जो घर फूंके अपना - 53 - चले हमारे साथ! - अंतिम भाग Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

जो घर फूंके अपना - 53 - चले हमारे साथ! - अंतिम भाग

जो घर फूंके अपना

53

----------चले हमारे साथ!

पर अगले ही क्षण आई असली मुसीबत ! उस पार की तो छोडिये, इस पार ही, यानी रेस्तरां के दरवाज़े से, उसी क्षण दो जल्लादों ने प्रवेश किया. आप वहाँ होते तो शायद पूछते कि यदि मैं इतना ही एक्सीडेंट प्रोन यानी दुर्घटनासम्भावी व्यक्ति हूँ तो वायुसेना में फ़्लाइंग ब्रांच में क्या सोच कर आया था. पर उस समय मेरे पास ऐसे सवालों को सुनने और उनका उत्तर देने का समय कहाँ था. मैं चारो तरफ नज़रें दौड़ा कर देख रहा था कि कहाँ से निकल भागूं पर एल चिको में प्रवेश करने और बाहर जाने के लिए एक ही दरवाज़ा था. उस दरवाज़े से दाखिल होने वाले हर व्यक्ति की तरह इन दोनों की नज़र भी सीधे मुझ पर ही पडी थी. नज़रें मिलीं और उनसे साफ़ ज़ाहिर हो गया कि मुझे पहचानने में उन्हें ज़रा भी कठिनाई नहीं हुई. पिछली बार अपने सिविल लाइंस के बंगले में मुझे ड्राइंग रूम में बैठा छोड़कर और स्वयं अन्दर के कमरे में एक साथ जाकर उन्होंने मुझे अवसर दे दिया था कि मैं पलक झपकते ही उनके ड्राइंग रूम से भागकर पोर्टिको में रुकी अपनी प्राइवेट टैक्सी में बैठकर रफू चक्कर हो जाऊं. पर इस बार तो भागने का अकेला रास्ता उनकी उपस्थिति से अवरुद्ध था. हाँ, ये वही बाप बेटे थे जिनके समक्ष भांडा फूटा था कि रेलयात्रा में तृतीय श्रेणी के जेनरल डिब्बे में यात्रा के दौरान अपने को विवाहित बताकर मैंने सबको समोसे चाय की दावत दी थी. मेरे झूठा धोखेबाज़ होने की तुरंत गवाही भी हो गयी थी. उसी के चलते उनकी बेटी शोभा को देखने गया था फिर भी देख नहीं पाया था. अब उनकी बेटी शोभा से तो शादी की बातचीत ख़तम हो गयी थी पर उनकी दृष्टि में भोली भाली लड़कियों से, अपने विवाहित होने की बात छुपाकर शादी करके उन्हें और उनके अभिभावकों को लूटने वाला, जालसाज़ धोखेबाज़ तो मैं था ही. अब अपने सौभाग्य से और मेरे घोर दुर्भाग्य से, फिर अपने चंगुल में मुझे पाकर क्या वे मुझे पुलिस को सौंपने की नहीं सोचेंगे. और यदि इतना नहीं तो कम से कम छाया और उसके अभिभावकों के आ जाने पर उनके सामने मेरा पर्दाफ़ाश करने में कोई कसर क्यों छोड़ेंगे?. उन दोनों ने मुझे देख कर आपस में कुछ बात की और मंथर किन्तु सधे हुए कदमों से मेरी तरफ आने लगे. मुझे काटो तो खून न था. क्या करूँ? कहाँ जाऊं? सोच ही रहा था कि वे मेरी टेबुल के सामने आकर खड़े हो गए.

अचानक अगला घोर आश्चर्य ! अशोक सक्सेना और रत्ना उठकर खड़े हो गए. अशोक ने कहा “आइये, मौसा जी, हम लोग आपकी ही इंतज़ार कर रहे थे. ” रत्ना ने बिना कुछ बोले उन्हें छोटी सी मुस्कान दी. बाप बेटे की टीम में से बाप ने पूछा “अरुण जी को सब बता दिया है?”

अशोक ने हंसते हुए कहा “बताएँगे, बताएँगे,ऐसी भी क्या जल्दी है? चलिए, अपनी रिज़र्व्ड टेबुल पर ही बैठते हैं. मैंने मैनेजर से कह रखा था कि उन चार कुर्सियों के अतिरिक्त पांचवी कुर्सी हमारे आ जाने के बाद ही लगाएं. वरना इनकी पैनी नज़रें पडतीं तो समझ जाते कि कोई पांचवां भी आ रहा है”

मैं अवाक था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है और मैं करूँ क्या. भागना संभव नहीं था. चुप चाप उनके साथ उस रिज़र्व्ड टेबुल पर आ गया. वे दोनों नवागंतुक टेबुल की एक तरफ बैठे, रत्ना भी उनके साथ बैठ गयी. दूसरी ओर रत्ना के सामने मैं बैठा और मेरी बगल में अशोक जिसने अब सूत्रधार का काम संभाल लिया. बोला “भाई अरुण जी, अपने बारे में गलत सलत बातें लोगो को बताने वाले आप अकेले नहीं हैं. ऐसे जुर्म अन्य लोग भी करते हैं. पहले तो जो आपके सामने बैठी हैं उनका सही परिचय दे दूं. इनका नाम रत्ना नहीं है. हैं तो ये सचमुच मेरी मौसेरी बहन जैसा आपको दिल्ली में भी बताया था पर इसका असली नाम है शोभा. हाँ वही शोभा जिसे देखने के लिए आप पहले भी इलाहाबाद आये थे, पर बिना देखे ही चुपके से भाग निकले थे “

मैंने हैरान होते हुए कहा “ पर आपने ये टेबुल कैसे रिज़र्व करा ली ? क्या आप को पता था कि मैं यहाँ आऊँगा. ?”

“ज़रूर पता था, क्यूँकि जिस लडकी से आप मिलने के लिए आये हैं उसके पिता और भाई यही हैं. ”अशोक बोला.

“पर,मैं जिस लडकी से मिलने आया हूँ उसका नाम तो स्वयं मेरे पिताजी के अनुसार छाया है. वो क्या शोभा की बहन है?”

“नहीं,छाया तो केवल इस आज की मुलाक़ात के लिए शोभा को ही दिया गया एक अस्थायी नाम था. वरना रत्ना, छाया और शोभा तीनो एक ही हैं. इनमे से शोभा ही असली नाम है” अशोक ने कहा. फिर उसने बात जारी रखी “चलिए सब कुछ तरतीब से बताता हूँ आपको. असल में आप पिछली बार जब इनके घर आये थे और चुपके से भाग निकले थे तो इन्हें वाकई में शक हो गया था कि आप कहीं फ्रॉड तो नहीं हैं. मेरे भारतीय पुलिस सेवा में होने के कारण आपके बारे में असलियत का पता लगाने का काम इनलोगों ने मुझे सौंपा. तभी मैं दिल्ली आकर आपसे मिलने का प्रोग्राम बना रहा था पर हैदराबाद में राष्ट्रपति जी के आने वाले दिन अनायास ही आपसे मुलाक़ात हो गयी. क्या कोइन्सिडेंस थी वह भी. लेकिन तब मैं जानता नहीं था कि जिसकी मुझे तलाश थी वे आप ही थे. पर उसके बाद ही हैदराबाद में आपके भाई साहेब से एक पार्टी में मुलाक़ात हुई. बातों बातों में उन्होंने आपका ज़िक्र किया और बताया कि कैसे एक पुलिस ऑफिसर ने आपको एयरपोर्ट पहुंचाया था. फिर खूब हंसी हुई जब मैंने बताया कि उस पुलिस जीप में मैं ही था. फिर उनके नाम से मैंने अंदाज़ लगाकर पूछा कि क्या आपके भाई की ही शादी की बातचीत इलाहाबाद में शोभा नाम की लडकी से चली थी. पहले तो वे चौंके पर मैंने जब उन्हें शोभा के भाई होने के बाबत बताया तो उन्होंने खूब हंस हंस कर बताया कि आप उस इलाहाबाद की यात्रा में कैसे बजाय उपराष्ट्रपति का विमान उड़ा कर लाने के रेल के जेनरल कम्पार्मेंट में ठुंसे हुए इलाहाबाद आये थे और कैसे अपने को विवाहित बताकर आप उस घमासान भीड़ में डिब्बे में घुस पाए थे. वह भी खिड़की के रास्ते! भाई वाह ! हम तो आपकी बहादुरी के कारनामे सुन सुनकर हँसते हँसते लोट पोट हो गए. ” कहते कहते अशोक ने फिर ठहाके लगा कर हंसना शुरू कर दिया.

सभी लोग हंसने लगे. रत्न या शोभा या छाया, जो भी कहिये, वह भी. बस मेरा मुंह संकोच से लाल हुआ जा रहा था. अभी तक शोभा के पिताजी और भाई चुपचाप बैठे हंस रहे थे. अब हंसी कुछ थमी तो शोभा के भाई ललित ने भी बीच में हस्तक्षेप किया “इलाहाबाद सर्किट हाउस के मैनेजर को मैं जानता हूँ. हम लोग अपने घर से आपके निकल भागने के तुरंत बाद वहाँ गए तो पता चला कि आप पहले ही वहाँ से जा चुके थे. पर उसने बताया कि आप पहले भी केवल उपराष्ट्रपति ही नहीं अन्य वी आई पीज की उड़ानों पर आते रहे हैं अतः कम से कम इस विषय में तो आपके बारे में कोई शक नहीं रह गया था. पर असली समस्या आपके स्वयं को विवाहित बताने को लेकर थी. अशोक को इसी लिए हम ने इस तहकीकात में लपेटा. ”

उन्हें बीच में टोकते हुए मैंने कहा “फिर मेरे पिता जी ने मुझे कैसे ये सब नहीं बताया. उन्होंने तो बताया नहीं कि आप लोगों को सच्चाई का पता लग गया था. फिर ये नयी छाया वही पुरानी शोभा हैं ये भी नहीं बताया. क्या उन्होंने या मेरी माता जी ने शोभा को आकर देखा था?”

“नहीं देखा था. पर इस बाबत हम लोग उनके साथ एक षड्यंत्र में शामिल हो गए. उन्होंने बताया कि आपकी जिद थी कि वे लोग ही आपके विवाह के बारे में निर्णय ले लें पर आपके पिताजी ने कहा कि उनकी भी ये जिद थी कि अपने लिए फैसला आप ही से करवाएंगे. अतः उनके कहने पर शोभा और आप की मुलाक़ात दिल्ली में मैंने करवा दी और आपको पता भी नहीं लगने पाया कि रत्ना वही लडकी है जिसे आप शोभा के नाम से जानते थे किन्तु पहचानते नहीं थे. इलाहाबाद में इस बार हम लोगो ने एक तीसरे नाम ‘छाया’ का सहारा लिया. उसके पिताजी का भी कल्पित नाम आपको बताया गया और लड़की को उसके घर जाकर देखने की आपने पहले ही मनाही कर दी थी अतः घर का पता आपके ही अनुरोध के कारण बताना नहीं पड़ा. इसीलिये यहाँ एल-चिको में मुलाक़ात रखी गयी. ”

मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि मेरे पिताजी, माँ, भाई साहेब, सब इस मजेदार षड्यंत्र में शामिल थे. कुछ प्रश्न मगर अभी भी शेष थे. “मगर आपने तो दिल्ली में बताया था कि शोभा अर्थात रत्ना को आई ए एस ऑफिसर पसंद थे. ” मैंने अशोक से पूछा.

“थे कभी” अशोक ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, पर इतने छोटे उत्तर से मैं संतुष्ट नहीं था ये उसने भांप लिया. अतः उसने बात को विस्तार दिया “अरे वह तो आराधना फिल्म में फ्लाईट लेफ्टिनेंट अरुण वर्मा के कारनामे देखकर ही एयर फ़ोर्स अफसरों की दीवानी हो गयी थी. फिर जब उसे आपकी दिल्ली से इलाहाबाद की रेलयात्रा का किस्सा सुनाया गया तो पहले तो वह हंस हंस कर पागल हो गयी और फिर आपकी फ़िल्मी हीरो जैसी हरकतों पर निछावर हो गयी. मान गए भाई, जब एक बार कह दिया कि फलां तारीख को इलाहाबाद आऊँगा तो आना ही था चाहे आसमान धरती पर गिर पड़े. अब ये तो आपके जैसा कोई एयर फ़ोर्स वाला ही करेगा. ”

“फिर ऐसा ही था तो आपने ये कहा ही क्यूँ कि उसे आई ए एस ऑफिसर पसंद थे?” मैं अभी भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं था, अतः पूछ बैठा.

“अरुण जी, चाहे युनिवेर्सिटी में एम ए में पढ़ रही हो, है तो भारतीय लडकी ही. नारीसुलभ संकोच तो होगा ही. अब बिना आपका मन जाने कैसे साफ़ साफ़ कह देती कि उसे एयर फ़ोर्स ऑफिसर्स अर्थात आप पसंद हैं. ”अशोक ने उत्तर दिया.

“तो अब क्या इन्होने मेरा मन पढ़ लिया है? मैंने तो इनसे ऐसा कुछ कहा नहीं. ” मैंने मुस्कराकर कहा. पर ये सोचकर डरा कि कहीं ज़्यादा तो नहीं बोल गया. कहीं बनते बनते बात बिगड़ न जाए.

“ये भी खूब कही आपने. आपका मन पढने के लिए चश्मे की ज़रुरत तो थी नहीं. मन की बातें पढने में लडकियां और पुलिस वाले दोनों पारंगत होते हैं और संयोग से वहाँ दोनों मौजूद थे. ”अशोक ने कहा और बात जारी रखी. “शोभा बता रही थी, आपने जाते जाते उससे पूछा था ‘तो फिर अगली बार कहाँ मिल रहे हैं ‘हम दोनों?’ अब आप बताइये कि ये आपने अगली बार मिलने की ख्वाहिश क्यूँ जताई. वो भी हम ‘तीनों’ के मिलने की नहीं बल्कि सिर्फ ‘हम दोनों’ की “

मुझे हथियार डालने ही पड़े. रत्ना मुझे भा गयी थी इसे मैंने छुपाने का कोई प्रयत्न किया ही कब था?अब वही रत्ना उर्फ़ छाया उर्फ़ शोभा सामने थी. मेरी आँखों में उसके प्रति आकर्षण फिर अवश्य छलक रहा होगा. लगा मेरी यात्रा का अंत आ गया था. बहुत सुखद अंत. इस बार फिर अवसर चूकने की गलती नहीं करूँगा निश्चय कर लिया. तभी अशोक ने वह सवाल पूछ ही डाला जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी. “तो अरुण जी, अब आप बताइये, फिर कब मिलवा दूं आप दोनों को? क्या जीवन की उड़ान के लिए सही वी आई पी यात्री मिल गया है आपको?”

मुझे फौज ने नज़रें नीची करके बात करना नहीं सिखाया था. एन डी ए के ड्रिल प्रशिक्षक से लेकर मेरे सीनियर्स तक ने हमेशा यही कहा था “कीप योर चिन अप, आँखों से आँखें मिलाकर बात करो. ” पर उस क्षण मुझे वह सारी शिक्षा भूल गयी. थोडा झिझकते हुए, कुछ सकुचाते हुए नज़रें स्वतः नीची हो गयीं. मेरे मुंह से सिर्फ इतना निकल सका “ कबिरा खडा बज़ार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ”

समाप्त

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

D 295, Sector 47, Noida 201303

Mob: 9811631141 email: arungraphicsverma@gmail. com