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दह--शत - 18

एपीसोड ---१८

        समिधा कविता की हिम्मत फ़ोन पर उससे बात करते हुये देखकर दंग रह गई, एक क्षण काठ हो चुप रह गई।

            कविता ने फिर अपना प्रश्न दोहराया ,`उस औरत का पता चला ?``

            “पता तो लग ही गया है ।”

          “अच्छा!” उसकी आवाज़ का संतुलन वैसा का वैसा था, “सच ही हम लोगों को आपके लिए, भाईसाहब के लिए बुरा लगता है । मैं व सोनल रात में नौ बजे घूमने निकले थे । अब आप चारों स्कूटर पर जा रहे थे । सोनल ने तो तब भी कहा था कि ज़रूर कोई सीरियस बात है ।”

     समिधा जान-बूझकर कहती, “किस दिन हमको देखा था?”

       “संडे को । भाई साहब के लिए बहुत चिन्ता हो रही है ।”

     वह हँस पड़ी, “उनकी चिन्ता के लिए मैं ही काफ़ी हूँ । उस दिन रोली की बर्थ डे के लिए बाहर डिनर लेने जा रहे थे । उस औरत की चिन्ता छोड़ दो । यदि ऐसा केस किसी स्त्री संस्था को दे दो तो वे अख़बार मे व टी.वी. चैनल्स में खबर कर देती हैं तो ऐसी औरतों की अक्ल ठीक हो जाती है ।”

      अब वह कुछ घबराई, “मेरा नाम तो नहीं आयेगा?”

       “तुम्हारा नाम क्यों आयेगा?”

       “मैं जब आपके घर आई थी तब आपकी बातों से ऐसा लग रहा था आप मुझ पर शक कर रही हैं । भाई साहब के लिए मुझे बहुत बुरा लग रहा है ।”

       “भाई साहब बिचारे क्या करें जब एक काली ज़हरीली नागिन उनके पीछे पड़ गई है ।”

     “खट् ।” उधर से फ़ोन तुरन्त काट दिया गया ।

       ये सुना सुनाया शब्द वह कैसे बोल गई ? उसे ऐसा शब्द कहना नहीं चाहिये था । पता नहीं कैसे ये शब्द दिल से निकल ज़बान तक चला आया ।

       उसे कविता की वह अधमुँदी भयानक काली आँखें याद आ जाती हैं जब वह दृष्टि गढ़ा कर देखती है तो उनकी उभरी हुई सफ़ेदी से भय लगने लगता है, शायद उन्हें याद करके ही ये शब्द दिमाग़ में कौंधा हो ।

         शाम को बाई की लड़की नृत्यनाटिका का कैसेट लेकर आ गई । वह एक कोने से इस तरह चटका हुआ था कि साफ़ लग रहा था उसे जमीन पर पटका गया है । उसने जान-बूझकर ये कैसेट अभय के सामने लहराया,        

     “देखो ! उस भूतनी ने ये कैसेट तोड़ कर भेजा है ।”

       “क्या बोलती रहती है ?”

        “तुमने सुना होगा न कि आत्मा होती है या नहीं ये जानने के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने एक मरते हुए व्यक्ति को काँच के चेम्बर में बंद कर दिया जब वह व्यक्ति मरा तो पारदर्शी चेम्बर से कुछ भी बाहर जाता हुआ नहीं  दिखाई दिया सिर्फ़ काँच का चेम्बर एक तरफ़   से चटक गया था।”

  “तुम्हारी इस वैज्ञानिक दलील व कैसेट में क्या सम्बन्ध है?”

  “देखो। मैंने उसे सीधे ही ज़हरीली नागिन कह दिया है। ये कैसे चटका हुआ है, तो उस भूतनी की आत्मा को भागना ही पड़ गया हा...हा...हा...।”

उसे पता नहीं था ये खुशी क्षणिक ही थी।

         समिधा के  कान से लेकर आघी गर्दन से झनझनाहट होने लगती है कभी तेज़, कभी कम। उसे डॉक्टर को दिखाना चाहिए, कुछ गम्भीर बीमारी भी हो सकती है, लेकिन मन की स्पंदनों को जैसे अर्द्ध पक्षाघात ने जकड़ लिया है, दिमाग कहीं गहरे अंधेरे में डूबा लगता है। सारे घर में काला तरल सा कुछ तैरता सा लगता है जो दिखाई नहीं देता। कोई दो पीढ़ी की परिचित औरत इतनी बेशर्म भी हो सकती है? साँवली साँझ जब घर में उतरती है उससे पहले की सब कुछ कालिमा में डूब गया लगता है। घर भाँय-भाँय करता है।

अभय लंच लेकर घर से निकले और वह  गहरी असुरक्षा में डूब गई, उसका अपना कुछ लुटा जा रहा है। उसने कविता का मोबाइल नम्बर डायल कर दिया, “कविता! अपनी मर्यादा में रहना।”

  “आप क्या बात कर रही हैं?”

  “बनो मत।” उसका स्वयं का मन लरज रहा  डर  से काँप, है, “आज मैं चार“बनो मत।” उसका स्वयं का मन लरज रहा  डर  से काँप, है, “आज मैं चार बजे तुमसे बातें करने आ रही हूँ।”

  उसने चार बजे फिर उसका नम्बर लगाया। कविता ने काट दिया। वह तीन चार बार डायल करती है उधर से काट दिया जाता । कहीं कोई शक ही गुंज़ाइश नहीं है, अब क्या करेगी उसके घर जाकर?

  दूसरे सुबह अलार्म बजने पर उसने अभय की बाँह पकड़कर हिलाई, “अभय ! ऑफ़िस  नहीं जाना?”

“आज छुट्टी ली है।” उन्होंने आँखें बंद किये हुए ही उत्तर दिया।

“ क्यों? ”

  “डॉक्टर मिश्रा ने डेंटल केम्प लगाया है। उन्होंने फ़ोन किया था कि मैं चेकअप करवा लूँ।”

“ओ..... कितने बजे से केम्प है?”

  “ग्यारह बजे से है। मैं बारह से एक के बीच में जाऊँगा।”

  अभय के घर से निकलने के पंद्रह मिनट पहले उसके दिमाग में बिजली कौंध जाती है। वह तूरन्त सूट बदलकर हाथ में पर्स लेकर खड़ी हो जाती है, अभय बाल काढ़ते हुए अपना चेहरा आईनें में देखते हुए कहते है,      

         “तुम कहाँ जा रही हो?”

  “मैं भी तुम्हारे साथ चैकअप करवा लेती हूँ।”

  “ठीक है।” अभय उतरे हुए चेहरे से कुछ क्षण बाद कहते हैं, “अरे ! याद आया वह कह रहे थे आने से पहले मैं उन्हें फ़ोन कर लूँ कहीं तारीख न बदल गई हो।”

फ़ोन करने के बाद वे कहते है, “समिधा ! कैम्प दो दिन बाद है।”

  “आपकी छुट्टी बेकार गई।”

“लेट्स सेलिब्रेट चलो कहीं चलते हैं।”

         “मैं कहीं भी नहीं जाऊँगी।” समिधा बोल नहीं रही चीख रही है।

गुस्सा दूसरी सुबह कविता के यहाँ फ़ोन करके उतरता है। सोनल मोबाइल पर है, “आँटी ! नमस्ते।”

“मम्मी ! कहीं शॉपिंग पर निकलने वाली है?”

“नहीं तो।”

  “मैंने सोचा यदि शॉपिंग के लिए जा रही हों तो मैं भी उनके साथ चली जाऊँ।”

थोड़ी देर बाद ही कविता की फ़ोन पर काँपती हुई आवाज़ सुनाई दी, “आपने अभी सोनल से बात की थी ? मैं शॉपिंग करने नहीं जा रही।”

         “जाना भी मत समझी ! यहाँ एन जीओज़ व डिटेक्टिव एजेंसी की कमी नहीं है।” वह धमकी उसे दे रही है काँप स्वयं रही है।

“सोनल के पापा लौट आयें तब मैं आपके घर भाईसाहब से मिलने आऊँगी।”

“ज़रूर आना, आई विल वेट।”

चौथे दिन अभय ने दोपहर में चलने से पूर्व अलमारी खोली व रुपये निकाले।

  समिधा हर समय आशंकित व डरी रहती है, “कहीं जाना है क्या?”

“हाँ, फ़ोन का बिल भरना है।”

“मुझे बच्चों के टेस्ट पेपर्स ज़ेरोक्स करवाने हैं, मैं भी चलती हूँ।” उसने जल्दी-जल्दी पेपर्स एक बैग में रख लिए। कपड़े बदलने की उसे परवाह नहीं है।

उनके चेहरे पर द्विविधा है, वे बोल कुछ नहीं पाते। वह ज़ेरोक्स की दुकान पर उतर गई। अभय ने कहा, “मैं पेट्रोल भरवा कर आता हूँ।”

उत्तर सुने बिना तेज़ी से स्कूटर दौड़ाते चले गये। समिधा को कुछ चैन पड़ा तो उसका शक सही था।

  रात को उनके गुस्से ने बहाना ढूँढ लिया, “ये वॉशबेसिन के पास का नेपकिन इतना गंदा क्यों है?”

समिधा ने वह नेपकिन स्टैंड पर से उतारकर दिखाया, “देखो ! कहाँ है इसमें गंदगी?”

   “ ये गंदा नहीं है क्या? ”

           “तुम कहीं का गुस्सा कहीं और क्यों उतार रहे हो?”

  “क्या मतलब?”

“अभय तुम्हारा चेहरा अजीब खिंचा-खिंचा क्यों रहता है, आँखें डूबी सी रहती हैं।”

“तुम बात पलट रही हो।”

  “तो सीधे ही कह रही हूँ तुम्हारा आज का पर्सनल प्रोग्राम कैंसिल हो गया तो नेपकिन का बहाना ले रहे हो।”

अभय ढीठ  होकर हँस पड़े, “रिच क्लास, राजा महाराजा ये ही सब करते है।”

  “तुम क्या राजा महाराजा हो? हम प्यार से अपना परिवार चला रहे थे और तुम किस बदमाश के चक्कर में पड़ गये हो।”

        “बदमाश तो तुम हो उसे धमकी देती हो।”

“किसे? और तुम्हारा अगर किसी से रिश्ता नहीं है तो तुम्हें कैसे मालूम मैं किसी को धमकी देती हूँ?”

  अभय उन्मत होते जा रहे हैं, “ये सब मर्दानगी की निशानी है।”

           वह क्षोभ से नेपकिन ज़मीन पर पटक देती है, “तुम्हें ये सब गंदगी कौन सिखा रहा है? ये हमारे घर में क्या होने लगा है?”

  “मुझे कौन सिखायेगा?” एक सुरूर उनकी आँखों में तैर रहा है। वह जल्दी से चप्पल पहन बाहर के दरवाज़े  की तरफ बढ़ते हैं।

  वह पीछे से कहती है, “ठहरो! मैं भी घूमने चल रही हूँ।”

         “मेरे साथ आने की कोई ज़रूरत नहीं है। मेरा मूड ऑफ़  करती है गँवार, जाहिल औरत ! घर में बैठ।” वह फटी-फटी आँखों से अभय के चेहरे के वहशीपन को देखती रह गई। ये कौन है? उसके अभय तो नहीं है।

  उसके कान के नीचे फिर झनझनाहट आरम्भ हो गई। वह अपनी गर्दन को हाथ से मलती अंदर आ गई। उसकी आँखें डबडबाई हुई हैं। दिल-दिमाग तनाव की आखिरी सीमायें छूने लगा।

  सुबह वह  नाश्ता लगाकर घबराई सी पलंग पर लेट जाती है। अभय ने चाय पीते हुए पूछा, “तुम नाश्ता क्यों नहीं कर रही?”

           “तुम्हारी करतूतों के कारण मेरी गर्दन में बेहद झनझनाहट हो रही है, दिल घबरा रहा है।”

“मेरी करतूतों के कारण नहीं, अपनी बेवकूफ़ियों के कारण। हॉस्पिटल दिखा आना, कहीं लकवा न मार जाये। नहीं तो बिस्तर पर पड़ी रहोगी।”

            “मेरे बिस्तर पर पड़ी रहने से तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा?”

  “मुझे क्या फ़र्क पड़ेगा?”

अभय की इस बेदर्दी पर समिधा के आँसू निकल आये। उसकी ज़रा सी तबियत ख़राब होते ही वह चिन्तित हो जाते थे।

वे जूते की लेस बाँधते हुए कहते हैं, “तुम्हारी तबियत ख़राब है, लंच बाहर ले लूँगा।”

“अच्छा !”  समिधा को फिर झटका लगता है,  “नहीं, नहीं, घर पर बाई से बनवा लूँगी।”

दिमाग़ है कि सोचने लायक बचा ही नहीं है। दिल व आँखें हमेशा भीगी-भीगी रहती हैं। ये कैसा बरस आया है ? कब से पल-पल जिसका इन्तज़ार किया था। कितनी-कितनी मेहनत की है उसने व अभय ने कि बच्चे अपनी मंज़िल तक पहुँचे। रोली भी कैम्पस इन्टर्व्यू में चुन ली गई है। उसके घर में जश्न का बरस होना चाहिए था। हो कुछ और रहा है।

अचानक नीता उसके घर आ धमकती है, “ये क्या सूरत बना ली है?”

क्या बताये उसे कैसे बताये?

“देख इस उम्र में अपना बहुत ध्यान रखना चाहिए। तुझे क्या हो रहा है?”

  “आधी गर्दन में झनझनाहट हो रही है। तू कैसे आ गई?”

“शुभ्रा ने ये प्रश्न भेजे हैं। वे स्त्रियों पर कुछ सर्वे कर रही है। चल मैं तुम्हें हॉस्पिटल ले चलती हूँ।”

“बाद में जाऊँगी। तुझे देर हो जायेगी।”

“बहाने मत कर, चल जल्दी चल मैं तुझे ड्राप कर दूँगी, लौटकर ऑटो में आ जाना।”

डॉक्टर  चैकअप करके बताते हैं, “ये स्पॉन्डोलाइसिस का अटैक है। एक डेढ़ महीने गर्दन को ट्रेक्शन देना होगा।” वे उसका बी.पी. चेक करते हैं, “आपका बी.पी. तो एक सौ सत्तर हो रहा है।”

         “लेकिन मैं बी.पी. की मरीज़ नहीं हूँ।”

“लेकिन अब आप हो गई हैं।”

   वह गर्दन पर ट्रेक्शन लेने फ़िज़ियोथिरेपी रुम में जाती हैं। फ़िज़ियोथिरापिस्ट मोहसिना के गोरे चेहरे पर उसे देख मुस्कराहट आ जाती हैं, “कैसी हैं ? क्यों बहुत डाऊन लग रही हैं ?”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com

 

 

 

 

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