राम रचि राखा
तूफान
(1)
"वापस होटल चलें? देखो सब लोग निकलने लगे हैं। लगता है पार्क बंद होने का समय हो गया है।" विक्टोरिया मेमोरियल के उद्यान में एक पेड़ के नीचे बेंच पर बैठी हुई सप्तमी ने सौरभ से कहा।
"नहीं मम्मा...अभी नहीं।" सौरभ के कुछ कहने से पहले ही अंश बीच में बोल पड़ा। वह बेंच के चारों ओर चक्कर काट रहा था। उसे बहुत आनंद आ रहा था।
सूरज डूब चुका था। पेड़ पर चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ गयी थी। हवा में हल्की ठण्ड थी। दिसंबर आरंभ हो गया था।
"मैं तो बर्थडे बॉय की इच्छा के अनुसार काम करूँगा।" सौरभ ने मुस्कराते हुए कहा।
"ठीक है तुम बाप-बेटे सारी रात यहीं बैठे रहो, मैं चली जाती हूँ। जब पार्क बंद हो जाएगा तो तुम लोग बाहर गेट पर रात बिता लेना।" सप्तमी ने कहा। सप्तमी विक्टोरिया मेमोरियल पहले भी एक बार आ चुकी थी| हालाँकि वह पश्चिम बंगाल से ही थी किन्तु बारहवीं के बाद से ही दिल्ली चली गई थी। वहीं आगे की पढ़ाई की और फिर वहीं नौकरी करने लगी। विवाह भी वहीं हो गया।
"ठीक है अंश? मम्मा जो कह रही हैं वह ठीक है न?" सौरभ ने कहा।
"हाँ... बिलकुल ठीक।" अंश ने कहा। तभी सप्तमी ने चक्कर काटते अंश को पकड़ लिया। उसके दोनों हाथों को पकड़कर उसे अपने सामने खड़ा कर लिया।
"अच्छा...ठीक है...गेट पर रात बिता लोगे!" सप्तमी ने अपने माथे को अंश के माथे से सटाकर उसे दुलराते हुए कहा। वह हँसने लगा था। थोड़ी देर अंश के साथ खेलने के बाद वह उसका हाथ पकड़कर खड़ी हो गयी और बोली, "चलो अब निकलते हैं। देखो सब लोग जाने लगे हैं।" सप्तमी के साथ सौरभ भी खड़ा हो गया।
वे लोग बाहर निकल आए। एक टैक्सी रुकवाया।
"भैया, सोनेट होटल चलो, सियालदाह स्टेशन के पास।" टैक्सी में बैठते हुए सप्तमी ने कहा।
"नहीं, मिलेनियम पार्क जेट्टी ले लो।" सौरभ ने कहा।
"क्या? हम अभी होटल नहीं जा रहे हैं? मेरे अंदर अब और घूमने की शक्ति नहीं है सौरभ। मैं थक गयी हूँ।"
"घूमेंगे नहीं... आराम करेंगे और डिनर करेंगे।"
"मैं समझी नहीं।"
"सरप्राइज...!"
"सरप्राइज...!" अंश ने भी दुहरा दिया। तीनों हँस पड़े।
इस बार बेटे के जन्मदिन पर सौरभ और सप्तमी ने सुन्दरवन जाने का कार्यक्रम बनाया। अंश का यह छठा जन्मदिन था।
जंगल, पहाड़, नदियाँ और समुद्र सौरभ को सदा से ही बहुत आकर्षित करते रहे हैं। जब से हॉलिडे ट्रवेल से सुन्दर वन का टूर बुक कराया था, तब से रात भर वहाँ के घने जंगलों में घूमता रहता और भेटकी, हिल्सा, रोहू, झींगा इत्यादि तरह-तरह की मछलियों के स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वादन करता रहता। सुबह उठने पर उसके तकिये का कोना गीला हुआ रहता। सप्तमी उसे रोज ताना देती कि जैसे उसे यहाँ ढंग का खाने को ही नहीं मिलता है। सप्तमी वास्तव में बहुत अच्छा खाना बनाती है। मछली तो बहुत ही अच्छी।
आज सुबह दस बजे वे राजधानी ट्रेन से दिल्ली से कोलकता पहुँचे और सियालदाह स्टेशन से थोड़ी दूर पर ही एक होटल में ठहरे। दोपहर तक नहा धोकर कोलकता घूमने के लिए के लिए निकल पड़े। पहले इंडियन म्यूजियम गए। फिर कस्तूरी रेस्टॉरेंट में इलिस मछली (हिल्सा) और कोचू-चिंगड़ी (झिंगा-साग) का आनंद लिए। उसके बाद विक्टोरिया मेमोरियल आ गए।
मिलेनियम पार्क के घाट पर पहुँच कर वे लोग टैक्सी से उतरकर घाट की ओर चल दिए।
"वॉउ ! कितनी सुन्दर बोट है!" बड़ी सी मोटरबोट की ओर जाते हुए अंश ने कहा। बोट का अग्रभाग मोर की भाँति बना हुआ था। उसे सुंदरता से सजाया गया था। यह एक डिनर-क्रूज़ था। शाम को साढ़े सात से साढ़े दस बजे तक यात्रियों को हुगली नदी में घुमाता था। साथ ही उसमें खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था थी। तरह-तरह के व्यंजन उपलब्ध थे।
"अरे ! पहले तो यहाँ इस तरह का क्रूज़ नहीं चलता था।" सप्तमी ने कहा।
"हाँ, लोग मनोरंजन के नए-नए साधन ढूँढ़ते रहते हैं। उम्मीद करते हैं कि मज़ा आएगा।" सौरभ ने कहा।
"बहुत मज़ा आएगा....।" अंश ने चहकते हुए कहा।
यात्रियों से भरा क्रूज़ मिलेनियम पार्क से हाबड़ा पुल की ओर चल पड़ा। मधुर संगीत बजने लगा। किनारे के होटलों और ऊँची-ऊँची इमारतों के प्रकाश की छाया जल में बहुत ही मोहक लग रही थी। कई लोग नाव की रेलिंग के पास जाकर फ़ोटो लेने लगे। कुछ नवयुवक और नवयुवतियाँ एक ओर नृत्य करने लगे। खाने के लिए स्नैक्स और पेय पदार्थ वितरित किये जाने लगे।
"मम्मा! सुन्दरवन बहुत सुन्दर है!" हाबड़ा पुल के नीचे पहुँच कर अंश ने कहा। पुल की रोशनी से नदी का जल नहा गया था। चारों तरफ का वातावरण बहुत मोहक हो उठा था।
"यह सुन्दरवन नहीं है बेटा। अभी तो हम कोलकता शहर में हैं। सुन्दरवन कल सुबह चलेंगे।"
रात में ग्यारह बजे तक वे घूम-फिर कर होटल लौटे।
क्रमश..