केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
19
बदली देहरी, बदले पैर
बरस पर बरस बीतते रहे। आर्या अब यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिये बाहर चली गयी थी। अब धानी घर में अकेली थी। परिवार के नाम पर बेकरी के सहकर्मियों का बाहरी परिवार था। रेयाज़ तो अब उनके बीच नहीं था, ग्रेग-इज़ी थे। अच्छे और बुरे दिनों के साथी। जब कभी सब एक साथ बैठते तो रेयाज़ को जरूर याद करते। इज़ी की बेली डांसिग को घुटनों के दर्द ने अपने अंदर छुपा लिया था। कुर्सी पर बैठे-बैठे आँखों व हाथों को चलाती संगीत का मजा लेती। अपनी अलग-अलग चिंताओं की खामोशियों के साथ उम्रदराज होते ये बेकरी-कर्मी आज भी बेकरी की उस सुगंध में जीते, अपने कौशल का उपयोग करते।
वे सब धानी की इस लंबी यात्रा के हमसफर थे। वे जानते थे कि धानी ने कितनी बहादुरी से अपने हालात से निपटने का हौसला दिखाया है। अब जितना है उतने ही काम से सारे खुश थे। बेकरी मालिक को भी अब ज्यादा विस्तार करने की कोई ख्वाहिश नहीं थी। काम से घर और घर से काम - यही दिनचर्या हो गयी थी धानी की।
आर्या का घर आना बहुत कम हो पाता था। फोन पर रोज बात हो जाती थी। वह अपने दोस्त अवि के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में थी। उसकी खुशी में धानी खुश थी। अपने स्नेह के आवेग को थोड़ा रोक कर ही रखती ताकि आर्या अपना जीवन आजादी से जी सके। माँसा ने भी तो धानी को कभी नहीं रोका था।
घर के तीनों सदस्य तीन अलग-अलग दिशाओं में थे।
एक दिन सूचना मिली कि बाली को जेल से रिहा कर एक सुधारगृह में रखा गया है जहाँ वह अपना समय काट रहा है। फिर एक दिन ये मालूम पड़ा कि कई दिनों तक बीमार रहने के बाद अब वह अपनी याददाश्त खो चुका है। धानी ने सुना तो उसका दिल भर आया। इस खबर ने उसके मन को विचलित कर दिया। उसे एक नज़र देखने के लिये मन अकुलाने लगा। पर वो जानती थी कि आर्या इसके लिये राजी नहीं होगी।
आर्या ने जब ये खबर सुनी तो उसे भी बुरा लगा। वर्षों के अंतराल में इस शब्द की अनुभूति मर्म के उसी तंतु से जुड़ गयी थी, जहाँ इसका मूल था। जानती थी कि पापा को देखने से ममा को अच्छा लगेगा। उनके जाने के बाद ममा ने स्वयं को समेटा जरूर था लेकिन उस खालीपन को कभी नहीं भर पायी थीं जो पापा के जाने से पैदा हुआ था।
उसने कहा – “आप जैसा चाहें ममा, देख आइए।”
वह स्वयं पापा को बहुत याद करती थी। उन दिनों की याद आती थी जब आर्या की हर माँग पूरी करते थे पापा। उसे अपनी मोटी आवाज में कई बालगीत सुनाते थे। तब लगता था कि उनसे अच्छा तो कोई नहीं गा सकता था। मन से तो वह भी यही चाहती थी कि ममा जाकर देखें उन्हें। समय घाव देता है तो भरने की क्षमता भी देता है। बीतते बरस नफरतों को धुँधला कर गए थे।
धानी पहली बार उस सुधारगृह, एलेक्स रिहैबिलिटेशन सेंटर में जा रही थी। उस जगह जहाँ खुद से दूर जा चुके मरीजों को एक स्वस्थ वातावरण देने का प्रयास किया जाता है। उसका मन स्थिर था। कोई द्वंद नहीं था इस समय। बाली के कई रूप स्मृति में आ-जा रहे थे फिर भी वह तटस्थ थी। किसी तरह की उथल-पुथल के लिये अब कोई गुंजाइश ही नहीं थी शायद। एकाकीपन के ये बरस उसे यही कुछ सिखा गए थे - गांभीर्य और नियंत्रण के गुर।
एलेक्स सेंटर की यह पाँच मंजिला इमारत शहर के उत्तरी इलाके में बसी थी। बहुत ही अनुशासित और स्तरीय देखरेख के लिये जाना जाता था यह सेंटर। मिलने का समय पहले से तय था। काउंटर पर जाकर उसने अपना नाम बताया तो उसे अंदर भेज दिया गया। ये विजिटिंग अवर्स थे। तमाम मिलने-जुलने वाले भी वहाँ मौजूद थे। उस मंजिल पर रहने वाले सारे मरीज अपनी-अपनी धुन में उस बड़े हाल में घूम रहे थे। कोई अपनी हथेली एक ओर करके चलता जा रहा था। कोई कसरत कर रहा था। कोई बैठकर टीवी देख रहा था तो कोई कान पर हाथ रखकर सुर निकालने की कोशिश कर रहा था।
तभी, आगे बढ़ते हुए धानी के पैर रुक गए। एक कोने में एक व्यक्ति खामोश बैठा एक ही दिशा में ताक रहा था। वह बाली था। उसका सिर शेव किया हुआ था और चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी-मूँछें थीं। वह उसके नजदीक गयी और करीब से उसे देखा। वह बहुत मासूम लग रहा था। बुझी आँखों की नज़रें बदल गयी थीं। वही चेहरा-मोहरा था पर उसका नूर खो गया था। शून्य में ताक रहा था। कमजोरी ने दुबला कर दिया था। सेंटर का ढीला-ढाला गाउन इस समय पहना हुआ था।
धानी के होठों पर सहज मुस्कान आयी, वह जल्दी से बोली - “हलो बाली”
बाली ने उसकी तरफ देखा तक नहीं। वहाँ के एक कर्मचारी ने कहा – “इनका नाम बालेंदु प्रसाद है”
धानी को अहसास हुआ कि बरसों से शायद किसी ने उसे इस नाम से नहीं पुकारा है। दोबारा बोलने की कोशिश में वह उसके समीप गयी - “हलो बालेंदु”
बाली “हलो” की मुद्रा में सिर झुकाकर चला गया वहाँ से। वहाँ के लोगों ने धानी को बताया कि वह बोलता नहीं है। सिर्फ “हाँ” या “ना” में सिर हिला देता है। कभी मुस्कुराता भी नहीं। वहाँ से अपने कमरे में गया तो वापस नहीं लौटा। मिलने वालों को अंदर जाने की अनुमति नहीं थी, मजबूरन धानी को घर लौटना पड़ा। उस दिन घर लौटी तो समय काटे नहीं कट रहा था। नींद आना तो दूर, आँखें झपकने को भी तैयार नहीं थीं। कहाँ से यह सफर शुरू हुआ और कहाँ जाकर उसका अंत हुआ! एक पूरी की पूरी रील थी जिंदगी की पलकों के नीचे अनवरत चल रही थी।
इतने वर्षों तक बाली के बगैर जीते हुए धानी भावना शून्य हो चुकी थी। उसके जाने के बाद कभी खुल कर हँस नहीं पायी थी वह। कैसे हँसती, इतनी अकेली जो हो गयी थी। इंसान अकेले रो तो सकता है लेकिन अकेले हँस नहीं सकता।
बाली को याद करते हुए कभी उसकी आँखें गीली नहीं हुई थीं। कभी उसे प्रायश्चित नहीं हुआ। शायद इसलिये कि उसने जिस बाली को प्यार किया था, वही बाली पराया हो गया था। जिस बाली ने उसे यातना दी, वह कहीं दूर चला गया था। जो बाली अब यहाँ था वह तो महज देह भर था। जिससे अब वह मिल रही थी वह कोई बच्चा था। समय ने करवट बदल ली थी। आर्या ने फोन पर देर तक बात करते हुए उससे बहुत सारे सवाल किए। सारी जानकारी ली। यह जानकर उदास हो गयी थी कि उसके अपने पापा अब सब कुछ भूल चुके हैं। अतीत में जो हुआ उसे तो कोई बदल नहीं सकता था, पर रिश्ता तो आखिरकार खून का था। प्यार और अपनेपन का था। उसने पापा के बहुत अच्छे रूप को बचपन भर जिया था।
धानी के लिये वक्त काटना कठिन हो रहा था। सोच रही थी कि कब रात बीते, सुबह हो, कब शाम हो और वह फिर से बाली को देखने जाए। अगले दिन भी यही हुआ। आज भी धानी ने उसे “बाली” कहकर पुकारा ताकि अतीत की कोई स्मृति कहीं दबी हो तो उसके सामने आ जाए।
“बाली, मुझे जानते हो?”
धानी ने पूछा तो वह कुछ नहीं बोला। अजीब-सी निगाहों से उसे घूर कर देखा और बैठ गया। एकबारगी धानी को लगा कि उठकर अंदर न चला जाए लेकिन वह बैठा रहा। एकटक सामने ताकते हुए। आँखों की पुतलियाँ जैसे एक ही जगह स्थिर हो गयी थीं। अपने पीछे एक पूरा का पूरा संसार छुपाए हुए।
“बाली मैं आपकी दोस्त हूँ। मेरा नाम धानी है।”
वह वैसे ही बैठा रहा। कुछ इस तरह मानो इन दो अक्षरों के कोई मायने न हों उसके लिये। अतीत की कोई स्मृति शेष नहीं थी वहाँ। न कोई चेहरा, न कोई घर, न ही कोई सोच। भरी-पूरी जिंदगी की किताब जैसे कोरी हो गयी हो।
पूरे सप्ताह वह बेकरी से लौटते हुए एलेक्स सेंटर आती रही और उससे बात करने की कोशिश करती रही। बाली खामोश-सा आता और खामोशी से ही चला जाता। अब रोज एक ही समय पर आने लगी धानी। अब बाली ध्यान से सुनने लगा था। एक सहायक ने बताया कि वह प्रतिदिन इस समय यहाँ आकर धानी की प्रतीक्षा करता है।
वहाँ के कर्मी पूछते धानी से – “आप इनकी कौन हैं?”
“मैं इनकी मित्र हूँ।”
“विश्वास नहीं होता कि ऐसे मित्र भी होते हैं।”
“पहले मित्र और पत्नी थी, पर अब सिर्फ मित्र हूँ।”
“आपको पता है न, इन्हें कुछ याद नहीं।”
“जी, शायद मुझे देखकर कुछ याद आने लगे।”
“ध्यान रखिएगा, कई बार बीती बातें याद आने पर हिंसक भी हो सकता है मरीज।”
“हो सकता है, पर इन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता। कितने शांत हैं!”
धानी की आँखों का निश्चय उसके मन की बात कह देता। धीरे-धीरे बाली से उसकी पहचान होती गयी। वह धानी की राह देखता। उसके आने के बाद खाना खाता। अब वह नियमित रूप से एलेक्स सेंटर जाती और वॉलिंटियर का काम करती। इन मुलाकातों का समय बढ़ता रहा। बेकरी में काम करने का समय घटता गया।
एक दिन उसे लगा कि जीवन जीने के लिये पर्याप्त पैसा है उसके पास। क्यों न कंपलसरी रिटायरमेंट ले लिया जाए। गंभीरता से इस पर विचार किया तो लगा कि अब वह साठ की उम्र के भी बहुत करीब है। रिटायर हो जाए तो भी आराम से गुजारा होगा। परिवर्तन के लिये, दिलोदिमाग की शांति के लिये इन असहाय लोगों की सेवा की जा सकती है। रिटायरमेंट का एक खाका मन में बना लिया था। आने वाले महीनों में कभी भी दिन इस विचार को कार्यांवित किया जा सकता था। बेकरी में मालिक के बच्चों ने अब काम संभाल लिया था। धानी ने उन्हें भी अपनी संभावित योजना की जानकारी दे दी थी।
ममा के इस फैसले से आर्या भी खुश थी, जानती थी कि सालों से ममा ने बेकरी में अपनी मेहनत से बहुत नाम व पैसा कमाया था। अब वह समय है जब ममा जो करना चाहें, कर सकती हैं। तीन महीनों की अवधि में धानी ने अपने सारे कार्यकलाप समेटकर एक दिन अलविदा कह दिया।
पहला दिन था जब वह पूरे दिन एलेक्स सेंटर में बिताने के उद्देश्य से जा रही थी। अधिकारियों से अनुमति पहले ही ले ली थी। इन जगहों पर वैसे भी वॉलिंटियर्स की जरूरत होती ही है। फिर एक मरीज की पत्नी यहाँ आकर मदद करे तो इसमें भला उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। वैसे भी इतने दिनों से वे लोग धानी को देख रहे थे। वह सिर्फ बालेंदु प्रसाद की ही नहीं बल्कि और लोगों की मदद के लिये भी तत्पर रहती थी। उसकी सदाशयता और बाली के साथ रहने की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने उसे इजाजत देने में कोई कोताही नहीं बरती।
तकरीबन छ: महीने ऐसे ही गुजरे। अब धानी और बाली, अकसर पूरा दिन साथ ही रहते। सोने का समय होता तो ही वह घर जाती। जब वह बाली का हाथ पकड़ कर चलती तो एक ही विचार होता कि वह एक बच्चे की मदद कर रही है। उस बच्चे की जो धीरे-धीरे बोलना सीख रहा था। उस बच्चे की जो धानी के साथ खेलने के लिये आतुर रहता। उन दोनों को खेलते देख और मरीज भी आ जाते उनके साथ खेलने के लिये।
धीरे-धीरे बच्चे-सा बाली उससे काफी घुल-मिल गया था। तुतलाता हुआ पुकारता – “धानी” तो वह पा लेती अपना सुकून। वह बॉल उछालता, कैच करता। वह घर जाने के लिये उठती तो हाथ पकड़ कर वापस बैठा लेता। अब धानी उस सुधारगृह का एक हिस्सा बन चुकी थी। उसे अपने जीवन के उद्देश्य का भान होता। कई और मरीजों से भी धानी की अच्छी मित्रता हो गयी।
जीवन का नया उपक्रम और कई नये साथी।
क्रमश...