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पुस्तक समीक्षा- आसाम की जनता का सच- लाल नदी

पुस्तक समीक्षा-
आसाम की जनता का सच: लाल नदी
समीक्षक- राजनारायण बोहरे

हमारे देश का पूर्वी भाग सदा से अल्पज्ञात और उपेक्षित सा रहा है। उपेक्षित इस मायने में कि बाकी देश वासियों ने इस क्षेत्र के समाज, संस्कृति और साहित्य से कोई लगाव या उत्सुकता प्रकट नहीं की, इस कारण हिन्दी साहित्य में भी पूर्वी प्रदेशों के साहित्य का उतना आवागमन नहीं हुआ जितना बंगला, पंजाबी, मराठी या गुजराती का। असमिया भाशा आसाम में बोली जाने वाली प्रमुख भाशा है, यह भी पूर्वी प्रदेश की भाशा है, और हिन्दी से दूर भी इसी कारण रही है। ज्ञानपीठ से पुरस्कृत होने के बाद असमिया की कथालेखिका इन्दिरा गोस्वामी की रचनाओं का हिन्दी में खूब अनुवाद हुआ है । ऐसा ही एक अनुवाद उनके कहानी संग्रह ‘लाल नदी’ के नाम से भारतीय ज्ञान पीठ ने छापा है जिसकी कहानियां हिन्दी कथा के पाठकों की उत्सुकता और पाठकीय भूख को शान्त करती है।

इस संग्रह में कुल दस कहानियां सम्मिलित हैं । जिनमें पहली कहानी ‘देवीपीठ का रक्त’ सन् 1930 के समय की कहानी कहती है, और बिस्मय तो यह है कि यह आज की कहानी सी लगती है, आसाम की ही नहीं ,देश के दूसरे किसी भी हिस्से की कहानी । प्रसिद्ध देवी पीठ ‘कामाख्याधाम’ के रास्ते के किनारे एक देवी साधक और ज्योतिशी अधोरदेव भागवती का घर है, जिनके घर की खिड़की से मंदिर जाने वाले दर्शक,बलिपशु और देनिक साधक दिखते हैं। अघोरदेव की पुत्री पद्माप्रिया ऐसी लड़की है जिसकी पीठ पर सफेद दाग का निशान बता कर पति परिवार द्वारा परित्यक्त किया गया है,लेकिन वह अनेक बार निवर्सन होकर वह निशान नहीं खोज पाई है। मन बहलाने के लिए सफेद फूलों की तलाश में गांव के बौने लड़के संेग के साथ जंगल में भटकती हुई कामाख्याधाम की देवी को बलि देने का काम करने वाले शंभूदेव से मुलाकात होती है, जो कि बलि संबंधी तमाम कर्मकाण्ड और नियमों की विस्तृत जानकारी पद्माप्रिया को देता है। नंगे बदन शंभूनाथ का सुगठित बदन पद्माप्रिया का पुरूश देह क्षुधित मन के किसी कोने में आकर्शण जगाता है और एक दिन शंभूनाथ सफेद फूल के पौधे दिलाने के लिए एक गुफा में ले जाता है, जबकि उसके साथ आया बौना सेंग अपने बदन में उत्पन्न खुजली से परेशान होकर जमीन पर लेअ रहा होता है। बाद में पद्माप्रिया की सखी लावण्य के जतन से एक दिन पद्मा का अपने पति भुवनेश्वर से मिलन होता है, और अब तक एकाकी रह रहा भुवनेश्वर पद्मा के पास आने जाने लगता है, और अंततः अपने घर भी ले जाने को तैयार हो जाता है। ठीक विदा के वक्त गर्भवती पद्मा अपने पति से कहती है कि कया वह उसे तब भी अपने घर ले जाना चाहेगा जबकि उसके गर्भ में शंभूदेव का गर्भ पल रहा है। भुवनेश्वर स्तब्ध रह जाता है, ...क्योंकि वह समझ रहा था कि पद्मा की कोख में उसकी सन्तान है।
दूसरी कहानी ‘संस्कार’ पीताम्बर महाजन की कहानी है, जिसकी पत्नी बीमार होने के कारण उसे पतिसुख नहीं दे पा रही है और वह एक पंडित के सहारे किसी तरह गांव की स्वच्छंद यौन जीवन जीती विधवा ब्राह्मणी दमयंती को भोगना चाहता है, इसके लिए वह खूब सारा धन खर्च करके किसी तरह एक बार उसकी देह पा भी लेता है, लेकिन अब उसकी मरीचिका बढ़ जाती है। वह दमयंती की उर्वर कोख से अपने लिए एक सन्तान चाहता है। दमयंती के गर्भवती होने पर पीतांबर इस जतन में लगा रहता है कि सदा की तरह दमयंती गर्भ न गिरा दे,...और तमाम निगरानी के बाद भी दमयंती अपना भ्रूण समाप्त करा के अपनी झोंपड़ी के पीछे खेत में गाड़ देती है। पता लगने पर हैरान और हतप्रभ पीतांबर एक बार उस मांसल लोथड़े को स्पर्श करना चाहता है जो उसके खून से उत्पन्न हुआ था। वह रात में जाकर उस जगह खुदाई कर रहा होता है कि दमयंती जाग जाती है और उसे रोकती है। दरअसल वह एक उच्च जाति की ब्राह्मण स्त्री है और उसे यह स्वीकार नहीं कि छोटीजाति का कोई व्यक्ति उसकी कोख से अपना बीज पैदा करें, यह उसका अपना संस्कार है।
तीसरी कहानी ‘ एक अविस्मरणीय यात्रा ’ में प्रोफेसर मीराजकर के साथ यात्रा से संध्या समय शहर को लौटती लेखिका की उस सचाई से भिड़न्त से उपजी है, जो युवा विद्रोह में जल रहे आसाम की सचाई हैं। चाय पीने के वास्ते एक छोटे से चायहोटल पर रूककर वे दोनों होटल चलाने वाले बूढ़े व्यक्ति और उसकी पत्नी की आपसी चख-चख को सुनते हैं, जिससे पता चलता है कि उनकी बेटी को एक मिलिट्री अफसर ने बहला-फुसला कर प्रिगनेंट कर दिया है और वह पागलों की तरह यहां-वहां भटकती रहती है, बड़ा बेटा असामयिक मौत मरा है जबकि छोटा बेटा उग्रवादियोें से जा मिला है। अचानक वही छोटा बेटा उस वक्त होटल पर आजाता है जबकि चाय के पैसे देने प्रोफेसर मीराजकर कुछ रूप्ये वृद्ध महाशय के सामने रखते हैं। उग्रवादी बेटा अचानक वहां आई अपनी बहन को भी खूब पीटता है। अपने पिता से रूपये मांगता बेटा बताता है कि उसे अमेरिकन कारबाइन खरीदना है, वह दोनों यात्रियों से भी कहता है-‘आप आसानी से कुछ और रकम दे सकते हेै तो लाइये, निकालिये। मेरे पास समय नहीं है।’ बाद में आगे का सफर करते दोनों यात्री एक अन्तहीन और अंधेरी सुरंग में से गुजरता महसूस करते हैं।
संग्रह की एक और लम्बी कहानी ‘ भिक्षापात्र ’ दरअसल आसाम की उन आम स्त्रियों की कहानी है जो अपने युवा बेटों के भाग कर उग्रवादियों के साथ मिल जाने और अपने साथ रह रहीं बेटियों के साथ गांव के लोगों और सेना के लोगों द्वारा किये जा रहे व्यभिचार को भोग रही हैं। फूलेश्वरी का पति एक मजदूर है और जिस दिन वह बाहर गया उसी दिन सेना से भागा एक सेनिक अचानक उनकी झोंपड़ी मे घुस आया और अपनी वरदी तथा बंदूक छोड़कर बाहर कहीं जाकर दुबक गया, बाद में ढूढ़ते सैनिकों ने गांव में एक झूठ फैलाया कि यह स्त्री फूलेश्वरी उस सैनिक के साथ अवेध संबंध बनाये है। इस झूठे प्रवाद के कारण उसका पति उससे रूट जाता है और उसकी मौत के बाद तो फूलेश्वरी के कंधो पर एक बेटा और दो बेटियों को पालने की जिम्मेदारी आ जाती है। परिस्थिति वश उसकी बड़ी बेटी अन्नाबाला विधवा होकर घर वापस आती है और बेरोजगार बेटा हैबर भाग जाता है, अन्नाबाला को गांव का एक युवक फुसलाकर उसकी देह भोगता है और उसके पति की जमीन अपने नाम लिखा लेता है, जो कभी वापस नहीं मिलती तब भी जबकि इसी लिये छोटी बेटी अपनी अस्मत की कीमत पर एक ठेकेदार के यहां जाकर काम करती है और थोड़ा-बहुत रूप्या कमाकर लाती है। विपत्ति में दिन बितातीं मां बेटी पर उस दिन तो गाज सी गिरती है जिस दिन हैबर की लाश गोलियों से छलनी होकर पड़ी हुई मिलती है।
‘ पशु’ कहानी में शहाबुद्दीन नामक एक गूंगे मजदूर की मनोद्वंद्व में गुजरती कहानी है, जिसमें आसाम में हाथियों को पकड़ने व प्रशिक्षित करने के काम में लगे ठेकेदार के विभिन्न कर्मचारियों की गतिविधियां और हाथियों के दांत के लिए उनकी हत्या के काम में लगे शिकारियों की गतिविधियां हैं। शहाबुद्दीन बार-बार अपने मित्र कृश्णकांत को याद करता है जो सहृदय प्रशिक्षक, पशुओं का मित्र, तस्करों का दुश्मन और निश्पाप प्रेमिका निभाई राभा का प्रेमी था। वहीं कृश्णकांतअचानक कहीं गायब हो गया है, और शक यह है कि उसे किसी प्रतियोगी प्रशिक्षक ने या तो मार दिया है या फिर वह तस्करों के हाथ पड़ गया है। एक बार शहाबुद्दीन जंगलों से लौट कर मैदान स्थित बेसकैम्प जाता है और जब लौटता है तो जंगल में बना अपना शिविर बरबाद हुआ देखता है। लगता है गुस्साये हाथियों ने सब कुछ कुचल डाला है, वहां आस पास के तमाम लोग जुट आए हैं। निभाई राभा भी शिविर की तरह खत्म हो गई , यह जानकर दुखी शहाबुद्दीन स्तबध रहा ही था कि अचानक एक व्यक्ति आगे बढ़के उसके कंधे पर हाथ रख देता है, और उसे तब चौंक जाना पड़ता है जब वह पहचानता है कि यह तो उसका आदर्श व्यक्ति कृश्णकांत है, जो बड़े आदमियों की तरह सजा-धजा है, और वह उस पट्टेदार का सेवक बन चुका है, जो शहाबुद्दीन के मालिक से भी ज्यादा निर्मम और ऐश पसंद है।
‘परसू का कुंआ’ एक लम्बी कहानी है, जो परिश्रमी और लगनशील परसू नामक एक युवक को कुंआ खोदने का ठेका मिलने और उसे पूरा करने की लम्बी दास्तान के रूप में लेखिका ने प्रस्तुत की है। कई अध्यायों में लिखी यह कहानी एक उपन्यासिका सी है। अनेक पात्रों और नाटकीय कथा मोड़ों के कारण कहानी रोचक बन पड़ी है।
अंतिम कहानी ‘नंगा शहर’ में एकाकी जीवन जीती उर्मिला भट्टाचार्य की कहानी है जो मन की बिलकुल साफ है, इसलिए वह दिखावा नहीं करती, खुलकर पुरूशों के साथ उठती-बैठती और छोटे वर्ग के लिए कुछ करना चाहती है, इसलिए वह एक बार सड़क पर घूमने वाली एक गरीब औरत के कहने पर उसके बेटे को पढ़ाने ले आती है, जो कि बाद उसके घर का छोटा-मोटाकाम करता हुआ पढ़ाई जारी रखता है, बीच में उस लड़के जगन्नाथ की मां मदद लेने आती रहती है। उर्मिला का खुला जीवन और उन्मुक्त व्यवहार देखकर एक दिन अनायास जगन्नाथ गुस्से में भर कर उर्मिला को उल्टा-सीधा बोल देता हे जबकि उसके दो पुरूश मित्र बैठे हुए गप्पें हांक रहे होंते हैं। उर्मिला जगन्नाथ को भगा देती है, फिर एक दिन गलती महसूस कर झुग्गी बस्ती जाकर जगन्नाथ की मां से कह कर आती है कि वह जगन्नाथ को वापस भेज दे। एक दिन लौट कर आया जगन्नाथ उम्रदराज आदमी की तरह बातें करता है ओर फिर एक दिन वह उर्मिला के आत्मीय दोस्त गणित अध्यापक यशवन्त को ले आता है और खुली भाशा में कह देता है िक वह खुल कर ऐश करे, जगन्नाथ सीड़ियों पर बैठ कर पहरा देता रहेगा।
संग्रह की बाकी कहानियों में ‘ खाली सन्दूक ’ में किशोरावस्था में सामंत पुत्र कुंवर साहब का साहचर्य पाने वाली तरादेई के विपत्ति भरे वर्तमान दिनों का विवरण है जिनमें उसका पति जेल में बन्द है और वह श्मशान में रहकर वहां से मिलने वाले सामान से अपना जीवन यापन कर रही है। कहानी ‘ द्वारका और उसकी बन्दूक’ एक ऐसे सिरफिरे व्यक्ति की कहानी है जो स्वदेश लौटते अपने अंग्रेज मालिक से ईनाम में एक बन्दूक प्राप्त करता है और उसे कंधे पर लिए घूमता रहता है और गांव भर उससे डरते भी हैं। दीवान की लड़की को फुसलाने वाले उसके युवा प्रेमी को द्वारका बिना बात गोली मार देता है और कारावास भोगता है। रिहा होकर लौटा द्वारका दीवान की उस लड़की को सुखी गृहस्थिन देखता है तो उससे उसके प्रेमी की हत्या की गलती की माफी मांगता है, और ताज्जुब तो यह है कि वह लड़की प्रेमी के मारे जाने को अपने वर्तमान की नजर से ठीक मानती है। ‘दूर से दीखती यमुना’ एक ऐसी युवती की कहानी हे जो ज्यादा अनुशासन मे ंरहने केे कारण प्रेम जैसे उदात्त अनुभव से अनभिज्ञ रहती है, एकाध बार ऐसा मौका आया तो भी उसके संस्कार उसे रोक लेते हैं। अपने गर्भ में सन्तान आने की अनुभूति उसे अपने पहले-पहले उस पुरूश सान्निध्य की याद दिलाती ळें
इस कहानी संग्रह से पाठक को भले ही आज की असमी कहानी का सही चेहरा नहीं दिखाई देता , बल्कि गुलामी के काल से नब्बै के दशक तक की अवधि में लिखी कहानियां इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं, फिर भी असमी में कहानी लिखने की कला, संवाद प्रक्रिया, कथा शिल्प और तमाम नये शब्द हिन्दी के शब्दकोश को बढ़ाने की नजर से यह संग्रह बहुत योगदान करता है। जिस अंचल में अशान्ति व्याप्त हो, युवक गण उग्रवादियों की फौज में भरती होने को उतावले हों और सामंतवादी ताकतें अपने हमजोली पंूजीपतियों के साथ मिलकर निम्न वर्ग के श्रम और सुख को भाड़ में झोंककर खुद के लिए सुख का सामान मुहैया कराने को आमादा हों , वहां की स्त्रियों और समाज के निचले तबके की दिली पीड़ा व दर्द की अनुभूति को इस संग्रह के द्वारा इंन्दिरा गोस्वामी ने अपने स्वर दिए हैं।
इस संग्रह को पढ़कर पाठक को आसाम का सांस्कृतिक व सामाजिक इतिहास, मनोहर भूदृश्य और मन को गुदगुदा देने वाली रीतियां जानने को मिलती हैं। पाठक को पता चलता हैे कि जिस अंचल में युवा बेरोजगार हों और प्राकृतिक संसाधनों को कब्जियाने दूसरे अंचल से आये पंूजीपति भोंडेपन के साथ अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करें, गरीब-अमीर के बीच गहरी खाइयां हों, वहां उग्रवाद बड़ी तेजीसे अपनी जड़ें जमाता है। लोगों को भ्रश्ट्रसमाज और पक्षपाती सत्ता के समानांतर एक शानदार दुनिया का सपना दिखाते लोग गहरे आकर्शित करते हेैं, और ऐसा हर अंचल में होता है-चाहे आसाम हो, नागालैण्ड हो, झारखण्ड हो या फिर नक्सलवाड़ी। देवीपीठ का रक्त कहानी में बलि संबंधी नियम-कायदे, संस्कार में वेश्या जैसा जीवन जीती बिप्र स्त्री का कुंठित अहंकार हेै तो भिक्षापात्र में पहली बार रजस्वला होने पर मनाया जाने वाला उत्सव, पशु में बेकसूर जानवरों को पकड़ने, प्रशिक्षित करने और उनका बध करने की अमानुशिक दुनिया देखने को मिलती है तो नंगा शहर की उर्मिला का जीवन जानकर विश्वास कर लेना पड़ता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी भारतवर्श एक हेै। इसी तरह दूर से दीखती यमुना की मैं, परसू का कुंआ का परसू हमको हमारे आसपास कहीं भी मिल जाऐंगे ।
इस तरह यह संग्रह जहां हमको आसाम के जनजीवन से परिचित कराता है, वहीं इस के मार्फत हम आसाम की यात्रा सी कर डालते हैं, और यात्रा हमे कत्तई बोर नहीं करती बल्कि बांधे रखती है। ‘लाल नदी’ के उपनाम से ख्यात ब्रह्मपुत्र के इर्द गिर्द का संसार धीरे-धीरे हमारे सामने खुलता है और जब सारे पर्दे खुल जाते हेैं तो हम कह उठते हैं कि अरे ऐसा तो हमारे यहां भी है!
कथाओं के गुंफन व उसके उपजीव्य तक पहुंचने की दृश्टि से इस संग्रह की कहानी ‘देवीपीठ का रक्त’ ‘संस्कार’ ‘भिक्षापात्र’ ‘पशु’ और ‘परसू का कुआं’ सशक्त है, जबकि खाली सन्दूक, द्वारका.....,दूर से दीखती......और नंगा शहर थोड़ी कमजोर कहानियां महसूस होती हैं। यदि लेखिका अपनी सभी सशक्त कहानियों को यहां एक साथ रखतीं ,खासकर उग्रवादियों के शिविरों के माहौल-उनकी शब्दावली और उनकी धारणाओं को व्यक्त करतीं कहानियां तो पाठक को अकेले आसाम नहीं समूचे पूर्वोत्तर को जान लेने की तृपित महसूस होती, क्योंकि आसाम दरअसल उसके आसपास के सारे प्रदेशों जैसा ही समस्यापूर्ण, भीतर ही भीतर हहराते जन मानस वाला ओैर लगभग उन्ही जैसी मूल समस्याओं वाला प्रदेश हैं।
सारतः यह संग्रह पठनीय और उम्दा साहित्य का आनंद देने वाली पुस्तक के रूप में पाठक के चित्त पर अपनी छाप छोड़ता है।
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पुस्तक-लाल नदी(कथा संग्रह) राजनारायण बोहरे
लेखिका-इंदिरा गोस्वामी एल-19,हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
प्रकाशक-भारतीय ज्ञान पीठ दिल्ली दतिया म0प्र0

पुस्तक समीक्षा-
आसाम की जनता का सच: लाल नदी
समीक्षक- राजनारायण बोहरे

हमारे देश का पूर्वी भाग सदा से अल्पज्ञात और उपेक्षित सा रहा है। उपेक्षित इस मायने में कि बाकी देश वासियों ने इस क्षेत्र के समाज, संस्कृति और साहित्य से कोई लगाव या उत्सुकता प्रकट नहीं की, इस कारण हिन्दी साहित्य में भी पूर्वी प्रदेशों के साहित्य का उतना आवागमन नहीं हुआ जितना बंगला, पंजाबी, मराठी या गुजराती का। असमिया भाशा आसाम में बोली जाने वाली प्रमुख भाशा है, यह भी पूर्वी प्रदेश की भाशा है, और हिन्दी से दूर भी इसी कारण रही है। ज्ञानपीठ से पुरस्कृत होने के बाद असमिया की कथालेखिका इन्दिरा गोस्वामी की रचनाओं का हिन्दी में खूब अनुवाद हुआ है । ऐसा ही एक अनुवाद उनके कहानी संग्रह ‘लाल नदी’ के नाम से भारतीय ज्ञान पीठ ने छापा है जिसकी कहानियां हिन्दी कथा के पाठकों की उत्सुकता और पाठकीय भूख को शान्त करती है।

इस संग्रह में कुल दस कहानियां सम्मिलित हैं । जिनमें पहली कहानी ‘देवीपीठ का रक्त’ सन् 1930 के समय की कहानी कहती है, और बिस्मय तो यह है कि यह आज की कहानी सी लगती है, आसाम की ही नहीं ,देश के दूसरे किसी भी हिस्से की कहानी । प्रसिद्ध देवी पीठ ‘कामाख्याधाम’ के रास्ते के किनारे एक देवी साधक और ज्योतिशी अधोरदेव भागवती का घर है, जिनके घर की खिड़की से मंदिर जाने वाले दर्शक,बलिपशु और देनिक साधक दिखते हैं। अघोरदेव की पुत्री पद्माप्रिया ऐसी लड़की है जिसकी पीठ पर सफेद दाग का निशान बता कर पति परिवार द्वारा परित्यक्त किया गया है,लेकिन वह अनेक बार निवर्सन होकर वह निशान नहीं खोज पाई है। मन बहलाने के लिए सफेद फूलों की तलाश में गांव के बौने लड़के संेग के साथ जंगल में भटकती हुई कामाख्याधाम की देवी को बलि देने का काम करने वाले शंभूदेव से मुलाकात होती है, जो कि बलि संबंधी तमाम कर्मकाण्ड और नियमों की विस्तृत जानकारी पद्माप्रिया को देता है। नंगे बदन शंभूनाथ का सुगठित बदन पद्माप्रिया का पुरूश देह क्षुधित मन के किसी कोने में आकर्शण जगाता है और एक दिन शंभूनाथ सफेद फूल के पौधे दिलाने के लिए एक गुफा में ले जाता है, जबकि उसके साथ आया बौना सेंग अपने बदन में उत्पन्न खुजली से परेशान होकर जमीन पर लेअ रहा होता है। बाद में पद्माप्रिया की सखी लावण्य के जतन से एक दिन पद्मा का अपने पति भुवनेश्वर से मिलन होता है, और अब तक एकाकी रह रहा भुवनेश्वर पद्मा के पास आने जाने लगता है, और अंततः अपने घर भी ले जाने को तैयार हो जाता है। ठीक विदा के वक्त गर्भवती पद्मा अपने पति से कहती है कि कया वह उसे तब भी अपने घर ले जाना चाहेगा जबकि उसके गर्भ में शंभूदेव का गर्भ पल रहा है। भुवनेश्वर स्तब्ध रह जाता है, ...क्योंकि वह समझ रहा था कि पद्मा की कोख में उसकी सन्तान है।
दूसरी कहानी ‘संस्कार’ पीताम्बर महाजन की कहानी है, जिसकी पत्नी बीमार होने के कारण उसे पतिसुख नहीं दे पा रही है और वह एक पंडित के सहारे किसी तरह गांव की स्वच्छंद यौन जीवन जीती विधवा ब्राह्मणी दमयंती को भोगना चाहता है, इसके लिए वह खूब सारा धन खर्च करके किसी तरह एक बार उसकी देह पा भी लेता है, लेकिन अब उसकी मरीचिका बढ़ जाती है। वह दमयंती की उर्वर कोख से अपने लिए एक सन्तान चाहता है। दमयंती के गर्भवती होने पर पीतांबर इस जतन में लगा रहता है कि सदा की तरह दमयंती गर्भ न गिरा दे,...और तमाम निगरानी के बाद भी दमयंती अपना भ्रूण समाप्त करा के अपनी झोंपड़ी के पीछे खेत में गाड़ देती है। पता लगने पर हैरान और हतप्रभ पीतांबर एक बार उस मांसल लोथड़े को स्पर्श करना चाहता है जो उसके खून से उत्पन्न हुआ था। वह रात में जाकर उस जगह खुदाई कर रहा होता है कि दमयंती जाग जाती है और उसे रोकती है। दरअसल वह एक उच्च जाति की ब्राह्मण स्त्री है और उसे यह स्वीकार नहीं कि छोटीजाति का कोई व्यक्ति उसकी कोख से अपना बीज पैदा करें, यह उसका अपना संस्कार है।
तीसरी कहानी ‘ एक अविस्मरणीय यात्रा ’ में प्रोफेसर मीराजकर के साथ यात्रा से संध्या समय शहर को लौटती लेखिका की उस सचाई से भिड़न्त से उपजी है, जो युवा विद्रोह में जल रहे आसाम की सचाई हैं। चाय पीने के वास्ते एक छोटे से चायहोटल पर रूककर वे दोनों होटल चलाने वाले बूढ़े व्यक्ति और उसकी पत्नी की आपसी चख-चख को सुनते हैं, जिससे पता चलता है कि उनकी बेटी को एक मिलिट्री अफसर ने बहला-फुसला कर प्रिगनेंट कर दिया है और वह पागलों की तरह यहां-वहां भटकती रहती है, बड़ा बेटा असामयिक मौत मरा है जबकि छोटा बेटा उग्रवादियोें से जा मिला है। अचानक वही छोटा बेटा उस वक्त होटल पर आजाता है जबकि चाय के पैसे देने प्रोफेसर मीराजकर कुछ रूप्ये वृद्ध महाशय के सामने रखते हैं। उग्रवादी बेटा अचानक वहां आई अपनी बहन को भी खूब पीटता है। अपने पिता से रूपये मांगता बेटा बताता है कि उसे अमेरिकन कारबाइन खरीदना है, वह दोनों यात्रियों से भी कहता है-‘आप आसानी से कुछ और रकम दे सकते हेै तो लाइये, निकालिये। मेरे पास समय नहीं है।’ बाद में आगे का सफर करते दोनों यात्री एक अन्तहीन और अंधेरी सुरंग में से गुजरता महसूस करते हैं।
संग्रह की एक और लम्बी कहानी ‘ भिक्षापात्र ’ दरअसल आसाम की उन आम स्त्रियों की कहानी है जो अपने युवा बेटों के भाग कर उग्रवादियों के साथ मिल जाने और अपने साथ रह रहीं बेटियों के साथ गांव के लोगों और सेना के लोगों द्वारा किये जा रहे व्यभिचार को भोग रही हैं। फूलेश्वरी का पति एक मजदूर है और जिस दिन वह बाहर गया उसी दिन सेना से भागा एक सेनिक अचानक उनकी झोंपड़ी मे घुस आया और अपनी वरदी तथा बंदूक छोड़कर बाहर कहीं जाकर दुबक गया, बाद में ढूढ़ते सैनिकों ने गांव में एक झूठ फैलाया कि यह स्त्री फूलेश्वरी उस सैनिक के साथ अवेध संबंध बनाये है। इस झूठे प्रवाद के कारण उसका पति उससे रूट जाता है और उसकी मौत के बाद तो फूलेश्वरी के कंधो पर एक बेटा और दो बेटियों को पालने की जिम्मेदारी आ जाती है। परिस्थिति वश उसकी बड़ी बेटी अन्नाबाला विधवा होकर घर वापस आती है और बेरोजगार बेटा हैबर भाग जाता है, अन्नाबाला को गांव का एक युवक फुसलाकर उसकी देह भोगता है और उसके पति की जमीन अपने नाम लिखा लेता है, जो कभी वापस नहीं मिलती तब भी जबकि इसी लिये छोटी बेटी अपनी अस्मत की कीमत पर एक ठेकेदार के यहां जाकर काम करती है और थोड़ा-बहुत रूप्या कमाकर लाती है। विपत्ति में दिन बितातीं मां बेटी पर उस दिन तो गाज सी गिरती है जिस दिन हैबर की लाश गोलियों से छलनी होकर पड़ी हुई मिलती है।
‘ पशु’ कहानी में शहाबुद्दीन नामक एक गूंगे मजदूर की मनोद्वंद्व में गुजरती कहानी है, जिसमें आसाम में हाथियों को पकड़ने व प्रशिक्षित करने के काम में लगे ठेकेदार के विभिन्न कर्मचारियों की गतिविधियां और हाथियों के दांत के लिए उनकी हत्या के काम में लगे शिकारियों की गतिविधियां हैं। शहाबुद्दीन बार-बार अपने मित्र कृश्णकांत को याद करता है जो सहृदय प्रशिक्षक, पशुओं का मित्र, तस्करों का दुश्मन और निश्पाप प्रेमिका निभाई राभा का प्रेमी था। वहीं कृश्णकांतअचानक कहीं गायब हो गया है, और शक यह है कि उसे किसी प्रतियोगी प्रशिक्षक ने या तो मार दिया है या फिर वह तस्करों के हाथ पड़ गया है। एक बार शहाबुद्दीन जंगलों से लौट कर मैदान स्थित बेसकैम्प जाता है और जब लौटता है तो जंगल में बना अपना शिविर बरबाद हुआ देखता है। लगता है गुस्साये हाथियों ने सब कुछ कुचल डाला है, वहां आस पास के तमाम लोग जुट आए हैं। निभाई राभा भी शिविर की तरह खत्म हो गई , यह जानकर दुखी शहाबुद्दीन स्तबध रहा ही था कि अचानक एक व्यक्ति आगे बढ़के उसके कंधे पर हाथ रख देता है, और उसे तब चौंक जाना पड़ता है जब वह पहचानता है कि यह तो उसका आदर्श व्यक्ति कृश्णकांत है, जो बड़े आदमियों की तरह सजा-धजा है, और वह उस पट्टेदार का सेवक बन चुका है, जो शहाबुद्दीन के मालिक से भी ज्यादा निर्मम और ऐश पसंद है।
‘परसू का कुंआ’ एक लम्बी कहानी है, जो परिश्रमी और लगनशील परसू नामक एक युवक को कुंआ खोदने का ठेका मिलने और उसे पूरा करने की लम्बी दास्तान के रूप में लेखिका ने प्रस्तुत की है। कई अध्यायों में लिखी यह कहानी एक उपन्यासिका सी है। अनेक पात्रों और नाटकीय कथा मोड़ों के कारण कहानी रोचक बन पड़ी है।
अंतिम कहानी ‘नंगा शहर’ में एकाकी जीवन जीती उर्मिला भट्टाचार्य की कहानी है जो मन की बिलकुल साफ है, इसलिए वह दिखावा नहीं करती, खुलकर पुरूशों के साथ उठती-बैठती और छोटे वर्ग के लिए कुछ करना चाहती है, इसलिए वह एक बार सड़क पर घूमने वाली एक गरीब औरत के कहने पर उसके बेटे को पढ़ाने ले आती है, जो कि बाद उसके घर का छोटा-मोटाकाम करता हुआ पढ़ाई जारी रखता है, बीच में उस लड़के जगन्नाथ की मां मदद लेने आती रहती है। उर्मिला का खुला जीवन और उन्मुक्त व्यवहार देखकर एक दिन अनायास जगन्नाथ गुस्से में भर कर उर्मिला को उल्टा-सीधा बोल देता हे जबकि उसके दो पुरूश मित्र बैठे हुए गप्पें हांक रहे होंते हैं। उर्मिला जगन्नाथ को भगा देती है, फिर एक दिन गलती महसूस कर झुग्गी बस्ती जाकर जगन्नाथ की मां से कह कर आती है कि वह जगन्नाथ को वापस भेज दे। एक दिन लौट कर आया जगन्नाथ उम्रदराज आदमी की तरह बातें करता है ओर फिर एक दिन वह उर्मिला के आत्मीय दोस्त गणित अध्यापक यशवन्त को ले आता है और खुली भाशा में कह देता है िक वह खुल कर ऐश करे, जगन्नाथ सीड़ियों पर बैठ कर पहरा देता रहेगा।
संग्रह की बाकी कहानियों में ‘ खाली सन्दूक ’ में किशोरावस्था में सामंत पुत्र कुंवर साहब का साहचर्य पाने वाली तरादेई के विपत्ति भरे वर्तमान दिनों का विवरण है जिनमें उसका पति जेल में बन्द है और वह श्मशान में रहकर वहां से मिलने वाले सामान से अपना जीवन यापन कर रही है। कहानी ‘ द्वारका और उसकी बन्दूक’ एक ऐसे सिरफिरे व्यक्ति की कहानी है जो स्वदेश लौटते अपने अंग्रेज मालिक से ईनाम में एक बन्दूक प्राप्त करता है और उसे कंधे पर लिए घूमता रहता है और गांव भर उससे डरते भी हैं। दीवान की लड़की को फुसलाने वाले उसके युवा प्रेमी को द्वारका बिना बात गोली मार देता है और कारावास भोगता है। रिहा होकर लौटा द्वारका दीवान की उस लड़की को सुखी गृहस्थिन देखता है तो उससे उसके प्रेमी की हत्या की गलती की माफी मांगता है, और ताज्जुब तो यह है कि वह लड़की प्रेमी के मारे जाने को अपने वर्तमान की नजर से ठीक मानती है। ‘दूर से दीखती यमुना’ एक ऐसी युवती की कहानी हे जो ज्यादा अनुशासन मे ंरहने केे कारण प्रेम जैसे उदात्त अनुभव से अनभिज्ञ रहती है, एकाध बार ऐसा मौका आया तो भी उसके संस्कार उसे रोक लेते हैं। अपने गर्भ में सन्तान आने की अनुभूति उसे अपने पहले-पहले उस पुरूश सान्निध्य की याद दिलाती ळें
इस कहानी संग्रह से पाठक को भले ही आज की असमी कहानी का सही चेहरा नहीं दिखाई देता , बल्कि गुलामी के काल से नब्बै के दशक तक की अवधि में लिखी कहानियां इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं, फिर भी असमी में कहानी लिखने की कला, संवाद प्रक्रिया, कथा शिल्प और तमाम नये शब्द हिन्दी के शब्दकोश को बढ़ाने की नजर से यह संग्रह बहुत योगदान करता है। जिस अंचल में अशान्ति व्याप्त हो, युवक गण उग्रवादियों की फौज में भरती होने को उतावले हों और सामंतवादी ताकतें अपने हमजोली पंूजीपतियों के साथ मिलकर निम्न वर्ग के श्रम और सुख को भाड़ में झोंककर खुद के लिए सुख का सामान मुहैया कराने को आमादा हों , वहां की स्त्रियों और समाज के निचले तबके की दिली पीड़ा व दर्द की अनुभूति को इस संग्रह के द्वारा इंन्दिरा गोस्वामी ने अपने स्वर दिए हैं।
इस संग्रह को पढ़कर पाठक को आसाम का सांस्कृतिक व सामाजिक इतिहास, मनोहर भूदृश्य और मन को गुदगुदा देने वाली रीतियां जानने को मिलती हैं। पाठक को पता चलता हैे कि जिस अंचल में युवा बेरोजगार हों और प्राकृतिक संसाधनों को कब्जियाने दूसरे अंचल से आये पंूजीपति भोंडेपन के साथ अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करें, गरीब-अमीर के बीच गहरी खाइयां हों, वहां उग्रवाद बड़ी तेजीसे अपनी जड़ें जमाता है। लोगों को भ्रश्ट्रसमाज और पक्षपाती सत्ता के समानांतर एक शानदार दुनिया का सपना दिखाते लोग गहरे आकर्शित करते हेैं, और ऐसा हर अंचल में होता है-चाहे आसाम हो, नागालैण्ड हो, झारखण्ड हो या फिर नक्सलवाड़ी। देवीपीठ का रक्त कहानी में बलि संबंधी नियम-कायदे, संस्कार में वेश्या जैसा जीवन जीती बिप्र स्त्री का कुंठित अहंकार हेै तो भिक्षापात्र में पहली बार रजस्वला होने पर मनाया जाने वाला उत्सव, पशु में बेकसूर जानवरों को पकड़ने, प्रशिक्षित करने और उनका बध करने की अमानुशिक दुनिया देखने को मिलती है तो नंगा शहर की उर्मिला का जीवन जानकर विश्वास कर लेना पड़ता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी भारतवर्श एक हेै। इसी तरह दूर से दीखती यमुना की मैं, परसू का कुंआ का परसू हमको हमारे आसपास कहीं भी मिल जाऐंगे ।
इस तरह यह संग्रह जहां हमको आसाम के जनजीवन से परिचित कराता है, वहीं इस के मार्फत हम आसाम की यात्रा सी कर डालते हैं, और यात्रा हमे कत्तई बोर नहीं करती बल्कि बांधे रखती है। ‘लाल नदी’ के उपनाम से ख्यात ब्रह्मपुत्र के इर्द गिर्द का संसार धीरे-धीरे हमारे सामने खुलता है और जब सारे पर्दे खुल जाते हेैं तो हम कह उठते हैं कि अरे ऐसा तो हमारे यहां भी है!
कथाओं के गुंफन व उसके उपजीव्य तक पहुंचने की दृश्टि से इस संग्रह की कहानी ‘देवीपीठ का रक्त’ ‘संस्कार’ ‘भिक्षापात्र’ ‘पशु’ और ‘परसू का कुआं’ सशक्त है, जबकि खाली सन्दूक, द्वारका.....,दूर से दीखती......और नंगा शहर थोड़ी कमजोर कहानियां महसूस होती हैं। यदि लेखिका अपनी सभी सशक्त कहानियों को यहां एक साथ रखतीं ,खासकर उग्रवादियों के शिविरों के माहौल-उनकी शब्दावली और उनकी धारणाओं को व्यक्त करतीं कहानियां तो पाठक को अकेले आसाम नहीं समूचे पूर्वोत्तर को जान लेने की तृपित महसूस होती, क्योंकि आसाम दरअसल उसके आसपास के सारे प्रदेशों जैसा ही समस्यापूर्ण, भीतर ही भीतर हहराते जन मानस वाला ओैर लगभग उन्ही जैसी मूल समस्याओं वाला प्रदेश हैं।
सारतः यह संग्रह पठनीय और उम्दा साहित्य का आनंद देने वाली पुस्तक के रूप में पाठक के चित्त पर अपनी छाप छोड़ता है।
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पुस्तक-लाल नदी(कथा संग्रह) राजनारायण बोहरे
लेखिका-इंदिरा गोस्वामी एल-19,हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
प्रकाशक-भारतीय ज्ञान पीठ दिल्ली दतिया म0प्र0

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