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सोलहवाँ साल (13)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग तेरह

इन दिनों अंजना का हमारे घर में आना-जाना शुरू हो गया था। मम्मी से ज्ञात हुआ - अंजना के पापा ने उसके लिए लड़का देख लिया हैं ।

एक दिन मैंने अंजना से पूछा- ‘‘मोहन भैया कैसे हैं ?’’

‘‘आश्चर्य ! आज तू स्वंय मोहन के बारे में पूछ रही है । वह तो ...।’’

‘‘कह-कह मैं किसी से कुछ नहीं छिपाती । सुना हैं तेरी तो उससे खूब पट रही हैं, न हो तो उसी से ब्याह करले । ’’

‘‘ मैं उससे ब्याह करूँगी। वह चाहे जहाँ मुँह मारता फिरता है।’’

‘‘सुगंधा तू उससे भैया कह रही है,वह तुझे बहन मानता भी है या नहीं।’’

‘‘उसकी मान्यता वह जाने। आज जो भाव किसी के प्रति हमारे मन हैं कल वही भाव उसके मन में हमारे लिए जरूर आयेगें।’’

‘‘सुगंधा, बिना प्रसंग के मोहन की बात चलाना, मैं कुछ समझी नहीं।’’

‘देख अंजना, एक दिन चोरी से मैं शोले फिल्म देखने गई थी ।’’

अंजना की चुप्पी देखकर मैं पुनः बोली-‘‘मैं कॅालेज की सहेलियों की बातों में आ गई। उस दिन मोहन भैया भी फिल्म देखने गये थे। उन्होंने मुझे देख लिया। बस चोरी पकड़ी गई ।’’

अंजना के मुँह से निकल गया -‘‘कैसे ?’’

‘‘मोहन इन्टरवल में हमारे पास आ गया। मेरी सहेलियाँ शैतानी पर थीं पूछने लगी-‘‘ये तुम्हारे कौन हैं ?’’ मैंने कह दिया -‘‘मेरे भैया हैं इन्होंने बचपन में एक बार राखी बंधाई है।’’

अंजना झट से बोली-‘‘उसने मुझसे राखी बाली बात कभी नहीं कही ।’’ == ‘‘अरे ! हाथ कंगन को आरसी क्या? मेरे डबरा पढ़ने जाने से पहले एक दिन मोहन की मम्मी मेरी मम्मी से मिलने हमारे घर आईं थीं, वे ही यह बात कह रही थी कि सुगन्धा के उस समय भाई नहीं हुआ था, इधर मोहन के भी बहन नहीं हुई थीं इसलिए मैं ही मोहन को लेकर सुगन्धा से राखी बाँधाने लाई थी। मुझे भी उसी दिन इस बात का पता चला था। तुम उससे पूछना कि उसको पता न हो तो वह अपनी मम्मी से ही पूछ ले। क्यों मेरी प्यारी अंजू ? यह तो बता, मोहन ने सिनेमा में मेरे मिलने की बात तुझे आकर बतलाई थी कि नहीं।’’

‘‘हाँ बतलाई तो थी।’’

‘‘........... और तू चतुर चालाक बनती हैं। तूने जाकर मेरी मम्मी से भिड़ा दी।’’

‘‘मैं उनसे कह तो आई थी पर तू तो बडी सिद्धान्त बाली बनती है।’’

‘‘अच्छा इस जलन के कारण तुझे चुगली करना पड़ी। जानती है फिर मुझ पर क्या बीती ?’’

मेरी बात सुनकर वह प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखने लगी। मैंने बात आगे बढ़ाई-‘‘मम्मी- पापा हमें सिनेमा दिखाने ले गये। अन्जू मैंने उस दिन मम्मी से अपनी चोरी से फिल्म देखने बाली बात कह दी।’

वह बोली-‘ फिर तुम्हारी मम्मी ने तुम से कुछ नहीं कहा?’

मेरी मम्मी बहुत समझदार हैं। उसके बाद उन्होने उस विषय पर आज तक चर्चा ही नहीं की।’

अंजना समझ गयी अपनी गलती स्वीकार करने में ही लाभ हैं। यह सोचते हुये बोली-‘‘ मैंने सोचा तुझ पर अच्छी खासी डाँट पड़ेगी किन्तु तुम्हारी मम्मी पढ़ी लिखी हैं, सब समझती हैं ।’’

‘‘अंजू अब तेरा विवाह होगा, ससुराल जायेगी। ये आदतें छोड।’’ मेरी यह बात वह सुनकर रह गई थी।

इसके कुछ दिनों ही मेरा परिक्षा परिणाम आ गया। मुझे वर्ष में घटी घटनाओं के कारण साठ प्रतिशत अंकों से ही सन्तोष करना पड़ा। अब तो मैंने सोचने के सभी दरवाजे खिड़कियाँ खोलकर ड़ाल दिये। चिन्तन बेगवती नदी की धार की तरह बहने लगा। यों बहते हुए, बहुत दूर तक चला गया, ऐसे स्थान पर जाकर रूक गया जहाँ नदी का बेग थम जाता है। उसका दबाव शुरू हो जाता है ।

कभी सोचती- नारी को अमर्यादित होकर नहीं सोचना चाहिए। प्रश्न उठा -‘‘क्यों नहीं सोचना चाहिए ? सम्वेदनाओं को कौन संकुचित कर पाया हैं ? लोग योगियों- भक्तों की बातें करेंगे किन्तु वे भी चित्त के विरोध की बातें करके अपने आपकेा सन्तुष्ट करने का प्रयास करेंगे ।

अरे ! मैं तों दर्शन की बातें करने लगी । मुझे अपने आपको बाँध कर रखना चाहिए ।

आगे की पढ़ाई के लिए नानी ने साथ रहने की मना करदी। मम्मी चाहती थीं कि आगे की पड़ाई इन्टर की तरह गाँव से कॉलेज जाकर करूँ। पापा ने मम्मी की इच्छा के प्रतिकूल हमारी पढाई जारी रखने का निर्णय लिया और डबरा के बजाय हमे ग्वालियर भेजने की योजना बना डाली ।

कॉलेज खुल गये। पापा मेरी बी0ए0 भाग द्वितीय कीश्शेष पुस्तकें और सन्त कंवरराम महा विद्यालय से मेरा शाला त्याग प्रमाण पत्र ले आये । पापा ने मुझे ग्वालियर के के0आर0जी0 कॅालेज में बी0ए0 भाग द्वितीय में भर्ती करा दिया ।

इन दिनों मुझे सुमन की कमी खलने लगी। अब मुझ से मेरी कहानी कौन सुनेगा? ग्वालियर जाने से पहले सुमन से मिलने मैं स्वयम ही उसके घर गई थी। सुमन बोली-‘‘तुमने एक दम ग्वालियर जाकर पढ़ाई करनें को फैसला कैसे कर लिया? यही रह कर बी.ए. करती।’’

मैंने उसे समझाया-‘‘यहाँ नानी के सहारे बनी रही। अब नानी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। मम्मी का गाँव से निकल पाना सम्भव नहीं है। अब उनका मेरे साथ रहना सम्भव नहीं है, इसीलिये मजबूरी में मामा के यहाँ जाकर रहना पड़ रहा है।’’

‘‘यार तेरे गाँव के परिवेश की कहानी सुनने में बड़ा मजा आता था। अब तुम्हारी कहानी कैसे सुन पाऊँगी।?’

मैंने कहा-‘‘अब मैं तुम्हारे लिये अपनी कहानी लिखकर रखूँगी। जब भी मिलेगें तुम्हें सुना दूँगी।’’

वह बोली-‘‘ यार तुम्हारे साथ रहने का आनन्द ही कुछ और है। अपनी पढ़ाई भी अच्छी हो जाती थी। जिसका परिणाम है मेरा रजल्ट भी अच्छा ही रहा। तुम्हारे साथ पढ़़ई में मन लगा रहा।’ उसे किसी तरह संतुष्ट करके उसके घर से चली आई थी।’’

जब मैं ग्वालियर पढ़ने जा रही थी उस दिन मम्मी ने सलाह दी-बेटी अपना काम निकालना हैं तो किसी के यहाँ रहकर उनके अनुसार चलना पड़ता है। घर के कामों में हाथ बंटाने से घर के लोगों का मन बना रहता है ।

दो दिन तक पापा मेरे साथ रहे। उसके बाद में गाँव लौट आये। मैं महानगर के कॅालेज मे पढ़ने जाने लगी। यहाँ कस्बे की तुलना में नया ही वातावरण था ।

बातचीत के दौरान मेरे मुँह से देहाती शब्द निकल जाते थे। देहाती शब्द सुनकर कक्षा की छात्रायें खिलखिला कर हँसने लगती। एक दिन हिन्दी की प्रोफेसर आरती पौराणिक बोलीं ‘‘सुगंधा, तुम्हें बोलते समय हिन्दी के मानक शब्दों पर पूरा ध्यान देना चाहिए ।’’

इस हिदायत से मैं सोच-सोच कर बोलती। क्षेत्रीय बोली और मानक हिन्दी में फर्क करना समझ में आ गया। बच्चा क्षेत्रीय बोली के माध्यम से आगे बढ़ता है किन्तु मानक हिन्दी कॅालेज की पढ़ाई का लक्ष्य है। मामा के घर में उनकी लड़की प्रिया और लडका नारू के समक्ष, मानक हिन्दी में बोलने का प्रयास करती। सेाचती -कहीं कोई क्षेत्रीय बोली का शब्द बोल दिया तो मामी कहेगी सुगंधा के कारण बच्चे बिगड़ रहे हैं ।

मामी कहती-‘‘बेटी बोलते समय, गाँवटी शब्दों के बोलने से बचना चाहिए। उनकी यह बात सुनकर मुझे बुरा तो लगा पर मैं चुप रह गई।’’

बड़े शहर में आकर यह एक धर्म सेकट और आ गया। अभी तक बोली के स्थान पर मानक शब्दों का ही प्रयोग मैं सोच-सोच कर करती थी। अब तो सोच समझ कर बोलने की ओर भी संकेत मिल गया।

इस बात के तो मैं हर वक्त सोचती रहती। कोई प्रश्न करता तो सोचकर उत्तर देती। कोई बात कहनी होती तो उसे मन ही मन अनेक बार बोल कर देखती। जब पूरी तरह सन्तुष्ट हो जाती तब ही बात कह पाती ।

मैं मानक हिन्दी के शब्दों को सोच सोच कर बोलने में उस समय जो कठिनाई महसूस कर रही थी, वही कठनाई आज सहजता बनकर इस रचना के लिखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है ।

मैंने अपनी पुस्तकंे पलटना शुरू की। कॉलेज की साथ पढनेबाली लडकियों की तुलना में अपने आपको कमजोर महसूस कर रही थी। कक्षा में अंग्रेजी के शब्दों को बोलने का प्रचलन दिखाई दिया। मैंने इससे अपनी अंग्रेजी पर ध्यान देना शुरू किया। मैं अंग्रेजी में कैसे भी बी0ए0 पार्ट वन में रट के पास हो गई थी। यहाँ की छात्राआंे के सामने तो मैं अंग्रेजी में अपने को बहुत बौना महसूस कर रही थी। यही सोचकर मैंने अंग्रेजी की प्रोफेसर श्रीमती दास से कहा-‘‘मैंडम में अंग्रेजी में बहुत कमजोर हूँ ।’’

मेरी यह बात सुनकर कक्षा की छात्रायें खिलखिला कर हँस पड़ी। मुझे बहुत बुरा लगा। मिसेज दास ने समझाया-‘‘देखो आंग्ल भाषा में आप अपने को कमजोर महसूस करती हैं तो इसका कारण है शब्दकोष का अभाव। अंग्रेजी के दस शब्द प्रतिदिन रटना शुरू कर दो। कक्षा में ग्रामर मैं पढ़ा ही रही हूँ उस पर ध्यान देती चलें । कोई बात समझ में नहीं आये तो पूछने में संकोच न करो, मिल जाय तो अंग्रेजी का अखबार पढ़ लिया करो।’’

मैंने मैंडम की बात गाँठ बाँध ली। घर आकर शब्दार्थ रटना शुरू कर दियें। अंग्रेजी के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर नये शब्द बनाना मामा ने सिखा दिये। जो बात समझ न आती, मैंडम से निःसंकोच पूछ लेती। मैं महसूस कर रही थी कि कक्षा में हँसी उड़ाने बाली छात्राऐं मेरे साथ नई नई बातों को सीखने का प्रयास करने लगीं। इससे कक्षा की छात्राओं के साथ निकटता बढ़ने लगी ।

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