Kesaria Balam - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

केसरिया बालम - 10

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

10

रुख बदलती हवाएँ

नन्हीं किलकारियों में खोते हुए धानी को कुछ तो ऐसा महसूस होता जो सामान्य नहीं था, कुछ था जो पीछे छूटता नज़र आता। शायद वह बाली का प्यार था जो अब अपने बहाव की गति काफी कम कर चुका था। जितने तेज बहाव की आदी थी धानी, वह कहीं थमता-सा प्रतीत हो रहा था। धानी के खाने-पीने की लापरवाही पर डाँटना, आत्मीयता से बिठाकर खिलाना, चिढ़ाना, छेड़ना, उसकी चिंता करना, प्रशंसा करना जैसे प्रेम के कई रूपों की आदी थी वह। उनमें से एक भी जब सामने न हो तो उसका हताश होना भी जायज़ था।

“मौसम सदा एक जैसा नहीं रहता” माँसा कहा करती थीं।

बस ऐसा ही कुछ सोचकर चुप रह जाती धानी, खामोश आशा के साथ। आर्थिक संकटों का बोझ हो या फिर किसी तरह की कोई हताशा, पर यह जो भी था जीवन पर हावी हो रहा था। धानी ने कई बार बात करने की कोशिश की बाली से। पूछना भी चाहा कि आखिर क्यों उससे अलग-थलग रहता है। मगर बाली की चुप्पी नहीं टूटती तो नहीं टूटती। लगातार टाल रहा था वह उन सवालों को जिनका जवाब जरूरी था। घर में बच्चे के आगमन की खुशियाँ तो थीं पर सिर्फ बच्चे के इर्द-गिर्द। धानी सोचती, अगर आर्या नहीं होती तो क्या होता। एक नन्हीं-सी जान दो लोगों के बीच का तंतु बनी हुई थी। अब धानी को लगा कि यह समय है जब उसके दोस्तों से पूछा जाए ताकि कुछ तो पता चले। लेकिन ये डर भी था कि शायद बाली को अच्छा न लगे। अंतत: एक दिन हिम्मत करके उसने फोन करना शुरू किया। घर पर डायरी में सबके नंबर लिखे रहते थे।

बाली के खास दोस्तों से पता करने की कोशिश की धानी ने। इससे जो बात पता चली वह बेहद चौंकाने वाली थी। डराने वाली थी। मालूम पड़ा कि वह बड़े आर्थिक संकटों में उलझा हुआ है। एक के बाद एक तमाम उलझनों से घिर गया है। जो कुछ सुना, सुनकर विश्वास नहीं हुआ। इतना सब कुछ चलता रहा और उसे एक शब्द भी नहीं बताया बाली ने। आखिर इतने अपनेपन के बीच इतना परायापन लाया कहाँ से। क्या कभी भी उसे यह महसूस नहीं हुआ कि धानी के जीवन की हर साँस उसके साथ है। इस तरह क्यों पराया कर दिया धानी को। खुद को सांत्वना देने का प्रयास करती, समझाती, धैर्य रखने की कोशिश करती रही।

शायद, प्रेम की अवधारणा हर कदम पर बदल जाती है। जब किसी एक का संतुलन बिगड़ने लग जाता है तो दो लोगों की दुनिया में बदलाव आ जाता है ।

बाली अपने रास्तों पर बेहद असंतुलित हो गया था। इसी वजह से वह कोई सफाई नहीं देता, न ही किसी परेशानी का जिक्र करता। प्रश्नों की बौछार होती रहती पर वह चुप रहता। धानी बात करने की कोशिश करती तो वह नाराज़ हो जाता। आर्थिक मसलों पर कुछ सलाह देना चाहती तो भड़क जाता। दिलासा देना चाहती तो उसके अहं को ठेस पहुँचती। मौन रहकर चला जाता। बाली की वह चुप्पी उसे बहुत खलती। “क्या करूँ, क्या न करूँ” की सोच में डूबी रहती वह। उसका बोलना बाली को पसंद नहीं था। अब चुप रहती थी तो वह भी बाली को अच्छा नहीं लगता।

अपने ही प्रश्नों में उलझी धानी को बाली से बहुत अपेक्षाएँ थीं। यह कि वह दूर रहकर भी उसके साथ खड़ा दिखे। यह भी कि उसकी देह जहाँ रहे, बाली का मन उसके पास आ जाए। वह अपनी भावनाओं को समेट पूरी ताकत से बाली को खुश देखना चाहती थी। पर बाली के मन में उत्साह और धानी के प्रति प्रेम का दीवानापन भर पाना संभव नहीं दिख रहा था।

इन मानसिक आशंकाओं के बीच बाबासा की तबीयत खराब होने के समाचार मिले। भारत जाकर उनसे मिलने को जी अकुलाने लगा मगर छोटी बच्ची को लेकर अकेले सफर करने की हिम्मत नहीं थी। बाबासा बोल भी नहीं पा रहे थे। अकेली माँसा बहुत परेशान होते हुए भी उसे आने के लिये मना भी करतीं।

“माँसा मैं आ जाती हूँ। बाबासा की बहुत चिंता हो रही है।”

“ना बेटा ना, मती आ। नानो टाबर के लेके इत्ती दूर ना आ।”

बाबासा कहते – “मैं तो अभी ठीक हो जाऊँगा पर थारे कित्ती परेशान होवेगी।”

“गर्मी में बच्ची हैरान हो जावेगी।” माँसा का इंकार भी जुड़ जाता बाबासा के साथ।

“पर बाबासा आपकी हालत तो देखो। कितने कमजोर हो गए हैं आप।”

“अब बेटा बीमारी में आदमी हट्टो-कट्टो तो नी रेवे, कमजोरी तो आवे, चली जावे। अब उतरता दिन है।”

ये ममतामयी शब्द धानी को दिलासा न दे पाते। उन्हें देखकर उसकी चिंता बढ़ती रहती। लेकिन वह उनसे बात करते हुए खुश दिखने की कोशिश करती ताकि बीमारी में उन्हें और धक्का न लगे। हज़ारों मील दूर रहते हुए भी लगभग रोज ही बात होती। अपना हाल सुनाती और उमगती हुई बात करती माँसा-बाबासा से। खूब तारीफ करती बाली की, बिटिया की। उसके प्यार की मिठास जो शब्दों में चढ़ती तो परदेस में बैठे माता-पिता को भनक भी नहीं लगती कि वहाँ उनकी दुलारी के क्या हाल हैं और वह किन भुलावों में जी रही है। उन्हें बाली पर पूरा विश्वास था जिसके साथ उन्होंने अपने दिल के टुकड़े को भेज दिया था।

कैसे जानते वे कि सब कुछ वैसा नहीं है, जैसा वे सोच रहे थे। वे तो बच्ची आर्या की किलकारियों को सुनकर खुश होते रहते। यह तो उनकी अपनी धानी थी जो कभी हार नहीं मान सकती थी। सीखा ही नहीं था उसने हार मानना। जिस जमीन से आयी थी वहाँ कूट-कूट कर यही सिखाया जाता है कि आशा की डोर थामे रहना ही आगे का रास्ता बना देता है। धानी ने जो भी सबक पढ़ा था, गुणित करके पढ़ा था। उसे लगता बाली तो बाली है, जो भी करेगा अपनी धानी के लिये करेगा। वह खुश रहने वाली लड़की थी। हर हाल में मुस्कुराना जानती थी। फिर अब तो वह बाली के साथ थी, आर्या के साथ थी। ये दोनों उसके चेहरे पर मुस्कान ही मुस्कान लाते थे। जिस दिन से आर्या उसके जीवन में आयी थी, जीवन की परिभाषा ही बदल गयी थी।

समय भला किसके लिये रुकता है जो अब रुकता।

प्रसूति अवकाश खत्म होने वाला था। एक डे-केयर में बच्ची को छोड़कर कुछ घंटों के लिये काम पर जाने की योजना बन रही थी लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था। कुदरत की अपनी योजनाएँ थीं। चिकनगुनिया की चपेट में ऐसे आए बाबासा कि उठ ही नहीं पाए। अस्पताल में भर्ती थे। धानी-कँवरसा को मिलने बुला लिया माँसा ने। वह सिरहाने बैठी थी। उन्हें जोर से खाँसी आयी थी और जब रुकी तो उनकी साँसें भी रुक गयी थीं। डॉक्टर, अस्पताल, दवाइयाँ कोई कुछ नहीं कर सका। एक ही सुकून था कि बाबासा ने जाने से पहले अपनी आँखों से अपनी लाडो की लाडो, आर्या को देख लिया था। उसे गोद में उठा तो नहीं पाए पर उसके हाथों को चूम कर माथे से लगा लिया था।

वे कभी धानी को देखते तो कभी माँसा को देखते। एकटक। उन आँखों की भाषा धानी समझ जाती – “माँसा का ख्याल रखना।” शायद यही चिंता खाए जा रही है उन्हें।

वह बैठ जाती उनके पास। उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर सांत्वना देती – “माँसा की आप चिंता मत करिए बाबासा। मैं हूँ न, अपने साथ ले जाऊँगी माँसा को।”

उनकी असहाय आँखों से आँसू लुढ़क पड़ते मानो अब अपनी यात्रा पूर्ण कर रहे हों।

माँसा का एक हाथ बाबासा के माथे को सहलाता और दूसरा अपने पल्लू को आँखों तक ले जाता।

धानी ने माँसा को अपने साथ ले जाने की योजना बनायी। महीने भर तक बाबासा का फैला बिजनेस समेटती रही। बाली को एडीसन लौटे हुए दो सप्ताह हो गए थे, बाबासा के सारे संस्कार करके चला गया था वह। अभी बाबासा की चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई थी कि एक रात माँसा सोयीं तो उठी ही नहीं। बाबासा के बगैर उनकी जान तो उसी दिन चली गयी थी पर साँसों के सफर को रुकते-रुकते एक महीना लग गया था। बाबासा गए, उसके अगले महीने की तीन तारीख को माँसा भी चल दीं। इस आघात को सह रही धानी को उन घड़ियों में बहुत जरूरत थी बाली की। लेकिन वह अभी-अभी तो गया था, इतनी जल्दी वापस नहीं आ पाया।

धानी के लिये वह एक युग का अंत था। मन के साथ ही शरीर के भी टुकड़े हो गये थे। निष्प्राण-सी घूमती रहती। उस घर की हर ईंट से माँसा-बाबासा की आवाज आती। सुनती रहती और शिकायत करती रहती। आँसुओं ने बहना ही बंद कर दिया था। दोनों ने ये नहीं सोचा कि उनके बगैर धानी कैसे रहेगी। सोचते भी कैसे? धानी को तो उन्होंने ऐसे हाथों में सौंपा था कि उसकी उन्हें कोई फिक्र ही नहीं रही थी। यही एक संतोष था धानी के लिये कि वे दोनों अपने अंतिम समय में अपनी बच्ची का सुखी परिवार देख कर गए थे। उस असहनीय दु:ख में भी वह खुद को समझा लेती थी।

उसके सिर से माँसा-बाबासा की छाया हट गयी थी। कुछ दिन वे और रुकते तो धानी के भीतर की उदासी को ढूँढ ही लेते और अपनी लाडो का गम यूँ ही खत्म कर देता उन्हें। अपार दु:ख में इस क्षणिक से भाव ने अपरिमित शक्ति दी थी उसे और वह उनके बगैर जीने की, मगर उनको जीने की ललक के साथ मन को हल्का करती रही।

सलोनी उसके साथ रहकर गयी दो दिन, लेकिन रिश्तेदारों से भरे घर में अपने दिल की बात न हो पायी। फिर उसके घर में भी सास-ससुर दोनों बहुत बीमार चल रहे थे। बच्चे भी छोटे थे, “फिर मिलते हैं” कहकर जो गयी तो फोन भी नहीं कर पायी। कजरी का नौवाँ महीना चल रहा था सो आ ही नहीं पायी। बात भी करती तो कुशलता के समाचारों से अधिक कुछ न कह पाती।

बेहद समीपी रिश्ते भी दूरियों ने लील लिये थे।

धानी वहाँ रहकर, सब कुछ समेट रही थी। कई रिश्तेदारों ने उसकी मदद की थी। बाबासा की इच्छानुसार उनकी जमीनें और मकान गाँव के अस्पताल को दान कर दिए गए थे। धानी के कहने पर ही यह योजना बनायी गयी थी कि माँसा-बाबासा के नाम से अस्पताल में कमरे बनें। बाबासा ने धानी के नाम सब कुछ कर रखा था पर वह यही कहती रही कि उसके पास तो सब कुछ है। वह चाहती थी कि उनकी संपत्ति का उपयोग परोपकार में हो जहाँ लोगों को इलाज मिले, नयी साँसें मिलें। इससे अच्छी-सच्ची श्रद्धांजलि तो हो ही नहीं सकती थी उनके लिये।

यही एक जिम्मेदारी ओढ़ ली थी उसने। अपने परिवार की इकलौती संतान अपने माता-पिता के लिये परोपकार के वे काम करना चाहती थी जिससे उनके हँसते-खेलते-चहकते परिवार की खुशियाँ कई अन्य घरों में भी पहुँचे।

बस माँसा ने उसे अपने गहने दान नहीं करने दिए थे।

अपनी गहनों की पेटी निकाल कर एक दिन सारे गहनों को उसे पहना कर सजाया था – “देख ये बाजूबंद है”

“हीरे जड़ी नथ है ये”

“कमरबंद है, थारी पतली कमर में कैसो जचेगो”

“नौलखा हार है”

एक-एक करके सारे गहने पहना रही थीं वे धानी को। वह भी माँसा के उस लाड़ को सहेजती, उनका एक मनपसंद जोड़ा निकाल लायी थी। तब उन गहनों के साथ उसने माँसा का वह भारी-भरकम जोड़ा पहनकर उनकी मन की मुराद पूरी कर दी थी।

प्यार से बोली थीं वे – “अबे तू लागे है आर्या लाडो की माँसा”

माँसा ने अपनी लाडो धानी को, माँसा बना कर मानो अपना जीवन हस्तांतरित कर दिया था। सुकून से जाने के लिये यह एक तैयारी थी। एक पीढ़ी का प्रस्थान, अगली पीढ़ी का आगमन, जीवन चक्र को अनवरत इसी तरह चलते रहना था। शायद इसीलिये वे बाबासा के पीछे-पीछे ही चली गयी थीं।

कितनी प्यार और ममता से भरी चीजें! छूने की देर होती थी बस, और आँसुओं का सैलाब किसी झरने की तरह झर-झर झरने लगता, तीव्रतम वेग के साथ।

वहाँ के सारे काम निपटाते, बरसों पुराने घर को समेटते, इस सारी प्रक्रिया में लगभग दो महीने लग गए थे। इतने कामों में आर्या का ध्यान रखना भी जरूरी था पर वहाँ मदद करने वालों की कमी नहीं थी। बाबासा के विश्वस्त लोग इतने थे कि हर काम तत्परता से हो रहा था। बाली से लगभग रोज बात करके हालचाल पूछ लेती। जब सारा काम समेटकर वापस लौटने को हुई तो लगा कि ‘अब न जाने यहाँ कब आएगी। आ पाएगी भी कि नहीं।’ इस धरती से दूर जरूर रहेगी मगर फिर भी यह धरती मन के बेहद करीब रहेगी। एक तृप्ति होगी कि माँसा-बाबासा के जीवन भर के श्रम को एक रचनात्मक अंजाम देकर, उसने अपना बेटी होने का कर्तव्य निभाया।

उसके सिर से ढाल जरूर हट गयी थी पर वह ढाल माँसा-बाबासा अब उसके हाथों में थमा गए थे अपनी लाडो आर्या बिटिया के लिये।

क्रमश...

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