आधी दुनिया का पूरा सच
(उपन्यास)
21.
एकाधिक योग्य एवं अनुभवी स्त्री-रोग-विशेषज्ञ के परामर्श से सहमत होते हुए अन्त में पुजारी जी ने यही निर्णय लिया कि अब वे रानी का गर्भपात कराने के लिए किसी डॉक्टर से नहीं मिलेंगे, बल्कि उसके हितार्थ उसकी सुरक्षा और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उसके प्रसव तक यहाँ से दूर किसी अन्य स्थान पर सर्वथा अपरिचित समाज में जा रहेंगे। अपने निर्णय के साथ पुजारी जी रात आठ बजे मंदिर में लौट आये ।
पुजारी जी मन्दिर में लौटे, तो रानी ने शिकायत के लहजे में कहा -
"काका, आप कहाँ चले गये थे ? यहाँ कोठरी में अकेले बैठे-बैठे बहुत घबराहट हो रही थी !
"बिटिया, यहाँ कोठरी में अकेले घवराहट हो रही थी, तो मन्दिर जाकर भगवान के भजन गाती, मन ठीक हो जाता !"
"काका, मैं मन्दिर में गयी थी । वहाँ जो लोग आते-जाते रहते थे, वे हमसे तरह-तरह के प्रश्न पूछ रहे थे, इसलिए मैं वापस कोठरी में आकर बैठ रही !"
"बिटिया, बस आज के लिए हमें क्षमा कर दे, कल से हम हर पल तेरे साथ रहेंगे !" पुजारी जी की क्षमा याचना पर रानी ने मुस्कुराकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर दी।
उस दिन के पश्चात् पुजारी जी जब भी रानी से दूर होते, तो प्रत्येक क्षण रानी के विषय में चिंता करते रहते । जब रानी के साथ होते तो प्राय उसे गीता का पाठ पढ़ाते और सन्तान के प्रति माँ के कर्तव्य समझाते रहते। पुजारी जी के उपदेश सुन-सुनकर रानी अब मानसिक रूप से एक आदर्श माँ बनने की दिशा में तैयार हो रही थी। उसके साथ कभी जो कुछ अनुचित हुआ था, उस दुर्घटना को उसके माँ बनने की गौरवमयी कल्पना ने पीछे छोड़ दिया था । और अब प्राकृतिक-सामाजिक नीति-नियमों के प्रतिकूल पुनः उसके साथ कुछ होने जा रहा है, इस बात का उसे कुछ आभास नहीं था।
पुजारी जी के अभिभावकत्व में समाज के क्रूर प्रतिबन्ध और निर्ममता से अनभिज्ञ रानी अब अपने गर्भस्थ शिशु के साथ जीवन का आनंद लेने लगी थी। हाँ, जब कभी माता-पिता की याद आती थी, तब अवश्य ही उसके चेहरे पर उदासी की रेखाएँ खिच जाती थी। ऐसी स्थिति में पुजारी जी रानी को साथ लेकर उसके माता-पिता को खोजने के लिए निकल जाते थे । इसी प्रकार लगभग एक महीना बीत चुका था। इस अंतराल में पुजारी जी ने दिल्ली से बाहर गाजियाबाद जिले में एक ऐसा मन्दिर खोज लिया था, जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन के प्रबन्ध के साथ-साथ मन्दिर के प्रांगण में बनी एक कुटी में निवास के लिए भी अनुमति प्राप्त कर ली थी।
जीविकोपार्जन के लिए दूसरा मन्दिर और निवास के लिए वहीं पर कुटी में रहने की अनुमति मिलते ही पुजारी जी ने अपने वर्तमान मन्दिर की समिति के समक्ष स्वयं को कार्यभार-मुक्त करने का निवेदन करके रानी को घर का सामान समेटने का निर्देश दे दिया । चूँकि अगले दिन नये स्थान पर जाकर वहाँ मन्दिर में बनी कुटी में जाकर रहना था, इसलिए देर रात तक पुजारी जी और रानी कोठरी में उपलब्ध अपने उन सामानों में से, जो पुजारी जी की पत्नी ने कभी बड़े मनोयोग से जुटाए थे, जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ सामानों को समेटने का प्रयास करते रहे ।
अगले दिन प्रातः काल पुजारी जी ने सदैव की अपेक्षा बिस्तर छोड़कर मंदिर की सफाई की और निर्धारित समय से पूर्व प्रसाद तैयार करके भगवान जी को भोग लगा दिया और भगवान जी की सेवा में भजन गाने लगे । उसी समय कॉलोनी के एक परिचित सज्जन मन्दिर में आकर बोले -
"पंडित जी ! सुना है, आप इस मन्दिर को छोड़कर जा रहे हैं ?"
पुजारी जी ने भजन गाना बन्द कर दिया । आगन्तुक सज्जन के प्रश्न का क्या उत्तर दें ? इस विषय में सोच ही रहे थे, इससे पहले ही उनकी चिन्तामग्न मनःस्थिति को देखकर आगन्तुक सज्जन ने पुनः कहा -
"क्यों पुजारी जी ? ऐसा क्या हो गया है कि आपको मन्दिर छोड़कर जाना पड़ रहा है !" पुजारी जी कुछ उत्तर देते उससे पहले ही एक और सज्जन मन्दिर में आकर खड़े हो गये और पुजारी जी पर जहर-भरे व्यंग्य-बाण से प्रहार करते हुए कहा -
"जब साफ-स्वच्छ बनने वालों की काली करतूतें बाहर आने लगती हैं, तो भागने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है !"
"स्पष्ट शब्दों में कहिए साहू जी, क्या कहना चाहते हैं आप ?" पुजारी जी ने दृढ़ता के साथ कहा।
"पंडित, यह भी हमें ही कहना पड़ेगा ? पिछले पाँच महीने से आज की तारीख तक अपनी रखैल को रोज सैर सपाटे कराने के लिए ले जाते रहे हो ! तुम्हें क्या लगता है, सारी दुनिया अंधी है या आँखें बंद करके बैठी है ?"
"साहू जी, वह बच्ची मेरी बेटी जैसी है ! आप मुझे जो चाहे कह सकते हैं, कृपया उस बच्ची को अपनी गंदी सोच के दायरे से बाहर रखें !"
"वाह पंडित ! वाह ! वह बच्ची है ! मेरी बेटी जैसी है ! बच्ची है, बेटी जैसी है, तभी घड़े-सा पेट लेकर तुम्हारे साथ पत्ते चाटती फिरती है ! हा-हा-हा-हा !" साहू ने ठहाका लगाया।
"बस साहू जी ! अपनी वाणी को विराम दीजिए और इसी समय इस मन्दिर से बाहर निकल जाइए ! जब तक मैं यहाँ हूँ, आप जैसे गन्दी सोच वाले लोगों का यहाँ प्रवेश नहीं होगा !" कहते हुए पुजारी जी ने साहू को धक्का देकर मन्दिर से बाहर कर दिया। तत्पश्चात् शीघ्रतापूर्वक मन्दिर से कोठरी में आये और रानी को जगाया -
"बिटिया ! उठ और नित्य कर्मों से निवृत्त हो जा, यहाँ से शीघ्र प्रस्थान करना है ! धूप तेज होने से पहले अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच जाएँ, तो अच्छा है !"
"जी काका !" रानी ने आँखें मलते हुए कहा।
यह सुनिश्चित होते ही कि रानी जाग चुकी है, पुजारी जी कोठरी से बाहर निकलकर प्रस्थान की तैयारी में लग गये ।
लगभग नौ बजे पुजारी जी मन्दिर के प्रांगण में एक ऑटो-रिक्शा लेकर आये । ऑटो रिक्शा से उतरकर पुजारी जी कोठरी की ओर चले गये और उसी समय मन्दिर के बाहर एक-एक करके भीड़ एकत्र होने लगी । चार पाँच मिनट पश्चात् पुजारी जी के साथ कुछ हल्का सा-सामान हाथ में लिए हुए रानी कोठरी से बाहर निकली । पुजारी जी कंधे पर सामान की भारी-भरकम गठरी थी । पुजारी जी को देखते ही भीड़ से एक स्वर उभरा -
"मारो !" भीड़ में से स्वर के साथ ही किसी ने एक पत्थर उछाला, जिसका लक्ष्य रानी थी। दूर से आते पत्थर का लक्ष्य भाँपते हुए पुजारी जी गठरी को नीचे गिराकर तेजी से दौड़े और रानी के आगे अड़कर खड़े हो गये । पत्थर पुजारी जी के सिर पर आकर लगा । पत्थर लगते ही रक्त का फव्वारा फूट पड़ा। उन्होंने रानी को चिल्लाकर कहा -
"बिटिया, कोठरी में जा ! शीघ्रता कर !"
"काका !" पुजारी जी के सिर से बहते रक्त को देखकर रानी की चीख निकली, तो पुजारी जी ने पुनः कहा -
"बिटिया, मेरी चिन्ता छोड़ दे ! कोठरी में जाकर अंदर से कुंडी बन्द कर लेना ! अपने बच्चे की रक्षा कर ! माँ है तू ! माँ का कर्तव्य निर्वाह कर !"
रानी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक यह क्या ? और क्यों हो रहा है ? फिर भी, पुजारी जी के आदेश का पालन करने के लिए न चाहते हुए भी रानी यथाशीघ्र कोठरी में चली गयी और कोठरी का दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया।
घंटों तक कोठरी के अन्दर रहकर ही वह भीड़ में से उभरता "मारो-मारो-मारो" का हिंसक स्वर और पुजारी जी की चीख का आर्द्र स्वर सुनती रही। कुछ समय पश्चात् पुजारी जी के चीखने का स्वर बन्द हो गया। धीरे-धीरे भीड़ का हिंसात्मक भयानक स्वर भी बन्द हो गया । रानी ने खिड़की से बाहर झाँककर देखा, भीड़ छँटने लगी थी और पुजारी जी का रक्तरंजित शरीर फर्श पर पड़ा था । रानी के मन में आया कि बाहर आकर पुजारी जी की सहायता करे, किन्तु पुजारी जी के आदेश का पालन करने की दिशा में भीड़ के पूर्णरूप से छँटने की प्रतीक्षा करना आवश्यक था ।
भीड़ के पूर्णतया छँट जाने पर रानी कोठरी से बाहर निकलकर पुजारी की सहायता के लिए दौड़ी। पुजारी जी के रक्तरंजित शरीर से लिपटकर एक बार वह आर्त स्वर में चीखी -
"काका !" अगले ही क्षण दुपट्टे को पुजारी जी के सिर से बहते हुए खून को रोकने के लिए सिर पर बांधने लगी। किन्तु पुजारी जी के अंग-प्रत्यंग से रक्त बह रहा था । कहाँ-कहाँ उस दुपट्टे को बांधे ? यह समझ में नहीं आया । अबोध बच्ची की निश्छल संवेदना को देखकर मरणासन्न अवस्था में पड़े हुए पुजारी जी के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल उठी, अत्यंत धीमे स्वर में बोले -
"बिटिया, कोठरी में जाकर अन्दर से दरवाजा बन्द कर ले ! कुछ देर में पुलिस आती होगी ! पुलिस को सब-कुछ सत्य बता देना ! उसके बाद यहाँ से कहीं दूर किसी मन्दिर में भगवान की शरण में चली जाना और तब तक वहीं रहना जब तक तेरे माता-पिता तुझे खोजते-खोजते तेरे पास न पहुँच जाएँ !"
कहते-कहते पुजारी जी की गर्दन एक ओर लुढ़क गयी । उनकी अत्यधिक घायल अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि इतनी देर तक शायद रानी को निर्देश देने के लिए ही उनके प्राण शरीर में अटके हुए थे।
कुछ समय तक निराशा में डूबी रानी किंकर्तव्यविमूढ़-सी पुजारी जी की मृत देह के पास बैठी हुई रोती रही । उसको समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे ? क्या न करे ? रोते-रोते कुछ क्षणोंपरान्त उसे पुजारी जी के अंतिम निर्देश का अचानक स्मरण हुआ, तो अनायास ही वे शब्द उसके होंठों पर आ गये, जो पुजारी जी ने अंतिम समय कहे थे -
"कुछ देर में पुलिस आती होगी ... !" अपने ही मुख से निसृत 'पुलिस' शब्द कान में पड़ते ही उसके तन-मन में किसी अबूझ चेतना का स्फुरण हुआ और वह एक झटके के साथ उठ खड़ी हुई। उसके अंत: से एक मौन स्वर उभरकर बार-बार उसे आदेश दे रहा था -
"नहीं, रानी ! तुझे पुलिस के आने तक यहाँ नहीं रुकना है ! काका अब इस दुनिया में नहीं है ! काका ने मरने से पहले तुझे यहाँ से दूर किसी मन्दिर में जाने के लिए कहा था ! पुलिस के आने पर तू कभी किसी मन्दिर में नहीं जा सकेगी ! जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से निकल जा !"
अपने अंतःकरण की आवाज को सुनते हुए रानी ने एक बार मन-भरकर पुजारी जी को देखा, तो झड़ी लगाकर आँखों से आँसुओं की बरसात होने लगी। तभी उसको लगा की कानों में पुजारी जी का स्वर गूंज रहा है -
"रोकर कभी समस्याओं का समुद्र पार नहीं होता ! इस समुद्र को वही पार करता है, जो कभी नहीं रोता !"
"काका, अब मैं बिल्कुल नहीं रोऊँगी !" कहकर उसने दृढ़तापूर्वक अपने आँसू पोंछे और टोह लेते हुए मन्दिर के प्रांगण से बाहर निकल गयी ।
क्रमश..