरे कानों में सुनाई पड़ी-‘क्यों हमरा समय वर्वाद कर रही हो, लौट आओ। मेरा मन काँप तो गया पर मैंने डायरी का पन्ना खोला और कविता पाठ करने लगी- मेरी कविता का शीर्षक है- ‘भैया तुम लौट चलो’

माँ का कट रहा है सिर

फड़फड़ा रहे हैं चरण।

कुछ बेटों को असकुछ बेटों को असह्य पीड़ा है,

....और कुछ माँ को काटने बाँटने पर तुले हैं।

माँ को पीड़ित करने बालों का,

इतिहास साक्षी र्है।

पतन ही हुआ है,

पतन ही होगा।।

माँ की करुण आवाज,

सुन सको तो सुनो।

लेकिन तुम तो बहरे हो गये हो।

तुम्हारी सारी संवेदनायें लुप्त हो गई हैं।।

तुम माँ का,

बहुत बहा चुके रक्त।

धर्म को धर्म तो रहने दो।

तुम्हारा वह धर्म कैसा है?

जो बाँटता है, काटता है।

माना तुम्हें अपने आप पर

अगाध विश्वास है

पर तुम जो हो-

वह यहाँ कौन नहीं है।

भगत सिंह,चन्द्रशेखर, सुभाष...

सभी ने वतन के लिए

शहीद होने के सपने संजो रखे है।

अब तुम और बढ़े तो ये वतन

तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।

माना तुम लोगों के बहकावे में आगये।

इसीलिए शायद

प्रथकताबादी नारे लगा गये।

तुम हमारी मनुहार भरी भाषा का

अपमान मत करो।

भैया तुम लौट चलो

प्रेम से साथ-साथ रहेंगे।

तलियों की गड़गड़ाहट के साथ मेरा काव्यपाठ समाप्त हुआ। मैं पूरे आत्म विश्वास से लवरेज मंच से नीचे उतर आई। कार्यक्रम के बाद सभी मेरी कविती की प्रशंसा कर रहे थे। इस एक घटना से कवि के रूप में मेरी सारे कॉलेज में पहचान बन गई। घर आकर मैंने यही कविता मामा-मामी को भी सुनाई थी। उन्होंने मेरी भूरि-भूरि प्रशंस की थी।

रविवार के दिन छुट्टी रहती। घर में सभी देर से सो कर उठते। मैं जल्दी उठकर नल में लेजम लगा देती और पढ़ने बैठ जाती। इससे प्रिया और नारू भैया भी पढ़ने बैठने लगे।

मम्मी यह अर्धाली मुहावरे की तरह कहती रहती हैं -‘‘करत करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान।’’ यह बात याद करके मैं पढ़ने बैठ जाती।

कक्षा की छात्रायें एक दूसरे से अधिक अंक लाने के लिये प्रयासरत दिखती थीं। मैंने अध्ययन के बारे में सोना खत्री से पूछा-‘‘कहो तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है ?’’

वह बोली -‘‘कहाँ यार ? पढ़ने में मन ही नहीं लगता।’’

मुझे मजाक सूझा -‘‘तो मन किस बात में लगता है ?’’

वह बोली -‘‘यार आर्टस की पढ़ाई से हम क्या बन जायेंगी ? ब्याह के तो चौके-चूल्हा का काम ही देखना है।’’

मैंने उसे समझाया -‘‘तो तुम सोचती हो जल्दी से चौका-चूल्हा गले से बंध जाये तो इस पढ़ाई का चक्कर छूटे।’’

वन्दना हमारी बातें सुन रही थी। वह बोली -‘‘सोना तू दिन-रात पढ़ने में लगी रहती है। कभी कहती है इतिहास की प्रोफेसर बनूगीं। और आज सुगंधा से उल्टी ही बातें कर रही है।’’

उसकी इस बात से मैं समझ गई कि यह नहीं चाहती कि मैं पढ़ने लिखने में रुचि लेकर उसकी प्रतिद्वन्दी बनूँ।

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