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केसरिया बालम - 9

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

9

फूटती कोंपल

और तभी प्रकृति ने मदद कर दी।

बाली और उसके प्यार का जीता-जागता संकेत मिल गया। उसके पेट में बाली के प्यार का बीज अंकुरित हो रहा था। जब बाली को यह खबर मिली तो उछल पड़ा वह। बहुत खुश हुआ। इतना खुश जितना शादी के दिन भी नहीं था। समय एक बार फिर धानी के लिये वैसी ही खुशियों का पैगाम लेकर आया था। बाली का चहकता चेहरा देखकर मन की सारी दुविधाएँ खत्म हो चली थीं। उसे बच्चों से बहुत प्यार था।

पगला है बाली भी। उसे प्रेम को आकार ही देना था तो इतना गुमसुम रहने की क्या जरूरत थी। वह सीधे-सीधे भी तो कह सकता था। कोई जरूरी तो नहीं कि हर बार धानी ही अलिखित प्रेम की भाषा को पढ़े, समझे और वह करे जो बाली को बहुत प्रिय हो। बाली को भी तो अपनी प्रेम की भाषा को सरल बनाकर उसके बालों के गुच्छे में सजाना आना चाहिए।

बाली अपने घर की अकेली संतान था। इसीलिये उसने अपने आसपास किसी बच्चे को पाया नहीं था। आनेवाले बच्चे के स्वागत के लिये आतुर बाली एक पिता की भूमिका निबाहते हुए धानी के आसपास ही रहने लगा। काम पर जाना कुछ दिनों के लिये बंद किया धानी ने क्योंकि उसे लगातार उल्टियाँ हो रही थीं। बाली तो चाहता ही नहीं था कि बच्चा होने तक धानी काम पर जाए। यह एक ऐसी जिद थी उसकी कि अगर धानी कुछ भी करे तो बच्चे को खतरा है। उसे बिस्तर पर ही रहना चाहिए। बीच में एक बार हल्की-सी खाँसी-सर्दी व बुखार हो गया था तो उसने जमीन-आसमान एक कर दिया था उसे ठीक करने के लिये।

अपने बच्चे के लिये यह प्यार देख धानी को बहुत अच्छा लगता, पर शंकाओं के बादल भी छा जाते। कभी कहीं कोई गड़बड़ हो गयी तो बाली सहन नहीं कर पाएगा। एक चिंता आकर पसर जाती। भगवान करे, सब कुछ ठीक हो। बच्चे का जन्म ठीक से हो जाए, दोनों ठीक रहें-जच्चा भी बच्चा भी। आदमी से आदमी निकलना कोई हँसी खेल तो नहीं। एक सेकंड में किसी को भी कुछ भी हो सकता है। और अगर ऐसा कुछ भी हुआ तो बाली पर क्या गुजरेगी, इसका अंदाजा उसे था।

एहतियात के तौर पर धानी ने काम पर न जाना ही उचित समझा। हालाँकि उल्टियों से थोड़ी राहत मिलते ही कुछ घंटों के लिये बेकरी जरूर चली जाती ताकि अपना सारा काम इज़ी को समझा सके। अपनी तमाम जिम्मेदारियों को हर एक में थोड़ा-थोड़ा बाँटना था। इज़ी, ग्रेग, लीटो, यहाँ तक कि कम्प्यूटर एक्सपर्ट डेविड को भी कुछ काम दिए गए। कई बार फोन करके भी सबका हालचाल पूछ लेती।

“सब कुछ कंट्रोल में है धानी, चिंता न करो। अपनी सेहत का ध्यान रखो।”

ग्रेग भी कहता “डानी, बेबी को आ जाने दो। फिर चिंता करना, अभी नहीं।”

“नो मोर बेली डांसिग इज़ी, काम करो काम।” इज़ी खुद से ही कहती।

बहुत अच्छा महसूस करवाते ये उसके दूर के मगर बेहद करीबी रिश्तेदार। ऐसा लगता जैसे बहन, भाई चचेरे-ममेरे बहन-भाइयों की टोली हो यह, जो उसे चिंता से मुक्त करके मैटरनिटी लीव पर भेज रहे हों। लेकिन वह जानती थी कि हर किसी पर काम का बोझ काफी बढ़ गया होगा। धानी के साथियों ने मिलकर उसकी अनुपस्थिति से बेकरी के काम को प्रभावित नहीं होने दिया था। धानी के घर पर रहने के बावजूद बाली बेफिक्र नहीं हुआ। वह स्वयं भी थोड़ी बहुत देर के लिये काम पर जाता और वापस आ जाता। नौ महीनों तक इसी तरह वह उसके आगे-पीछे रहा। बच्चे के प्रति बाली का जुनून धानी को परेशान तो करता लेकिन वह परेशान रहने वालों में से नहीं थी। उल्टे आशान्वित रहती कि यह नया परिवर्तन, नया जीवन देगा।

बाली में आया यह बदलाव एक अनजानी खुशी दे रहा था। उसकी समीपता, उसका दिन-रात के उठने-बैठने पर नज़र रखना, एक संदेश देता कि बाली उससे कितना प्यार करता है। वह उन दिनों अपने काम पर भी उतना ध्यान नहीं दे रहा था, इस बात का अहसास था धानी को। लेकिन वह साथ इतना प्यारा था कि वह उसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहती थी। बाली के लिये उसकी ओर से कोई रोका-टाकी कभी न होती।

जब वह बैठकर प्यार से उसके पेट पर हाथ फेरता, अपने बच्चे की धड़कनों को सुनने के लिये उसके पेट पर कान लगाता तब धानी को लगता कि उसने दुनिया भर की खुशियाँ पा लीं। हज़ारों मिन्नतें करती भगवान से कि बाली को उसके इतना ही करीब रखे। सारी बलाओं से दूर दोनों अपने संसार में रहें, एक दूसरे के साथ। बाली के लौट आने की अपार खुशी ठीक वैसी ही तृप्ति थी जैसी सूखी जमीन को बारिश की फुहार से होती है।

डिलीवरी के समय माँसा और बाबासा का आना तय था लेकिन बाबासा की तबीयत ऐन मौके पर ऐसी बिगड़ी कि टिकट कैंसल करवाने पड़े। बिटिया को जब सबसे अधिक जरूरत थी माँसा की उस समय वे उसके पास न जा सकीं और मन मसोस कर रह गयी थीं। फोन पर हजार हिदायतें देना और बारबार हालचाल पूछना नियमित था। एक ही संबल था इस सबके बीच कि “बाली कँवरसा तो हैं वहाँ, सब कुछ सँभाल लेंगे।”

इन्हीं संदेशों के बीच आखिर वह समय आ ही गया जब अस्पताल के कमरे की मेज पर प्रतीक्षा थी उस मासूम नन्हीं जान की। दो इंसानों के बीच के रिश्ते को सँवारने एक नया मेहमान आने वाला था। बहुत दिनों के बाद घर में बड़ी खुशी आने वाली थी-एक बच्चे के रूप में। बाली बहुत परेशान था, चिंतित भी। धानी को इस समय सांत्वना की जरूरत थी। वह पीड़ा झेल रही थी पर साथ ही बाली का हाथ पकड़ कर उसे भी दिलासा देती कि “थोड़ा आराम कर लो, सब ठीक होगा”।

उसने न कुछ खाया, न पीया। जब तक बच्चे के रोने की आवाज नहीं सुन ली, वह टेबल के पास से हटा नहीं।

आर्या का जन्म हुआ। एक स्वस्थ और प्यारी-सी बच्ची। हूबहू धानी की प्रतिकृति। दोनों की लाड़ली बेटी आर्या जिसने माता-पिता का संसार बदल दिया। चाहत के नए पौधे उगने लगे। दो दिन अस्पताल में रहने के बाद वे घर आ गए। अब बाली ज्यादातर घर पर रहता, खूब बातें करता, उसके साथ तुतलाता, खेलता। उसके हर काम करता, यहाँ तक कि डायपर भी बदलता। पिता और पुत्री का वह प्यार धानी देखती तो भाग्यवान समझती खुद को जिसने जन्म दिया बेटी को। माँसा-बाबासा के प्यार का अक्स बन जाते जब धानी और बाली दोनों आर्या के साथ खेलते हुए बातें करते। वही बचपन देने की कोशिश होती जो उसने जीया था। एक खिलखिलाता बचपन। उन्मुक्त हँसी के बीच कई सपने बुने जाते, कई कल्पनाएँ होतीं भविष्य की जो अतीत के साथ मेल खातीं, इतिहास को दोहरातीं। बच्चे की रौनक ने घर को पूरी तरह से बदल दिया था।

बाली का बच्ची के प्रति अथाह प्यार एक बड़ी राहत थी धानी के लिये। महीने भर के आराम के बाद वह फिर से अपने घर का सामान्य कामकाज करने लगी थी। अब उतनी कमजोरी नहीं रही थी। प्रसव से पहले और प्रसव के बाद की, लंबे समय तक की दूरियों के बाद अब उसकी चाह होने लगी थी कि बाली उसके समीप आए। उसकी देह कैनवास हो जाए और बाली उसके पोर-पोर में रंग भरता रहे। वह खुद को इन्द्र धनुष बनते देखना चाहती थी। बादलों के बरसने के बाद जब कोरा आकाश शांत और निर्मल हो ठहर जाता है, सूरज की एक पतली-सी किरण टूट-टूट कर रंगों में बिखरने लगती है। वह भी कुछ ऐसी तरंगों में बँट जाना चाहती ताकि कोई इन्द्र धनुष रच सके। प्रेम जब भौतिक होने लगता है, आकार लेने लगता है तो कई रंगों से मिलकर बनी रंगीली छटाएँ मुग्ध कर देती हैं ।

पुराना बाली उसे मिलता तो सही लेकिन किश्तों में और उन किश्तों का कोई समय भी न होता। कभी दैनिक, कभी साप्ताहिक और कभी मासिक। लेकिन आर्या के लिये तो वह हर वक्त एक स्नेहिल पिता था। अपनी बच्ची के लिये अथाह प्यार। अपने अंश को अपने में समेटता हुआ, बच्ची को बड़े होते देखता पिता। बाली का वह पितृत्व बाबासा की याद दिलाता।

बड़ी होती बेटी अपने पिता के हृदय में एक पौधे-सी उगने लगती है शायद। जब बाली आर्या के साथ खेल रहा होता तो धानी को लगता प्रेम किस तरह रूप बदलता है। कभी बाली बादल बन धानी की धरती पर बरसता था, अब धानी ने उस मेह को वाष्प में बदल कर फिर से बाली के आकाश में भर दिया है। प्रेम ऐसा होता है कि पिघलता है तो बरसता है। उष्णता पाता है तो घनीभूत होता है ताकि फिर बरस सके। यही तो चाहती है प्रकृति कि उसका बादल कभी शुष्क और खाली न हो।

बच्ची को “यह किया, वह किया” जैसे कई सवाल धानी से करता बाली। इस अपेक्षा के साथ धानी जवाब देती कि वह यह भी पूछे कि “तुमने खाना खाया, चाय पी।” किंतु उसे आर्या के साथ खेलता देखकर सब कुछ भूल जाती।

एक बच्चे के परिवार में आगमन से पति-पत्नी, घर, या यूँ कहें कि घर की हर चीज का अर्थ ही बदल जाता है। आर्या के लिये इतने सारे खिलौने, कपड़े और इतना सामान इकट्ठा किया जा रहा था कि वह सब धानी को अपव्यय लगता। पर बाली की खुशी में साथ देती वह। घर में पैसा इस तरह उड़ाया जाए यह उससे देखा न जाता। पर जानती थी कि यह सब बाली की खुशियों का प्रतीक है। अपनी खुशी को वह इसी तरह जाहिर करता है। तब वहाँ जरूरती, गैरजरूरती जैसे शब्दों का कोई मतलब नहीं होता। उस समय दिल में जो आया, वह किया।

रोज माँसा-बाबासा वीडियो कॉल पर अपनी लाडो की लाडो को देखते और खुश होते। अब जाकर उन्हें धानी की प्रसूति की चिंताओं से मुक्ति मिली थी। राजस्थान में होती बिटिया तो अब तक कितनी रस्में हो जातीं। गोद भराई की, बच्चे के होने के बाद की, छठ की, सूरज पूजा की। पर इतनी दूर थी वह कि वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। जब वापस आएगी बच्ची को लेकर तब अपनी सारी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे।

माँसा वहीं से बच्चे की नज़र उतारतीं, धानी की भी नज़र उतारतीं। उन्हें लगता कि उनके मन को संतोष हो जाएगा ऐसा करने से। थोड़ी चिंताएँ कम हो जाएँगी। बाबासा बहुत खुश थे, नानासा जो बन गए थे।

तुतलाते हुए आर्या से बातें करते और धानी के बचपन को याद करते।

“धानी लाडो, तू भी तो ऐसी ही थी, जब छोटी थी।”

“हाँ, सच्ची, बिल्कुल ऐसी ही थी। तब तो कहते थे कि माँसा पर गयी है, तो आर्या लाडो भी तो नानीसा पे गयी है।”

“हाँ नानीसा पे गयी दोनों बेटियाँ, नानासा तो कहीं है ही नी बिचारा।”

धानी को बीच बचाव करना पड़ता।

“या तो नानीसा-नानासा दोनों पे गयी है, है न लाडो।”

तब आर्या की “ऊँ आँ” सुनकर सब खुश हो जाते।

अपने आसपास से, परिवार के हर सदस्य से खुशियाँ बटोरती आर्या बड़ी होने लगी। हर नये दिन के साथ, हर गुजरते दिन के साथ उसकी नयी-नयी अठखेलियाँ सबको खुश करती रहतीं।

क्रमश...

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