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सोलहवाँ साल (3)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग तीन-

इन दिनों मैं पूरी तरह खिलाड़ी बन गई थी। जब देखो तब खेलने की धुन सवार रहने लगी। रात बिस्तर पर लेटती तो खेल के विषय में सोचते सोचते सो जाती। संजू भैया भी खेलने में सम्मिलित होते। मम्मी को मेरा इतना खिलाड़ी होना पसन्द नहीं आ रहा था । इसी कारण वे मारपीट कर मुझको पढ़ने बैठा लेतीं। उस समय मुझे लगता- मम्मी हमारे खेल में बाधक बन रही है । राम करे मम्मी मर जायें फिर मुझे खेलने से कोई रोकने बाला न रहेगा। तब मैं खूब खेला करूँगी ।

आज अपने उस मूर्खता पूर्ण सोच पर विचार करती हूँ-खेल के लिए मम्मी के मरने की बात सोचना, कितना धिनोना था वह सोच? ऐसी ही बातें मुझे यह कहानी कहने को विवश कर रही हैं ।

उन दिनों पिटाई के डर से हम मम्मी से छिपकर खेलने लगे, किन्तु मम्मी हमें खोज ही लेतीं। उस समय मेरी और दीदी की अच्छी खासी मरम्मत बना दी जाती। उस समय मैं पिटाई से छुटकारा पाने के उपाय खोजने लगी । स्कूल से आकर मम्मी के आसपास मड़राना शुरू कर देती और उन्हें पूछती-‘‘ मम्मी ऽ ऽ मैं खेल आऊँ ’’ मम्मी एक दो बार मना करतीं, जब तीसरी या चौथी वार उनसे यही पूछती तो वे चिल्ला कर कहतीं-‘‘ जा ....... चली ......जा लेकिन जल्दी आना ।’’

यह सुनकर में खेलने चली जाती ।

मुझे खेलते समय बन्धन में बंधना खलता था।......... और जब मम्मी खेलने से टेरतीं, मैं तभी उनके पास जाती।

कभी पत्थर की कंकडियों का खेल खेलते। कभी दुका छिपी का खेल। खेलते समय हमें यह ध्यान रखना पड़ता, कहीं हमारे खेल पर पापा मम्मी की नजर न पड़ जाय ।

हमारे घर के सामने हमारे पशुओं के लिए पशुशाला बनी है। हमारे घर के लोग उसे नोहरा कहते हैं । रात में उसमें पशु बंधते हैं और दिन में वह खाली पड़ा रहता है । विद्यालय से लौटने के खाना खा-पीकर हम लोग उसमें पहुँच जाते।

एक दिन की बात है, शनिवार का दिन था । बालसभा के नाम पर विद्यालय की जल्दी छुट्टी हो गई। मैं घर लौट आई। मोहन भी उसी समय हमारे घर आ गया। संजू भैया भी हमारे साथ थे। खेलने की धुन सवार हो गई।

पड़ोस में एक दमयन्ती नाम की लड़की रहती थी। वह युवा हो रही थी। उसकी माँ भी उसी गाँव की थी जिस गाँव की मेरी मम्मी। इसी रिश्ते से मैं दमयन्ती को मौसी कहती थी। हमें खेलते देखकर उसका भी बचपन लौट आया। वह भी हमारे खेल में सम्मिलित हो गयी। उसने आते ही तय किया कि क्या खेल खेला जाये ?

दमयन्ती लड़के बाली बन गई। मोहन दूल्हा बन गया और मैं दुल्हन। मैं चोरी छिपे मम्मी की पुरानी साडी उठा लाई। दमयन्ती ने मुझे सजाने के लिए साड़ी पहनाई। दुल्हे के पत्तों का मुकट बाँधा। दमयन्ती जानती थी शादी में अग्नि की परिक्रमा की जाती है इसीलिये आग जला दी गई।

दमयन्ती लड़का बाली होने की शान दिखा रही थी। मोहन दूल्हा बन, शान में तना बैठा था। मैं भी दुल्हन बनने का पूरा आनन्द ले रही थी।

हमारे खेल में पण्डित की कमी थी। यह काम दमयन्ती ने सँभाल लिया । विवाह का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। हम सब खेल में इतने तन्मय हो गये कि हमें गोविन्द के आने का पता ही नहीं चला। जब गाँठ बाँध कर फेरे पढ़ने को हुए, जाने किस वजह से हमारी निगाह इधर उधर गई। गोविन्द को देखकर हम सिटपिटा गये। वह समझ गया, उसके आने से हमारे खेल में व्यवधान हो गया हैं। यह समझते हुये भी वह बोला-‘‘ मैं तुम्हारे पापा जी से मिलने आया था। वे घर में नहीं हैं क्या? इधर तुम सब की बातचीत सुनाई दी तो मैंने सोचा कहीं वे इधर तो नहीं हैं, इसलिए मैं यहाँ चला आया। तुम्हारे पापा कहाँ हैं ?’’

उसका प्रश्न सुनकर मैं उसके पास पहुंच गई। मैं बाल सुलभ गुस्से में उसे डाँटते हुए बोली- ‘‘हमें क्या पता वो कहाँ हैं ? किन्तु ऽ ऽ वे यहाँ नहीं हैं।’’

वह दमयन्ती की ओर मुड़ते हुए बोला -‘‘दमयन्ती तू तो सयानी लड़की है । इतना भी नहीं जानती कि क्या ऐसे खेल भी खेले जाते हैं ?’’

दमयन्ती आँखे नीचे किये बोली-‘‘मैं तो अभी आई हूँ , ये लोग तो पहले से ही यहाँ खेल रहे थे।’’

दमयन्ती की बात सुनकर मुझे लगा- कहीं कुछ गलत हो रहा है, इसीलिए दमयन्ती आँखें नीची करके झूठ बोल रही है, किन्तु खेल में व्यवधान पड़ना मुझे बहुत खल रहा था। मैंने गोविन्द को वहाँ से हटाना चाहा, इसलिये उसके पास जाकर बोली-‘‘तुमने हमारा खेल खराब कर दिया। जाओ यहाँ से, हमें खेलने दो।’’

मेरी भोली- भाली बातें सुनकर वह बोला‘‘दमयन्ती तुम यह खेल खिला रही हो।’’

तत्क्षण मैंने उसके स्वर में स्वर मिलाया-‘‘हाँ ऽ ऽ हमें दमयन्ती मौसी ही यह खेल खिला रही है ।’’

उसने धुँआ देती आग को देखकर कहा-‘‘खेल ही खेल में यह क्या हो गया होता ? कहते है नारी के दो बार फेरे नहीं पड़ते। अब विवाह होगा तो कोन बतायेगा कि, कौन से सच्चे है कौन से झूठ ?’’

ऐसी ही कुछ बातें कहते हुए वह वहाँ से चला गया। मैंने वह साड़ी उतार ड़ाली। गोविन्द की वह बात आज भी मेरे कानों में गूँजती रहती है। काश! उस दिन समय से पूर्व गोविन्द न आया होता तो क्या मैं मोहन की पत्नी होती या फिर किसी भी सामाजिक सिद्धान्त के प्रति आस्था न रहती।

कुछ ही दिनों मेरे पापा से रतन सिंह काका की खटपट हो गई। कल तक दोनों में दाँत काटी रोटी थी। आज मतभेद हो गया तो सब कुछ दूर दूर हो गया। उनका हमारे घर आना बन्द हो गया। ..... किन्तु मोहन हमारे घर आता रहा। पापा मम्मी की उससे नजर बदल गई । एक दिन पापा जी ने मुझे को बुलाकर समझाया -‘‘मोहन के साथ मत खेला कर ।’’

पापा की यह बात सुनकर मेरे मन में एक साथ कई प्रश्न आकर खडे हो गये । मैंने सभी प्रश्नों का एक प्रश्न किया-‘‘ क्यों ?’’

वे मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले-‘‘ बेटी ये लोग अपनी बराबरी के नहीं हैं।‘‘

उनकी कही हुई बात आज भी मेरा पीछा कर रही हैं। वैचारिक दूरी बढ़ंी कि सब कुछ जातियों के घेरे में बदल गया। आज देश की राजनीति जातिबाद के दल-दल में आकर फँस गई है। विधायक और सांसद जातियों के आधार पर चुने जाने लेगे हैं । देश इस दल-दल से कैसे निकले ?

आज अभी यही सोच कर मन बेचैन है ।

क्वाँर का महिना आ गया। मौसम की विषमता और मच्छरों के प्रकोप अच्छे-अच्छे बीमार पड़ने लगे। मैं भी बीमार पड़ गई। पापा जी ने मेरा बुखार उतारने के गाँव के सारे नीम- हकीम डॉक्टरों से इलाज करा लिया। तब कहीं शहर ले जाकर किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने का विचार किया। मम्मी ने अपना निर्णय सुनाया-वयोवृद्ध डॉ0केतकर जी से इसका इलाज कराना ठीक रहेगा।’

पापा जी मुझे उन्हीं के यहाँ ले गये। वहाँ मरीजों की बहुत भीड़ थी। वे मरीजों को देखने में व्यस्त थे। क्रम से मरीजों को देख रहे थे। उनके काम में उन्हें गच्चा देना खेल नहीं था। एक मरीज ने उन्हें दिखाने की जल्दी की और उनकी टेविल पर जाकर लेट गया। क्रम तोड़ना उन्हें पसन्द नहीं था। वे उसे डाँटते हुए बोले-‘क्या बात है? घर की बड़ी जल्दी है। क्या गौना कराके लाये हो?’

उस मरीज ने उत्तर दिया-‘गौने को तो चार साल हो गये।’

‘तो किसी से जल्दी आने का वादा करके आये होगे!’

‘नहीं, डाक्टर साब।’

‘तो जल्दी क्यों पड़ी है।’

यह कह कर वे उसके सीने से आला लगाते हुये बोले-‘तुम्हें गुस्सा बहुत अधिक आता है।’

‘जी, डाक्टर साब।’

‘देख, गुस्सा तो सभी को आता है। इस पर धीरे-धीरे अभ्यास से काबू करना पड़ता है। इसी में आदमी की भलाई है।’

मैं समझ गई गुस्से में आदमी गच्चा खा जाता है।

अब डॉक्टर साब किसी दूसरे मरीज के सीने से आला लगाते हुये बोले-‘ रे तू तो बड़ा इश्कबाज है। अपनी शक्ति इश्क ज्यादा खर्च मत कर। नहीं टी.वी. हो जायेगी ।

वे किसी औरत की पीठ पर आला लगाते हुये बोले-‘ कितने बच्चे होगये?’

‘ चार ’ औरत बोली थी।

‘तो अब पैदा करने में क्यों लगी है। जो हैं उन्हीं को अच्छी तरह पढ़ा लिखा।’

मैं समझ गई अधिक बच्चे होना कोई अच्छी बात नहीं है। डॉक्टर साब सचमुच मनोविज्ञान के जानकार हैं। चेहरा देखकर मनोवृति भाप जाते हैं कि कौन क्या सोच रहा है? वे देश हित में छोटी-छोटी बातों को लेकर लोगों को सचेत करते रहते हैं। इस तरह वे मरीज के इलाज के साथ व्यवस्था की शल्य क्रिया करने में भी लगे हैं।

यह सब सोचते हुये मैं दवा लेकर चली पापा के साथ चली आई थी। कुछ ही दिनों में मेरा स्वास्थ्य ठीक हो गया।

डॉक्टर केतकर जी की बातों ने मेरे मन मस्तिष्क पर ऐसा असर डाला कि उनकी व्यग्य की धार को जीवन भर नहीं भूल पाई।

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