आधा आदमी - 26 Rajesh Malik द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आधा आदमी - 26

आधा आदमी

अध्‍याय-26

जैसे वह अभी गिर जाएगा। उसने अपने आप को संभालते हुए पूछा, ‘‘यह तुमने क्या कर लिया......।”

‘‘घबराओं नहीं, जो होना था वह तो हो चुका.‘‘

‘‘यह सब करने की क्या जरूरत थी भैंया? तुम खुद डांसरी से इतना पैसा कमा रही थी। और वैसे भी मैं तुम्हें कमा के दे ही रहा था। फिर क्यों तुमने अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर ली.‘‘ कहकर इसराइल रोने लगा।

‘‘देखो रोने से कोई फायदा नहीं। मैंने बहुत सोच-समझ के कदम उठाया हैं। तुम ही बताओं डांसरी कई दिन की हैं? हुस्न हैं तो स्टेज प्रोग्राम वाले भी पूछेंगे और अगर हुस्न नहीं हैं तो कोई भी नहीं पूछेगा। हिजड़ा रहूँगी तो हिजड़े भी छाती-पेट से लगाये रहेगी, चाहे बूढ़ी ही क्यों न हो जाऊँ। और वैसे भी अब तुम्हारे सिवा मेरा हैं कौन? अब तो ज़िंदगी-मौत तुम्हारें हाथों में हैं चाहे ले लो या दे दो.‘‘

‘‘यह तुमने कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा। एक बार छोड़कर गया तो तुम्हें इस हालत में पाया। अब मैं तुम्हें कभी भी छोड़कर नहीं जाऊँगा.‘‘

इसराइल मेरी ड्रेसिंग करता जा रहा था और रोता जा रहा था। मैंने उसे चुप कराने की बहुत कोशिश की, मगर उसके आँसू थम ही नहीं रहे थे।

28-12-1991

इसराइल के पास जो भी पैसा था वह सब खत्म हो गया था। पैसा आने का कोई और जरिया भी नहीं था। मैंने इसराइल को चैली गुरू के पास यह कहकर भेजा कि जाकर कहना दीपिका तुम्हारे नाम से छिबर (लिंग रहित) के आई हैं।

इसराइल जब वापस आया तो उसने सारा माज़रा बताया कि तुम्हारी चैली गुरू कह रही थी, कोई अनोखा काम करके वह नहीं आई हैं। उनसे पहले तो मैं हो के आई हूँ। तुम जहाँ से आये हो वहीं जाओं। न मैं इनके आगे, न मैं इनके पीछे, जैसा करके आई हैं वैसा भुगते.‘‘

मैंने कभी सोचा नहीं था कि चैली गुरू मेरे साथ इतना बड़ा धोखा करेगी। मैं उनके इस बर्ताव से अंदर ही अंदर बहुत आहत हुई। मगर इसराइल को मैंने जरा भी ज़ाहिर नहीं होने दिया। उलटा मैंने उसे समझाया, ‘‘कोई बात नहीं! अगर उन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया हैं। तो कोई न कोई फरिश्ता मेरी मदद जरूर करेगा। मुझे अपने ऊपर वाले पर पूरा विश्वास हैं, बस ऊपर वाला न रूठे। इंसान की क्या मज़ाल.‘‘

5-1-1992

उन दिनों के बारे में जब मैं सोचती हूँ तो मेरी रूह काँप जाती हैं कि कैसे मैंने मुफलिसी की जिंदगी भोगी हैं। कई-कई दिनों तक भूखें-प्यासे रहना जैसे मेरी किस्मत बन गई थी। मैं आज भी नहीं भूली हूँ उस हाँड़-मास गलाती ठंड को, उस वक्त मेरे पास न रजाई थी और न ही चादर। मैं और इसराइल ने पूरा जाड़ा बोरा ओड़कर काट दिया था।

उस दिन इसराइल जब वापस आया तो उसने बताया, जो लोग उसे दस रूपये मजूरी देते थे। आज वही उसकी मजबूरी का फायदा उठा कर पाँच रूपये देने को कह रहे हैं। वह मेरी दवा जैसे-तैसे उधार ले आया था। मगर कल क्या होगा?

दूसरे दिन भी इसराइल मायूस होकर लौट आया था। हम लोग भूखे-प्यासे अपने दिन काट रहे थे। इसराइल दिन में मेरे साथ रहता और रात में वह रिक्शा चलाता।

15-1-1992

इसी तरह मेरा इक्कीस दिन पूरा हो गया था। इत्तफाक से उस दिन रक्षा-बंधन भी था। इसराइल नीम पत्ती ले आया था। क्योंकि हिजड़ों के रस्मों नियमानुसार मुझे इक्कीसवें दिन नीम के पानी से नहाना था।

मैं नहाने के लिए जैसे ही बाहर गई तभी न जाने कहाँ से मेरा भाई वहाँ आ गया। और उसने मुझे देख लिया। मैं समझ गई थी अब यह बात अम्मा तक पहुँचेगी और वही हुआ जिसका मुझे डर था।

नहाने के बाद मैंने पीर औलियों की तरफ़ रूख करके सलाम किया और अंदर आकर लेट गई।

अभी एक घंटा भी नहीं बीता होगा कि अम्मा दीदी के साथ आई। और एक साथ कई सवाल करने लगी, ‘‘भैंया! तुम्हें क्या हो गया? तुम ऐसे क्यों लेटे हो। कहाँ थे इतने दिन?‘‘

मैं उनके सवालों का क्या जवाब देता। मैं चुप था। अम्मा मुझे एक-टक देखे जा रही थी। मगर मैं उनसे नज़रे नही मिला पा रहा था। वह समझ गई थी फिर भी उन्होंने अपनी शंका मिटाने के लिए पूछ ही लिया, ‘‘तुमने आप्ररेशन करवाया हैं क्या?‘‘

‘‘किसने कहा?‘‘

‘‘खाओं मेरी कसम.‘‘

बात जब अम्मा की कसम पर आकर अटक गई। तब मैंने उन्हें सब कुछ सच-सच बता दिया। यह सुनते ही अम्मा और दीदी सिसक-सिसक कर रोने लगी।

‘‘मत रो आप लोग शायद मेरे नसीब में यही लिखा था.‘‘

अम्मा बाँका मार-मार कर रोने लगी, ‘‘तुमने ऐसा काम क्यों किया? हमने तो तुम्हें पूरा पारा ख्लड़का, पैदा किया था। तुमने हम लोगों के बारे में ज़रा भी नहीं सोचा कि हम लोगों पर क्या बीतेगी? नाचते-गाते थे मैं कुछ नहीं कहती थी। जानते हुए भी अनजान बनी रहती थी। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तुम ऐसा कदम उठाओंगे। तुम्हारा बाप सही कहता था अभी नहीं, मेरे मरने के बाद तुम दीपक का असली रूप देखोंगी, और वाकई बेटा तुमने अपना असली रूप दिखा दिया.‘‘

मैं रोये जा रही थी और उन्हें बताये जा रही थी, ‘‘जब बाप को फालिज़ गिरी थी तब उनके इलाज के लिए पैसे कहाँ से आये? भाई का एक्सीडेंट हुआ। तीन बार आप्ररेशन कराया। फिर भी एक हाथ से बेकार हो गया। इतने साल घर चलाया किसी से एक पैसा माँगा? यहाँ तक जब बाप मरा तब भी मैंने किसी से एक पैसा लिया? अकेले जैसे-तैसे अपने दम पर घर चलाता रहा। मकान कैसे बन गया? यह सब किसी ने मुझसे पूछा? मेरी बीबी, दूध पीती बच्ची को छोड़कर चली गई। किसलिए? कभी किसी ने सोचा? क्योंकि वह चाहती थी कि मैं आप लोगों को छोड़कर उसके साथ अलग रहूँ। मगर मैंने उसकी बात नहीं मानी, और वह हमेशा के लिए मुझे छोड़कर चली गई। मगर आप लोगों में से किसी से यह नहीं हुआ कि जाकर उसे ले आए। खैर! जो बीत गया सो बीत गया। अब चाहकर भी कुछ नहीं हो सकता.....।‘‘

अम्मा आवेश में आ गई थी, ‘‘हमें ऐसी कमाई नहीं चाहिए। हम जैसे-तैसे कमा के खालेगी। मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगी.‘‘ कहकर अम्मा, बहन को लेकर चली गई थी।

17-6-1992

ख़ुशी न मिली तो

ग़म को ही गले लगा लिया

जब घर से किसी की कोई खोज़ ख़बर नहीं आई तो मैंने इसराइल को हाल-चाल लेने भेज दिया।

जब वह वापस आया तो उसने बताया, कि तुम्हारी अम्मा अस्पताल में हैं।

कहानी एक बार फिर से बीच मझधार में आकर रूक गई थी। क्योंकि ज्ञानदीप ने दीपिकामाई के सारे पन्ने पढ़ लिए थे। अब आगे उनके साथ क्या हुआ होगा? यह छटपटाहट उसमें मची थी। ज्ञानदीप को रह-रहकर दीपिकामाई पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों उन्होंने टुकड़ों में प्रंसग लिखे। बजाय टुकड़ों में लिखने के वह एक साथ पूरा लिखे होती तो आज यह जो बेचैनी उसमें हैं वह न होती। अगर ज्ञानदीप का बस चलता तो वह फुर्र से उड़कर दीपिकामाई के यहाँ पहुँच जाता। मगर वह मजबूर था क्योंकि उसे ट्यूशन पढ़ाने जाना था।

दिल लगाया कुंजड़े कबड़िये से, बदनाम हो गये

धनिया पुदीने से

‘‘गुरू! सलावाले कुम.‘‘ मुच्ची जनानी ने अंदर आकर कहा।

‘‘वालेकुम सलाम और बेटा कैसी हो?‘‘ दीपिकामाई ने पूछा।

‘‘ठीक हय गुरू, आप बताव कईसी हव?‘‘

‘‘आय, हम भी ठीक हूँ अरी तू बता आज कल खान्जरा कर रही हैं या परोग्राम?‘‘

‘‘ई का कहत हव गुरू, लगन खत्म होई गई हय। अब घूमे ठाहरे निकली हय कोई चीसा गिरिया मिल गवा तो खाये चबाये लूंगी, नाय तो भूखी-पयासी बईठी रहूँगी। अउर वइसे भी बरखा में सुग्गा भी उपवास करत हय.‘‘

‘‘अरी भाग, सुग्गा उपवास कर लें पर मेहरे कहाँ उपवास कर पइय्हें, पलक झपकते ही मेहरे बठली धुराई लेती हय.....।‘‘ दीपिकामाई ने मसाले की पुड़िया मुँह में फाँकी।

मुच्ची जनानी दाँत चियार कर हँस पड़ी। उसकी फेश कटिंग किक्रेटर विवियन रिचर्ड की तरह हुबूहु था। अगर उसकी हाईट का कम्पेयर किया जाए तो अमिताभ बच्चन की तरह था।

‘‘पाटी जैसा लीकम रखैं हव अउर शरम नाय आवत हय। जिकी पाई जाव उकी चैद डलियों बेचारी तीन दिन उठ बैठ न पइय्हें.‘‘

‘‘जाव गुरू, तुम भी का कहत हव.‘‘

‘‘अरी भाग, बठली तुम लोग धुराव अउर बदनाम होई हम्म हिजड़े, अगर जादा ई सब करके हय तो तीन कपड़े पहिन के आ जाव मैदान में। आय बेटा, हिजड़ों में इज़्जत हय, मान-सम्मान हय। पर तुम जनानियों की कोई ज़ींदगी हय दुनिया-ज़माना तुमैं गिरी नज़रों से देखती हय.‘‘

‘‘आय गुरू, का करूँ जब करैं राहें तब नाय किया, अब तो परवार वाले शादी कराई दीन हय। दुनियादारी में फँस गई हूँ। अच्छा गुरू चलित हय.‘‘

ज्ञानदीप जब दीपिकामाई के वहाँ पहुँचा तो वह कमरे में आराम फरमा रही थी। ड्राइवर और इसराइल दरवाजे पर बैठे लूडों खेल रहे थे। ज्ञानदीप वहीं उनके पास बैठ गया। लगभग एक घँटा इंतज़ार करने के बाद दीपिकामाई बाहर आयी। ज्ञानदीप ने झुककर उनके चरण-स्पर्श किए। वह आर्शीवाद देते हुई बाथरूम में चली गई।

बाथरूम से वापस आते ही वह दूबारा कमरे में चली गई। वहीं उन्होंने ज्ञानदीप को बुला लिया। मुँह मीठा करने के बाद ज्ञानदीप ने पूछा, ‘‘माई! जब ड्राइवर आप का प्रोग्राम उस गाँव में देखने आये थे और उस रात आप के साथ रूके भी थे, तो क्या आप ने उनके साथ......।‘‘ ज्ञानदीप कहते-कहते रूक गया।

इसराइल के साथ-साथ ड्राइवर भी कमरे में आ गए।

पहले तो दीपिकामाई मुस्करायी और पूछ पड़ी, ‘‘तुम्हें तो सीआईडी में होना चाहिए। तुम लेखक कैसे बन गये?‘‘

‘‘ऐसा क्यों?‘‘ ज्ञानदीप ने हँसकर पूछा।

‘‘तुम सवाल ही ऐसा पूछते हो कि इंसान सोचने पर मजबूर हो जाए.‘‘

‘‘क्या करूँ माई, आप की आत्मकथा ही ऐसी हैं। जब तक पूरी बात जानूँगा नहीं तो लिखूँगा कैसे.‘‘

‘‘खैर! हम इसे इत्तफाक ही कहेंगे कि परोग्राम ड्राइवर के गाँव में था। मगर हाँ यह सच हैं कि हमने ड्राइवर के साथ हम बिस्तरी की थी......।‘‘

यह सुनते ही इसराइल, दीपिकामाई की तरफ़ मुख़तिब हुआ, ‘‘जवानी में खूब हमरी आँख में धूल झोंके, हमका तो पीर बाबा की मजार पर कमस खिलाई लियौं अउर खुद हमें धोखा पर धोखा देती रही.‘‘

ड्राइवर मन ही मन मुस्करा रहा था।

‘‘हाँ तुम बड़े दूध के धोये हव अपनी मुवानी तक का तो छोड़े नाय...।‘‘ कहकर दीपिकामाई ज्ञानदीप की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘अब तुमसे का बताई भइया, एक जगा तो ई माँ-बिटिया दोनों का रखिस.‘‘

‘‘ई तुम-दोनों का गड़े-मुरदे उखाड़े बईठे हव। भइया, इत्ती देर से आये हय उनसे बातचीत करव.‘‘ ड्राइवर ने बीच में टोका।

‘‘दिल लगाया कुंजडे़ कबिड़यों से और मुफ्त बदनाम हो गए धनिया पुदीने से.‘‘ दीपिकामाई शायराना अंदाज में बोली।

वह दोनों हँसते हुए कमरे से बाहर चले गए।

एकाएक ज्ञानदीप की निगाहें दीवार पर लगे फोटो फ्रेम पर जा टिकी उसने तपाक से पूछा, ‘‘माई! यह किसकी फोटो है?‘‘

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