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सोलहवाँ साल (11)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग ग्यारह

दूसरे दिन यथा समय मैं बिना किताबों के घर से निकली। पूर्व निश्चित स्थान पर सुनंदा प्रतिक्षा करते मिली। कुछ ही क्षणों में सभी सहेलियाँ आ गईं। टिकिट की लंबी पंक्ति देख कर मन कचपचाया। किंतु सुनंदा ने टिकिट के पैसे इकट्ठे कर लिये और टिकिट की लाईन में लग गई। अंततः बड़ी मशक्कत के सुनंदा टिकिट ले आई।

फिल्म चलने लगी, किन्तु मेरा चित्त चोरी से फिल्म देखने के लिए पश्चाताप करने लगा। सेाचने लगी- कोई परिचित न मिल जाये जो घर जाकर चुगली करदे। इधर फिल्म मन को अपनी ओर खींचने लगी- जय- विजय चोरी के प्रकरण में जेल से रिहा होते हैं। बसन्ती ताँगे बाली उन्हें ठाकुर साहब के पास ले जाती है। ठाकुर उनके द्वारा डाँकू गब्बर सिंह को मरवाना चाहता हैं। जब ठाकुर इन्हें इस काम के लिए अपने पास रखता है तो इनकी परीक्षा लेने इन्हें गुण्डों से पिटवाता है। वह यह देखना चाहता है कि ये कितने बहादुर हैं। जब ये उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं तो वह इन्हें रख लेता है। गब्बर सिंह ने ठाकुर के पूरे परिवार को मार डाला हैं। ठाकुर के हाथ काट दिए हैं। गाँव के लोग इनका साथ देते हैं। फिल्म में उस समय अच्छा आनन्द आता है जब विजय शराब पीकर बसन्ती से ब्याह करने के लिए पानी की टंकी के ऊपर चढ़कर आत्महत्या करने का नाटक करता है ।

इसी समय मोहन पर मेरी नजर पड़ गई। वह हमसे कुछ आगे सीट पर बैठा फिल्म देख रहा था। उसे देखकर मुझे लगा- हाय राम ! यह क्या हो गया ? यह तो पूरा चुगल खोर है। यह बात वह अंजना से जरूर कहेगा। और अंजना के पेट में तो कोई भी बात पचती नहीं। वह हमारे घर जाकर मम्मी से कह आयेगी। सोचा- शायद मोहन ने मुझे न देख पाया हो। मैं लू से बचने के लिए जिस तरह दुपट्टा लपेट लेती थी, उसी तरह दुपट्टा लपेटकर मैंने अपना मुह ढ़क लिया। जिससे पहचानी न जाऊँ। अब चित्त फिल्म देखने में न लग रहा था। मम्मी के द्वारा कही हुई कहावत याद हो आई - हलुआ मिले न माँडे । दोऊ दीन से गए पाँडे ।

यह सोचकर तो फिल्म देखने में मन लगाने का प्रयास करने लगी - पिताजी से चम्बल क्षेत्र के डाकुओं की अनेकों कहानियाँ सुनी हैं। उसी का मिलता जुलता रूप इस फिल्म में देखने को मिल रहा था ।

इसी क्रम में मध्यान्तर हो गया। मोहन ने मुझे देख लिया होगा। मध्यान्तर होते ही वह मेरे पास आ गया। बोला -‘‘ कहो सुगंधा कैसी हो ? बहुत दिनों दिख रही हेा। फिल्म देखने तुम्हारी पक्की सहेली सुमन नहीं आई।’’

मुझे कहना पड़ा -‘‘नहीं, उसे घर में काम था। मैं अपने स्कूल की दूसरी सहेलियों के साथ आईहूँ।’’

उसकी बातें सुनकर सुनन्दा बोली- ‘‘सुगंधा चुपके-चुपके क्या बातें कर रही हो ? अरे ! जो करो डन्के की चोट करो। क्या कोई पुरानी पहचान है ?’’

मैं चेहरा बनाते हुए बोली -‘‘ हाँ, पुरानी पहचान हैं। हम बचपन में साथ साथ खेले हैं। इसने मुझसे एक बार राखी बधाई है।’’

यह कहकर मैंने अपने आप से कहा- ‘‘झूँठी कहीं की, राखी की बात तो तूने कह दी- और फेरों की बात कहाँ छिपा गई ? बड़ी सच्चधारी बनती है इन सब में। अब कह दे ना कि खेल-खेल में इसके साथ मेरे फेरे .......।‘‘

मुझे सोचते हुए देखकर सुनन्दा बोली -‘‘ री, क्या सोचने लगी ? ‘‘

यह सुनकर मैंने अपने ऊपर जमी घूल झाड़ने का अभिनय, शरीर को कपाकर किया और सचेत होते हुये बोली -‘‘मोहन भइया , मेरी इन सहेलियों को समझाओ ना।‘‘

उसने भी राखी बाली बात दबातें हुये कहा-‘‘ हम बचपन में साथ-साथ खेले हैं। हमारे परिवारों में घरोवा था ।’’

नीरू ने प्रस्ताव रखा -‘‘तब तो मोहन भैया, हम सबको कुछ खिलाओ पिलाओ । हम सब आपकी प्यारी बहन की पक्की सहेलियाँ हैं ।’’

इस मुद्दे पर मोहन अपनी जेब टटोलने लगा। मैंने देखा मोहन धर्मसंकट में फँस गया है । क्या पता जेब में पैसे भी है या नहीं ? फिर इसका खर्च करने का अहसान लेना उचित नहीं है । यह सोचकर मैंने मोहन को विदा करना चाहा -‘‘अच्छा भैया आप फिल्म देख लें, शुरू होने बाली है । ’’

यह सुनकर वह वहाँ से चला गया ।

फिल्म पुनः अपनी ओर आकर्षित करने लगी, लेकिन बार-बार मोहन गब्बर सिंह बनकर सामने आता रहा ।

फिल्म समाप्त होगयी । हम सब टॉकीज से निकले। मैंने सुनन्दा से डरते-डरते पूछा - ‘‘इस बात का पता चल गया तो ................।’’

वह बोली, ‘‘ थोडी सी डाँट सहना पडेगी, लम्बे चौड़े उपदेश सुनना पड़ेंगे- लडकियां घर की इज्जत होती हैं उन्हें सँभल कर चलना चाहिए वगैरह वगैरह।’’

बन्टी बीच में ही बोल पड़ी-‘‘ यार मेरी मम्मी बड़ी गुस्सैल हैं । बे जब गुस्से में आती हैं । मारने-पीटने पर उतारू हो जाती हैं दो चार थप्पड़ रसीद कर देती हैं ।’’

नीरू ने मेरी नानी के स्वभाव का वर्णन किया-‘‘यार सुगंधा तुम्हारी नानी बडी खराब है, ऐसे घूरती हैं जैसे खा ही जायेगी । उन्हें सभी के चरित्र पर शंका होती है ।’’

मुझे उसकी बात का बुरा लगा-‘‘ उनके अपने अनुभव हैं। वे कहती तो हमारे भले की ही हैं।’’

सुनन्दा ने अपने मन की बात कही-‘‘अब इन बातों में न उलझें। हमें शीघ्र अपने घर पहुँचना चाहिए। मेरी दादी तो बात बात में उपदेश देती रहती हैं-‘‘ लड़कियों को सोच समझकर चलना चाहिये।‘‘ मैंने कहा-‘‘वे ठीक ही कहती हैं बोल, हमें सोच समझकर चलना चाहिए कि नहीं।’’

‘‘यार, हमें चलना तो चाहिए। इन वृद्ध लोगों का ड़र हमें बाँधकर रखता है।

मैंने सभी से कहा -‘‘फिर हमें यह फिल्म देखने नहीं आना चाहिए था।’’

इन्हीं विचारों में डूबी हुई मैं घर पहुँची ।

नानी मकान मालिक के यहाँ बैठने गयी थी। यह जानकर मैंने राहत की साँस ली। मैं सीधी रसोई घर में पहुँची, देखा। शाम का खाना नहीं बना है मैंने स्टोव जलाया। तूअर की दाल चढ़ा दी और कनस्तर से परात में आटा निकाल कर माँडने लगी। इसी समय नानी के आने की आहट मिली। वे सीधे रसोईघर में आ गयीं। वे आते ही मुझे खाना बनाते हुए देख कर, धीमी आवाज में बोलीं -‘‘री, बता आज बिना किताबों के कौन से कॅालेज गयी थी ?’’

उनकी बात सुनकर सच कहने का साहस बटोरने लगी, किन्तु साहस न हुआ तो झूठ बोली-‘‘ मैं कह कर गयी थी कि आज कॉलेज में सांस्कृतिक कार्यक्रम है ।’’

मुझे याद आया मम्मी कहावत कहती रहती हैं कि एक झूठ छिपाने के लिए सौ झूठ बोलना पड़ते हैं, फिर भी सच कहने का साहस न हुआ तो मैं बोली -‘‘ नानी, ऽऽऽ तुम तो मुझ पर व्यर्थ ही शंका करती हो।

नानी को मेरी बात ठीक लगी होगी इसीलिए बोली -‘मेरे पेट में अफरा सा चढ़ा है। खाना ही नहीं पचा, इसीलिए आज खाना नहीं बना पाई। आज मैं नहाई भी नहीं। आज दियाबत्ती के समय अपने मन्दिर में तुम ही अगरबत्ती लगा देना, समझी। ’

मैंने संक्षेप में उत्तर दिया-‘जी।’

सुमन चुपचाप लम्बे समय तक यह कहानी सुनती रही। जब मेरे कहने की इति हुई तो वह बोली-‘सुगन्धा तुमने तो गाँव की लोक साँस्कृतिक विरासत को स्वादिष्ट भोजन की तरह इतने प्यार से परोसा है कि लग रहा है अभी और सुनती जाऊँ। मन तृप्त ही नहीं हो रहा है। सुगन्धा सच में तुम गाँव की लोक संस्कृति में पूरी तरह रची- पची हो।’

‘री तूं ऐसा कह कर मेरा हौसला बढ़ा रही है।’

एक दिन मम्मी और पापा संजू भैया को लेकर डबरा आये। मम्मी नानी के सामने पहुँचते ही बोलीं -‘‘माँ, बहुत दिन हो गये फिल्म नहीं देखी।’’

उनकी फिल्म बाली बात सुनकर मेरा माथा ठनका- कहीं मोहन ने अंजना से उस दिन की बात तो नहीं कह दी। अंजना की जीभ जरा पतली है। जाकर मेरी मम्मी से कह आयी होगी। पापा तो कभी-कभी फिल्में देख लेते हैं। मम्मी को यह क्या सूझी ?जो फिल्म देखने का प्रोग्राम बना डाला।’

मुझे सोचते देखकर मम्मी बोलीं-‘‘तुम जल्दी तैयार हो जाओ। पहुँचने में फिल्म शुरू हो जावेगी। जरा जल्दी करो।’’

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