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आधा आदमी - 29

आधा आदमी

अध्‍याय-29

यह सब देख कर मैं अपना आपा खो बैठी, ‘‘भौसड़ी के खिलवा टाक के गुरू के गिरिये पर मुँह मारेगी.‘‘ कहकर मैं इसराइल की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘भड़वे, तुमसे हमरा पेट नाय भरत हय जो तुम इधर-उधर मुँह मारत-फिरत हव.‘‘

यह सुनते ही इसराइल ने मेरे सिर पर लोटा दे मारा और भाग खड़ा हुआ। मैं बाका मार-मार कर रोने लगी। यह तो कहों ऐन वक्त पर कसगड़िन बाजी आ गई और उन्होंने मेरी मलहम पट्टी की।

चारों तरफ़ से निराशा पाकर मैं कहीं न कहीं टूट गई थी।

12-12-1993

पूरे छः महीने के बाद ड्राइवर मेरे घर पर आए थे। उन्हें देखते ही मेरे तन-बदन जैसे आग लग गई, ‘‘तुम तो जबसे हमका छिबराये के लायैं हव तबसे कोई दीदा-दर्शन नाय दियव। इत्ते दिन हम्म कित्ती मुसीबत झेला, तुमैं कुच्छ पता हय। ई तो कहव इसराइल मिल गवा वरना आज हम्म जीन्दा न होती.‘‘

”मैं जैसा घर पहुँचा तो मैंने देखा कि मेरा लड़का जिंदगी और मौत से लड़ रहा हैं। मैंने उसे तुंरत डॉक्टरों को दिखाया। लगभग पन्द्रह दिनों बाद उसकी हालत में सुधार हुआ। और जो पैंसा तुम्हारे आप्ररेशन के लिए लिया था........।‘‘ सफाई देते-देते ड्राइवर पैसे का रोना रोने लगे।

मैंने उन्हें डिंमाड अनुसार पचास रूपये दिए।

सुबह होते ड्राइवर चले गए थे।

7-8-1994

मैंने जो पैसे इकट्ठे किये थे उसमें मैंने ढाई बिसवाँ ज़मीन खरीद ली थी। उस दिन मैं अपने चेले के साथ लौट रही थी कि रास्ते में अचानक मेरी मुलाकात इसराइल से हो गई।

बेल बजते ही ज्ञानदीप ने दरवाजा खोला और ड्राइवर को देखकर ऐसा चैंका जैसे सुदामा को देखकर श्रीकृष्ण चौंके थे।

ज्ञानदीप ने बड़े आदर-सम्मान से ड्राइवर को बैठाया और सेवा-सत्कार में जूट गया।

‘‘बेकार परेशान हो रहे हो भैया, हम कुछ खायें-पियेंगे नहीं। बस एक गिलास पानी पिला दो.‘‘ ड्राइवर ने कहा।

‘‘यह कैसे हो सकता हैं.‘‘ ज्ञानदीप ने पानी के साथ-साथ बिस्कुट भी दिया।

‘‘और सुनाइए क्या हाल-चाल हैं?‘‘

‘‘ठीक हैं.‘‘

‘‘माई कैसी हैं?‘‘

‘‘वह भी ठीक हैं। बस कभी-कभी मुझसे लड़ लेती हैं.‘’

‘‘आप लोगों की लड़ाई भी कोई लड़ाई हैं। मुझे उसमें भी प्रेम दिखता हैं.‘‘

‘‘यही लड़ाई-झगड़े में तीस साल गुज़र गये.‘‘ कहते-कहते ड्राइवर कहीं खो गये। पर अगले ही पल जैसे किसी ख़्वाब से बाहर आ गये हो, ‘‘मगर आज भी हमारी मोहब्बत वैसी हैं.‘‘

‘‘अच्छा भाईजान यह बताइए, आप और माई के संबंध को लेकर आप की वाईफ ने कभी एतराज़ नही किया?’’

‘‘तुम एतराज़ की बात करते हो, जब उसे पता चला तो उसने घर में बहुत बवाल मचाया। मगर मैं कहाँ मनाने वाला था। सच बताऊँ तुम्हें भैंया, मैं दुनिया भर में भागता फिरता हूँ पर शुकून मुझे उन्ही के बाहों में मिलता। जिस तरह से उन्होंने मुझे चाहा शायद किसी ने किसी को इतना नहीं चाहा होगा.‘‘

ज्ञानदीप ने वक्त की नज़ाकत को देखते हुए दूसरा सवाल किया, ‘‘भाईजान सच-सच बतायेगा, माई के साथ इसराइल का रहना क्या कभी आपको बुरा नहीं लगा?”

‘‘सच कहूँ तो शुरू-शुरू में मुझे बहुत बुरा लगा। मगर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया.‘‘ ड्राइवर आधा अधूरा जवाब देकर खामोश हो गए।

मगर ज्ञानदीप कहा मनाने वाला था वह एक के बाद एक सवाल पूछे जा रहा था, ‘‘क्या वाकई इसराइल ने माई की मोहब्बत में शादी नहीं की?’’

‘‘यह तो आपको इसराइल ही बता पायेंगे....।‘‘ ड्राइवर का सेलफोन बजते ही उन्होंने उठकर हैलो कहा।

दूसरी तरफ़ से उसकी पत्नी की ज़ली कटी आवाज़ सुनाई पड़ी, ‘‘ऊही मरें रहियौं कि घर भी अइयौं? पता नाय सुवरचोदा का उ हिजड़े में का मिलत हय?’’

‘‘सुन मादरचोद! होश में रहकर बात करना और सुन! खबरदार अगर हिजड़ा कहाँ.‘‘

‘‘एक नाय हजार बार कहिब, हिजड़ा......हिजड़ा.......हिजड़ाऽऽऽऽ‘‘

‘‘खोपड़ी न खराब कर, नाय तो आय के भोसड़ा चौदी तुमरी जान लेई लेबै.‘‘ ड्राइवर की आवाज ऊँची हो गई थी। गुस्से के कारण उनके हाथ-पैर काँप रहे थे। मगर वह अभी भी सेलफोन पर अपनी भड़ास निकाले जा रहे थे, ‘‘तू न मनियौं जब तक तुमरी गाँड़ में लाठी न खोसब.....।‘‘

कहकर ड्राइवर ने फोन कट कर दिया। क्रोध की रेखाएँ अभी भी उनके झुर्रीदार चेहरे पर साफ झलक रही थी। अगर ड्राइवर के गुस्से का कमपेयर किया जाए तो नरेन्द्र मोदी से कम नहीं था।

थोड़ी देर बाद ड्राइवर चले गए। ज्ञानदीप पुनः पढ़ने बैठ गया-

इसराइल मुझे देखते ही गले से लग गया। हम-दोनों एक-दूसरे को देख-देख कर रोते रहे। फिर वह खुशी-खुशी मेरे साथ चला आया था।

खाना खाने के बाद मैंने अपनी बात उसके सामने रख दी, ‘‘देखो ऐसे बैठने से घर-कुरिया नहीं बनने वाला और वैसे भी क्या मैं इसी दिन के लिए छिबर के आई थी, कि जिंदगी भर डांसरी ही करूँगी?‘‘

‘‘तुम आखिर चाहती क्या हो?‘‘ इसराइल ने पूछा।

‘‘क्यों न अपने गुरू की गली में ढोल लगा दूँ। ईमानदारी से न सही तो खैरगल्ला (बेइमानी) से ही सही, इसमें मुझे तुम्हारी जरूरत हैं.‘‘

‘‘मैं तुम्हारा साथ देने तैय्यार हूँ.‘‘

2-12-1994

मैं इसराइल के साथ बाजार जाकर ढोल, मजीरा खरीद लायी। और फिर अगले दिन से नर्गिस और इसराइल को साथ लेकर चैली गुरू की जजमानी माँगने लगी।

इसी तरह हमने दस दिन जजमानी माँगी। जब जजमानी माँगने वाली बात चैली के कानों तक पहुँची तो वह शहर के सारे हिजड़ों को लेकर थाने पहुँच गई।

सिपाही मुझे बुलाने आया तो मैं इसराइल को लेकर थाने पहुँची। मेरे बैठते ही चालीस-पचास हिजड़े आई और लम्बी-लम्बी तालियाँ बजाने लगी, ‘‘आय रे भड़वे, तू क्यों इलाका माँग रही हैं?‘‘

‘‘अबे ऐ कमबख्त, तुम लोग क्यों मरने आई हों। बात हमारी गुरू-चेला की हैं, तुम लोगों की बीच में बोलने की कोई जरूरत नहीं हैं। और अगर ज्यादा फालतू की कुटनी तो सबको फँसा दूँगी.‘‘ मैं ताली बजाकर थानेदार की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘साहब! इन लोगों ने पहले हमें अपना चेला किया फिर अपनी टोली में शामिल करके मेरा लिंग कटवा दिया। और अब मुझे अपनी टोली से बाहर कर रही हैं। अब बताओं साहब, हम कहाँ जाये?‘‘ कहकर मैंने सारा कपड़ा उतार दिया और ताली बजाने लगी।

थानेदार मुझे इस हालत में देखकर कपड़ा पहनने को कहा और फिर सिपाही को बुलाकर कहा, ‘‘इन लोगों को भगाओं यह हिजड़ों का मैटर हैं। ये लोग खुद निपटे जाकर.‘‘

सिपाही ने एक-एक करके सभी को थाने के बाहर का रास्ता दिखाया।

मैं जैसे ही थाने के बाहर आई। टुल्लीमाई ने मुझे बुलाकर कहा, ‘‘बेटा, हमारे नाम से चेला हो जाओं। बीस तोला सोना पहनाऊँगी और अलग से जजमानी दूँगी.‘‘

‘‘क्या पता सोना पहनाती हो या कुत्तों का गूँ फेकवाती हो.‘‘

मैं इसराइल को लेकर चली आई थी।

दूसरे दिन चैली गुरू अपने जत्थे के साथ मेरे डेरे पर आई। दुआ-सलाम होने के बाद उसने पूछा, ‘‘इतने दिन में क्या कमाया बेटा?‘‘

मुझे जजमानी में जो भी आटा-दाल-चावल और झलके मिले थे। मैंने सब उनके सामने रख दिए।

सब कुछ लेने के बाद गुरू ने मुझे एक टुकड़ा कच्ची जजमानी देकर कहा, ‘‘हर महीने मुझे रूपया इस जजमानी से चाहिए.‘‘

‘‘ऐसा है गुरू, हिजड़ों का डिंमाड आज तक कोई पूरा नहीं कर पाया हैं? जो हमारे खाने-पीने से बचेगी वह हम आप को दूँगी.‘‘

गुरू के साथ आई फूल्ली हिजड़ा ताली बजाकर बोली, ‘‘गुरू भाई, जो कह रही हैं वही तुम्हें देनी पड़ेगी। तुम्हारे कहने से कुछ नहीं होगी.‘‘

मैंने भी ताली बजाकर कहा, ‘‘इतने बेकार टुकड़े में चार मोहल्ला छिन्दु (हिन्दू) का हैं। बाकी तो पाकिस्तान बसा हुआ हैं, तो क्या हम भकवई (चोरी) करके दूँगी?‘‘

‘‘हम क्या जानू.‘‘ फुल्ली मुँह ऐठ के बोली।

‘‘बोल तो रही हो इंदिरा गांधी बन के, और फालतू कुटनी करके हमारी गुरू को भड़का रही हो.‘‘ अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि चैली गुरू ने अपनी बात रख दी,

‘‘हमें हर महीना झलकें देते रहना.‘‘

चैली गुरू कहकर अपने लश्कर के साथ चली गई थी।

25-12-1994

इसी तरह मैं जजमानी में कमाती गई और अपना मकान बनवाती गई। साथ-साथ अपने गुरू का मान भी रखती। जो भी हिजड़े मेरी मेहमानवाज़ी में आती उनकी सेवा-सत्कार करती।

लगभग तीन महीने की कड़ी मशक्कत के बाद मकान बन कर तैयार हो गया था। मैंने बाबा लोगों का नियाज़ फातिया करा कर फकीरों को खाना खिलाकर घर में प्रवेश किया।

दो साल जैसे-तैसे गुज़रे। फिर भी मुसीबत मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। आख़िरकार एक और मुसीबत सामने आ गई।

‘‘गुरू! अब हम टोली नहीं करेगी....।‘‘

‘‘तो क्या करेगी नाशपीटी?‘‘

‘‘गुरू! हम टरेन माँगने जाऊँगी.‘‘

‘‘अरी भक, डेरेडार हिजड़े टरेन नहीं माँगती। ये सब काम नकली हिजड़ो का हैं.‘‘

‘‘मैं तो माँगूगी तुम चाहे खुश रहो चाहे नाराज़, मेरा गिरिया भी यही चाहता हैं.‘‘ नर्गिस ने ताली बजाकर कहा।

‘‘तब क्या, कमा-कमा के उसी का भरना भरों.‘‘ मैंने भी ताली बजाई।

‘‘तुमने भी तो गिरिया की हैं। कौन सी ऐसी हिजड़ा हैं जिसने गिरिया न की हो? या कौन-सा ऐसा पेड़ हो जिसमें हवा न लगे.‘‘

‘‘आय रे भड़वे, तेरा दिमाग खराब हैं कही सुड्डे (बूढे़) हिजड़े सुन पाइन तो तुमरे खूमड़ में खालपी खोस देहैं। ई तो कहव हम्म कुच्छ कहती नाय हय। गिरिये, पर घंमड़ करती हव इही गिरिया तुमका एक दिन फूँक के ताप लेहै। हमारे गिरिये की बराबरी अपने गिरिये से करती हों, ऊके जूती बराबर भी तो नाय हय। भकवों का साथ किये हव तो अपने आपको जौधाबाई समझती हो। जब तुमरे उप्पर बेसाज (कयामत) पड़िये तब पता चलय्हें.‘‘

‘‘तब की तब देखी जाएगी.‘‘ कहकर नर्गिस चली गई थी।

28-12-1995

उस दिन मैं जब जजमानी से लौट कर आई तो देखा, ड्राइवर अपने दोस्तों के साथ बैठे हैं। मैं उनके दोस्तों का लिहाज़ करके चुप हो गई। वरना ऐसा पीटना डालती कि उनके होशफ़ाख्ता हो जाते। वह मुझसे बार-बार बोलने की कोशिश कर रहे थे। मगर मैं उन्हें नज़र-अंदाज़ किए थी।

ड्राइवर फीकी हँसी हँसतें हुए अपने दोस्तो से यह कहकर मेरा परिचय कराया, ‘‘यह तुम्हारी भाभी हैं.‘‘

‘‘भाभी हैं तो आज हम लोगों को पिलायेगी.‘‘ नाटे कद वाले ने कहा।

मैंने सीता को भेजकर शराब मंगवा दी थी। उन लोगों ने जमकर पी।

मैंने ड्राइवर को अंदर ले जाकर कहा, ‘‘ऐसा हैं यह जो तुम्हारे दोस्त हैं हमें सही नहीं दिखते हैं। इसलिए इन्हें यहाँ से खिला-पिलाकर दफ़ा करों.‘‘

‘‘आप परेशान मत होइए मैं इन्हें यहाँ से लेकर जा रहा हूँ.‘‘

‘‘लगता हैं हमारी बात आप को बुरी लगी.’’

‘‘बुरा लगेगा तो मैं क्या कर लूँगा आप बडे़ आदमी.‘‘

‘‘इसमें बड़े-छोटो की क्या बात हैं, आप हमारे घर आये अगर हमने आप को और आप के दोस्तों को इज्ज़त न बख़्शी हो तो आप बताइए? जिस दिन रूपया लेकर गये हो तबसे आज मुँह दिखाये हो। इतने दिनों में हमने कितनी मुसीबत झेली हैं तुम्हें कुछ पता भी हैं.‘‘

‘‘अमे छोड़ों, कोई नयी बात करों.‘‘

‘‘कोई हम आप के लिए नये नहीं हैं। जो कल थी वही आज हूँ। आप भले ही बदल सकते हो। जितना हमने आपको चाहा हैं उतना हमने किसी को नहीं। पर आपने हमें हमेशा धोखा ही दिया.‘‘

‘‘आप मुझे गलत समझ रही हैं.‘‘

मैंने ड्राइवर की बात बीच में ही काटी, ‘‘पहले मेरी बात पूरी हो जाने दो फिर अपनी सफाई देना। अगर आप हमसे बेवफाई न करते तो हमारा किसी और का साथ भी न होता। आप का साथ छुटने के बाद मेरे घरवालों ने जबरदस्ती हमारी शादी करवा दी। आप की बेरूखी ने हमे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। मैं आज तक यहीं समझ नहीं पायी कि कभी तो आप मुझे इतना चाहते हैं, कभी ऐसे मुँह मोड़ लेते जैसे पहचानते ही नहीं। आप के दिल में क्या हैं यह हम नहीं जानती। पर आपको एक बात बता दूँ, कि जब तक हमारी जिंदगी रहेगी तब तक हम आपके साथ वफ़ा करेगी.‘‘

‘‘जैसा आप सोचती हैं वैसा कुछ भी नहीं हैं। जितना आप मुझे चाहती हैं उससे कहीं ज्यादा मैं भी आपको चाहता हूँ। मगर क्या करूँ मेरा परिवार हैं मुझे उन्हें भी देखना पड़ता हैं। वरना मैं आप को दिखा देता कि मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ.‘‘

‘‘मुहब्बत मजबूरी नहीं देखती हैं ड्राइवर साहब, मुहब्बत सिर्फ़ मुहब्बत देखती हैं। मगर आप क्या जानेंगे मुहब्बत को, आप को तो सिर्फ़ पैसा चाहिए। मैंने रोटी के लिए बोटी कटायी। मगर इससे आप को क्या? आप के लिए तो सिर्फ़ मैं एक चलता-फिरता बैंक हूँ.‘‘

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