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और क्या चाहिए

और क्या चाहिए

आर0 के0 लाल

उस दिन परीक्षा कराने मैं एक परीक्षा केंद्र पर ऑब्जर्वर के रूप में गया था जहां प्रांगण के दूसरे किनारे पर एक छोटी सी बिल्डिंग के आगे कुछ बुजुर्ग बैठे थे और अखबार की किसी खबर पर चर्चा कर रहे थे। तभी घंटी बजने की आवाज पर सभी बुजुर्ग घर के भीतर जाने लगे। मैंने वहां खड़े चौकीदार से पूछा तो वह मुस्कुराते हुए बोला, “साहब यह घंटी आपके परीक्षा के लिए नहीं है बल्कि सामने वृद्धाश्रम की है। इस समय सात बज रहे हैं इसलिए सभी को नाश्ते के लिए बुलाया जा रहा है। मेरे मन में उत्सुकता हुई कि देखा जाए वृद्धाश्रम का संचालन कैसे किया जाता है। वहाँ पहुँचने पर एक महाशय मेरे परिचित निकल आए। वह अग्रवाल साहब ही थे जो शहर के एक बड़ी फैक्टरी के जनरल मैनेजर थे। अपने छात्रों के इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग के लिए मैं कई दफे उनसे मिला था। मुझे देखते ही वे झेंप से गए और नजरे चुराने लगे। मगर न चाहते हुये बोल पड़े, “अरे प्रिंसिपल साहब! आप सुबह-सुबह यहाँ कैसे”? मैंने कहा , सामने स्कूल में एक परीक्षा करवाने आया था। मेरे पास थोड़ा समय था इसलिए मैं वृद्धाश्रम देखने चला आया।

अग्रवाल साहब ने मेरा स्वागत किया और उस छोटे से आश्रम को दिखाया। अपने साथियों से भी परिचय कराया । मुझे वहां पर एक अलग ही दुनिया का एहसास हुआ। वहां बैठे लोग ऐसे थे जो अपने संतान को पाल-पोस कर उन्हें पैरों पर खड़ा किये पर आज की सामाजिक व्यवस्था के चलते उनके बच्चे उन्हें ही बेकार की सामग्री की तरह देखने लगे और अंततोगत्वा उन्हें बाहर निकाल दिया। ऐसे लोग वहाँ अपनी बची हुई जिंदगी गुजार रहे थे। मेरी इच्छा हुई कि उन सभी से चलकर कुछ बात किया जाए परंतु समयाभाव के कारण सभी से बात नहीं कर सका। केवल अग्रवाल साहब से बात हो पायी। अग्रवाल साहब ने बताया कि आज अपने देश में रिटायरमेंट के बाद वृद्धाश्रम में रहने वालों की संख्या काफी बढ़ती जा रही है। नाश्ता कर रहे एक बुजुर्ग से मिलवाते हुये उन्होंने कहा, “ये कुंवरबहादुर हैं जो फौज में सैनिक रहे हैं । अब आर्मी की पेंशन मिलती है। पेंशन घरवाले ले लेते हैं और इन्हें घर से निकाल दिया है। आश्रम ही अब इनका और इनकी पत्नी का सहारा है”। कुंवरबहादुर बीच में ही बोल पड़े कि अच्छी नौकरी और कारोबार करने लगे बेटों को वे उल्लू की तरह लगते थे जिसे कोई देखना ही पसंद नहीं करता था । वे घर में जन्मदिवस, होली, दिवाली, सब मनाते हैं लेकिन कोई उन्हें देखने भी नहीं आता। अग्रवाल साहब के अनुसार यही हाल लगभग सभी का था।

अग्रवाल साहब ने अपनी कहानी भी सुनाई, “ फैक्टरी से रिटायर होने के बाद मुझे जो पैसे मिले थे उससे अपनी बहू के नाम से एक मकान खरीद दिया कयोंकि वही हम लोगों का का ख्याल रखती थी । आप तो जानते ही हैं कि फैक्टरी से बहुत कम पेंशन मिलती है । जो कंट्रीब्यूटरी फंड मिला था उससे मैंने अपने पोते के नाम कर दिया क्योंकि उससे तो मुझे बड़ा लगाव था।मेरे पास कुछ नहीं रह गया था इसलिए खर्चे को लेकर चिक-चिक होने लगी। बहू ताने भी देती और खाना भी ठीक से नहीं देती। मेरा बेटा भी कुछ नहीं बोलता था। एक दिन अपनी माँ की किसी गलती पर मेरी बहू और बेटा उसे गाली दे रहे थे तो उसी दिन हमने घर छोड़ने का मन बना लिया था। वे हमें घर से निकाले इससे पहले ही, हम हरिद्वार जा रहे हैं, कह कर घर छोड़ दिया और यहाँ चले आए । मैं अपनी पेंशन यहाँ दे देता हूँ, और आश्रम की व्यवस्था में मदद कर देता हूँ। मेरी पत्नी सभी के लिए खाना पका देती है। देखता हूँ ईश्वर को क्या मंजूर है। मेरी वाइफ समझदार है, उसी के सहारे हमारा जीवन बीत जाएगा”। अग्रवाल साहब ने आगे बताया कि उनके एक परिचित दिल्ली के गुरु विश्राम वृद्धाश्रम में हैं। वे वहाँ जाने की सोच रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि यहाँ कोई देख कर मेरे घरवालों को बता देंगा तो वे अपनी बेइज्जती महसूस करेंगे और यहाँ आकर हंगामा भी कर सकते हैं।

मैंने अग्रवाल साहब से पूछा कि क्या वृद्धाश्रम में रहने वाले खुश रहते हैं? उन्होंने बताया, “बिलकुल नहीं । शायद ही कोई खुश रहता होगा। सभी मजबूरी में ही यहाँ रहते हैं । सबकी अलग- अलग बातें हैं जिन्हें सोचकर सिवाय आंसुओं के उन्हें कुछ नहीं मिलता है । लेकिन बुढ़ापे में रहने-खाने की जरूरतें पूरी होना ही बहुत बड़ी बात होती है। सभी अपने पूरे परिवार को बहुत याद करते हैं बस, परिवार उन्हें याद नहीं करता। भाईसाहब, प्रत्येक व्यक्ति अपना आखिरी वक्त अपने परिवार को देखते हुये गुजरना चाहता है”।

देर हो रही थी इसलिए मैंने अग्रवाल साहब से विदा लिया, लेकिन पूरे दिन मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। सोच रहा था कि आज का समाज कैसे इतना मतलबी हो गया है। जरूरत न होने पर लोग अपने माता पिता को ही बाहर निकाल देते हैं और उनसे मिलने में भी संकोच करते हैं। मुझे भी डर लगने लगा था कि कहीं रिटायरमेंट के बाद मेरे साथ भी ऐसा न हो जाए हालांकि अभी मेरे पास भगवान का दिया हुआ सब कुछ है । इसलिए मेरे मन में आया कि मुझे अपने चौथेपन की सभी तैयारियाँ कर लेनी चाहिए। ठीक उसी प्रकार जैसे मैंने अपनी औलाद आने पर उसके लिए तैयारियाँ की थी ताकि अगर बच्चे ध्यान न दें तो भी काम चलता रहे। अभी भी मेरे रिटायरमेंट के पाँच साल बचे थे। इसलिए मैंने एक नया प्रयोग करने का निश्चय किया ।

उस रात अपनी पत्नी से कहा था, “मैं अभी से अपने रिटायरमेंट के बाद की लाइफ का इंतजाम कर लेना चाहता हूँ । पता नहीं हमारे लड़के हमें पूछेंगे अथवा नहीं। मैं सोचता हूँ कि हमें कम से कम बीस साल की ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए ताकि किसी के आगे हमें नतमस्तक न होना पड़े। ईश्वर भी उसी की मदद करता है जो खुद प्रयास करते हैं”। मेरी पत्नी ने कहा, “मैं तो अपने बच्चों के साथ ही रहूंगी, बच्चे मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। तुम्हें जो भी करना हो तुम करो”।

मैंने सोचा मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगा और अलग से एक ऐसा घर बनाऊंगा जिसमें बुढ़ापे के हिसाब से सारी सुविधाएं होंगी। वह हमारा वृद्धाश्रम होगा। मैंने शहर के पास ग्रामीण इलाके में एक छोटी सी जमीन खरीद ली और इसमें कई कमरे बनवा लिए, थोड़ी जमीन खेती करने के लिए छोड़ दी। वहाँ एक छोटा सा पक्का तालाब भी बनवा दिया और ढेर सारे फल और फूल वाले पेड़ लगवा कर अच्छी लैंडस्केपिंग करवा दी। उसमें एक चौकीदार भी रख दिया। इस विषय में किसी को कुछ नहीं बताया, अपनी पत्नी को भी नहीं।

निर्धारित समय पर मेरा रिटायरमेंट हुआ लेकिन पेंशन और फंड मिलने में काफी समय लग गया। आश्रम बनवाने से जो थोड़े पैसे बैंक में पड़े थे वह भी धीरे धीरे खर्च हो गए, अतः हम अपने बच्चों पर पूरी तरह आश्रित हो गए थे। आठ नौ महीने में ही हम लोग अपने घर वालों पर बोझ से हो गए थे। एक दिन मेरी पत्नी ने बड़े बेटे से बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन हेतु तीर्थाटन पर जाने की इच्छा जाहिर की और हम दोनों का टिकट बुक कराने को कहा। कुल खर्च लगभग पच्चीस हज़ार रुपये रहा होगा मगर बड़ी बहू ने मेरे बेटों को समझा दिया कि यह फिजूलखर्ची है। उसने पैसे न होने का बहाना कर दिया। उसके बाद एक दिन मेरी पत्नी ने कुछ सामान खरीदने के लिए पैसे मांगे तो उसे पूरा पैसा नहीं मिला। आगे से कुछ मांगना ही उसने बंद कर दिया था। जब मेरी पेंशन आने लगी तो हम तीन महीने के तीर्थाटन पर चले गए।

लौटने पर मैंने अपने दोनों बेटों और बहुओं से कहा, “अब हम लोगों के यहाँ से जाने का वक्त आ गया है। मुझसे जो बन पड़ा मैंने तुम लोगों के लिए इंतजाम कर दिया है । तुम लोग अपनी लाइफ स्वतंत्रतापूर्वक जी सकते हो । उन लोगों ने कहा, “पापा! आप क्या गांव में जाकर रहेंगे? मैंने कहा, “इतने दिनों तक शहर में रह जाने के बाद अब गांव में जीवन बिताना तो बहुत कठिन होगा इसलिए मैं गांव नहीं जाऊंगा बल्कि मैं अपने ही आश्रम में जाऊंगा”। मेरे बेटों ने समझा कि मैं वृद्धाश्रम जाने की बात कर रहा हूँ। वे बोले कि इससे उनकी बड़ी बदनामी होगी। लोग क्या कहेंगे? हमें उनकी इज्जत का कोई परवाह नहीं है। मैंने उनको कुछ नहीं बताया और कहा कि कल सुबह सभी लोग हमें छोड़ने चलेंगे।

अगली सुबह सभी घर से दो किलोमीटर दूर मेरे आश्रम पहुंचे जहां मेरे नाम के साथ निवास सह वृद्धाश्रम का बोर्ड लगा था। वे सब आश्चर्यचकित थे। मैंने उन्हें बताया कि मेरा आवास अत्यंत आधुनिक है जिसमें ‘वृद्धाश्रम’ का भी योग है। इसमें वह सभी इंतजाम हैं जो किसी बुजुर्ग को अपना भरपूर जीवन जीने के लिए चाहिए। रोशनी और हवा की प्रयाप्त पहुँच है, सीढ़ियों के साथ रैम्प और व्हीलचेयर भी है। सभी पंखे, ट्यूब लाइट , टी वी, दरवाजे, गैराज आदि सेंसर और रिमोट से नियंत्रित हैं। सभी जगह फायर अलार्म और सी सी टी वी कैमरा है। किसी फर्श में चिकने टाइल्स नहीं हैं। अवश्यकता के अनुसार म्यूजिक इकाई, इंटरकॉम, टी वी, कम्पुटर , विडियो कांफेरेंसिंग और सोलर बैकअप आदि की सुविधा है। मेहमान के कमरे में अन्य कई वृद्ध भी रह सकते हैं । मेरी पत्नी ने पूछा ये सब कब किया आपने?

मैंने पत्नी को समझाया कि और क्या चाहिए हमें ? वृद्ध लोगों के लिए यदि आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है तो हम अपनी जरूरतों के मुताबिक पेंशन खर्च कर सकेंगे। यदि जीवन में सार्थकता का एहसास होने के लिए बृद्धों को समाज में महत्व मिलना चाहिए तो हम कुछ न कुछ सामाजिक कार्य करेंगे। मैंने गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ाने की सोची है इसमें तुम्हारा सहयोग भी होगा और दोनों का समय कटेगा। हो सकेगा तो विकलांगों के लिए भी काम करूंगा। इस प्रकार सामाजिक सरोकार से जुड़ाव द्वारा हमारे जीवन को नई स्फूर्ति मिलेगी।

हमने बच्चों से कहा, “हम तुमसे अलग नहीं होंगे बल्कि अपने परिवार के निर्णयों में शामिल रहेंगे। इससे हमें अपनी महत्ता का अहसास होता रहेगा। अकेलेपन या अवसाद की स्थति न आने पाये इसलिए हफ्ते में एक दिन तुम सभी लोग हमारे आश्रम आओगे, और हमारा बनाया हुआ खाना खाओगे। बच्चे यहीं पिकनिक मनाएंगे । हाँ ! जब हम बहुत बीमार हों या जब हमारा शरीर बहुत कमजोर हो जाए तो जरूर थोड़ा समय हमारे लिए निकालना, वरना हर ईच्छा नारायण की। आशा है ईश्वर हमारी मदद करेगा।

हमारे घर वालों ने मेरी इस सोच एवं कार्य की सराहना की और हम आज सुखी हैं।

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