राम रचि राखा - 2 - 2 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 2 - 2

राम रचि राखा

गोपाल

(2)

“गोपाल अब पढ़ाई करने लगा है।“ ऐसा चन्दू लोगों से कहते थे।

वास्तव में गोपाल को अभी भी शब्द ज्ञान नहीं हो पाया था। हाँ तीन-चार सप्ताह में इतना अवश्य हुआ था कि कक्षा में मास्टर जी ने पीट-पीट कर उसे "शेर और चूहे" वाली कविता जुबानी याद करा दी थी। एक दिन चन्दू उसकी किताब लेकर बैठे और उसे पढने के लिए बोले। वह वही पाठ खोलकर भर्राटे से पढ़ने लगा। चन्दू को लगा कि अब वह पढ़-लिख जाएगा।

एक दिन जब चाचा अपने स्कूल से साढ़े चार बजे कमरे पर लौटे गोपाल नहीं था। उसका स्कूल पास में ही था और वह रोज चाचा से पहले ही कमरे पर पहुँच जाता था।

उन्होने कमरे में नज़र दौड़ाई। सारा सामान यथावत पड़ा हुआ था। उसका स्कूल-बैग उसके बिस्तर पर था। उन्होंने सोचा कि शायद बाहर खेल रहा होगा। हालाँकि उन्होंने हिदायत दे रखी थी कि उनके आने के बाद ही वह खेलने जाएगा। लेकिन बच्चा है, चला गया होगा। यह सोचकर उन्होने कप़ड़े बदले और बाज़ार से कुछ सामान लाने चले गए। सोचे कि जब तक बाजार से लौटेंगे तब तक वह भी आ जाएगा। उसके पास कमरे की एक चाभी रहती थी।

एक घन्टे बाद जब वे बाजार से लौटे तब भी गोपाल वापस नहीं आया था। अब उन्हें थोड़ी चिन्ता हुई। वे बाहर गए और पास के मैदान में खेल रहे बच्चों से पूछताछ की। पता चला कि गोपाल को किसी ने भी शाम को नहीं देखा। अब चाचा की चिंता बढ़ गई। आस-पास सबसे पूछताछ किए। किसी ने भी गोपाल को नहीं देखा था।

अब गोपाल की खोज शुरू हो गई। जब बस्ती के आस-पास कहीं नहीं मिला तो बाज़ार में खोजा गया। चाचा वहाँ पिछले सात-आठ साल से पढ़ा रहे थे, इसलिए सभी लोग उन्हें जानते थे। खोजने में कई लोग शामिल हो गए। उनके एक मित्र अपनी मोटरसाईकिल लेकर उनके साथ खोजने में जुट गए। दशहरा आने वाला था। जगह-जगह रामलीला हो रहा था। सब जगह जाकर लाउडस्पीकर पर उद्घोषणा करवाई गई। गोपाल का हुलिया बताया गया। सारी रात खोज चलती रही। लेकिन गोपाल का कहीं पता नहीं चला।

दूसरे दिन चाचा ने थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट भी लिखवा दी। शाम तक भी गोपाल का कोई पता नहीं चला। किसी मित्र के कहने पर चाचा एक ज्योतिषी के पास भी गए।

चाचा का खाना-पीना, सोना सब हराम हो गया। बहुत बड़ा कलंक लग जाएगा। भाई का लड़का गायब हो गया। उसे यहाँ लाकर बहुत बड़ी गलती कर ली। पढ़कर वह कौन सा कलक्टर बन जाता। बहुत होता तो पाँचवीं पास कर लेता। जब बीच रास्ते बुढ़वा बाबा से ही भाग गया था तभी उसे लाने को मना कर देना चाहिए था।

रह रह कर यह खयाल भी आता कि पता नहीं कहाँ होगा, किस हाल में होगा। खाना-पीना मिला होगा या कहीं भूखे ही पड़ा पटपटा रहा होगा। कहीं गलत हाथों में न पड़ गया हो। अनेक तरह की शंका-कुशंका मन में चल रही थी। दूसरी रात भी बीत गई लेकिन गोपाल का कहीं कोई पता नहीं चला। पुलिस को भी कोई सुराग न मिल सका।

अब चाचा ने उम्मीद छोड़ दी। घर पर बताना तो जरूरी है। भारी मन से चाचा गाँव चल दिए।

गाँव में सवेरे जब करमकल्ली भरिन सिवान से घास काटकर लौटी तो माई से बोली, "माई, मैंने गोपाल को सिवान में देखा...मुझे देखते ही वे ऊँख के खेत में छिप गए।"

"तेरा दिमाग चल गया है...!" माई ने गुस्से से कहा, "वो तो अपने चाचा के साथ शहर में पढ़ने गया है...तूने किसी और को देखा होगा।"

"नहीं माई, मैं सच कह रही हूँ कि वही थे...बरम बाबा की कसम...मुझे पहचानने में कोई गलती नहीं हुई है...।" करमकली ने पूरे विश्वास से कहा।

तभी चन्दू वहाँ आ गए। उसने आगे कहा, "आप चन्दू भैया को भेज कर दिखवा लीजिए।" करमकली इतने विश्वास से कह रही थी तो शंका सभी के मन में उभर आई। चन्दू देखने चले गए।

चाचा जब दोपहर तक गाँव पहुँचे, रास्ते में ही उन्हें खबर मिल गई कि गोपाल आज सुबह ईंख के खेत में मिला था। घर आए तो द्वार पर गोपाल मुँह लटकाए बैठा था। उसका मुँह सूजा हुआ था। बाबू और चन्दू के अलावा गाँव के कुछ और लोग भी थे।

यही बात चल रही थी कि गोपाल उतनी दूर से अकेले आया कैसे? उससे बहुत पूछा गया, पिटाई भी हुई, लेकिन उसने अपना मुँह सिल लिया था। यह बात कभी कोई नहीं जान सका कि वह कस्बे से भागकर गाँव कैसे पहुँचा।

अब चाचा की हिम्मत गोपाल को फिर से ले जाने की नहीं हुई। गोपाल की पढ़ाई का प्रयास खत्म हो चुका था। अब वह सारे दिन मटरगस्ती करने के लिए स्वतन्त्र हो गया था।

महीने भर की पढ़ाई-लिखाई से इतना हो सका था कि गोपाल ने अपना नाम लिखना सीख लिया था। वह भी बिना एक मात्रा के- “गोपल।”

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