सोलहवाँ साल (15) ramgopal bhavuk द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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सोलहवाँ साल (15)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग पन्द्रह

इसी समय कक्षा में मिसेज दास आ गईं तो बात आई-गई हो गई।

मुझे एक खेल सूझा-मैंने प्रत्येक विषय के बीस-बीस मुख्य प्रश्न छाँटना चाहे। कॉपियों पर क्रम से प्रश्न नंबर अंकित कर लिये। जितने प्रश्न थे उतने नंबर की पर्ची बना डाली। सभी पर्चियाँ गड्डमगड्ड करके डाल लीं। उनमें से बीस पर्चियाँ उठा लीं। उन प्रश्नों पर निशान लगा लिये। मामा से गाईडें मगवा लीं। मैं उन्हीं प्रश्नों को रटने लगी। कुछ दिनों में प्रत्येक विषय के प्रश्न याद होने लगे। जब हमें कुछ याद होने लगता है तो हमारा मनोबल, और अधिक याद करने के लिये बढ़ने लगता है।

एक दिन मैं महाविद्यालय पहुँची। अर्थशास्त्र की प्रोफेसर श्रीमती सेन ने माल्थस का सिद्धांत पूछ लिया। उसे दस बारह दिन से फेर न पाई थी। इसलिये चुपचाप खड़ी रह गई। पीरियेड समाप्ति पर मेडम चलीं गई, वन्दना बोली-‘‘ यार, तुझे इन दिनों क्या हो गया है ? आज तुम अपना रटा रटाया उत्तर नहीं बतला पाईं। पढ़ाई पर ध्यान दें।’’

उसकी बातें सुनकर मुझ में चेतना का संचार हुआ। परीक्षायें आने बाली हैं। इधर उधर की बातें छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान दूँ। यही सोचते हुये घर लौटी।

पढ़ाई में मन लगने लगा। होली का त्योहार निकल गया। भाई दौज का दिन आ गया। इस अवसर पर मामी अपने पिता जी के घर चली गईं। मैं घर पर ही रही। जब वे शाम को घर लौटीं, वरुण उन्हें छोड़ने आया था। मैंने ही जाकर दरवाजा खोला, वरुण सिर झुकाये सामने खड़ा था। वह अपनी दीदी के साथ बैठक में आ गया। मामी बोलीं -‘‘वरुण बैठना, मैं चाय बना कर लाती हूँ।’’

यह सुनकर मैं चाय बनाने के लिये उठी। मामी बोलीं- ‘‘सुगंधा तुम बैठो, मैं ही चाय बनाकर लाती हूँ।’’ वे चाय बनाने बनाने चली गईं। अब वरुण की चुप्पी मुझे खलने लगी। इसलिए मैं ही बोली- ‘‘आज तुम गंभीर बने क्यों बैठे हो ?‘’

‘‘सुगंधा, मैं तुमसे कुछ हँस बोल लेता था। दीदी ने इस बात की शिकायत पापा- मम्मी से कर दी। सुगंधा मुझे तुम्हारे साथ वह आचरण नहीं करना चाहिये था जो मैं करता रहा।’’

मैं समझ गई, वरुण ने रिस्ते को समझने का प्रयास किया हैं। मामी चाय बना लाईं और बोलीं - ‘‘क्यों सुगंधा ये वरुण तुमसे क्या कह रहा था ?’’

मैंने लड़ियाते हुये कहा- ‘‘मामी ये अब कभी कुछ नहीं कह सकते।’’

चाय पीकर वरुण चला गया। मामी बोली - ‘‘बेटी, भूल मेरी ही रही, हम छोटे- छोटे लोक व्यवहारों को अन्धे प्यार में अनदेखा कर जाते हैं।’’

शान्त चित्त से बी.ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षायें देकर मैं गाँव लौट आईं। पापा जी मेरे लिए बी0ए0 फायनल की पुस्तकें ले आये। उस दिन मैंने पापा-मम्मी से साफ-साफ कह दिया-‘‘मैं ग्वालियर पढ़ने नहीं जाऊँगी। वहाँ मेरा मन नहीं लगता। मैं तो घर से प्रतिदिन डबरा जाकर बी0ए0 की पढ़ाई पूर्ण करूँगी ।’

मैंने इन दिनों सामान्य हिन्दी के पाठ्यक्रम की पुस्तक उठा ली। कुछ पन्ने पलटे- यह पुस्तक छात्रों के शुद्ध लेखन के उद्धेश्य से पाठ्यक्रम में रखी गई है। मैंने महसूस किया, मैं अनेक शब्दों को अशुद्ध लिखती हूँ। उन शब्दों को बार-बार लिखकर देखने लगी। अब मैं घर में जो शब्द बोलती उसका शुद्ध उच्चारण करने का प्रयास करती। घर में कोई अशुद्ध बोलता तो मैं उसे टोक देती ।

’’आज इस रचना को लिखते समय अनुभव कर रही हूँ यदि उस समय मैंने वह पुस्तक घ्यान से न पढ़ी तो आज मेरेे लेखन में बहुत अधिक अशुद्धियाँ होतीं।

मेरा बी0ए0 भाग द्वितीय का परिणाम आ गया। मैं साठ फीसदी अंको से उत्तीर्ण हो गई। मेरे कहने से पापा जी ग्वालियर के के0आर0जी0 कॅालेज से टी0सी0 ले आये

कॅालेज में एडमीशन लेने के लिए मैं पापा जी के साथ डबरा गई थी। पहले सन्तकवर राम महा विद्यालय में प्रवेश के लिए प्रयास किया किन्तु वहाँ प्रवेश नहीं मिल पाया, इसलिये वृन्दासहाय कॅालेज में एडमीशन लेना पड़ा। अभी तक सन्तकवर राम और के. आर. जी.कन्या महा विद्यालय होने से पापा जी को मेरी चिन्ता नहीं रही। यहाँ मेरे लड़की होने से पापा चिन्तित दिख रहे थे। मैंने तो पापा से स्पष्ट कह दिया-‘ आप चिन्ता नहीं करें, मैं अपना भला- बुरा सब समझती हूँ। इस कॉलेज में यह एक लाभ तो रहेगा कि यहाँ गाँव से बस से जाने में आसानी रहेगी, इसीलिए भाग दौड़ में समय बर्वाद नहीं होगा। इस बात को सुनकर पापा सन्तुंष्ट हो गये थे। मैं प्रतिदिन गाँव से पूर्व की तरह कॅालेज जाने लगी ।

सुमन तो पहले से वृन्दासहाय कॅालेज पढ़ रही थी। उसने जब यह सुना कि मैं भी यहीं आ गई हूँ तो वह मुझ से मिलकर बहुत ही खुश हुई। इन्हीं दिनों मैंने उसे अपनी कहानी सुनाने के लिए वही डायरी फिर से उठाली। उसमें कहानी को एक वार फिर व्यवस्थित करने के लिए बचपन की जो बातें याद रहीं, उन्हें सूची बद्ध कर लिया।.... और उन्हें लिखना शुरू कर दिया।

जब हम लिखना शुरू करते हैं। बहुत सोच विचार के शुरू करते हैं।... और जब लिखना शुरू हो जाता है लिखते-लिखते ऐसी बातें लिख जाते हैं, जिनकी हमने रचना शुरू करते समय कल्पना भी नहीं की थी। दिन-रात लिखने का चिन्तन चलने लगा। उठते -बैठते, खाते पीते सुमिरणी सी चलती रहती है। लगता है, कहीं कोई बात लिखने से छूट नहीं जावे। हम दानों कॉलेज में साथ-साथ उठने- बैठने लगीं थी। कक्षा में भी एक ही बैंच पर साथ-साथ ही बैठते। जब भी हम अकेले पार्क में होते, मैं अपनी नोट की हुई घटनायें उसे सुनाने लगी।

मैं ग्वालियर रहने तो पहुँच गई किन्तु वहाँ रह कर एक ही बात अधिक खटक रही है कि मुझे अपनी पंचमहली बोली से दूरी बनाना पड़ा था।

शहरी लोग बोली के मिठास को क्या जानें? उन्हें तो वह पिछड़ी संस्कृति की बात लगती है। बोली जन- जीवन के दिल में समाये हुए भाव होते हैं। जो उस क्षेत्र के निवासी के मुँह से निस्सृत होते हैं। उन्हीं भावों से बोली का निर्माण होता है।

मैं जानती हूँ उसकी बोली के शब्द किसी संस्कृति के प्राण होते हैं। उसकी आनबान उसी में समाहित होती है। मैं अपने मामा- मामी को इन गाँवटी शब्दों के महत्व के कैसे समझाती? समझाने का प्रयास भी करती तो उन्हें बुरा लगता। इसीलिये मुझे चुपचाप उनकी बात मानकर इन अपने प्यारे शब्दों को बलात् दवाना पड़ा था। जिसकी पीड़ा मुझे जीवन भर रहेगी।

मैं इस कॅालेज की लाईब्रेरी का बड़ा नाम सुना था। जब समय मिलता लायब्रेरी में जाकर बैठ जाती। उसकी इन्चार्ज दाते मैंडम थीं। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाकर राहुल सॉकृत्यायन की पुस्तक ‘बोल्गा से गंगा तक ’’ पढ़ने कोे दी।

मैं इतिहास की छात्रा हूँ। गत वर्ष आर्यो के बारे में कक्षा में इस विषय पर खूब चर्चा हुई थी। एक बार फिर वही विषय सामने आ गया।

मैंने उत्सुकता से उस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया। तीन दिन में पुस्तक पूरी पलट डाली। पुस्तक बन्द करके सोचने लगी -

ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व के समय में, आदमी की उम्र के पचास और स्त्री के बीस वर्ष के अन्तर को नजर अन्दाज कर दिया जाता था। उन दिनों इन्द्रोत्सव होते थे। जिनमें स्वच्छन्द प्रणय का युवाओं को पूरा अधिकार था। सोमरस (भंग) के नशे में मस्त तरूण और तरूणियाँ प्रणय के लिए स्वतन्त्र रहते थे। इस एक दिन के लिए तरूण और तरूणियाँ सारे बन्धनों से मुक्त हो जाते। सभ्यता का विकास शनै शनै हुआ है। हम अपने को लौटा कर आदिम युग में तो नहीं ले जा सकते ।

प्रकृति अपने स्वभाविक रूप में संचालित होती रहती है। उस समय प्रकृति किसी बन्धनों में नहीं बंधी थी। आज भी नहीं बंधी है। यदि हम बन्धनों में बंध गये हैं फिर तो उन्हें स्वीकारना ही सुखद लगता है ।

आर्य संस्कृति की यह श्रेष्ठ बात रही है कि यह दूसरी संस्कृतियों की श्रेष्ठ बातें स्वीकार करने में संकोच नहीं करती, इसीलिए इसे विकसित संस्कृति कहा गया है। आर्य सभ्यता की हिमालय एवं उसके तराई क्षेत्र में ही जन्म स्थली रही है। यहाँ से आगे बढ़कर दक्षिण भारत की ओर तथा यही से वे उत्तर की ओर जाने पर बोल्गा की घाटी तक पहुँच गये। किसी चलित प्राणी के निवास के लिए एक बिन्दु का निर्धारण उचित नहीं हैं। आज हम जहाँ निवास कर रहे हैं क्या सच में युगों-युगों से आपके पूर्वज यहीं निवास करते थे ?

किसी भी एक जाति व संस्कृति के लिए क्षेत्र की दीबारें खड़ी नहीं की जा सकती। आज किस समुदाय के लोग विश्व के किस कोंने में नहीं मिलेंगे ।

आदिकाल में मात्र सत्ता का युग था। घर में माँ का आदेश ही चलता था। पिता का अस्त्तिव उस समय अल्पकालीन होता था। शरीर की भूख मिटाने के लिए कुछ क्षणों के लिए वे पति-पत्नी बन जाते थे। उसके तो सब कुछ माँ ही होती थी। वह बलशाली भी होती थी। धीरे धीरे सोच में परिवर्तन हुआ। पिता- पुत्र बने होगे। समवयस्क होने पर भाई बहन पति- पत्नी के रूप में जीवन रूपी लम्बी यात्रा के हिस्सेदार रहे होंगे।

रजवीर्य की समानता होने से सन्तान उत्पत्ति में बाधा आई होगी । उस स्थिति में दूसरे स्त्री पुरूष के जोडे़ बने होंगे। मानव के विकास का यह क्रम सैकड़ों बर्षो में पूरा हुआ होगा।

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