जो घर फूंके अपना - 51 - फिर वही चक्कर Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 51 - फिर वही चक्कर

जो घर फूंके अपना

51

फिर वही चक्कर

इसके बाद दो एक महीने बिना कुछ असामान्य घटना के बीत गए. पिताजी ने बताया तो था कि मुझसे मिलने किसी लड़की के घरवाले पहले से सूचित कर के आयेंगे पर मैं प्रतीक्षा ही करता रहा,कोई आया नहीं. संकोचवश मैं पिताजी को याद नहीं दिला पाया. बस मैं अपने रोज़मर्रा के काम में व्यस्त रहा. उड़ाने रोज़ ही कहीं न कहीं ले जाती रहती थीं. अब तक मैं वायुसेना में छः साल से अधिक बिता चुका था. भारत जैसे बड़े देश के कोने कोने से परिचित होने का अवसर इतना मिल चुका था यदि वायुसेना में विमानचालक न होता तो इसके लिए एक नहीं कई जन्म लेने पड़ते. हर बड़ा शहर जहां हम लैंड करते थे जाना पहचाना सा लगता था. पर उन्ही जगहों में जब इतना पड़ाव हो कि एयरपोर्ट और होटल / मेस को छोड़कर और जगहों में घूमने का भी समुचित समय मिल सके तो पता चलता था कि इस देश के कोने कोने में इतना कुछ दर्शनीय है कि एक क्या अनेक जीवन भी काफी नहीं होंगे. मेरे अन्दर छुपा हुआ यायावर नागालैंड,अरुणाचल,मणिपुर,त्रिपुरा जैसे सुदूर राज्यों में जाने का अवसर पाते ही खुशी से फूला न समाता. कोहिमा, इम्फाल, अगरताला, जीरो, आइजल जैसे हवाई अड्डों पर भूमि पर उतरने से पहले ही आकाश से विमान की कोकपिट में बैठ कर उनके अप्रतिम नैसर्गिक सौन्दर्य पर एक विहंगम दृष्टि डालकर मैं वायुसेना के प्रति कृतज्ञता से नतमस्तक हो जाता था. इस विशाल देश की अनुपम छवि को इतने विभिन्न पहलुओं से, नित्य एक नए कोण से देखने का अवसर और कहाँ मिल सकता था.

इसी तरह वायुसेना में रहकर देश विदेश घूमने का आनंद उठाने के लिए अविवाहित रहना बुरा विकल्प नहीं था. प्रायः लगता था कि विवाह कर लेने से मेरी स्वतन्त्रता पर बेड़ियाँ पड जायेंगी. कितने मज़े से जीवन बीत रहा था. पर विचित्र होता है ये मन. कई बार ऐसी जगहों में जाकर अन्य सहयोगियों के होते हुए भी अजीब अकेलापन महसूस करने लगता था. मेरे कई निकटतम दोस्तों का हाल में ही विवाह हो गया था. वी आई पी स्क्वाड्रन में सेवा की वरीयता और आयु के हिसाब से लगभग सारे अन्य अधिकारी मुझसे बड़े थे और लगभग सारे ही विवाहित थे. ऐसे में मुझे अपने जीवन में किसी खालीपन का एहसास होना स्वाभाविक ही था. फिर घर पर सब बड़ों से एकाध वर्ष पहले ही मैं विवाह के लिए केवल हामी ही नहीं भर चुका था बल्कि यहाँ तक आग्रह कर चुका था कि मुझे भावी पत्नी की तलाश से मुक्त रखें, माँ और पिताजी जिसको चुनेंगे उसी से मैं विवाह कर लूँगा. पर अब उन्हें ऐसा कहे हुए तीन चार महीने बीत चुके थे. अब तक वे लोग काफी आगे बढ़ चुके होंगे.

इन्ही उधेड़बुन के दिनों में फिर पिताजी का फोन मिला. उन्होंने बहुत विव्हल होकर सूचित किया कि उनकी तरफ से खोज पूरी हो गयी थी. पर अब उनका आग्रह था कि कोई रस्म संपन्न की जाए इसके पहले एक बार मैं उनकी पसंद को देख अवश्य लूं. उन्होंने ये भी कहा कि उन्होंने कन्या पक्ष को आश्वस्त करने का पूरा प्रयास किया था कि माँ-बाप की पसंद उनके बेटे की पसंद भी होगी पर वे लोग इसे आज के ज़माने में एक अनहोनी समझ रहे थे. उनका आग्रह था कि बस एक बार चंद मिनटों के लिए ही सही मैं उसे देखकर अपनी सहमति जता दूं. पिताजी ने ये भी कहा कि उस कन्या को भी पूरा अधिकार था कि वह गाय की तरह ज़ंजीर में बांधकर मेरे हवाले न कर दी जाए बल्कि मेरे विषय में निर्णय लेने का मौक़ा उसे भी मिलना चाहिये. और कोई चारा न था. पिताजी की बात माननी ही पडी. पर ‘कब’ और ‘कहाँ’ का उत्तर मिला ‘यथाशीघ्र’ और ‘इलाहाबाद’ तो मेरे होश उड़ गए. ये शहर मेरी जान के पीछे पड गया लगता था. अभी तक एक अदद बाप बेटे की टीम, जिनके घर से मैं झूठ बोलता हुआ रंगे हाथों पकड़ा जाकर चुपके से फरार हो गया था, शायद जेब में पिस्तौल लिए घूम रही होगी. कहीं पकड़ा गया तो इस नए प्रस्ताव वालों को मुझसे मिलने के लिए हवालात में आना पड़ेगा.

उन दिनों का इलाहाबाद महादेवी, पन्त और निराला के युग से आगे बढ़कर धर्मवीर भारती, अज्ञेय, अश्क, अमृतराय और फ़िराक का इलाहाबाद बन चुका था. पर इन महान हस्तियों के शहर में मैं फिर जाऊं. ‘गर्म राख’ को कुरेदूँ, और ‘गुनाहों का देवता’ घोषित कर दिया जाऊं तो पता था कि इस बार ‘सूरज के सातवें घोड़े’ पर चढ़कर भी वहाँ से सही सलामत वापस न आ पाऊंगा. इन लोगों के भ्रम के चलते शायद मुझे ‘नीर भरी दुःख की बदली’ की तरह कहना पड जाए “विस्तृत जग का कोना कोना, मेरा न कभी अपना होना“. शबे विसाल के चक्कर में शबे फ़िराक फिर न झेलनी पड जाए.

बहरहाल अब हीला हवाला करने का प्रश्न नहीं था. सोचा, ऐसा भी क्या डरना. इलाहाबाद ही तो था, कर्बला का मैदान या कुरुक्षेत्र की रणभूमि तो नहीं. फिर हम फौज वालों को खाहमख्वाह ये महादेवी और फ़िराक की दर्द भरी दास्तानों के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए. भूषण से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान तक की वीर रस की कवितायें आखीर किस दिन के लिए लिखी गयी थीं. दिक्कत ये थी कि हाई स्कूल के बाद से किसी वीर रस की कविता पर नज़र ही नहीं पडी थी. सच पूछिए तो कविता में किसी भी रस पर नज़र नहीं पड़ती थी. रस का कविता से जो संबंधविच्छेद सत्तर के दशक में घोषित हुआ आज तक बाकायदा बिना किसी कानूनी कार्यवाही के बना कर रखा गया है. कविता पढने के बाद यही नहीं समझ में आता है कि ये कविता है या लेख. हिन्दी में दो प्रकार के खेमे बन गए. एक खेमे के लोग लिखते थे. फिर उसी खेमे के लोग स्वजनों के लिए स्वजनों के द्वारा इस लिखे को पढ़ते थे. खेमे से कोई बात बाहर निकल कर आती भी तो किसी की समझ में नहीं आती. बात खेमे के अन्दर ही रहनी थी तो बाहर पहुँचने के लिए किसी माध्यम की क्या ज़रुरत? इसी लिए वे सब पत्रिकाएं जिन्हें हिन्दी साहित्य के पाठकों से कोई सरोकार था धीरे धीरे अकालपीड़ित होकर दम तोड़ रही थीं या तोड़ चुकी थीं. दूसरे खेमे में वे लोग रहते थे जिन्हें हिन्दी में कुछ पढने का मन तो करता था पर मिलता केवल वह था जो “पटरी का साहित्य’ कहा जाता था. जो मिले वही पढने की मजबूरी उनकी साहित्यिक रूचि को वास्तव में पटरी से उतार कर ‘पटरी के साहित्य’ तक ले आई थी. मैं इन दोनों खेमों के बीच पहले खेमे से कान लगाए खडा रहता था कि उनकी आपस की फुसफुसाहट कभी सुनायी पड जाए तो समझने की कोशिश करूँ कि ये आखीर आपस में बातें करते क्या हैं. पर जब भी कोशिश की, अन्दर से मारपीट, गाली गलौज, आरोप प्रत्यारोप की गूँज ही सुनाई पडी जो समझ से परे थी. इसी लिए मौके के अनुकूल किसी कविता की पंक्तियाँ याद नहीं आयीं तो एक फ़िल्मी गीत ‘वतन की राह पर वतन के नौजवां शहीद हों, पुकारती है ये ज़मीन आसमाँ शहीद हो’ गुनगुनाते हुए मैंने एक बार फिर इलाहाबाद जाने की तय्यारियाँ शुरू कर दीं.

इस बार भी कोशिश रही कि किसी अति विशिष्ट व्यक्ति की उड़ान हो तो उन्हें लेकर इलाहाबाद जाऊं. आखीर इलाहाबाद में श्वेत एम्बेसेडर का विकल्प अभी भी टेम्पो या रिक्शा ही था. जो किस्सा शोभा नाम वाली उस लडकी को देखने के चक्कर में हुआ उसकी पुनरावृत्ति मैं किसी कीमत पर नहीं चाहता था. उड़ाने तो इलाहाबाद की लगती ही रहती थीं. इस बार भी अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पडी. हमारी स्क्वाड्रन को वायुसेना मुख्यालय से श्रीमती इंदिरा गांधी को इलाहाबाद ले जाने की तिथि मिली जो अगले सप्ताह ही थी. उन्हें एक दिन इलाहाबाद में रूककर अगले दिन वापस ले आना था. मेरे लिए इससे अच्छा प्रोग्राम हो भी नहीं सकता था. उपराष्ट्रपति की इलाहाबाद की व्यक्तिगत यात्रा का स्थगित होना आश्चर्यजनक नहीं था पर प्रधान मंत्री के हर कार्यक्रम के पीछे लम्बी चौड़ी तय्यारियाँ होती थीं. उनमे अंतिम क्षण पर फेरबदल आसानी से नहीं होता था. फिर भी दूध का जला छाछ को फूंक फूंक कर पीता है. मैंने एहतियातन प्रधान मंत्री की उड़ान में अपना नाम लिखवाने के बाद आकस्मिक अवकाश भी मंज़ूर करा लिया और इलाहाबाद आने जाने का रेल में प्रथम श्रेणी का आरक्षण भी करवा लिया ताकि प्रधान मंत्री का प्रोग्राम बदले तो बदले पर मेरा न बदले. पिताजी को मैंने और आगे छाया के घर वालों को उन्होंने सूचित कर दिया. हाँ ये तो बताना ही भूल गया कि इस लडकी का नाम छाया बताया गया था. मैंने तो छाया का छायाचित्र भी देखने से मना कर दिया था तो उसके माँ बाप के विषय में क्या पूछता. पिताजी ने इतना ज़रूर बता दिया था कि वह भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए कर रही थी, बी ए में संगीत भी उसका एक विषय था और वह गाती बहुत अच्छा थी. किसी भी लडकी को देखने उस के घर जाने को तो मैं मना कर ही चुका था अतः ये तय हुआ था कि नियत शाम को छाया और उसके माँ बाप सिविल लाइंस में एल-चिको रेस्तरां में सात बजे आयेंगे. मुझे सीधे वहीं पहुँचना था. एहतियातन उनका फोन नंबर भी मुझे दे दिया गया था. इससे अधिक और कुछ पूछने की मैंने ज़रुरत भी नहीं समझी.

क्रमशः -------------