पुस्तक समीक्षा-राजेन्द्र लहरिया राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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पुस्तक समीक्षा-राजेन्द्र लहरिया

पुस्तक समीक्षा-

आलाप-विलाप: समझदारी और गहराई भरा कथ्य

राजनारायण बोहरे

आलाप-विलाप उपन्यास राजेन्द्र लहरिया का आकार में एक लघु उपन्यास है लेकिन इसके आशय बहुत गहरे और सूक्ष्म हैं। यह उपन्यास ऐसे दौर में सामने आया है जब यह महादेश अन्ना हजारे द्वारा शब्दांकित कर दी गई जन सामान्य की निराशा को यकायक अपने भीतर से उठती अलग-अलग रूपों की असंतुष्टि व पीड़ा के रूप में महसूस रहा है। भले ही अन्ना की वास्तविकता और उनके पीछे का नेैपथ्य अभी साफ नहीं हो सकता है लेकिन इतना तय है कि उनकी अंगुली सही दिशा में संकेत कर रही है।

आलाप-विलाप का मूल कथानक अविनाश नारायण नामक एक ऐसे शख्स के इर्द-गिर्द बुना गया है जो संगीत का विद्यार्थी, संवेदनशील है और वाद्य यंत्र ही नहीं जीवन व संसार को भी सुरीला देखना चाहता है। मूल कथानाक से जुड़ी कथानायक के दो दोस्तों की उपकथायें हैं जो अपने इर्द-गिर्द की बिगड़ैल व्यवस्था पर अपने तरीके और सीमित साधनों से निशाना साधते हैं, उसकी विसंगतियां उजागर करते हैं और प्रशासन कीआँख की किरकिरी बन जाते हैं। इस उपन्यास में आई स्थितियां पाठक को अति कल्पित, असंभव और कृत्रिम नही ंलगतीं, बल्कि अपने आसपास घट रही रोजमर्रा की बातें और अखबारों में छपने वाली ख्चाबरों मे ंसे एक लगती है, लेकिन रचनाकार का कौशल है कि वह इनके बीच में कहानी बुन लेता है और उसे ठीक तरीके से सुनानाशुरू करता है तो पाठक ठिठक कर उस कथा में बंधा रह जाता है, इसलिए भी कि उपन्यास के चरित्र भी पाठक को अपने दोस्त , रिश्तेदारों में से कोई एक लगते हैं।

अविनाश और रामरतन व नंदकिशोर बचपन के दोस्त हैं। प्राथमिक शिक्षा साथ में ग्रहण की है उन्होने। बाद मे ंरामरतन व नंदकिशोर ने बाहर चले गये और रामरतन ने बी0ए0किया व नंदकिशोर ने पी-एच0डी0 । इधर किशोरावस्था में ब्याह दिया गया अविनाश कुछ दिन अपनी पत्नी के देहविलास में उलझता है फिर पत्नी के उजड्ड स्वभाव और बेशऊर हरकतों से गुस्सा होकर संगीत में व्यस्त हो जाता है, जहां उसके गुरू मिट्ठन मास्टर उसे न केवल संगीत सिखाते हैं वरन विभिन्न तरह के कार्यक्रमों में लेजाकर उसकी प्रस्तुतियां कराते हैं। अविनाश का संगीत ज्ञान और रियाज ही उसे अखिल भारतीय संगीत समारोह तक पहुंचा देता है। इस समारोह में अविनाश की शानदार प्रस्तुति से अभिभूत हो कर अंतरा चटर्जी नामक खूबसूरत और हुनरमंद नायिका आती है और अविनाश उसके व्यक्त्वि से सम्मेहित से हो जाते हैं। उपन्यास के आरंभ और अंत में अंतरा चटर्जी को एक खूबसूरत ख्वाब के जरिये उपस्थित कर उपन्यासकार ने पाठक के मन में बैठे रसिक मन को सहलाया है।

अपने संगीत प्रेम और उसके रियाज में उलझे अविनाश नारायण को बचपन के दोनों दोस्त एक अरसे बाद मिलते हैं तो उनके साथ उनकी आपबीती कहानियाँ आती हैं जिनमें उन दोनों का जागरू नागरिक होना भर उनकी मुसीबतों का कारण बन जाना ज्ञात होता है। रामरतन जो बचपन से कविताऐं लिखता था अब एक ख्यातनाम कवि बन चुका है लेकिन समाज और प्रशासन के लिए उसका कोई महत्व नही है, रचनाकारों के प्रति समाज और प्रशासन की उदासीनता को लेखक ने प्रभावी ढंग से प्रकट किया है। रामरतन के गाँव के किसान बिहारी जाटव का खेत गाँव का दबंग मृत्युंजय चौधरी दबा लेता है और उस पर अपनी फैक्ट्री बनाने लगता है और विहारी असहाय व लाचार सा इस घटना को स्वीकार कर रहा होता है कि रामरतन का जमीर उसे विवश करने लगता है कि वह शोषित बिहारी जाटव के साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ाई शुरू करने को प्रेरित करता है। वह पहले थाने जाकर दारोगा को और बाद में कलेक्टर को और अन्त में मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री को आवेदन और पत्र लिख कर विहारी जाटव के साथ हुए अन्याय को खत्म कराने का अनुरोध करता है। लेकिन थानेदार से प्रधानमंत्री तक किसी के भी कान पर जूं नहीं रेंगती। वर्तमान व्यवस्था की संवेदनहीनता और लकीर के फकीर बने रहने की प्रकृति को यहां आकर कथाकार पूरी ताकत से उजागर करता है।

उधर नंदकिशोर के साथ एक दूसरी घटना घटती है, गाँव में आ कर कैम्प लगाये बैठे तहसीलदार द्वारा जब सामले नामक किसान को बारह सौ रूपये जुर्माना जमा करने का हुक्म देता है और सामले पूर्व ही यह जुर्माना जमा कर चुकने की सूचना देता है तो तहसीलदार उसकी बात न मान कर उसके ढोर-जायदाद कुर्की कर लेने की धमकी देता है और ऐसे में नंदकिशोर सामले को उसके घर से रशीद ले आने की सलाह देता है। रशीद मिल जाती है तो नंदकिशोर सामले के साथ जाकर तहसीलदार को दिखाता है और रशीद देखकर खिसिया गये तहसीलदार से कहता है कि वह एक बेगुनाह आदमी को कैसे कुर्की के लिए धमका सकता है, समय भांप कर चुप रह गया तहसीलदार बाद में नंदकिशोर के खिलाफ मारपीट और जान से मारने की धमकी का आरोप लगा कर थाने में एफ0आई0आर0 दर्ज कराता है, जिसके कारण लम्बी पेशियाँ भुगतते हुए अंततः नंद किशोर को जेल की सजा होती है।

हमारे सामने घट रही दिन-प्रतिदिन की घटनाओं में प्रशासन की संवेदनहीनता, लापरवाही और तानाशाही को उजागर करने वालों के साथ धृष्ट और भ्रष्ट व्यवस्था की कमीनगी को बहुत मार्मिकता के साथ पाठकों के सामने लाता यह उपन्यास एकतरफ पानी सिर से ऊपर हो जाने की स्थिति बयान करता है तो दूसरी तरफ उन लोगों के सिर पर मंडराते खतरों को भयावहता के साथ चित्रित करता है जो एक्टिविस्ट हैं। भोपाल का शैहरा मसूद काण्ड इस मौके पर खूब याद आता है जो एक एक्टिविस्ट और आर0टी0आई0 कार्यकर्ता तथा दुखी मजलूमों की हमदर्द थी और जिसे अज्ञात लोगों ने बेहद चालाकी के साथ इस तरह हलाक किया कि देश की सबसे बड़ी खुफिया ऐजेंसी सी0बी0आई0 भी वास्तविक अपराधी को नहीं खोज सकी। उपन्यास में चंद ऐसे लेखकों का भी जिक्र आया है जो सिर्फ कागज पर अपनी रचनाओं के जरिये क्रांति की बात करते हैं और इसके मजमून में पीड़ितों, शोषितों की बात करते हैं, जल्से करते है लेकिन किसी पीड़ित और शोषित लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जंग करने को तैयार नही होते।

सारांशतः उपन्यास आज के समाज में कजोरों पर हावी दबंगों,प्रशासनिक अफसरों , सड़ी गली व्यवस्था की प्रक्रियाओं और कमीनगी की कहानी कहता है जिसमें रामरतन और नंदकिशोर जैसे परहितकारी लोगों को नक्सली मानकर मार डालने का क्लाइमैक्स पढ़कर पाठक थर्रा उठता है। लेकिन कथाकार का कौशल है कि यह घटना सबकुछ खत्म होगया कि निराशा पैदा नहीं करती, लड़ाई जारी रखने की प्रेरणा ही देती है।

आकार में छोटा होने के जहां अपने गुण हैं , वही अपनी सीमायें भी हैं। नंदकिशोर का पी-एच0डी0 होने के बाद भी गाँव में आकर रहना और रामरतन का बिना किसी रोजी-रोटी के जीवर बसर करना खुलकर नहीं आ पाता तो उपन्यास में घटनाओं को इसी घनेपन के साथ गूथ दिया गया है कि पाठक एक का समझ पाता है कि दूसरी धप्प से उसके सिर पर आ गिरती है। कई प्रसंग यदि विस्तार पाते तो और ज्यादा प्रभावी हो सकते थे। कई प्रसंग कथा मे मौजूद होने के बाद भी अपने माधुर्य और रस से अनछुए रह जाते है जैसे अविनाश का ब्याह और नवोड़ा पत्नी के साथ गुजारे पलो ,क्षणो के अहसासात या रामलीला के दिनों में अविनाश पर आसक्त हुई रामकली के साथ की गई प्रणय केलि। उपन्यासकार अपने विचार और कथ्य को पाठक तक पहुंचाने की सावधानी में ऐसा मुब्तिला रहा है कि उसने प्रेम प्रसंगों, अन्तर्द्वंद्वों और बहस आदि के लिए कम समय दिया है। ऐसे प्रसंगों को जहां उम्दा और प्रभावी तरीकों से चित्रित किया जा सकता था वहीं पाठक को भी इस तरह के अनुभवों से परिचित होने का मौका मिलता लेकिन उपन्यास का लघु आकार संभवतः इसकी इजाजत नहीं दे रहा था।

अगर मोटे तौर पर देखा जाये तो इन तीनों पात्रों की कथाऐं तीन कहानियाँ है जो उपन्यास की शक्ल मे ंपाठक के सामने प्रस्तुत है। यह कथाकार का कौशल है कि उसने इन्हे एकसूत्र में पिरोकर उपन्यास तैयार किया है।

राजेन्द्र लहरिया अपने उपन्यास पर्याप्त होमवर्क करते हैं और रचना के कई ड्राफ्ट तैयार करके लिखते हैं, इस कारण उपन्यास वैचारिक , शिल्पगत और भाषागत समृद्धि प्राप्त कर चुका है।

लहरिया का यह उपन्यास वर्तमान समय और व्यवस्था पर लगाया गया एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है तो एक बुद्धिजीवी की छटपटाहट भी, जो निराशाजनक स्थितियों के बीच भी आशा के कई दरवाजे खोलता दिखता है।

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हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी दतिया म0प्र0475661

उपन्यास- आलाप-विलाप

लेखक- राजेन्द्र लहरिया

प्रकाशक-किताब घर दिल्ली