ये दिल पगला कहीं का - 15 Jitendra Shivhare द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

ये दिल पगला कहीं का - 15

ये दिल पगला कहीं का

अध्याय-15

"कोई बात नहीं दीपक। आपकी असहमती मुझे स्वीकार है। मैंने अपने हृदय की बात आपसे कह दी। मेरे लिए यही बहुत बड़ी बात है।" अवन्तिका कहकर जाने लगी।

"रूको अवन्तिका!" दिपक ने कहा। अवन्तिका पुनः पलट गयी। अन्य शिक्षक अब दीपक के अगले कदम पर अपनी पैनी नज़र गढ़ाये हुये थे।

"तुमसे पहले अगर मैं अपने दिल की बात कहता तब शायद हो सकता था अन्य लोग तुम पर इसे मेरी मेहरबानी समझते।" दीपक बोला। अवन्तिका हैरत में थी।

"हां अवन्तिका! मैं भी तुमसे प्रेम करता हूं। बस पहले तुम्हारे मुख से सुनना चाहता था।" दीपक ने कहा। अवन्तिका की आंखें नम हो गयी। दीपक ने उसे वास्तविक प्रेम का उपहार दिया था। जिसके लिए बहुत से लोग आजीवन वंचित रहते है।

अगली कहानी लखनऊ से आई थी---

-------------

*दी* पक ने आज भी कुछ नहीं कहा। हमेशा की तरह वह आज भी हंसता और हंसाता रहा। शाम के चार कब बजे पता ही नही चला। स्कूल की छुट्टी का समय हो चूका था। अवन्तिका बुझे मन से अपना सामान समटने लगी। मगर वह निराश नहीं थी। उसे विश्वास था कि दीपक आज अपने दिल की बात बता देगा। वह अवन्तिका से मिला भी किन्तु उसने ज्यादा कुछ नहीं कहा। दीपक ने अभी छः माह पुर्व ही स्कूल ज्वाइन किया था। यहां तीस से अधिक शिक्षकों का स्टाॅफ था। दीपक को अनुभव और पद के अनुरूप अपनी लाॅबी की शिक्षकों में सम्मिलित होने हेतु आमंत्रण मिला। दीपक इसके लिये कतई तैयार नहीं था। वह मिलनसार था। उसकी प्रत्येक गुट में घुसपैठ थी। सभी शिक्षक उसे पसंद करते। उससे किसी शिक्षक का कभी मनमुटाव नहीं हुआ। दीपक सर्वप्रिय था। अवन्तिका के साथ भेदभाव का व्यवहार देखकर दीपक को अप्रसन्नता हुई। अवन्तिका अपने सफेद दाग छुपा रही थी। दीपक को समझते देर न लगी। लंच हो चूका था। उसने अपना टीफीन उठाया और अवन्तिका की टेबल के पास जा पहुंच। अन्य शिक्षक यह देखकर हतप्रद थे।

"दिपक! तुम पढ़े लिखे होकर अनपढ़ जैसी हरकते कर रहे हो। अवन्तिका संक्रमण की चपेट में है।" कुछ दुरी पर अन्य शिक्षकों के संग बैठी अनुराधा पंढारकर धीरे से बोली।

दीपक कुछ न बोला। उसने अपना टीफीन खोलते हुये पुछा।

"आप अपना उचित उपचार करवा रही है?" दीपक ने अगला प्रश्न पुछा।

"जी हां।" अवन्तिका ने कहा।

"अनुराधा मैडम! व्हाइट स्पॉट एक संक्रामक रोग नहीं है। इसमें सिर्फ स्किन के पिगमेंट खत़्म हो जाते हैं। जिसे लुकोडर्मा कहते हैं। जिसके कारण सफेद दाग़ उभर आते है। ये उपचार के उपरांत ठीक होकर पुनः आ सकते है?" दीपक ने अनुराधा की बोलती बंद कर दी थी। अवन्तिका के पक्ष में स्कूल का सबसे चर्चित और आकर्षक युवक खड़ा था। अपने नाम को किसी अन्य पुरूष के मुख से सुनकर अवन्तिका भाव-विभोर थी। अब तक उसे 'अवन्तिका जी' या 'मैडम' ही संबोधन सुनने को मिला था। दीपक ने अवन्तिका को बिना किसी औपचारिकता के सीधे अवन्तिका नाम से संबोधित कर अपनत्व प्रदान किया था। दीपक अब प्रतिदिन अवन्तिका के साथ ही लंच करता। वह अवन्तिका के हृदय में प्रवेश कर चूका था। सफेद दागों की वजह से अवन्तिका को वैवाहिक सुख अप्राप्य था। उससे विवाह करने के लिये कोई भी युवक तैयार नहीं था। अवन्तिका की आयु भी कुछ अधिक हो चली थी। दीपक भी अविवाहित था। मगर दीपक जैसा होनहार और आकर्षक नवयुवक अवन्तिका को क्यों चूनेगा? यही सोचकर अवन्तिका, दीपक से अपने मन की बात कहने में डर रही थी। दीपक ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति से अवन्तिका का हृदय जीत लिया था। उसका कहना था कि कल हमारे हाथ में नही है किन्तु आज का समय हमारी मुठ्ठी में है। अतएव जो हमारा मन कहे और अगर वह उचित भी है तब उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। आज अगर शरीर सुन्दर है तो कल ढलती आयु के साथ कुरूप भी हो जायेगा। इसलिए आन्तरिक सौन्दर्य भी देखा जाना चाहिये। यही नहीं ! दीपक के लिए आन्तरिक प्रेम भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। इन्हीं कारणों से प्रभावित होकर अवन्तिका के मन में आशा की किरण जागी थी। धीरे-धीरे उसने दीपक से बात करने की हिम्मत जुटा ही ली। स्टाॅफ रूम में आजकल इसी बात की चर्चा हो रही थी। क्या दीपक, अवन्तिका को स्वीकार करेगा? या अन्य पुरूषों की भांति वह भी उसका हृदय तोड़ देगा?

"अवन्तिका! मुझे खुशी है कि तुमने अपने हृदय की बात बताई। किन्तु मैं तुमसे विवाह करने के लिये तैयार नहीं हूं।" दीपक ने कहा। स्टाॅफ रूम में शिक्षक दोनों के बीच की बातों का साधा प्रसारण देख रहे थे।

"कोई बात नहीं दीपक। आपकी असहमती मुझे स्वीकार है। मैंने अपने हृदय की बात आपसे कह दी। मेरे लिए यही बहुत बड़ी बात है।" अवन्तिका कहकर जाने लगी।

"रूको अवन्तिका!" दिपक ने कहा। अवन्तिका पुनः पलट गयी। अन्य शिक्षक अब दीपक के अगले कदम पर अपनी पैनी नज़र गढ़ाये हुये थे।

"तुमसे पहले अगर मैं अपने दिल की बात कहता तब शायद हो सकता था अन्य लोग तुम पर इसे मेरी मेहरबानी समझते।" दीपक बोला। अवन्तिका हैरत में थी।

"हां अवन्तिका! मैं भी तुमसे प्रेम करता हूं। बस पहले तुम्हारे मुख से सुनना चाहता था।" दीपक ने कहा। अवन्तिका की आंखें नम हो गयी। दीपक ने उसे वास्तविक प्रेम का उपहार दिया था। जिसके लिए बहुत से लोग आजीवन वंचित रहते है।

आज की कहानी भोपाल शहर से आई थी--

----------------------

"प्राॅमिस करो! स्वयं को यही रोक लोगे!"

निधि पुनित से दुर जा खड़ी हुई।

"मगर क्यों? क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती?"

पुनित व्याकुल था।

"ये प्रेम नहीं है पुनित!"

"तो फिर क्या है? हम दोनों की परस्पर इतनी बेचेनी! यह प्रेम नहीं तो फिर क्या है?" पुनित क्रोधित था।

"हां पुनित! यह प्रेम नहीं अपितु वासना है।" निधि बोली।

"हूअं! तुमने कभी इसे आकर्षण कहा था। अब वासना कह रही हो। किस बात पर भरोसा करूं?" पुनित बोला।

"देखो पुनित! मैं इन सब चीजों को बहुत पीछे छोड़ आई हूं। अब ये वर्किंग वुमन हाॅस्टल ही मेरा जीवन है। उत्तम होगा तुम भी अपना भविष्य संवारो।" निधि ने कहा।

"मेरा भविष्य तो तुम हो निधि।"

"ये संभव नहीं। दरअसल दोष मेरा ही है। न मैं इतने आगे आती और ये सब होता।" निधि अपने आंसु पोछ रही थी।

"अब भी हम यहां से लौट सकते है पुनित। प्रथम भूल क्षमा योग्य होती है।" निधि बोली।

"मेरे प्रेम को भुल न कहो डियर। ये सुनना मेरे लिए बहुत कष्टदायी है।" पुनित ने अपने हाथों की परिधि बनाकर निधि के चारों ओर फैला दी।

"छोड़ो पुनित। यही रूक जाओ। अन्यथा मैं शोर मचा दुंगी।" निधि पुनित की बाहों से छुटने का असफल प्रयास कर रही थी।

"ठीक है। मचा दो शोर। ऐसा कर तुम मेरा काम और भी सरल कर दोगी।" पुनित ने अपनी जकड़ और भी अधिक मजबुत कर दी।

"क्यों कर रहे है मेरे साथ ऐसा? मुझे त्याग दो। तुम्हारे लिए बहुत सी नव युवतियां तैयार बैठी है।" निधि ने याचना की।

"नहीं। मेरे लिए तुम ही उपयुक्त हो।" पुनित ने कहा।

"मुझे इसका अधिकार नहीं। मुझे अब कोई भी सुख प्राप्ति का लक्ष्य नहीं है। क्योंकि इस नौकरी से मैं संतुष्ट हूं।" निधि ने धक्का देकर पुनित को स्वयं से दूर किया।

"अपने सुख का तुम्हें ख्याल है किन्तु मेरा सुख का क्या? वह तो तुम्हारे साथ रहने में ही है।"

पुनित पुनः बोला।

"किन्तु मेरे लिए प्रेम का मार्ग निषेध है। मैंने अपने कर्म को ही अपना सर्वस्व स्वीकार किया है। पुनः गृहस्थ मार्ग पर लौटना मेरे लिए संभव नहीं है।" निधि दृढ़ थी।

"मुझे विश्वास है आज नहीं तो कल तुम मुझे स्वीकार अवश्य करोगी।" कहते हुये पुनित हाॅस्टल से लौट गया।

कनुप्रिया उसे लौटते हुये देख रही थी। मानो वह हृदय से पश्चाताप कर रही हो। 'वह भी जब पुनित को पसंद करती है तब उसने यह प्रेम स्वीकार क्यों नहीं किया? पुनित उससे दस वर्ष छोटा था। भरा-पुरा परिवार था उसका। उसका जीवन अभी आरंभ ही हुआ है। पुनित के परिवार वाले एक अधेड़ आयु की विधवा को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। कहने वाले इसका सारा दोष निधि पर ही थौपेंगे। कहेंगे पुनित तो नादान था, किन्तु निधि को तो समझदारी से काम लेना चाहिए था।

क्रमश..