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केसरिया बालम - 12

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

12

चुप्पियों का बढ़ता शोर

धानी महसूस करती कि उसका प्यार जताना अब बाली को अच्छा नहीं लगता। वह तो सिर्फ इतना चाहती थी कि अगर कोई परेशानी है तो उसका समीप्य बाली को उनसे बाहर निकालने में मदद करेगा। लेकिन शायद बाली अपनी समस्याओं से जूझते हुए धानी से दूर रहना चाहता था। जितनी दूरी वह बनाता वह उतना ही करीब आना चाहती। बाली को किसी मुश्किल में देख धानी का दिन-ब-दिन गहराता हुआ भाव ऐसा था जो कभी एक प्रेयसी का होता तो कभी एक मित्र का। कभी दिल इतना बड़ा हो जाता जैसे कोई माँ अपने बिगड़ैल बच्चे को सुधारने का प्रयास जी जान लगा कर कर रही हो। किन्तु धानी के सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते।

पुरुष हताशाओं के घेरे में जकड़ने लगे तो उसका पौरुष चोट खाए हुए घायल शेर की तरह हो जाता है जो अपने क्रोध की अग्नि में खुद तो खत्म होता ही है दूसरों को भी नहीं छोड़ता। वे ‘दूसरे’ ज्यादातर वही होते हैं जो उसके बहुत करीब होते हैं। वही हो रहा था बाली के साथ। अपनी असफलताओं का ठीकरा फोड़ने के लिये एक अदद पत्नी थी जिसके जरिए वह हल्का होना चाहता। कुछ नये अनर्गल विचार इस हताशा में ईंधन डालते। धीरे-धीरे अब वह धानी के व्यक्तित्व से भी कुढ़ने लगा था। बाली को धानी का तैयार होकर बेकरी जाना भी बर्दाश्त न होता।

क्यों इतनी अच्छी है वह।

हर किसी से इतना प्यार और स्नेह है धानी के मन में, हर किसी से बात करके उसे अपना बना लेती है।

धानी आज भी मुझे इतनी अच्छी लगती है तो औरों को भी तो अच्छी लगती ही होगी।

कहीं मेरी उपेक्षा से तंग आकर किसी और से दिल तो न लगा बैठी।

एक और कुंठा घर करने लगी जिसे वह उन अंतरंग क्षणों में बाहर निकालता जब धानी अपने प्यार के आवेग को महसूस करने के लिये तैयार होती। वह जाने-अनजाने उसके शरीर को चोट पहुँचाकर सुकून महसूस करता। हौले-हौले ये शुरू हुआ था। प्यार के बीच खुंदक निकालकर रोजमर्रा के आनंद को भड़ास में बदल दिया जाता। इस मौन हिंसा की शुरुआत वहाँ से हुई थी जहाँ उनकी साँसों की बढ़ती गति के बेहद निजी पल थे।

“मुझे चोट पहुँचा रहे हो बाली” वह फुसफुसाती।

बाली को कुछ सुनायी न देता। शरीर की औपचारिकता पूरी करने में मदद करती धानी ऐसे हल्के वार सह लेती अपने प्यार के लिये। वह खुद को समझाती कि इसी बहाने तो बाली मेरे पास आता है। अगर इस शरीर से बाली को सुख मिलता है तो ठीक है। थोड़ा-सा कष्ट ही सही।

तब शायद उसके अंदर की प्रेयसी एक ममत्व के साथ उभर कर आती। संतान के लिए तकलीफ सहने को तैयार एक माँ की तरह। सब कुछ अपने में छुपा लेती। उस तकलीफ को यूँ सह जाती जैसे माँ को कुछ भी कह दे बच्चा पर माँ के लिये तो वह बच्चा ही रहता है। बाली को वापस लाना था। धौंस-डपट से तो नहीं कर सकती थी यह। इसीलिये सहती रही-आने वाले बेहतर कल के लिये।

वे बीते दिन याद आते जब बाली को संपूर्ण रूप से पाया था। उसका वह प्यार थाती के रूप में संजोया हुआ था मन के भीतर। एक बार जब पास के किसी मकान में आग लगने की खबर मिलते ही दमकलें इकट्ठा हो गयी थीं तो बाली बौखलाया हुआ आया था घर। जोर-जोर से चिल्लाते हुए – “धानी-धानी” और जब वह बाहर आयी तो काफी देर तक उसे भींचे हुए खड़ा रहा था।

“क्या हुआ बाली?”

“घर के इतने करीब आग लगी। तुम्हें कुछ हो जाता तो!”

“लेकिन कुछ हुआ तो नहीं।”

“हूँ” उसकी आँखों में आँसू थे, वह धानी को छोड़ ही नहीं रहा था।

“अच्छा बैठो और पानी पीयो। मेरी ओर देखो- मैं ठीक हूँ।”

“धानी, कल से तुम मेरे साथ चलोगी। मैं तुम्हें यहाँ अकेला नहीं छोड़ सकता।”

“कल से?”

“कल से, कोई हाँ-ना नहीं चलेगी, कहे देता हूँ।”

“कल से मैं काम पर जा रही हूँ। ‘स्वीटस्पॉट’ बेकरी ज्वाइन कर रही हूँ। भूल गए!”

“शुक्र है भगवान का।” उसने लंबी साँस ली थी और फिर दोनों पास के जलते मकान पर दमकलों से बरसते पानी को देखने लगे थे।

बाली बहुत संवेदनशील है, धानी जानती थी। इतनी जरा-सी बात पर परेशान हो जाने वाला बाली अब खुद धानी को तकलीफ देने लगा था। यह बदलाव जहाँ से भी आया था, दोनों के रिश्तों को खोखला कर रहा था। “चित भी मेरी, पट भी मेरी”, “गलती भी मेरी और अकड़ भी मेरी” की तर्ज पर बाली द्वारा रिश्ता ढोया जाने लगा था। बाली को किसी और से नहीं, शायद खुद से शिकायत थी। वह जानता था कि गलत वह स्वयं है, धानी नहीं, लेकिन अपनी हताशा के घेरे से बाहर न आ पाता। और धानी, वह तो जिस मिट्टी की बनी थी वह समय के साथ इतनी पक गयी थी कि उसके आकार को बदलना या तोड़ना-मरोड़ना मुश्किल था।

वह नहीं बदल सकती थी, चाहे कोई कितना ही क्यों न बदल जाए। आखिर उसने निश्चय किया कि जब तक बाली कुछ न कहना चाहे वह उस पर कोई दबाव नहीं बनाएगी। बाली का मन करे तो कह दे सब कुछ, जो अंदर छुपाए बैठा है। अंदर की लड़ाई अंदर ही खत्म हो जाए, बस यही प्रतीक्षा करती रही। जैसे कोई बच्चा गलती करके माँ के पल्लू को कवच बनाकर छुप जाता है उसके पीछे, वैसे ही कवच बन जाएगी वह बाली के लिये। धानी सब समझ लेगी। उन परेशानियों का बोझ भी जो बाली लादे-लादे घूमता है।

बाली को जैसे कोई नशा चढ़ा हुआ था। अपनी धुन में वह सब करता रहा, जो नहीं करना चाहिए था। पैसा लगाता रहा यहाँ-वहाँ हर ओर। एक जगह नहीं, कई जगहों से नुकसान उठाने के बावजूद अपनी पैसों की भूख को तृप्त न कर सका। धानी को कतई यह पता नहीं लगने दिया कि वह क्या कर रहा है। कहाँ पैसा लगा रहा है और किस प्रयास में पैसे गँवा रहा है। ये वह भूख थी जो शायद कभी खत्म ही नहीं होती।

जब पैसा कमाने की अनिवार्यता खत्म हो जाती है तो आदमी पैसों से खेलने लगता है। वह ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा कर दिखाना चाहता है। पैसों की ठोस चाहत के सामने कोमल चाहतें कहीं दब जाती हैं। आदमी उन कामों में तृप्ति और खुशी महसूस करता है जो उसकी असलियत को उससे दूर करते जा रहे होते हैं। अच्छाइयों पर बुराइयों की इतनी घनी परत चढ़ जाती है कि पीछे मुड़ कर देखने पर बीते, हँसते हुए पल वीभत्स लगते हैं। शायद बाली के साथ यही सब हो रहा था।

चोट खाया अहं और घायल पौरुष रिश्तों को लगातार खत्म कर रहा था।

समय की मार और लापरवाही आदि ने मिलकर जब प्रहार करने शुरू किए तब पता लगा कि वह कई गलतियाँ कर बैठा है जिन्हें सुधारने के लिये अब उसके पास न तो समय है, न पैसा और न ही वह जज्बा है। जब तक उसे अहसास होता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कर्ज और नुकसान दोनों के बोझ तले दबता वह पूरी तरह टूट चुका था। एक के बाद एक की गयी गलतियों को सुधारने में कहीं से कोई आशा की किरण नज़र नहीं आती थी। सबसे ज्यादा गुस्सा खुद पर आता था। इसलिये कि वह अपनी धानी को अंधेरे में रख रहा था। उसकी अच्छाई का फायदा उठा रहा था। अपराधी मन अब कुछ न कह पाने की वजह से और भी परेशान रहने लगा। अंदर की घुटन शब्दों को तलाशती पर शब्द थे कि हठ की सीमा को पार ही नहीं कर पाते थे। इन हदों ने सरहदें बना ली थी। बाली के लिये वह इस पार था और धानी उस पार।

कहाँ से लाता वे शब्द जो धानी को कुछ समझा पाते? कहाँ से लाता वह हिम्मत जो धानी के सामने आकर अपनी सफाई दे पाती? कहाँ से लाता वह प्यार जो धानी के लिये था पर अब कहीं उलझनों में उलझ कर रह गया था। वह आज भी तो वैसी ही थी जैसी पहले दिन थी पर बाली में सालों के अंतर ने खाई बना दी थी। किसी और के बारे में सोचना वह भूलने लगा था।

एक इंसान के ममत्व पर पलता परिवार उस इंसान के बारे में सोचना भी शायद भूलने लगा था। घर अच्छी तरह चल रहा था पर धानी की कमाई से। बेकरी के मैनेजर की कमाई से। कई बार वह बेकरी से बचा हुआ सामान लेकर आती। क्रसाण, बैगल, ब्रेड, केक, पेस्ट्री, तरह-तरह की कुकीज़ जैसी चीजें तो बाली बहुत नाराज होता – “क्या हमारे घर में खाने की कमी है, जो तुम वहाँ से उठा कर लाती हो।”

“इसलिये नहीं लाती हूँ मैं कि हमारे घर में खाने की कमी है। मैं तो इसलिये लाती हूँ कि खाना फेंकने से अच्छा है कि किसी के पेट में जाए।”

वह कहना चाहती कि – “ये चीजें तो पहले भी घर में आती रही हैं, तब तो यूँ सवाल नहीं उठते थे” पर चुप रहती। जिसने अपने कान ही बंद कर लिए हों उससे कुछ भी बोलने का क्या फायदा। उसका उसूल था कि किसी भी खाने की चीज को फेंका क्यों जाए, यह जानते हुए भी कि कई लोग इस अन्न के लिये तरस रहे हैं। न खुद कभी फेंकती, न किसी को फेंकने देती।

वह समझ गयी थी कि न जाने कैसी बातें मन में लिये बैठा रहता है बाली। हर बात का उल्टा अर्थ निकालना जैसे उसका शगल बन गया था। मन की दुविधा को तो हटाया जा सकता था पर जब किसी के मन में भूसा भरा हो तो उसे क्या कहा जाए?

बहस करना धानी ने सीखा नहीं था, बस इसी का फायदा बाली उठाता था। ऐसा भी नहीं था कि वह धानी से नफरत करने लगा हो। धानी के प्रति नजर आती उपेक्षा असल में उसकी अपनी खुद से नफरत की एक झलक होती थी। उसकी नफरत धानी को सीढ़ी बना लेती थी। अपनी असफलताओं का छलकता आक्रोश बाहर लाने के लिये पत्नी से बेहतर जगह नहीं ढूँढ पाता।

धानी चाहती थी कि अगर बाली को नुकसान हुआ भी है तो वे दोनों मिलकर उसे चुकाएँ। वह तो खुद इतना कमा रही थी कि घर का खर्च चला सके। इसी उम्मीद में दिन-माह गुजर रहे थे। बाली के बदलते व्यवहार से कभी-कभी आभास तो होता कि वह अब भी वही है जो पहले था। जब वह दिन में कई बार आर्या से बातें करता। वह पार्क जाने की जिद करती तो तीनों साथ-साथ पार्क जाते। एक ओर से धानी उसे झुलाती, दूसरी ओर से बाली।

“देखो आर्या, पापा का झूला तो बहुत बड़ा है।”

झूले के उस झुलाव में सामने खड़े बाली को वह देखती तो वो नजदीक खेल रहे बच्चों को देखने लग जाता।

“ममा, आप और जोर से झुला दीजिए।”

“ये लो”

“फिर भी ममा, आपका बड़ा नहीं है। जरा और दम लगा के झुला दो न ममा, पापा की तरह।”

वह कहती – “बेटा, ममा पापा की तरह लंबा नहीं झुला सकतीं न, आपके पापा तो आपके पापा हैं।”

“हूँ”

इतने प्यारे-से संवाद में भी बाली कन्नी काट जाता। एक बार नहीं, बार-बार। आर्या को देखकर बड़ी-सी मुसकान देता वह लेकिन धानी तक आते-आते उसकी प्यार भरी नज़र कहीं खो जाती। पुराने बाली की एक झलक पाने के लिये धानी यूँ तरसती जैसे महीनों से प्यास लगी हो। उसकी उपेक्षा बहुत कचोटती, इतना कि रो भी न पाती। आँसू भी पत्थर बन कर उसी पर बरसते, तीखे और धारदार।

बाली पत्नी की आदत से वाकिफ़ था। जानता था कि बहुत धैर्य है धानी में। बस कुछ ही दिनों में वह सब कुछ ठीक कर लेगा और सब कुछ पहले की तरह हो जाएगा। दिन बीतते गए किंतु वे ‘कुछ दिन’ खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। उसके भीतर का क्षोभ इकट्ठा होकर बढ़ता ही जा रहा था। वह क्या था, और क्या हो गया है। जब धानी को लेकर आया था उस समय सब कुछ शाही था। बड़ा मकान, बड़ी मुरादें और बड़ी हसरतें। धंधा जोरों पर था। दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। बँगला-गाड़ियाँ सब लग्ज़री। पैसों की खुमारी घर की हवा में थी।

अमेरिका आने के बाद का उसका वह पहला जन्मदिन, जब उसे एक रेस्टोरेंट में बुलाया था ये कहकर कि “आज हम बाहर खाना खाएँगे। तुम शाम ठीक छ: बजे इस लोकेशन पर पहुँच जाना।”

उस दिन बेकरी का काम निपटा कर जैसे ही वह रेस्टोरेंट के मुख्य दरवाजे से अंदर घुसी, उसके स्वागत में फूल बरसने लगे, बैंड बजने लगा और झकाझक लाइटें जगमगा उठीं। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि यह क्या हो रहा है। तभी बाली सामने से आता दिखा। उसका हाथ पकड़ कर वहाँ ले गया जहाँ मोमबत्तियों और गुलदस्तों से सजी मेज उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह हतप्रभ-सी इधर-उधर देख रही थी कि केक आया व सारे रेस्टोरेंट के वेटर टेबल को घेर कर खड़े हो गए थे। वह केक काट रही थी और खुशी एवं लाज से लाल भी हो रही थी। जब सब चले गए तो होठों के पास आकर बाली ने कहा था – “हैप्पी बर्थ डे धानी”

वह क्या कहती! गदगद धानी अपनी आँखों की गहराई से उसके प्यार भरे, इस उत्सवनुमा स्वागत का जवाब दे रही थी।

“मुझे बताया तो होता, कम से कम ठीक से तैयार होकर आती।”

“बताने में सारा सरप्राइज जो खत्म हो जाता!”

“किन्तु”

“किन्तु-परन्तु कुछ नहीं। ऐसे ही इतनी कातिलाना लग रही हो, तैयार होकर आती तो दो-चार कत्ल हो ही जाते।”

“तुम भी न”

“तुम भी न” धानी के शब्द दोहरा कर बाली ने जैसे उसे अपने अंदर समेट लिया था।

कितना प्यारा सरप्राइज़ था। जन्मदिन तो बाद में भी आए पर ये पहला जन्मदिन पहले नंबर पर ही रहा। इन दिनों शादी की सालगिरह, दोनों के जन्मदिन ऐसे ही निकल जाते हैं। सिर्फ आर्या का जन्मदिन धूमधाम से मनता है। घर से बाहर बच्चों के किसी “इनडोर प्ले ग्राउंड” की नामी जगह पर उसके सारे दोस्तों को बुलाया जाता है। तब वह अपनी खुद की बच्ची के लिये केक सजाती है। आर्या की पसंद का केक, पसंद का कार्टून कैरेक्टर और ममा का प्यार, सब कुछ उसमें शामिल होकर उस केक को एक बेकर की श्रेष्ठ कृति में बदल देते।

जब सब पूछते – “इतना स्वादिष्ट केक कहाँ से आया, स्टोर का नाम क्या है?”

आर्या कहती “मेरी ममा के स्टोर स्वीटस्पॉट से आया है, ममा ने ही बनाया है।”

धानी को बहुत अच्छा लगता, मगर बाली की ओर से अब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। गोया, उसकी जबान ऐसी दरिद्र हो चली है कि एक भी शब्द बोलेगा तो उसका शब्द भंडार खत्म हो जाएगा।

धीरे-धीरे ऐशो-आराम के सुकून में बहती हवा के झोंके विपरीत दिशा में जाने को आतुर हो गए। अपने सामने हर किसी को बौना करते, झूमते आगे बढ़ते रहे, धीमे-धीमे। वह तूफानी संकेत बाली के जीवन को निशाना बनाता गया।

क्रमश...

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