आधा आदमी
अध्याय-25
मैंने पहले अपना क्वाटर बेचा और फिर सारा रूपया लाकर मैंने घर पर रख दिया। मकान की छत खुलते ही मैंने पूजा-पाठ करा के घरवालों को गृह प्रवेश करवा दिया। मैं बहुत खुश था, कि क्योंकि मैंने पिताजी का सपना पूरा कर दिया था। पर कहीं न कहीं मैं बेहद दुखी भी था, कि जीते जी मैं अपने पिताजी को ला न सका।
ड्राइवर को जब मेरे पिता जी के मरने की खबर मिली तो वह भागा-भागा मेरे पास आया। मैंने शुरू से लेकर अंत तक अपना दुखड़ा उसके सामने खोल के रख दिया। साथ-साथ मैंने यह भी बयां कर दिया कि अब मैं हिजड़ा बनने जा रहा हूँ। इसमें मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। पहले तो उसने न-नुकूर की। मगर मैंने जब उससे यह कहा, अगर मैं हिजड़ा बनने के बाद बच गया तो तुम्हारी सारी मुसीबत दूर हो जाएगी। तो वह मान गया।
अगले दिन ड्राइवर मुझे शहर से दूर डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर से दिन-तारीख़ तय होने के बाद हम चले आए थे।
फिर मैं शहर के नामी-गिरामी चैली हिजड़े से मिला और उससे अपनी पीड़ा बताया।
चैली ने कहा, ‘‘बेटा, अगर तुम अपना लिंग कटवा लोगी तो हम तुम्हारी मदद करेगी.‘‘
‘‘ठीक हैं गुरू.‘‘
‘‘तो तुम ऐसा करों जाकर आप्ररेशन कराओं मैं तुम्हें लेने आ जाऊँगी.‘‘
मैं चैली हिजड़ा से मिलकर घर चला आया था। और अपनी बेटी को गले लगाकर रोने लगा, ‘अगर हम मर गई तो हमारी लड़की को कौन देखेगा?‘ यह चिंता मुझे अंदर ही अंदर खाये जा रहा था।
तभी कमरे में अम्मा आ गई। मैं उसे जी भर के देख लेना चाहता था।
‘‘क्या बात हैं तुम ऐसे क्यों देख रहे हो?‘‘ अम्मा के इतना पूछते ही मैं सिसकता हुआ उनके गले से लगकर फफक पड़ा।
‘‘क्या हुआ बेटा, तुम रो क्यों रहे हो?‘‘
मैं बड़ी सफाई से झूठ बोल गया, ‘‘कुछ नहीं अम्मा, बस पिताजी की याद आ रही थी। अब वैसे भी तुम्हारे सिवा हम लोगों का हैं कौन?‘‘
‘‘चुप हो जाओं बेटा, भगवान सब ठीक कर देगा.‘‘ मेरे साथ-साथ अम्मा भी रोने लगी थी।
मैंने अम्मा को चुप कराया और एक बार फिर से झूठ का सहारा लिया, ‘‘मेरी बच्ची का ख़्याल रखना मैं पन्द्रह-सोलह दिनों के लिए प्रोग्राम करने जा रहा हूँ.‘‘
‘‘यह भी कोई कहने की बात हैं बेटा, बस जल्दी आना। पहले तुम्हारे पिताजी थे तब अकेलापन नहीं खलता था। पर अब अकेलापन काटता हैं.‘‘
मैंने अम्मा को धीरज बधाया कि तुम चिंता मत करो मैं बहुत जल्दी आ जाऊँगा।
मैं आँख में आँसू भर कर घंटाघर चला आया था। और वहाँ खड़ा होकर सोच रहा था, ‘कि अगर मैं मर गया तो मेरे घरवालों को कौन देखेंगा? मेरे बाद इनका क्या होगा? यह सब कैसे रहेंगे.‘
मैं यही सोच-सोच कर रोता जा रहा था।
27-12-1990
जब मैं सुबह बस स्टैण्ड के लिए निकल रहा था तो मेरी बच्ची मुझे ऐसे देखे जा रही थी, जैसे कह रही हो पापा! जल्दी आना, मम्मी तो हैं नहीं मै किसके सहारे रहूँगी....?
मैंने चलते वक्त उसे जी भर के प्यार किया। यह सोचकर मेरी आँख छलक आई थी कि शायद दूबारा अपनी बच्ची को प्यार कर पाऊँगा भी या नहीं।
बस स्टैण्ड पर आकर, मैं बस के इंतजार में खड़ा था कि न जाने कहाँ से इसराइल आ धमका, मैं उसे देखकर सन्न रह गया। मैं इसे कुदरत का करिश्मा ही कहूँगा कि जाते-जाते उसने इसराइल से मुलाकात करा दी।
उसने छुटते ही पूछा, ‘‘कहा जा रहे हो....?‘‘
मैंने इसराइल से साफ-साफ झूठ बोला कि मैं प्रोग्राम करने जा रही हूँ। क्या तुम मुझे बस में बैठा दोंगें.‘‘
‘‘यह भी कोई कहने की बात हैं.‘‘ कहकर इसराइल ने मुझे बस में बैठा दिया। बस में बैठते ही मेरी आँखें छलक आई।
‘‘क्या बात हैं तुम रो क्यों रही हो?‘‘
‘‘रो कहाँ रही हूँ पगले, तुमसे अकेली दूर जा रही हूँ इसलिए, अपना ख्याल रखना और हो सके तो मेरी बेटी का भी ध्यान......।‘‘
‘‘यह तुम क्या पहेली बुझा रही हो मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं। अगर तुम्हें कोई दुख हैं तो मुझे बताओं शायद मैं उसका कोई हल निकाल सकूँ। और रही बात प्रोग्राम करने की तो कोई जरूरत नहीं हैं। जो मेरे पास रूखा-सूखा होगा हम-दोनों मिल बाँट के खा लेंगे। मगर ख़ुदा के लिए मत जाओं.‘‘
‘‘मुझे मत रोकों, यह मेरी जिंदगी का पहला और आखरी प्रोग्राम हैं। अगर इस प्रोग्राम में कामयाब हो गई तो फिर कभी प्रोग्राम करने नहीं जाऊँगी.‘‘
बस चल पड़ी थी। मैं इसराइल को खिड़की से पलट-पलट देखता रहा। वह आँख में आँसू भरे खड़ा था।
मैं उसे तब तक देखता रहा, जब तक कि वह मेरी आँखों से ओझल न हो गया। रास्ते भर मैं रोता रहा।
शाम होते-होते मैं डॉक्टर की क्लीनिक पहुँच गया। कम्पाउडर मुझे अंदर कमरे में ले गया। वह कमरा कम, कबाड़खाना ज्यादा था। मैंने कम्पाउडर के बताये अनुसार, सारे कपड़े उतार दिए और अंगोछा बाधकर लेट गया।
थोड़ी देर बाद डॉक्टर आया और पूछा, ‘‘तुम्हारे साथ कौन हैं?‘‘
‘‘मेरे साथ मेरा ऊपर वाला हैं.‘‘
‘‘ठीक हैं अब अपने ऊपर वाले को याद करों.‘‘ डॉक्टर ने कहकर मुझे बेहोशी की सुई लगा दी।
आप्ररेशन होने के बाद कम्पाउडर ने मुझे दूसरे कमरे में लेटा दिया।
6-9-1991
मेरा आप्ररेशन हुए दो दिन हो गया था। मगर दर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा था। जब मैंने कम्पाउडर से बताया तो उसका यह जवाब था, ‘‘जब तक आप पूरा पैसा नहीं जमा करेगी तब तक डाक्टर नहीं देखेंगे.‘‘
‘‘किसी भी तरह आप ड्रेसिंग करवा दीजिए.‘‘
‘‘देखिए, मैं मजबूर हूँ। मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता.‘‘ कम्पाउडर कहकर चला गया था।
मैं ऊपर वाले को याद करके रोये जा रहा था, कि न ही मेरा हाल-चाल लेने ड्राइवर आया और न ही चैली गुरू। हे भगवान! अब क्या होगा? अगर मैं मर गया तो मेरे घरवालों को कौन देखेंगा? एक तरफ़ मुझे परिवार की चिंता खाये जा रही थी। दूसरी तरफ दर्द के मारे मेरा बुरा हाल था। न मैं उठ सकता था और न ही चल सकता था। मैं एक जिंदा ल्हाश बन कर रह गया था।
मैंने पीर बाबा से लेकर मंदिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरूद्धारा तक दुआ माँगा कि मुझे इस मुसीबत से बाहर निकालो।
बाहर से आते कान फोड़ते शोर ने ज्ञानदीप के पढ़ने में बाधा डाली। वह झल्लाता हुआ उठा और दरवाजा खोलकर देखा, तो नीम के नीचे भीड़ लगी थी। सामने से मटरू आता दिखाई पड़ा। ज्ञानदीप ने तपाक से पूछा, ‘‘क्या हुआ इतना शोर-शराबा क्यों हैं?‘‘
‘‘मिट्टी हो गई हैं.‘‘
‘‘किसकी?‘‘
‘‘जली वाली चाची हैं उनके बहन के लड़के की...।‘‘
चेहरा जला होने के कारण मोहल्ले में क्या जवान, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या औरतें, क्या लड़कियाँ सभी उन्हें जली वाली चाची कहकर पुकारते हैं। शुरू-शुरू में यह सब सुन कर उन्हें बेहद गुस्सा आता था। कई बार तो यह मसला मारपीठ की नौबत तक आ गया था। मगर धीरे-धीरे सब कुछ नार्मल हो गया।
‘‘जानते हो ज्ञानू भैंया, जब उसके बीबी बच्चों ने ल्हाश छुने से इंकार कर दिया। तब जली वाली चाची यहाँ ले आई.‘‘ मटरू ने बताया।
‘‘कैसे बीबी बच्चे हैं। ऐसा तो कोई अपने दुश्मन के साथ भी नहीं करता, पर उन्हें हुआ क्या था?‘‘
‘‘शुगर, बताते हैं लोग पैर में कीड़े पड़ गये थे। बेचारे चिल्लाया करते थे पर बीबी-बच्चे उनके करीब नहीं भटकते थे। एक बात-बताई ज्ञानू भैंया, सब करनी-धरनी यही हैं....।‘‘
‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो?‘‘
‘‘लोग तो यही कहते हैं कि इन्होंने ने भी अपने बाप की ल्हास नहीं छुई थी। जैसा करोंगे वैसा भरोंगे.‘‘
‘‘तुम्हारा कहना ज़ायज़ हैं फिर भी जो हुआ अच्छा नहीं हुआ....।‘‘
‘‘हम तो इतना जानते है भैंया, सब कुछ यही हैं। जो जैसा करेगा वह वैसा भोगेगा.‘‘ मटरू कहकर चला गया था।
ज्ञानदीप सोचने को तो बहुत कुछ सोच जाता। मगर उसके ज़ेहन में दीपिकामाई के डायरी के पन्नें फड़फड़ा रहे थे। आगे उनके साथ क्या हुआ होगा यह लालसा बनी हुई थी। उसने बगैर वक्त जाया किये दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-
थोड़ी देर बाद जब कम्पाउडर आया तो मैंने ड्राइवर के बस मालिक का फोन नम्बर दिया। और कहा इस नम्बर पर कहना कि ड्राइवर से बात करा दे, और जब वह फोन पर आयेंगे तो बता देना कि तुम्हारा मरीज बहुत सीरियस हैं और जल्दी से पैसे लेकर आ जाओं।
कम्पाउडर चला गया था। जब वह वापस आया तो उसने बताया ड्राइवर से बात हो गई हैं। उसकी बात सुनकर मेरी जान में जान आई। मैंने ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया।
दूसरे दिन ड्राइवर पैसे लेकर आ गया था। वह मुझे इस हालत में देख कर रोने लगा। मैं भी रो पड़ा था।
उसने मुझे समझाया, ‘‘घबराओं नहीं अब मैं आ गया हूँ तुम्हें कुछ नहीं होगा.‘‘
ड्राइवर मुझे सुबह-शाम लेट्रीन करवाते, धुलवाते अपने हाथों से मुझे खाना खिलाते। उनकी बाहों में आकर मैं अपना सारा ग़म भूल गयी थी।
सातवें दिन डॉक्टर ने मुझे डिस्चार्ज कर दिया था। ड्राइवर मुझे बड़ी सावधानी से ले आए थे। जैसे ही बस से हम लोग उतरे कि क्लीनर ने ड्राइवर से बताया, ‘‘तुम्हारे लड़के की हालत बहुत सीरियस हैं‘‘
ड्राइवर के जाते ही मैं छोटी के यहाँ आ गयी। वह मुझे इस हालत में देखकर घबरा गई थी। मैंने फिर उससे सारी बात बतायी और गुज़ारिश की, कि कहीं से भी इसराइल को ढूढ़ के लाओं।
छोटी मुझे विश्वास दिला कर चली गई थी।
8-9-1991
शाम होते-होते छोटी, इसराइल को लेकर आ गई थी।
तभी छोटी बोली, ‘‘ऐ बहिनी, तुम बड़ा बुरा काम करके आई हव। अल्ला जाने अब क्या होगा? अच्छा बहिनी, हम्म चलती हय। बीच-कुच आया करूँगी.‘‘ कहकर छोटी चली गई थी।
‘‘भैंया क्या हुआ?‘‘ इसराइल ने नम स्वर में पूछा।
‘‘तुम घबराओं नहीं.‘‘
‘‘घबराने वाली तो बात ही हैं। तुम तो गई थी अच्छी-अच्छी और कह रही थी प्रोग्राम करने जा रही हूँ। और यह क्या हालत बना के आई हो....?‘‘
‘‘मैंने तुमसे झूठ बोला था कि नाचने जा रही हूँ। जबकि मैं नाचने नहीं अपना आप्ररेशन कराने गई थी.‘‘
‘‘आप्ररेशन! किस चीज़ का....?‘‘
‘‘लिंग का आप्ररेशन कराने गई थी.‘‘
‘‘यह क्या होता हैं?‘‘
‘‘घबराओं नहीं, हम तुम्हें सब समझा देगी। फिलहाल, पहले तुम यह दवा ले आओं.‘‘ मैंने दवा का पर्चा उसे पकड़ा दिया। साथ-साथ यह भी हिदायत दी, ”कोई भी मेरे बारे पूछेगा तो मत बताना चाहे वह मेरे घर वाले ही क्यों न हो.”
‘‘ठीक हैं.‘‘
‘‘और सुनों, ताला बाहर से लगा देना.‘‘
इसराइल ताला लगाकर चला गया था। मैं खटिया पर लेटी उसका इंतज़ार करने लगी। इसराइल लगभग एक घँटे बाद आया। मैंने उससे पानी गर्म करने को कहा। उसने इधर-उधर से सूखे पत्ते और कागज बिन कर जैसे-तैसे पानी गर्म किया।
मेरे बताये अनुसार इसराइल ने मेरा लंगौटा खोला। फिर पट्टी उजाड़ी। लिंग को वह न पाकर हक्का-बक्का रह गया।
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