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केसरिया बालम - 18

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

18

केसरिया से केस

कानून का खेल शुरू हो गया था।

जब कानून बोलता है तो सब बोलते हैं, अदालत में वकील बोलते हैं, जज बोलते हैं और फैसले बोलते हैं। घर की बात बहुत आगे बढ़ चुकी थी। कोई नहीं जानता था कि पीड़ित को इससे और अधिक पीड़ा मिल रही थी। न चाहते हुए भी वह सब करना पड़ रहा था जो उसने कभी नहीं चाहा था। बिटिया का क्रोध भी जायज़ था। घरेलू हिंसा से जुड़े कोर्ट में कार्यवाही शुरू हो गयी। बाली को ढूँढ लिया गया था और केस चलने तक घर में न घुसने के निर्देश दे दिए गए थे। सब कुछ इतनी तेजी से हो रहा था कि धानी कुछ सोच ही नहीं पा रही थी। अब बेटी की जिद है, पहले उसके पिता की जिद थी। कुछ तो धानी की अपनी जिद भी थी जो उसे इस दशा तक ले आयी।

इस तरह कई जिदों के टकराव में परिवार टूट रहा था। जिस परिवार को कायम रखने के लिये वह झूठी उम्मीदों में जीती रही, अब वही परिवार टूटने के कगार तक पहुँच गया था। धानी को अब भी यही चिंता थी कि बाली कहाँ रहेगा, कैसे रहेगा।

आर्या सुनती तो कहती – “ममा, बहुत हो गया अब। किसकी चिंता कर रही हैं आप, उस आदमी की जिसे आपने बहुत मौके दिए। अब और नहीं।”

अपने पापा को पापा न कहकर ‘उस आदमी’ के रूप में संबोधित करना स्वयं आर्या के लिये सदमा था। जितना गहरा प्यार था आज उतनी ही गहरी नफरत झलक रही थी। वही बिटिया जो पापा के गले लगकर झूमते हुए अपनी हर बात मनवा लेती थी, आज इतनी बड़ी हो गयी थी कि अच्छाई और बुराई में फर्क अपनी ममा से ज्यादा समझने लगी थी।

सिर्फ एक क्षण लगा उसके प्यार को नफरत में बदलने में। कर्कश आवाज थी उसकी - “आदमी को अपने किए की सजा मिलनी ही चाहिए।”

नवयुवा पीढ़ी का यह आक्रोश, इस पार या उस पार वाला था।

कोर्ट के सवालों-जवाबों में जीवन के वे निजी पल आते जब वहाँ तीसरा कोई नहीं हो सकता था। छोटी से छोटी जानकारी ली जी रही थी।

“क्या होता था तब?”

“बस वह अधिक आवेश में होता था, जानबूझकर कुछ नहीं करता था।”

“चीखें निकलती थीं?”

“हल्की-हल्की, कभी-कभी।”

“शराब?”

“जी नहीं।”

“मारने के लिये हाथ उठाता था?”

“जी नहीं, कभी नहीं।”

“गालियाँ देता था?”

“जी नहीं, बिल्कुल नहीं, कभी नहीं।”

“चिल्लाता था, चीजें फेंकता था?”

“जी नहीं, सच बताऊँ तो वह एक बहुत अच्छा पति और उससे भी अच्छा पिता है। उसने कभी ऐसा कुछ नहीं किया।”

अजीब-सा केस था यह, जहाँ हिंसा का दोषारोपण नहीं था बल्कि उसे आवेग का नाम दिया जा रहा था। उसकी अच्छाइयों को गिनाया जा रहा था। किसी तरह का कोई आरोप-प्रत्यारोप नहीं। पीड़ित धानी की ओर से कुछ भी नहीं बताया जा रहा था। बताती भी तो कैसे। कुछ होता तब तो बताती। बस उन्हीं कुछ पलों में यह सब हो जाता था। जिसे आवेग और उन्माद ही कहा जा सकता है, हिंसा नहीं।

धानी के लिये अपनी बेटी के सामने उन पलों को उजागर करना सबसे अधिक शर्मनाक था। सब सुन रहे थे। काली अंधेरी रातों में दो समझदार व्यक्तियों के शरीरों की गुत्थमगुत्थी दुनिया की नज़रों में हिंसा थी। उसे लोगों की ऐसी सहानुभूति बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती। वह कभी नहीं चाहती थी कि इन सब बातों की चर्चा हो। पर एक सच यह भी था कि प्यार जब गुनाह में बदलने लगे तो सज़ा तो मिलनी ही चाहिए।

लोग दाँतों तले उँगली दबाते। अखबार खुल कर लिखते। साउथ एशियन परिवारों में बढ़ती हिंसा। चावल का एक दाना पूरी फसल को बदनाम कर देता है। उसे बहुत बुरा लगता था जब उसके बाली से जुड़े संबंधों को जग जाहिर किया जाता। बहुत कचोटता मन को यह सब। अंदर तक कोलाहल महसूस करती जब बाली परेशान होकर इधर-उधर घूमता। बचने के प्रयास में धानी को कातर निगाहों से देखता था। ठीक उसी तरह जैसे उन रातों में वह भीख माँगती थी अपने शरीर को उसकी दबोच से छुड़ाने की। और वह निष्ठुर हो जाता था इतना कि धानी उसे माँस का एक लोथड़ा भर लगती जिसे आटे की तरह मसल-मसल कर अपनी क्षुधा शांत करता था। उसकी पीड़ा से भरी हल्की चीखें उसे उन्मत्त करती थीं। धानी एक भूखे बच्चे की भूख मिटाने का प्रयास करती हुई सारी पीड़ाएँ झेल जाती थी।

ममा से जी भरकर बहस करती बिटिया – “अब तक आप चुप रहीं। आखिर क्यों?”

“जुर्म करना ही अपराध नहीं। जुर्म सहना भी अपराध ही है।”

“क्यों इतनी गुमसुम रहीं, जिस मिट्टी से आयी हो उसका तो मान रखतीं।”

“मुझे नहीं पता था कि मेरी ममा इतना कमजोर हैं, कायर हैं!”

तब धानी को लगा था कि उसकी चुप्पी उसके कायर होने को सबूत दे रही है। वह तो स्वयं अपने बलबूते पर घर चला रही थी। कायरता कहीं नहीं थी। बस परिवार को बचाने का मोह था।

वह बिटिया से सिर्फ इतना ही कह पायी कि – “बेटा, मैं कमजोर नहीं हूँ, कायर भी नहीं हूँ। इसलिये नहीं सहती थी कि मैं विवश थी या कुछ कर नहीं सकती। मैं तो सिर्फ और सिर्फ इसलिये चुप थी कि मैं तुम्हारे पापा से बहुत प्यार करती हूँ। बस उनके बदलने का इंतजार था, बस... इसीलिये...।”

“पापा से प्यार करना गलत नहीं था लेकिन उस अपराधी आदमी से? उसके जुर्म से? नहीं! उसके जुर्म से नहीं। मैं भी पापा को बहुत प्यार करती हूँ ममा, लेकिन उनके इस रूप से बिल्कुल नहीं।”

कब, क्या, कैसे, क्यों जैसे सारे प्रश्नवाचक शब्द धानी के समक्ष अपना अस्तित्व खो चुके थे अब। अगर कुछ शेष था तो बस एक खालीपन। शांत व निर्विकार, भावशून्य अहसास। कुछ इस तरह की अनुभूति थी कि “जब जो होगा, हो जाएगा”।

वह जानती थी कि टिमटिमाते जुगनू अच्छे लगते हैं पर वह टिमटिमाहट देखने के लिये अँधेरा भी तो घना चाहिए होता है न? इसी अंधेरे में शायद वह जुगनू की तरह टिमटिमाना चाहती थी। किंतु एक सच यह भी कि अंधेरा उस जुगनू की रोशनी से कभी खत्म नहीं होता उसके लिये तो सुबह का ही इंतजार करना पड़ता है। शायद उसके इंतजार की घड़ियाँ अब खत्म हो चुकी हैं। उसे इस बात का कोई अफसोस भी नहीं कि वह इंतजार क्यों करती रही।

महत्वाकांक्षाओं के बढ़ते दायरों ने पूरा जीवन-रस सोख लिया। एक भले आदमी की इंसानियत हैवानियत में बदलती गयी और धानी कुछ नहीं कर पायी। बीते हुए कल को देखकर कम से कम ये तसल्ली तो मिलती थी कि उसने अपने परिवार को बचाने का पूरा प्रयास किया। आसानी से रिश्ते टूटने नहीं दिए। वैसे भी एक रिश्ता टूटता है तो कई रिश्तों की डोरियाँ खुद-ब-खुद टूट जाती हैं। बचपन के दिनों की मिठास अपने इस परिवार में देखने की उम्मीद बनी रही। वह माँसा जैसी नहीं बन पायी। कभी-कभी यह उसकी खुद की असफलता लगती।

उसके जीवन में दो पुरुषों का सानिध्य रहा। सालों पहले का राजस्थान के ठेठ देहाती युवक बाबासा, सालों बाद दुनिया की सबसे विकसित धरती का अमेरिकन युवक बाली। कहाँ गाँव की कठोर जीवन शैली से जुड़े लोगों की मीठी-सी दुनिया, कहाँ आरामतलब, सुविधाभोगी जीवन शैली वाली कठोर, कड़वी-सी दुनिया। इन दो दुनियाओं के बीच था उसका दिलो-दिमाग, जिस पर से बाली का भूत कभी नहीं उतरा। अच्छी यादों की भीड़ में बुरी यादें खुद-ब-खुद छुप जाती थीं।

प्रतिकूल परिस्थितियाँ बाली को उससे दूर ले गयी थीं। वह उसका कंधा नहीं बन पायी। उसे अपने जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति नहीं दिला पायी। अब घर में भय की सरसराहट थी। तीन लोग तीनों की दिशाएँ अलग। घर में शांति थी, शांति के पीछे का शोर धानी सुन पा रही थी। टूटन की आवाजें चारों तरफ थीं।

केस चलता रहा।

यह तकलीफ जीवन की कई तकलीफों से बहुत बड़ी थी। घर की कड़वाहट घर से बाहर निकलकर कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाए तो वह कसैलापन सदा के लिये जिंदगी में रह जाता है। रिश्तों की चीरफाड़ कचहरी में होने लगे तो मन खूनाखून हो जाता है। आँसू नहीं बहते जैसे रक्त बहता। कोर्ट की तारीखों पर वहाँ जाना और बाली का सामना करना भी किसी बड़ी सजा से कम नहीं था।

इधर बाली से रिश्ता टूट रहा था, उधर धानी टूट रही थी। कोर्ट में पेशियाँ होती रहीं। छ: महीने का समय था सुधरने के लिये लेकिन बाली के लिये स्वयं को बदलना आसान न था। अंतत: कोर्ट ने दोनों को दूर रहने की ताकीद की। तलाक ने रिश्तों को खत्म किया। बाली को सजा हुई। स्थिति की गंभीरता ने बाली को जेल पहुँचा दिया था।

बहुत सारे उतार-चढ़ाव से जूझता मन थोड़ा स्थिर तो हो गया था किंतु मन में आने वाले कल को सोचकर तमाम दुश्चिंताएँ भी थीं। पता नहीं केस जीतकर भी वह पहले की तरह जी पाएगी या नहीं। उस घर में रह सकेगी या नहीं जहाँ बाली नहीं होगा। हालाँकि अब ऐसे सवालों के मायने खत्म हो चले थे। धानी के मन में तमाम सारी बातें आतीं, चली जातीं। आज आर्या उसके साथ है। वही बेटी जिसने बड़े साहस से अपने पिता को उसके कर्मों की सजा दिलाई। धानी यह सोचकर आश्वस्त थी कि कभी जरूरत पड़ी तो अपने लिये भी आर्या इसी साहस और जुनून से लड़ सकेगी।

आर्या कभी अपने पापा से मिलने जेल नहीं गयी। उसकी नफरत भी उतनी ही तीव्र थी जितना उसका प्यार। बाली का साथ छूटने के बाद धानी का जीवन एक अजीब से खालीपन से भर गया था। यह केस उसके लिये आजीवन सजा हो गया था। बाली कभी जेल से बाहर आया तो भी उन दोनों के पास फटक नहीं सकता था। दूर से ही कल्पना में सलाखों के पीछे खड़े बाली की आँखों का दीन हीन भाव दिखाई दे जाता। वह अपनी आँखें बंद कर लेती। सालों पहले उसकी एक झलक के लिये तरसती उन आँखों की लालसा जैसे अब मर गयी थी।

फैसले के बाद उस दिन कोर्ट से जब घर आए तो वह बेडरूम में नहीं जा सकी थी। अब वह पूरे समय किचन और बैठक में ही रहती। बेडरूम शब्द के साथ तमाम ढीठ यादें चली आतीं। बरसों पहले नये जीवन की शुरुआत करते मन उमंगों भरा था, आज इस नये जीवन की शुरुआत करते मन पूरी तरह खाली है। एक और नये आकाश में नयी उड़ान, लेकिन उसके पंखों ने तो उड़ने से इंकार कर दिया है।

क्रमश...

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