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आधा आदमी - 28

आधा आदमी

अध्‍याय-28

‘‘तुम कितने बड़े कमीने हो मेरे इतना बड़ा यहाँ घाव हैं और चली तुम्हारे साथ गलत काम करने.‘‘

‘‘घाव हैं तो क्या हुआ, तुम खाली धीरे से करवट हो जाना मैं अपना काम कर लूँगा.‘‘

‘‘जादा अय्याशी करने का शौक है तो जा के अपनी माँ-बहन को लेटा लो। सलामती चाहते हो तो चुपचाप यहाँ से चले जाओं। वरना थाने में जाकर तुम्ही को फँसा दूँगी.‘‘

‘‘तुम अपने को दूध की धोयी कहती हो। नौ सौ चूहे खाई के बिल्ली हज़ को चली.‘‘

‘‘चल भाग भड़वे, जिदगी भर तो तुमने हमारे साथ गद्दारी-मक्कारी की, मुझे तो सिर्फ़ तुमने अपना खिलौना ही समझा.‘‘ मेरी बातों से वह निरूत्तर हो गया था।

28-4-1993

सवा महीना पूरा होते ही मैं इसराइल को लेकर बाबा के मज़ार पर गई। फिर वहीं से घर गई। भैंया-भाभी ने मुझे देखते ही मुँह बिचकाया। मैं उन्हें अनदेखा करती हुई अम्मा के कमरे में गई और उनसे गले लगकर रोने लगी।

तभी बड़े भैया के बड़बड़ाने की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘अगर यह घर में रहेगा तो हम लोग नहीं रहेंगे। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कल मेरी बेटी की शादी में कोई बाधा आये.‘‘

यह सुनते ही मैं कमरे से बाहर आयी और भैंया-भाभी की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘आज मेरी वजह से तुम्हारी बेटी नहीं पूछी जायेगी और कल जब मेरे वजह से घर चल रहा था। तब मेरे में कोई बुराई नहीं थी? उस वक्त भी तो मैं नाच-गाकर लाता था। क्या करता था? कैसे लाता था? तब नही पूछा? और आज दुनिया-ज़हान की बातें कर रहे हों। खैर कोई बात नहीं। मैं जहाँ भी रहूँगा पर खर्चा अपनी माँ-बेटी को भेजता ही रहूँगा.‘‘

मैं कहकर जैसे ही बाहर निकली कि मेरा छोटा भाई शराब के नशे में आया और मुझे गंदी-गंदी गाली बकने लगा।

मैं इसराइल को लेकर बड़ी उंमीद से अपनी चच्चा गुरू के यहाँ आई। मगर अपने प्रति उनका व्यवहार देखकर मैं दंग रह गई। जब मैंने खाने के लिए उनसे पूछा तो उन्होंने बड़े बेतुके ढंग से जवाब दिया कि कुछ नहीं हैं। फिर मैंने पानी माँगा तो उसने लेट्रीन के डिब्बे से पानी लाकर दिया।

मैं आँख में आँसू भरे इसराइल को लेकर चली आई थी। हम-दोनों ने पूरी रात फुटपाथ पर गुज़ारी। सुबह होते ही हम-दोनों ने नल पर जाकर मुँह-हाथ धोया। ईश्वर जाने वह महिला कहाँ से आ गई हमारी मदद के लिए।

उसने तपाक से पूछा, ‘‘भइया का हुआ, का बीमार-वीमार हव?‘‘

मैंने उसे संक्षेप में अपनी बात बतायी।

”देखव भइया ई मकान खाली हय अउर इमें कोई भी नयी रहता.”

‘‘बाजी, हम्में ई मकान किराये पैं दिलाये देव.‘‘

‘‘पर इक बात तो तुमका बतावें का भूलें गैन, ई मकान में औरत जल के मरी राहे, का तुम इमें रह पाओंगी?‘‘

‘‘मैं तो दुखिया हूँ। मेरे पीर का करम होगा तो रह लेगी अउर वइसे भी बाजी, जब हम्म कबरीसतान में सवा-महीना रह कैं आई हूँ। जहाँ मुर्दे-गाड़े अउर जलाये जातें। जब हम्म ऊहाँ नाय डरी तो इहाँ का डरूँगी। बाजी! हो सके तो हम्में दोअ बोरा अउर कुच्छ ओड़ने वाला दे देना.‘‘

‘‘ठीक हय, हमरे मियाँ को आने दो.‘‘ महिला ने चारपाई बिछा दी। हम-दोनों वही बैठ गए।

थोड़ी देर बाद उसका आदमी आया। उसने सारी बात बताई। फिर वह गया और एक घँटे के बाद मकान की चाभी लाकर मुझे दिया। मैंने कमरा खोलकर साफ-सफाई की। वह महिला बोरे और ओढ़ने के साथ-साथ खाना भी दे गई थी।

4-5-1993

बढ़ई होने के कारण इसराइल को एक फर्नीचर की दुकान पर काम मिल गया था। मगर उसकी शराब पीने की इल्लत नहीं गई थी। वह मुझे रोज मारता-पीटता।

मैं रोज़-रोज़ की उसकी इस हरकत से तंग आ गई थी। मैं इसराइल को बिना बताये ही श्रावस्ती आ गई थी। वही मेरी मुलाकात नर्गिस मेहरे से हुई। मैं उसे अपना चेला बना कर अपने साथ अपने शहर ले आई।

फिर मैं अगले दिन उसे लेकर शहर से तीस किलोमीटर दूर रेशमा गुरू के यहाँ गई। वह हमें देखते ही बहुत खुश हुई। उन्होंने बड़े प्यार से हम-दोनों को नाश्ता कराया। फिर वह अपने ढोल बज्जे के साथ हम-दोनों को लेकर टोली में निकल पड़ी।

पहली बधाई बजाते ही जजमान ने मेरी हथेली पर पाँच रूपया रख दिया। जो मेरे लिए नागवार था। मैंने ताली बजा कर कहा, ‘‘यह क्या बधाई दे रहे हैं। इतना तो नाऊन-डोमिन भी नहीं लेती, तो हम हिजड़े कैसे ले लेंगी? कम से कम इक्यावन तो बधाई दो.‘‘

काफी तयतोड़ के बाद जजमान ग्यारह रूपये पर आकर अटक गया। मैंने ग्यारह रूपया बधाई लेने से इंकार कर दिया, ‘‘आज-कल तो ग्यारह-इक्कीस में गाय-भैस भी हरी नहीं होती। और तुम कागज में जान डालते हो, बच्चे में जान डालों। पैसा तो बहुत आएगा और जाएगा। इसलिए प्यार से हमे बधाई दो। हिजड़े खायेगी तो दुआ देगी.‘‘ इतना कह के हम लोग सोहर गाने लगी-

जन्म लिया रघुरैया।

अवध में बाजे बधैया

ऋशि मुनि सब शब्द उचारें।

जय जय राम रमैया। अवध में........

राम, लक्ष्मण, भरत, धनुष

संग-संग जन्में चारों भैया।।

घर-घर मंगल-कलश धराएं

नाचे लोग लुगइयां।।

अवध में.......

सोहर खत्म होते ही जजमान ने खुश होकर इक्कीस रूपया दिया। हम लोग बच्चे को दुआ देकर चली आई थी।

मेरा नाच-गाना देखकर रेशमा गुरू बहुत खुश हुई। उन्होंने हम-दोनों को बाँटा दिया। और अपनी पीड़ा बताने लगी, ‘‘बिटिया! न जाने कितनी मूरत को चेला किया। मगर कोई नथुनी, कोई पैरी ख्पायल, तो कोई झलके लेकर भाग गई। कोई भी इस डेरे को संभालने वाली सच्ची बंदी नहीं मिली। अब हमरे में इतना दम नहीं हैं कि मैं जजमानी घूमुँ। अब तुम आई हो तो इतने झलके देखने को मिल गई। अल्लाह! ने रोजी भी दिया और खाने को पेट भर रीजक ख्दाना, भी.‘‘

‘‘घबराओं नहीं अम्मा, दुख की मारी हम भी हूँ। कहाँ-कहाँ ठोकर हमने नहीं खाई। जिसके नाम से छिबर के आई थी। उसने ही हमें नसनद कर दिया.” मेरी व्यथा सुनकर वह भावुक हो गई थी।

‘‘बेटा, जो हुआ पर अब तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं हैं। कोई तुम्हारा साथ दे या न दें मगर मैं मरते दम तक तुम्हारा साथ दूँगी। तुम्हें जजमानी में चाहे पीलका (सोना) सफेदी (चाँदी) मिले वह सब तुम्हारा। क्योंकि तुम अभी नई-नवेली नाचने-गाने, पहनने-ओड़ने वाली हो। अब हम सूड्डी (बूढ़ी) को इन चीजों की क्या ज़रूरत?‘‘

फिर हम लोगों ने धीरे-धीरे जजमानी को पक्का किया। फिर मैं रेशमा गुरू के नाम पर चेला हो गई। उन्होंने बड़ी धूमधाम से मेरा सवा महीना किया।

6-8-1993

मैं रेशमा अम्मा की जजमानी दिन-रात करती रही और धीरे-धीरे अपनी घर-गृहस्थी बनाती रही।

फिर एक दिन रेशमा अम्मा बोली, ‘‘बिटिया! तुम हमरे गिरिये के टेपके का साथ कर लो.‘‘

‘‘अम्मा! हम तुमरे टेपके की भावली (बहन) बनकर रही सकती हूँ। लेकिन उनकी कोती (बीबी) बन कर नहीं.‘‘ मैंने उनसे दो टूक में कह दिया।

इस बात को लेकर रेशमा अम्मा से मेरी फक्कड़ (बहस) हुई। फिर मैं अपने चेले को लेकर अपने शहर आ गई।

20-8-1993

आए दिन मेरे घर पर हिजड़ों की ताता लगी रहती। सब मुझसे यही कहती बहनी, ”तुम मेरी चेला हो जाओं.’’

मैं उन सभी को एक ही जवाब देती, जब मेरे हालात खराब थे तब तुम में से कोई हिजड़ा हाल पूछने नहीं आई। अब जब हम अच्छी हैं तो सभी हमारी खरीददार हो गई? और रही बात चेला बनने की तो मैं अपने ही शहर में बनूँगी। अपनी अम्मा और परिवार को छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी.‘‘

‘‘तो ठीक हैं बेटा, हम भी देखती हूँ अपने शहर में तुम कैसे बनती हो चेला?‘‘ वे सब ताली पीटती चली गई थी।

अगले दिन सुबह-सुबह चैली गुरू आई। जिनके नाम पर मैं छिबर के आई थी। पर उन्होंने मुझे अपनी चेला मानने से और मदद करने से साफ इंकार कर दी थी। मगर आज उन्हें अपनी चैखट पर देखकर इतना गुस्सा आ रही थी कि धक्के देकर भगा दूँ। मगर मैं उनकी तरह नीच नहीं थी। मैंने उन्हें बड़े प्यार-सम्मान से बिठाया।

उन्होंने छुटते ही पूछा, ‘‘क्यों री हिजड़े, दूसरों की टोली घूमती हैं और अपने गुरू की टोली घूमने में लाज आती हैं?”

यह सुनते ही मैं उन्हें ज़वाब देने वाली थी, कि इसराइल ने इशारे से मुझे चुप रहने को कहा। मैं अंदर ही अंदर अपने क्रोध को पी गई थी। मैंने ज़रा-सा भी उन्हें यह अहसास नहीं होने दी कि मैं उनसे नाराज हूँ। और वैसे भी मुझे पैसो की सख़्त ज़रूरत थी। इसलिए मैंने उनकी टोली में जाने की हामी भर दी।

दूसरे दिन ही मैं बड़ी सबेरे उनके घर पहुँच गई, और उनके साथ जजमानी में निकल पड़ी। सुबह से शाम टोली-बधाई करने के बाद वह बाँटा भी ठीक से नहीं देती।

ऐसे करते-गुजरते एक महीना बीत गया। कब तक यह बर्दास्त करती? आख़िरकार मैंने अपनी कह दी, ‘‘गुरू! हम इतनी दूर से आती हैं ऊपर से बाँटा भी ढंग से न मिले तो आना ही बेकार हैं। अरे, जो हमारा हक-ईमान का हैं वह तो दिया करों.‘‘

‘‘टके की मुर्गी नोट की निकासी, टोली पर आनी हैं तो आ वरना दूसरा दरवाज़ा देख......।‘‘

‘‘अंडे सेवै कोई बच्चे लेवै कोई, इतनी दूर आने से भी अगर हमारा पेट न भरे तो ऐसे काम करने से क्या फायदा? वैसे भी आप से एक रूपये का सहारा नहीं हैं। उसमें भी आप चेलों का बाँटा काटती हैं तो कौन रहेगी आप के पास?‘‘

चप्पा अक्का ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाने लगी, ‘‘मोरी के कीड़े मोरी में ही खुश रहते हैं। अगर तुम्हें ज्यादा परेशानी हो तो कहीं हट के चेला हो जा.‘‘

‘‘अगर हम कहीं हट के चेला हो गई तो कितनी टकी लोगी हमारी?‘‘

‘‘पाँच हजार लूँगी.‘‘

‘‘तुम्हारा तो काम यहीं हैं चेलों की हड्डिया बेचना, इसलिए तो तुम आज तक चेलों का सुख नहीं पायी और न ही पाओंगी। और रही बात टके की तो हम तुम्हारे ही नाम से देश-प्रदेश में जा के बाँटा लूँगी.‘‘

‘‘ठीक हैं बेटा, अब तुम देश-प्रदेश ही घूमों.‘

2-9-1993

मैंने घर आकर सारी बात इसराइल को बताई। प्रत्युत्तर में उसने इतना ही कहा, ‘‘बंदों की क्या बिसात, बस ऊपर वाला न रूठे। खैर! अब यह सब छोड़ो चलो शाम रंगीन करते हैं.”

हम तीनों ने बैठ कर शराब पी। जब नशा चढ़ने लगी तो मैं दीवार का टेक लगा के बैठ गई। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, इसराइल मेरी चेला नर्गिस के खूमड़ में लीकम दिए खड़ा था।

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