Kesaria Balam - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

केसरिया बालम - 11

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

11

अपने नीड़ में

सब कुछ समेट कर घर लौटना ऐसा था जैसे एक युग का अंत करके ये वापसी हुई हो। बेटी की भूमिका पूरी हुई अब पत्नी और माँ के रूप में ही आने वाला कल होगा। बेटी का रूप माँसा-बाबासा के रहने तक ही था। अब वह बीता कल था, बीता कल जो बीत चुका था।

आर्या के साथ लौटते हुए मन शांत था। बच्ची ने इतने दिनों में बिल्कुल तकलीफ नहीं दी थी, नये माहौल में घुल-मिल गयी थी। उसके पानी का, दूध का बहुत ध्यान रखा था धानी ने। माँसा की खास सेविका सुगन मासी को उसकी देखरेख की पूरी जिम्मेदारी दे दी थी क्योंकि धानी को तो यहाँ-वहाँ कई लोगों से मिलना पड़ रहा था ताकि दान की हुई राशि का सही उपयोग हो सके। व्यस्तताओं की सूची में अनगिनत काम थे जो इतने कम समय में पूरे किए गए थे।

अब फिर से एडीसन पहुँचते हुए सोच रही थी कि इतने दिनों की दूरियाँ शायद पुराने बालम को लौटा लायी हों। लेकिन उसकी सोच गलत थी। दो महीनों की दूरियों से बाली का मन बदला नहीं बल्कि और भी कठोर हो गया। घर पहुँचकर हर काम की विस्तृत जानकारी दे रही थी वह बाली को लेकिन वह चुप था। जाने क्यों धानी को ऐसा महसूस हो रहा था कि बाबासा की संपत्ति दान देने की योजना से धानी को तो बहुत खुशी मिली थी लेकिन इससे बाली व धानी के रिश्ते में चिड़चिड़ेपन की एक और परत जुड़ गयी थी। हालाँकि कोई शिकायत नहीं की गयी, कुछ कहा नहीं गया, मगर शब्दों के परे जो था, वह उसे यही संदेश देता रहा कि धानी का यह दानी रूप बाली को अच्छा नहीं लगा।

बाली का मौन बोलता रहा और वह सुनती रही। उसके मन में क्या था, वह क्या चाहता था, सिर्फ कयास ही लगा पाती वह। घुन्ना हो जाए इंसान तो सामने वाला उलझनों में उलझ कर रह जाता है। धानी महसूस कर रही थी कि बाली के साथ उसका रिश्ता अब सचमुच उलझता जा रहा है।

बहरहाल, बाबासा की संपत्ति वाले इस बिन्दु पर धानी आश्वस्त थी। इस बारे में वह बाली पर निर्भर रहना भी नहीं चाहती थी। माँसा-बाबासा के घर के निर्णय वह खुद लेना चाहती थी। इसमें उसे बाली से किसी सलाह-मशविरे की जरूरत भी महसूस नहीं होती। पति-पत्नी के अपने-अपने फर्ज थे। बाली भी जो चाहे वह करे अपने रिश्तेदारों के लिये, वह पूरा साथ देगी उसका। बात जैसे शुरू हुई थी-वैसे ही खत्म हो गयी, एकतरफा बातचीत कब तक चलती।

भारत से लौटने के बाद कई दिन लगे अपनी दिनचर्या को नियमित करने में, अपनी बिखरी शारीरिक-मानसिक ऊर्जा को वापस लाने में। आर्या को प्री-स्कूल में छोड़कर, वापस काम पर जाने लगी थी धानी। धीरे-धीरे सब कुछ पटरी पर आने लगा, धानी, आर्या, बेकरी और घर, सिवाय बाली के रूखेपन के। एक ओर जहाँ आर्या के साथ काम की जिम्मेदारियाँ बढ़ी थीं वहीं दूसरी ओर बाली के साथ बढ़ती चुप्पी काम की गति और रुचि को प्रभावित कर रही थी। अब वह बदली-बदली-सी थी। काम पूरा करती पर तनिक बुझी-बुझी-सी रहती।

“सब कुछ ठीक है न धानी” मालिक की अनुभवी आँखें उसे देखतीं और पूछतीं। उसका वही हमेशा का जवाब होता -

“जी, जी, सब कुछ ठीक है”

रेयाज़ कहता – “डानी, मदर इंडिया। तुम ठीक नहीं लगता।”

“मैं ठीक हूँ, रेयाज़”

“कबी खुशी कबी गम, ना जुदा होंगे हम...” वह गाना गाना शुरू कर देता। धानी के होंठों पर मुस्कान लाने का यह प्रयास अच्छा लगता उसे।

“सच कहते हो रेयाज़। ये फिल्में हमारे ही जीवन का अक्स होती हैं।”

“डानी, तुम तो फिलासॉफर हो गया!”

“जीवन की फिलासॉफी है यह” इज़ी धानी के मन की बात को भाँपते हुए कहती।

उसकी चुप्पी को देख कोई उससे कुछ नहीं पूछता पर उसे हँसाने की कोशिश जरूर की जाती। इज़ी उसकी आँखों में छुपे पानी को बाहर नहीं आने देती और अपनी बेली डांसिग शुरू कर देती। फिर सब मिलकर उसे भी नचाते। घर पर मिल रही पीड़ा को एक हद तक दूर करते वे दोस्त जो अलग-अलग देशान्तरों से आए थे और सब साथ मिलकर एक परिवार बन गए थे।

उसकी मैटरनिटी लीव की अनुपस्थिति में इन सबने इतनी सहृदयता से बेकरी को संभाला था कि अब उन्हें अपनी किसी परेशानी से दु:खी नहीं करना चाहती थी वह। धानी की कई महीनों की छुट्टियों के बावजूद उन सबने बेकरी के व्यापार पर कोई फर्क नहीं पड़ने दिया था। उसके लौटते ही सब आश्वस्त हो गए थे कि अब धानी आ गयी है तो रिलैक्स अनुभव कर सकते हैं। बेकरी का मुनाफा उसी स्तर पर था जैसा वह छोड़ कर गयी थी। प्रसूति अवकाश के पहले उसने इज़ी को पूरी ट्रेनिंग दे दी थी। अब उसके आने से इज़ी काफी इज़ी महसूस कर रही थी। बेकरी के मालिक को भी थोड़ा आराम करने का मौका मिल गया था।

भारत से लौटने के बाद कुछ दिन आर्या भी बीमार रही लेकिन उसकी सारी जिम्मेदारी बाली ने ले ली थी। तब बहुत सहारा मिला था धानी को। उसे लगा था कि बाली और उसके बीच प्यार का एक अटूट सेतु है आर्या। बाली के लिये आर्या के करीब होना बहुत सहज है, अनिवार्य-सा ममत्व भरा प्यार तथा एक पिता और पुत्री का स्नेह जैसे उसके और बाबासा के बीच रहा है। आर्या ही है जो दूर होते दो छोरों को कसकर पकड़े हुए है। पति-पत्नी के बीच प्रेम का क्षरण होते जाना तो उसने महसूस किया है पर साथ ही साथ उसकी डोर आर्या के कोमल हाथों में उसे सुरक्षित भी दिखाई देती है।

बच्ची के पूरी तरह से ठीक होने के बाद बाली फिर घर से बाहर अधिक रहने लगा था। धानी खुद भी इतनी चुस्त नहीं रही जितनी यहाँ से जाने से पहले थी। माँसा-बाबासा को एक साथ खो देने का सदमा झेलता मन और भी बहुत कुछ झेल रहा था। इस समय बाली से अतिरिक्त सहानुभूति चाहता था मन, पर मिल रही थी अतिरिक्त चुप्पियाँ। अतीत का बाली उसके वर्तमान में बार-बार चला आता, उसे व्यथित करता, रुलाता और उसके विश्वास को कमजोर कर देता। कोशिश करती कि मन की बोझिलता घर में चहचहाती बिटिया की रौनक पर कभी हावी न होने पाए।

धानी के धनधान्य से भरे बचपन और काम की लगन से भरे यौवन में बाली की संपूर्णता न पाना एक कमजोर व धुंधले बिन्दु से एक गहरे डर की स्याही में फैलता हुआ उभर कर सामने आ रहा था। धानी की तेज निगाहें उस बिन्दु के आसपास मँडराती रहतीं कि सचमुच अगर किसी मोड़ पर कोई उसे बता दे कि बाली के मन में क्या है तो वह सब कुछ करने को तैयार हो जाए। उसके बस में हो, तो भी और बस में न हो, तो भी। आर्या के जन्म के पहले आए अच्छे दिनों के बाद जब फिर से बदलाव अपनी झलक दिखलाने लगा तो वह अपनी ही गलती ढूँढने की कोशिश करती कि वही उसके अंदर तक नहीं पहुँच पा रही है। कहीं कोई खामी रह गयी है उसके प्यार में जो बाली को बदलने के लिये विवश कर रही है।

क्यों बाली खुलकर बात नहीं करता।

आखिर क्यों पूर्णता नहीं है उन दोनों के रिश्ते में।

वह क्यों बेटी आर्या से तो खुलकर प्यार जताता है, लेकिन माँ के लिये उपेक्षा दिखती है

उसकी आँखों में।

उन दोनों के बीच क्यों एक बर्फ की दीवार बनती जा रही है।

ऐसी दीवार जो प्यार की गर्मी से पिघलने के बजाय ठंडी बर्फीली परतों की शिला बनाती

जा रही है।

धानी करती भी तो क्या करती। मन की बातें किसी को नहीं बता पाती। सखियों से इतनी दूर थी। पहले एक सप्ताह, फिर एक महीने और अब तो महीनों में एकाध बार कजरी-सलोनी से बात हो पाती है। कुशल मंगल की औपचारिकता में ही बात खत्म हो जाती है अब। वैसे भी लंबी दूरी के रिश्तों की आँच धीरे-धीरे कम हो ही जाती है।

बाबासा के जाने के बाद सलोनी तो उससे मिलने आ गयी थी लेकिन कजरी से मिलना न हो सका। कजरी व सलोनी दोनों दो-दो बच्चों की माँ बन गयी थीं। बच्चों की चिल्लपों में सखियों की चुहलबाजी तो शायद उन्हें याद भी न आती होगी। उनके लिये अब धानी अतीत थी। हर एक का अपना अलग संसार था। सब यही सोचते होंगे कि कौन, किससे अधिक खुश है। और फिर धानी तो अमेरिका में है, कोई तकलीफ कैसे हो सकती है भला उसे। अमेरिका शब्द ही ऐसा था कि बस नाम भर लेने से ये लगता कि वहाँ रहने वाला हर आदमी बहुत सुखी होगा, बहुत खुश होगा।

देशों की सीमाओं से बाहर उसकी अपनी भी सीमाएँ थीं। शायद एक उम्र के बाद हर उस लड़की के साथ ऐसा होता होगा जो बदलते समय को स्वीकार कर लेती होगी। वह इसी तरह अपने मन को समझाती रही। धीरे-धीरे बिटिया के बड़े होने के साथ अगर कुछ बदला था तो वह बस इतना था कि दिन के उजाले में घर में खूब चहल-पहल रहती, रौनक रहती और रातें शांत हुआ करतीं।

घर और काम के बीच आर्या की देखभाल की जिम्मेदारी धानी को थका देती थी पर थकान दूर करने की हिम्मत भी वहीं से मिलती। बाल अठखेलियों में कई अनावश्यक तनाव कम हो जाते। नयी-नयी शरारतें और बच्ची का तुतला कर बोलना सीखना नया उत्साह तो देता साथ ही बेहतर रिश्तों की उम्मीद भी बनाए रखता। बालसुलभ बातों की सहजता थके हुए तन-मन को बेहद सुकून देती।

ममा-पापा के साथ बोलना शुरू करते जब वह अंग्रेजी के कुछ वाक्य बोलती तो बहुत खुश होते धानी और बाली। “लव यू”, “मिस यू”, जैसे शब्द बोलने उसे बहुत पसंद थे। खासतौर से अपने पापा से बार-बार कहती थी। वह ममा-पापा के साथ खेलती, पार्क में जाती, छोटी-सी बाइक चलाती। धानी और बाली के सारे शब्द जैसे आर्या की जबान पर होते। तब धानी को लगता कि बच्चे बड़ों का अनुकरण कितनी आसानी से कर लेते हैं, काश! बड़े भी बच्चों की निश्छलता का अनुकरण कर पाते!

क्रमश...

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