केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
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गर्माहट पर पानी के छींटे
बेकरी में धानी का काम जम जाने व उसे अच्छी तनख्वाह मिलने से बाली अब निश्चिंत हो गया था कि एक ओर से इतना पैसा आ रहा है तो वह खतरों से खेलने के लिये स्वतंत्र है। कुछ भी हुआ तो धानी की आमदनी तो है ही। उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ बढ़ती रहीं। अपने व्यवसाय में एक के बाद एक जोखिम ऐसे उठाता रहा जैसे हर खतरे से लड़ लेगा। आगे बढ़ने का जुनून कुछ ऐसा था कि आगे-पीछे सोचने का वक्त ही नहीं था उसके पास। अपने नये परिवार की खुशियों से बेखबर वह वो सब कुछ करना चाह रहा था जो उसके अपने कौशल से बाहर था। घर पहले से ही अच्छा था पर उसमें और पैसा लगाया जाने लगा। घर में नयी-नयी चीजें आ रही थीं, जिनकी शायद जरूरत भी नहीं थी। उसका धंधा फैल रहा था, काम बढ़ता जा रहा था।
इंसानी फितरत के आगे समय को झुकना ही पड़ता है।
समय भी वह सब खामोशी से देखता रहा जो खुली आँखों से अस्वीकार्य होना था। धानी कई परिवर्तन आते देख रही थी बाली में इन दिनों। अमेरिका आने के बाद का वह रंगीला रात-दिन का समय हर दिन के गुजरने का साथ कम होने लगा था। उसके काम पर जाने के बाद और अब बेकरी में उसके पूरी तरह सेटल हो जाने के बाद जितने कदम उसने आगे बढ़ाए थे, बाली के कदमों को या तो ठहरे हुए देखा था, या फिर जरा सा पीछे हटते हुए महसूस किया था। लेकिन वह सब कुछ स्वीकार इसलिये करती जा रही थी कि मन के विश्वास को ठेस न पहुँचे। अगर प्यार है तो विश्वास तो है ही। हालाँकि उसकी दूरदृष्टि को यह आभास हो चला था कि प्यार की तीव्रता अब वैसी नहीं रही। रिश्तों की गर्माहट का गुनगुना अहसास भी कम हो गया था। कहीं कुछ तो ऐसा था जो धीरे-धीरे घटता जा रहा था।
वह महसूसती, पूछना भी चाहती पर बाली का अनमनापन उसे चुप कर देता।
प्रेम में जब भी वे मौन होते थे आँखों में चमक तैर आती और विद्युत धारा दौड़ने लगती। शरीर अपनी सीमाएँ तोड़ एक दूसरे में समा जाना चाहते थे। आज कैसा मौन है यह। आँखों में नमी है और उंगलियाँ निष्चेष्ट। प्रेम में भी क्या कभी उत्ताल और अवताल हो सकता है? प्रेम क्या किसी तरंग की भाँति उठता-गिरता है और समतल हो जाता है? उसे क्या मालूम यह सब। उसने तो सिर्फ एक बार प्रेम किया और जो देखा था वह प्रेम का ऊँचे और ऊँचे उठते रहना ही था।
शायद उसने सोचा भी नहीं था कि एक बिंदु पर पहुँचकर प्रेम अपनी ऊर्जा कम कर देता है। क्या वही ऐसा महसूस कर रही है या बाली को भी ऐसा लगता है। जब भी वह बाली की सूनी आँखों की खामोशी को तोड़ना चाहती तो क्यों बाली ऐसा करने को तैयार नहीं होता। ऐसा क्या और क्यों है जो उनके प्रेम की आँच को समेटने की कोशिश कर रहा है।
ऐसा लगता जैसे बाली अब खुल कर बात नहीं करता।
ऐसा लगता जैसे अब वह धानी के देर से आने पर भी कोई सवाल नहीं करता।
ऐसा लगता कि वह चाहता है कि धानी काम पर जल्दी जाए और देर से आए।
“ऐसा लगता” के साथ “ऐसा लगना” जब बढ़ने लगा तो वह खुद को अपराधी मान बैठी। यह सोचती कि शायद उसने अपने आपको बेकरी में बहुत व्यस्त कर लिया है और बाली से दूर होती जा रही है। लेकिन देखा जाए तो वह तो अभी भी उसके काम पर जाने के बाद अपने काम पर जाती थी और उसके घर आने से पहले आ जाती थी। इसी कारण वह समझ नहीं पाती कि आखिर कहाँ क्या गलत हो रहा है उससे। अभी भी उसकी पसंद का खाना बनता है, अभी भी सब कुछ वैसा ही है जैसा शुरू से रहा है। घर में जितना पैसा लगा रहा था बाली उससे तो यही लगता कि उसका काम बहुत बड़ा हो गया है।
धानी सोचती कि शायद बाली के भीतर कुछ चल रहा है जिसकी वजह से परेशान है वह, कह नहीं पा रहा है बस। इंसान खुद से ही खफा होने लगे तो किसी का कुछ भी कहना आग में घी ही डालता है। धानी ने महसूस किया इस बात को और बार-बार न पूछकर सब कुछ उस विश्वास पर छोड़ दिया जिसके बलबूते पर वह अब तक विश्वस्त रही थी। फिर भी रोक नहीं पायी खुद को और पूछ लिया - “बाली क्या बात है!”
“मतलब?”
“मतलब यह कि आजकल सरकार कुछ बदले-बदले-से नज़र आते हैं!”
“काम की व्यस्तता अधिक है। बस, इसके अलावा कुछ नहीं।”
“मेरी ओर देखकर कहो!”
और वह उसके गाल थपथपा कर उसे खामोश कर देता। वह मान तो लेती, लेकिन आश्वस्त न हो पाती, समझ न पाती बाली के मन की बात। मन को समझाने के हज़ार तरीके थे उसके पास लेकिन कई बार आँखें जिद्दी हो जातीं और बरसने लगती थीं झमाझम। उन आँखों की पोरों में छुपा पानी ऐसे बहता जैसे तेज गति से जा रहा हो उस धरती को देखने जहाँ की रेत के दाने उसकी छुअन को पहचानते थे। जहाँ के आसमान को निहारते हुए उड़ने के सपने उसी ने देखे थे। अब उन्हीं सपनों से बाहर आने को मन करता। पैदल चलने व उड़ने में यही तो अंतर था। आसमान की ऊँचाइयाँ नहीं भातीं अब। ऊपर से नीचे, जमीन को निहारने, उतर जाने का मन करता अपनी उसी धरती पर। तब लगता जमीन पर रहना कितना सुखद है, यह शायद आसमान में रहने वाला ही समझ सकता है।
पहले अपने हाथ की कोई भी चीज एक दूसरे को खिलाते थे। अब उन दोनों के हाथ यंत्रवत अपने-अपने मुँह में चले जाते। धानी के आने के बाद यह घर बहुत सजा था, बहुत तारीफें बटोरी थीं। अब खाने से लेकर हर चीज जैसे मशीनी होती जा रही थी। घर से निकलते हुए कह कर जाता बाली – “बहुत व्यस्त रहूँगा, बार-बार फोन मत करना।”
“जब समय मिले तुम ही कर लेना कम से कम एक बार।”
“हूँ” कहकर वह चुपचाप चला जाता।
वह छोटा-सा “हूँ” बड़ा-सा सवाल छोड़ जाता अपने पीछे। न पहले की तरह जाते समय का चुंबन था न ही लौटने का। साथ-साथ होते तो भी कुछ अनमनापन रहता, तब शब्दों के ढेर से उचित शब्द उठाने की कोशिश करती धानी कि कहीं कोई अनुचित शब्द उसे नाराज न कर दे। तौल कर बोलना वह भी अपनों से, यह कदाचित बदलती शैली थी। धानी के भीतर बहुत कुछ चलता लेकिन ध्वनियाँ अंदर ही अंदर टकराती रहतीं।
मन देखता पर स्वीकार न करता इस आशंका को कि जैसे-जैसे बाली का काम बड़ा हो रहा है, वैसे-वैसे वह खुद छोटा होता जा रहा है।
बाली की वे नज़रें जो मन में कैद थीं, अब उसके सामने होने के बावजूद कहीं दिखाई न देतीं। जब जरूरत होती, जब भी उस प्यार को तलाशती निराश होती, फिर अपने जेहन में बसी उन नज़रों को ही ढूँढ लेती थी धानी। एक पल दर्द को महसूसती तो दूसरे पल राहत खोज लेती वह। उसकी रगों में बहती थीं आशाओं की नदियाँ जो निराश नहीं होने देतीं। कितनी जल्दी भूल जाता है बावरा मन। जब-जब मन की चिमनी से निराशाओं का धुँआ उठता, तब-तब धुँधलका हो जाता। उसके बाद तो आकाश फिर से साफ हो जाता और फिर उस साफ आकाश में राहत दिखाई देती। लगता कि वह बेकार में ही इस बात को अधिक तूल दे रही है। कभी-कभी इंसान को अकेले रहना अच्छा लगता है, शायद इसी समय के दौर से गुजर रहा हो बाली।
पूरे एक सप्ताह तक बाली से कोई सवाल नहीं किया ताकि उसे उसकी स्पेस मिल जाए लेकिन अब धानी के लिये चुप रहना मुश्किल लग रहा था। उसे साफ दिखाई दे रहा था कि यह बात उपेक्षित करने लायक नहीं थी। दो लोगों के बसाए हुए संसार में एक की निराशा उस सहारे को, उस सपोर्ट को ठेस पहुँचा रही थी।
न कोई वाद-विवाद, न कोई प्रतिवाद, न गरीबी, न अशिक्षा, न नफरत, न द्वेष, इन सबके बगैर भी अगर रिश्ते में खिंचाव आने लगे तो उसे क्या कहा जाए। धानी के भीतर उमड़ते-घुमड़ते कई सवाल आते और चले जाते बगैर किसी जवाब के। कोई तो कारण हो, दो लोगों के बीच खाई पनपने का। ये क्या कि जब मन हुआ तो प्यार से बात कर ली। जब मन नहीं तो बात नहीं करनी।
संवाद से समस्याएँ हल होती हैं पर, यहाँ समस्या क्या है इसका पता तो चले। रिश्ते और नजदीकियाँ किसी नाम को तलाश लेते हैं तो दूरियाँ भी तो अपने नाम को खोजें। परिवार दोनों ने मिलकर बनाया है तो एक अकेला बाली कैसे उसे एकाधिकार समझ मनचाहा बर्ताव कर रहा है। उसने फिर एक बार सवाल किया -
“बाली, कुछ हुआ है क्या”
“क्यों, कुछ होना चाहिए था क्या”
“तो फिर तुम चुप क्यों रहते हो”
“बहुत काम रहता है धानी, मैं थक जाता हूँ”
“तो लोगों को नौकरी पर रख लो काम करने के लिये, तुम्हें आराम चाहिए”
“तुम्हारे लिये कहना बहुत आसान है”
“मेरे लिये तुमसे कुछ भी कहना आसान नहीं रहा अब। आखिर क्यों”
वह चला गया वहाँ से चुपचाप। थकान का तो एक बहाना था। धानी जानती थी कि बाली थकने वालों में से नहीं है। कोई तो ऐसी बात है जो धानी को बताकर परेशान नहीं करना चाहता। इस तरह बगैर जवाब दिए चले जाना बाली की आदत नहीं।
हज़ारों अटकलें भी उसे संतोषजनक उत्तर न देतीं तो हताश होकर वह स्वयं को काम में व्यस्त कर लेती। बेकरी और घर के कामों के अलावा ऐसा कोई भी काम जो किसी को बुलाकर कराया जा सकता था, वह खुद करने लगी। बाहर की घास काटना, लॉन में बिखरी पत्तियाँ साफ करना, पौधों को पानी देना। इसके पहले तक तो बाली उसे इन कामों को छूने भी नहीं देता था। उसे फोन नंबर देकर जाता था कि घास काटने के लिये या फिर किसी भी तरह की कोई मदद चाहिए तो इस नंबर पर फोन करके बुला लेना।
अब भी देखता तो होगा ही कि किसी ने लॉन की सफाई की है लेकिन पहले की तरह पूछता नहीं कि “कहीं तुमने तो नहीं किया लॉन साफ?”
धानी इतनी थक जाती कि सोते ही उसे नींद आ जाए ताकि वह बाली से कोई सवाल न करे और सुबह उठकर फिर से काम पर लग जाए। रविवार को बेकरी की छुट्टी होती मगर बाली तब भी काम पर जाता। पहले वह रविवार को हमेशा घर पर ही रहता था। दोनों सुबह नाश्ता करके बाहर घूमने जाते, खरीदारी करते, कभी फिल्म देखते तो कभी कोई शो देखते। लंच और डिनर बाहर करके ही घर लौटते। अब वह क्रम भी टूट गया था। वह अकेली ही घूमने निकल जाती पर बाली को बहुत मिस करती। निकलने से पहले फोन करके उससे पूछती कि – “तुम कब घर आ रहे हो, घूमने चलते हैं।”
“तुम चली जाओ, बहुत काम है मुझे।”
छुट्टी के दिन भी वह सुबह निकल जाता और रात में ही लौट कर आता। रविवार के बाद सोमवार से नये सप्ताह के शुरू होते ही धानी घर-बेकरी में व्यस्त हो जाती।
क्रमश...