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तलाश.

तलाश

दिन काफी चढ़ गया था | शायद सुबह के आठ बज गए थे ! माँ कब से उसे आवाज दे रहीं थीं, ‘अतुल, उठ बेटा | आज तो धंधे का दूसरा ही दिन है, इतना आलस करेगा तो कैसे चलेगा ?’ लेकिन अतुल उठने का नाम नहीं ले रहा था | माँ के बुलाने पर हाँ, हूँ कहकर फिर करवट बदल लेता था | हमेशा पांच बजे उठने वाला अतुल इतना कैसे सो रहा है, यह माँ के लिए चिंता का विषय था | वह कई बार उसका माथा छूकर देख आई थीं कि कहीं बुखार तो नहीं, लेकिन वह पूरी तरह ठीक था | सच तो ये था कि वह सो भी नहीं रहा था,बस चुपचाप पड़ा था | धंधे के लिए निकलने का उसका मन ही नहीं था, लेकिन माँ को कौन समझाये ? माँ की यही बात उसे खराब लगती है कि वह पीछे ही पड़ जाती है | सबेरे से सैकड़ों बार आवाज दे चुकी है | ये नहीं कि एक दिन उसे पड़ा ही रहने दे |

इंटर पास करने के बाद उसने पी. ई. टी. का फार्म भरा था | उसके अन्य साथियों ने परीक्षा की तैयारी के लिए ‘कोचिंग’ ज्वाइन की थी,लेकिन उसकी घरेलू स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह कोचिंग ज्वाइन कर सके | वह स्वयं मेहनत कर रहा था | पूरी लगन, पूरी निष्ठा से उसने परीक्षा दी थी,लेकिन परिणाम उसके पक्ष में नहीं आया | फिर उसने मन मारकर बी. एससी. में दाखिला लिया | एम.एससी. के बाद वह नौकरी की तलाश करने लगा | विज्ञापन के आधार पर जगह-जगह आवेदनपत्र भरता, इंटरव्यू देता,लेकिन नौकरी उसके खाते में न आती | हर बार वह आशा की नई किरण ले प्रयास करता |

धीरे-धीरे उसे पता चलने लगा कि बहुत-सी नौकरियों के ये विज्ञापन और इंटरव्यू तो मात्र दिखावा हैं | जिसका चयन होना है वह पहले ही हो चुका रहता है |

अब वह निराश रहने लगा | दो साल, तीन साल,चार साल बीत गए ,लेकिन नौकरी नहीं मिली | जो एकाध नौकरी मिली भी वह इतनी छोटी और हल्के स्तर की होती कि उसका मन ही न करता की वह नौकरी करे | आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि कोई ढंग का व्यापार शुरू किया जा सके | छोटे व्यवसाय जैसे- सब्जी बेचना, साइकिल का पंचर बनाना या फिर गोलगप्पे बेचना वह कर नहीं सकता था क्योंकि उसके मन में डिग्रीधारी होने का बडप्पन था |

बचपन के उसके अन्य साथी जो किसी तरह नवीं दसवीं ही पास कर पाए थे, आज कितने मजे में हैं| कम से कम डिग्री होने का बड़प्पन तो नहीं है उनके मन में | कितने अक्खड़पन से ऑटो चला लेते हैं, मूंगफली बेच लेते हैं | बिना किसी परवाह के रंगाई-पुताई कर लेते हैं | कमलाकांत तो पढ़ने में कितना कमजोर था ! क्लाश में उसे रोज सजा मिलती थी | बड़ी मुश्किल से आठवीं तक पहुँचा था,लेकिन पास न कर सका | उसके पिता ने पढ़ाई छुड़वा दी थी | वह खुश था – मिल गई छुट्टी बेमतलब की मगजमारी से | लेकिन आज देखो कितने ठाठ से रह रहा है ! स्टेशन के सामने ही चाय-समोसे की दुकान खोली है | सुबह पांच बजे से लेकर रात बारह बजे तक एक जैसी भीड़ उसकी दुकान पर दिखती है | माँ-बाप भी खुश हैं उसके |

उसे याद है, कालेज में एक बार कुछ लडकों के साथ नौकरी की समस्या पर बहस हो रही थी | वह पूरे जोश में था –‘कैसी समस्या ? जो प्रतिभाशाली हैं उन्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता | नहीं मिलेगी सरकारी नौकरी, न मिले | प्राइवेट सेक्टर में जायेंगे, नहीं तो कुछ व्यवसाय करेंगे | जिसमें दिमाग है वह हाथ पर हाथ धरे बैठेगा थोड़ी ! वह तो कुछ कर दिखायेगा |’ आज उसे-समझ में आ रहा है कि लंबा-चौड़ा भाषण देना सरल है, लेकिन व्यवहार में वैसा अमल कर पाना बहुत कठिन है | पग-पग पर कठिनाई है | सब जगह पैसे का खेल है |

बहुत प्रयास और इंतजार के बाद भी जब उसे नौकरी नहीं मिली तब उसने मन मारकर बच्चों के एक स्कूल के गेट पर लइया-पट्टी और मूंगफली बेचने का काम अपनाया था | माँ का विचार था कि स्कूल का गेट इन सब चीजों को बेचने के लिए सबसे अच्छी जगह हो सकती है | बच्चे खूब खरीदते हैं | एक रुपये,दो रुपये में थोड़ी-सी मूंगफली या लइया पट्टी कागज में लपेट कर पकड़ा दो, वे ख़ुशी-ख़ुशी चले जाते हैं | कोई मोल-भाव नहीं, कोई झंझट नहीं |

मूंगफली बेचने की शुरुआत तो उसने कर दी,लेकिन कल का पहला दिन ही कडुवे अनुभव का था | न जाने कहाँ से इतने जान-पहचान वाले उस सड़क से गुजरे थे | कोई व्यंग्य भरी नजरों से देखता हुआ आगे निकल गया तो किसी ने दया के दो शब्द फेक दिये | कुछ ने तो रुककर पूछ ही लिया था – ‘क्या हुआ ? नौकरी नहीं मिली ? ... इतना पढ़-लिखकर यही करना था तो माँ-बाप का पैसा क्यों बर्बाद किया?’ उसके कुछ साथी भी आ टपके थे – मुफ्त की मूंगफली खाए और नसीहत देकर चलते बने | हाँ बच्चे जरूर मुस्कराते हुए,ख़ुशी से उसके पास आ रहे थे, क्योंकि लइया पट्टी और मूंगफली का ठेला आज बहुत दिनों बाद स्कूल के सामने लगा था | दोपहर की छुट्टी में तो पुड़िया बनाते-बनाते उसके हाथ में दर्द होने लगा था | बच्चे ‘मूंगफली वाले अंकल, पट्टी वाले अंकल !’ कह-कहकर अपनी पुड़िया पहले बंधवाने की कोशिश कर रहे थे |

वह भी कभी ऐसे ही स्कूल में मूंगफली वाले अंकल से मूंगफली खरीदकर खाता था और जुट जाता था पढ़ने में, बड़ा अफसर बनने के लिए |

बिस्तर पर पड़ा-पड़ा वह ये सब सोच ही रहा था कि माँ ने फिर से आवाज लगाई, ‘अतुल, उठना नहीं है क्या, अभी तो तुम्हें बाजार जाकर ठेले का सामान भी लाना है |’ वह झुंझलाकर उठा, नित्य कर्म से निपट कर कुछ खाया – पिया, फिर बाजार से सामान लाकर ठेला भरा और स्कूल की तरफ चल पड़ा |

आज भी उसे कल जैसा ही अनुभव हुआ | उसका मन नहीं लग रहा था | लोगों की नजरें जब उसकी तरफ उठतीं तो उसे लगता कि कोई उसके कलेजे पर तीर चला रहा है | उसने अपने मन को बहुत समझाया कि किसी का अपनी तरफ देखना उपेक्षा भाव से ही प्रेरित नहीं होगा | किसको फुर्सत है किसी के बारे में सोचने की | अगर कोई सोचेगा भी तो कितनी देर तक ? दो दिन, चार दिन |उसके बाद तो सबको आदत पड़ जाएगी | जीवन सिर्फ लोगों के देखने दिखाने या अगड़े-पिछड़े की परिभाषा में ही नहीं उलझा है | इससे आगे भी दुनिया है | पिछड़े को अगड़ा बनते देर नहीं लगती | वह इतना व्यग्र क्यों हो रहा है ! कहीं उसके मन की कुंठा तो उसे प्रताड़ित नहीं कर रही है ! हाँ, यही सच है | उसकी स्वयं की सोच ही उसे अधिक सता रही है | क्या सोचा था उसने और क्या हो रहा है | कहाँ बड़ा अधिकारी बनने का स्वप्न और कहाँ मामूली ठेलेदार !

यद्यपि आज भी उसकी बिक्री अच्छी हो रही है,लेकिन उसका मन नहीं लग रहा है | वह दोपहर बाद ही घर लौट आया | घर में सब बहुत नाराज हुए | भइया बोले, ‘ऐसे तो तुम जिन्दगी में कुछ भी नहीं कर पाओगे | अरे, हर तरह की बात झेलने का कलेजा बनाना पड़ता है |’ पिताजी कभी कुछ नहीं कहते थे, किंतु आज वह भी नाराज हुए ,’मन ही नहीं लगता किसी काम में | बैठकर खाने की आदत जो पड़ गई है | लोगों की बातों का तो सिर्फ बहाना है |’ वह सब की बातें चुपचाप सुनता रहा |

मन ही मन उसने निश्चय किया कि अगर उसे मूंगफली ही बेचना है तो इस शहर में क्यों बेचे | क्यों न कहीं दूसरे शहर में चला जाये | जहाँ उसे कोई पहचान न सके | खाने-पीने ,रहने की थोड़ी तकलीफ होगी | पैसा भी कम पड़ेगा लेकिन वह सब सह लेगा | कम से कम परिचितों की दयापूर्ण नजरों से तो दूर रहेगा |

उसने अपना निर्णय घर वालों को सुना दिया | घर में फिर एक बार बवाल खड़ा हुआ | भइया ने कहा, ’नौकरी की बात होती तो सोचा जाता की घर से दूर तो जाना ही पड़ेगा, लेकिन जब छोटा-मोटा धंधा ही करना है तो यहीं रहना ठीक है |’ भइया को तो उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन मन ही मन सोचा तुम नौकरी से लग गए हो न तुम क्या समझोगे मेरी पीड़ा | अंत में पिताजी ने ही सबको समझाया और उसे दूसरे शहर में जाकर कुछ करने की अनुमति मिली |

उसने तैयारी शुरू कर दी | दो-चार सेट कपड़े, बनाने-खाने के लिए थोड़े से बरतन | ओढ़ने-बिछाने के लिए चादरें | माँ ने दो-चार दिन के लिए आटा-दाल भी रख दिया,जिससे पहुंचते ही खरीदने की झंझट न उठानी पड़े | धंधे में लगने वाले पैसे के अतिरिक्त भी पिताजी ने उसे इतने पैसे दे दिये की वह पराये शहर में महीना भर आराम से रह सके | आते समय माँ बहुत रोईं थी | भइया स्टेशन तक छोड़ने आये थे | सबसे विदा ले वह अपने निर्धारित शहर में आ गया था |

यहाँ पहुँच कर सबसे पहले उसने एक सस्ते होटल की तलाश की, जहाँ वह एक-दो दिन रह सके | फिर वह शहर घूमने निकला | शहर कैसा है इसकी परवाह उसे नहीं थी | देखना उसे यह था कि कोई जान-पहचान का तो नहीं है | पूरा शहर घूमकर वह आश्वस्त हुआ | कोई भी व्यक्ति पहचान का नहीं मिला | यहाँ कितना सुकून है | ऐसे ही शहर की तलाश थी उसे | यहाँ सब्जी-भाजी, फल से लेकर लइया पट्टी तक, कुछ भी बेच सकता था वह | साइकिल का पंचर बना सकता था, प्रेस की दुकान लगा सकता था | या और भी जो चाहे कर सकता था | उसकी डिग्री यहाँ आड़े नहीं आएगी | वह यहीं रहेगा | रोजगार की प्रबल संभावना है यहाँ |

आशा पाण्डेय

अमरावती, महाराष्ट्र

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