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सोलहवाँ साल (5)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707 Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग पाँच

मुझे अन्जू की बातें विश्वसनीय लगी। बात बदलने के लिए मैंने उससे सहज में ही पूछा -‘‘तुझे दमयन्ती कैसी लगती है ?’’

‘‘री, वह जिस थाली में खाती है उसी में छेद कर देती है! ’’

मैंने उसकी बात का प्रतिरोध किया-‘‘ऐसी नहीं है वह ?’’

‘‘ क्यों नहीं है ऐसी वह ? मैं उडती चिड़िया को पहचानती हूँ। उसने तो तेरे पापा को ही ................। सारे गाँव में यही चर्चा है।’’

मैंने उसे रोका -‘अरे हट ! मेरे घर की बातें मुझे पता नहीं है । तुझे मेरे सामने मेरे पापा के बारे में ऐसी बात करने में शर्म नहीं आती ।’’

‘‘ओ ऽऽ हो ऽऽतू तो ऐसे बन रही है जैसे छोटी सी मुनिया हो। अरे ! तू भी ब्याह लायक हो चली ।’’

‘‘आज तू भी ये कैसी बातें लेकर बैठ गयी ?’’

मेरी बात पर वह बोली - ‘चल तू कहती है तो बात को यहीं रहने देती हूँ ।’’

यह कह कर वह चुप हो गयी थी। मैं मम्मी की डाँट का बहाना लेकर घर चली आई थी ।

एक दिन की बात है पापा जी दरवाजे के बाहर चबूतरे पर बैठे थे । मैं दरवाजे में साँयकालीन झाडू लगा रही थी । गाँव का अधेड उम्र का डबुआ काछी हमारे घर आया। जैसे ही वह पापा जी के समक्ष आया वे उसे देखते ही व्यंग्य करने लगे -‘‘क्यों रे ड़बुआ, आज यहाँ क्या लेने आया है ?’’

उसने इनकी इस बात का रिरियाते हुए उत्तर दिया-‘‘पण्डित जी जब मजबूर हो जाता हूँ तभी आपके पास आता हूँ । आपके अन्दर दयाभाव है इसलिए....?’’

पापा उसकी बात अनसुनी करते हुए बोले-‘‘यार डबुआ, तूने इतनी पल्टन क्यों खड़ी कर ली है कि सँभाले नहीं सँभल रही है ।’’

वह बोला-‘‘ इसमें मैं क्या करूँ ? सब राम जी के देन है । ये भी अपने भाग में कुछ लिखा कर लाये होंगे ।’’

पापा जी उसकी ये बातें सुनकर मुस्कराते हुए व्यंग्य में बोले-‘‘हाँ ऽऽ लिखाकर ही लाये हैं। बस दो चार बरस की देरी है फिर तो तेरे पाँचों लड़के मजदूरी करने निकला करेंगे। तेरा घर भर जायेगा।............. और तू बैठा बैठा उन पर हुक्म चलाया करना।’’ म

‘‘ हमारे भाग्य ऐसे कहाँ रखे ! अभी तो ये पल ही जायें, यही राम जी की बड़ी कृपा होगी । आज के लिए ही घर में अनाज नहीं है ।’’

‘‘ रे तू देगा कहाँ से ? तेरी सब जमीन कर्जे में बिक गई । अब तो तेरे पास कुछ बेचने के लिये भी नहीं बचा है ।’’

वह बोला -‘‘ घर तो बचा है ।’’

‘‘ क्यों रे तू घर बेचकर अपने फौज- फाँटे को कहाँ ले जाऐगा । मैं तुझे कितनी बार समझा चुका हूँ कि तू अपना ओपरेशन करा ले ।’’

‘‘पण्डित जी ओपरेशन से आदमी खसिया हो जातो ।’’

यह सुनकर पापा जी उससे तुनक कर बाले-‘‘सारा संसार मूर्ख है। जाने किसने तेरे दिमाग में भुस भर दिया हैं ? मैंने ओपरेशन करा लिया, मुझे तो कोई परेशानी नहीं है।’’

दरवाजे में झाडू लगाने का मेरा काम निपट गया था। पापा के आपरेशन बाली बात सुनते हुए मैं वहाँ से चली आई।

याद आ रही है उन दिनों की जब मैं कक्षा सात में पढ़ती थी। अंजना गत वर्ष मिडिल में अनुतीर्ण हो गई तो उसका पढ़ना ही छूट गया। वह घर के काम काज में लग गई ।

मैं शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह प्रतिदिन नयी नयी आभा लिए बढ़ती जा रही थी। कक्षा में साथ पढ़ने बाले लड़के मेरे इर्द गिर्द मडराने लगे। मेरे साथ कक्षा में सुमन पढ़ती थी, सभी उसे सुम्मी कहते। जब कक्षा में शिक्षक न होते तो लडके ऐसी- ऐसी बातें करते कि हमें हँसी आ जाए। जब में उनकी बात सुनकर हँस पड़ती तो सुम्मी मेरे कान से अपना मुँह लगा कर कहती- ‘‘हँसी सो फँसी ’’

मैं उसकी इस बात का उत्तर हँस कर टाल देती। ............ किन्तु मैं उसकी बात गम्भीरता से लेती- लड़कियों को बात-बात पर हँसना नहीं चाहिए । इस बात का लोग जाने क्या क्या अर्थ लगाने लगते हैं !

मैं विद्यालय के लिए जाती तो घर से यह निश्चय करके निकलती कि आज चाहे जैसा प्रसंग समाने आये, मैं बिल्कुल नही हसूँगी ।

............... किन्तु खाद पानी पाकर सुसुप्त पड़ा स्थायी भाव पनप ही जाता और हँसी आ जाती । उसी समय घर से लेकर चली प्रतिज्ञा याद आ जाती। यह सोचकर तो मैं गंम्भीर हो जाती।

स्कूल खुलते ही गाँव के शिक्षक गोविन्द सर का स्थानान्तरण हमारे विद्यालय में हो गया है। उन्हीं के बारे में सोचते हुए मैं विद्यालय पहुँच गई। यथा समय प्रार्थना के साथ विद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई । प्रथम चक्र के गोविन्द सर ने कक्षा में प्रवेश किया। हमने खड़े होकर उनका स्वागत किया। शिक्षक की कुर्सी पर बैठते हुए वे बोले - ‘‘ संयोग से कुछ वर्ष पहले आप लोगों की तरह मैं भी इस विद्यालय का छात्र रहा हूँ। आज इसी संस्था की सेवा करने का मुझे अवसर मिला है ।

आप सब मुझसे परिचित हैं। मुझे आप लोगों को गणित विषय पढ़ाना है। यह विषय आम तौर पर कठिन लगता है । मैं इसे खेल की तरह आप लोगों के लिए आसान बना देना चाहता हूँ । यह कह कर वे पढ़ाने के लिए श्याम पट पर पहुँच गए। बोले ‘नौ के पहाडे के सभी अंकों का जोड नौ ही है । इस तरह छोटी-छोटी बातों से हमारा ध्यान खेल की तरह गणित की ओर लगाने लगे।’

फिर वे जोड-बाकी-गुणा-भाग में होने बाली छोटी-छोटी गल्तियों की ओर आकृष्ट किया जिससे गल्तियों की पुनरावृति न हो।

कुछ दिनों में मेरा मन गणित पढ़ने में लगने लगा। इन दिनों मैंने गणित की किताब उठा ली थी । जो सबाल समझ में आ गए थे उन्हें एक बार और लगाकर देखने लगी। जब उनसे मन भर गया तब हिन्दी की किताब उठा ली। हरिशंकर परसाई का लेख ‘निन्दा रस’ पढ़ डाला। जब उससे भी मन हटा तो इतिहास के पन्ने पलटने लगी।

घर में इतना काम रहता है कि मम्मी सुबह से शाम तक किसी न किसी काम में लगी रहती हैं। यह सोचकर मुझे लगा- मम्मी पढ़ने लिखने की वज़ह से हमसे किसी काम की नहीं कहतीं। वे न कहें जब हमें समय हो, हम ही उन्हें मदद करें। यह सोचकर मैं मम्मी के पास पहुँच गयी और बोली-‘‘मम्मी मैं क्या काम करूँ? आप कहें तो मैं ऊपर बाली मंजिल में लगा लाती हूँ ।’’

यह सुनकर वे अनमने भाव से बोली-‘‘तुझे पढ़ने लिखने से फुरसत हो तो लगा ला।’’

मैं ऊपर की मन्जिल में झाडू लगाने चली गयी । इन दिनों पढ़ने लिखने में मेरा मन खूब लगने लगा था । विद्यालय जाती, जब कक्षा में शिक्षक न होते तो मैं अपनी किताब खोल लेती, कुछ पढती रहती या किसी विषय का कोई गृह कार्य पिछड़ा रहता तो उसे पूरा करने में लग जाती ।

एक दिन की बात है मैं कक्षा में हिन्दी की किताबों में से पाठ के पीछे जो प्रश्न दिए रहते हैं, उनके उत्तर उसमें से छाँटने का प्रयास कर रही थी ।

गोविन्द सर कक्षा में आये, उनके आते ही सारी कक्षा खड़ी हो गयी। आहट पाकर मैंने किताब छोड़ दी और खड़ी हो गयी। वे कक्षा में आते ही क्रोधित होते हुए बोले -‘‘सुगंधा का नाम श्याम-पट पर किसने लिखा है ?’’

मैंने देखा मेरा नाम श्याम-पट पर! सर का प्रश्न सुन कर सम्पूर्ण कक्षा निरुत्तर! अब सर मेरे सामने आकर खडे हो गए और बोले-‘‘सुगंधा तुम्ही बताओ तुम्हारा नाम श्याम-पट पर किसने लिखा है ?’’

प्रश्न सुनकर मेरी अक्ल गुम हो गयी। मैंने किसी को अपना नाम लिखते नहीं देखा था । मुझे कहना पड़ा- ‘‘सर मैं अपनी हिन्दी की पुस्तक के कहानी बाले पाठ में जो प्रश्न दिए हैं उन्हें छाँट रही थी। मैं देख ही नहीं पायी किस ने श्याम-पट पर मेरा नाम लिखा है ?’’

मेरे कथन को सर ने असत्य माना। मेरी हिन्दी की किताब अपने हाथ में लेते हुए बोले- ‘‘अभी परीक्षाऐं दूर हैं तुम इतनी पढ़ने बाली कब से हो गयीं, आश्चर्य है!’’

यह कहते हुए उन्होंने किताब के पन्ने पलटकर वे चिन्ह देख लिए जो मैंने अभी-अभी लगाए थे । इसके बावजूद उन्हें मेरी इस बात पर विश्वास नहीं हुआ तो बोले-‘‘तुम इतनी पढ़ने बाली कब से हो गयी ? यदि ऐसी बात है तब तो बहुत ही अच्छी बात है ।’’

मैंने असत्य के पंख काटने के लिए अपना अंतिम अस्त्र चलाया-‘‘ सर मैं शपथपूर्वक कहती हूँ मैंने किसी को भी श्याम-पट पर अपना नाम लिखते नहीं देखा।’’

यह सुनकर वे कुछ शान्त हुए किन्तु उन्होंने भी अपना अंतिम अस्त्र चलाया-‘‘बेटी डर मत मैं तेरे साथ हूँ ।

यह कह कर वे मुझे लाड़ में पुचकारते हुए बोले-‘‘कह कह डर क्यों रही है ? ’’

मैंने उन्हें अपने निडर होने का सबूत दिया,-‘‘मैं और डर जाऊं ऐसा हो ही नही सकता, सर मैं पुनः शपथपूर्वक कहती हूँ मैं किसी से नहीं डरती।’’

यह सुनकर वे चुप रह गए थे। मैंने कक्षा के छात्रों की आँखों में झाँक कर देखा, मुझे लगा- वे सोच रहे हैं मैंने जानबूझकर नाम छिपाया है। एक एक करके सभी छात्र मेरे मन के कटघरे में उपस्थिति दर्ज कराने लगे। संन्देह के प्रांगण में सभी निर्दोष सिद्ध होते चले गए। इस तरह मैं किसी पर संन्देह प्रकट नहीं कर सकी ।

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