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प्रतिकर्षण

प्रतिकर्षण

कैलाश बनवासी

बस से उतरकर उसने घड़ी देखी-ग्यारह दस. यह गाँव उसका नहीं है. वह तो यहाँ से दस मील दूर दक्षिण-पूर्व में है.यह तो उसके गाँव के लिए बस स्टैंड है.उसका गाँव भी अजीब स्थिति में है,.बस से यहाँ उतरो.फिर दस मील तक पैदल मार्च. कोई अन्य साधन नहीं—न साइकिल न मोटर.

उसने देखा,बस उसे छोड़कर भरभराकर काली पक्की सड़क पर निकल गयी है.इधर दो-एक टीन-टप्पर वाले होटल हैं.वह आगे बढ़ चला.अपने कंधे पर लटके बैग को व्यवस्थित करते हुए.

सामने धूल-धूसर पगडंडी है. यह लगभग दो मिल तक यों ही है. धूल से अटी.ऐसा है कि पैर रखते ही जमीन इंच भर धँस जाए.गद्दीदार धूल. आसपास काफी-कुछ सोना-सूना सा है. बेतरतीबी से इधर-उधर फैले घर..पीली मिटटी से पुते, खपरैलों से ढंकें छोटे-बड़े मकानों को वह मुग्ध भाव से देखता रहा.वैसे ही दूर-दूर तकबिखरे आम, इमली के सघन वृक्षों को निहारता रहा.

अब वह बेपरवाह हकर चलने लगा.जानता है,घर पहुँचते तक पैरों पर धुल की मोटी परत जम जाएगी. धूप है.मगर उतनी तेज नहीं. अंगों को सहलाने वाली कोमल खुनखुनाती धूप.

ज्यों-ज्यों उसके कदम बढ़ते जा रहे थे,दिल-दिमाग उसी अनुपात में अतीत की ओर दौड़ने लगे थे. घटनाएं मानो एक-दूसरे को पछाड़कर आगे आना चाहती हों. ...कितनी बार गुजरा होगा इस पगडंडी पर जब वह अपनी माँ के साथ दुर्ग जाता था. माँ तब दूध बेचने जाती थी दुर्ग.और वह उनके डराने-धमकाने,मारने-पीटने पर भी उनके संग हो लेता. रात के चौथे पहर ही माँ उठ जाती थीं. माँ ही क्यों,उसके गाँव की दूसरी रउताइनें भी साथ जाती थीं शहर. रोजाना दस मील की लम्बी दूरी तय कर बस या ट्रक पकड दुर्ग पहुंचतीं. हंसतीं-खिलखिलातीं,एक-दूसरे से सुख-दुःख की बातें बतियातीं.तब लम्बा और दुर्गम रास्ता भी कितना आसान हो जाया करता था.

बायीं ओर तालाब है,शिव मंदिर है...और पीपल का बरसों पुराना हरहराता पेड़.एक अनाम आकर्षण से खींचते से प्रतीत हो रहे हैं.सब वही तो है...सबकुछ जैसा दो वर्ष पूर्व देखा था. वही घर-दुआर,खेत-खार,बारी—बखरी...और वही लोग.उसकी समझ में नहीं आया,न जाने किस अनिष्ट की आशंका से बस में बहुत घबराहट महसोस कर रहा था. वह इतना घबरा क्यों रहा था? की महज इसीलिए कि वह इस गाँव में प्रवेश कर रहा है जिसमें उसने न घुसने की कसम खाई थी कभी. लेकिन तब तो बचपना था निहायत ही.तो फिर...? इसलिए कि वह गाँव छोड़कर भाग गया था अपने पिता से लड़कर ? या कहीं गुस्सैल ताऊ का व्यक्तित्व छ गया है उस पर एक भयावनी शक्ल में?

नहीं. भगा तो वह अपने पिता से लड़कर था. और उसे याद आ गया,हाँ,उस रात बाबू कच्ची महुआ की दारो चढ़ाए हुए थे. परभू काका के घर लड़का हुआ था. उसी की छट्ठी से पीकर लौटे थे. लड़खड़ाते,गिरते-पड़ते.नाक से साँस के साथ नशे का तीव्र भभूका फूट रहा था.उस दिन वाकई होश में नहीं थे बाबू. और तो और,धोती-कुरते का भी ठिकाना नहीं था. इस हालत में उन्हें देखकर उसका परा आप चढ़ गया था गुस्से में. बाबू घर आकर हमेशा की तरह माँ पर अकारण बिगड़ पड़े थे.होते-होते अंड-बंड बकने पर उतर आए थे. छी:! घृणा और गुस्से से वह तिलमिला गया था. माँ भी कब तक चुपचाप शती. आखिरकार बाबू से जवाब तलब शुरू क्र दिया माँ ने. माँ की आवाज और दारू का असर...एकदम भड़क गए थे बाबू. बाबू माँ को दरवाजे से बाहर धकेलने लगे थे.परछी में तो वे भड़भड़ाकर गिर पड़ी थीं.

“तैं कोन होथस मोला घर से निकालने वाला?” माँ की धारदार आवाज गुस्से से काँप रही थी.

“मैं...मैं...रहा ले बतावथौं !” कहते हुए भीतर गए बाबू और वो डंडा निकाल लाए जिससे गोवर्धन पूजा के दिन ‘काछन’ चढ़ते थे. माँ की अंधाधुंध पिटाई करने लगे थे. तब वह किशोर ही था. सोलह वर्ष का मेट्रिक में पढ़ रहा था. उसका गुस्सा स्वभाविक रूप से बढ़ गया. माँ के बीच-बचाव में दो-एक आड़े-तिरछे वार उसको भी पड़ गए थे. समझाना बेकार था. खीझकर बड़ी ताकत से बाप के हाथ से डंडा खींच लिया और एक ओर फेंक दिया. उसके इस दुस्साहस पर बाप हतप्रभ था. अब गुस्से में खौलता बाप उसकी ओर बढ़ा—साले ! हरामजादा! ठहर...! और वह बाबू के गुस्से से इस कदर घबरा गया कि तेजी से भगा था अँधेरी गलियों में...खूँटा तुदाए सांड जैसा. पिटाई का भय ऐसा हावी हुआ था कि भागता रहा कीचड़ भरे रास्ते पर.

और दुर्ग रेल्वे स्टेशन पहुँच गया था. एक ट्रेन में बिना सोचे समझे चढ़ गया.

एक स्टेशन पर पढ़ा--बिलासपुर.यानी ज्यादा आगे नहीं आया है.छत्तीसगढ़ में ही है.उतर गया वहीँ. फिर जाने कैसी-कैसी मुसीबतें सहता एक ऑटो वर्क्स के किनारे लगा था. अब वहीँ का हो गया जैसे. दिन भर मोटर-गाड़ी की य्हुकाई-पिटाई और रात को गैरेज के भीतर ही पड़ा रहता. द वर्षों में कुछ जम गया. तब गाँव में चिट्ठी लिखी थी अपने जिन्दा होने के सबूत के रोप में. मनीआर्डर भेज दिया था. उसका अनुमान था की एकाध पत्र आएगा वहाँ से. लेकिन माँ-बाबू ही पहुँच गए.गैरेज के पते पर. बाबू जिद करने लगे थे,चल बेटा...वहाँ दो-चार एकड़ जमीन है,खेती-किसानी करना.बताओ तो भला यहाँ है क्या? हमारे एक ही बेटा हो तुम...

बावजूद बाबू के गिड़गिड़ाने और माँ के रोने पर नहीं पसीजा था वह. ख दिया,त्यौहार-बार में आटा रहूँगा. यहाँ यही काम सीख गया हों. माँ भी रोटी चली गयी.साथ में हर होली दिवाली में आने का वडा लेकर. और वह हर होली-दीपावली में जाने लगा गाँव.

जीने की व्यस्तता में आठ साल कब गुजर गए मालूम नहीं.

...कितना रास्ता पार कर गया वह? उसने जगह देखकर अनुमान लगाया. शायद अभी तीन-चार मील और दूर है.अब आगे कुछ कठिन रास्ता है. खेतों के मेड़ पर पदयात्रा. आजू-बाजू लहलहाते धान की फसल.उनके बीच मेड़ की संकरी भूमि-एक पतली रेखा जैसी.मन नयी स्फूर्ति से भर उठा. हवा में झोमती फसलों को देखकर बरबस ही मन झूमने लगा.लग रहा था,आनन्द की चरम सीमा को छो गया है उसका ह्रदय. चलते-चलते उसने धन की एक बाली तोड़ ली.उसकी सोंधी गंध भीतर तक महका गई उसे.उत्साह हिलोरें ले रहा था. मेड़ में खिन-कहीं बबूल की कांटेदार झाड़ी की वजह से तकलीफ हो रही थी.लेकिन प्रतीत हुआ,एक-दो काने चुभ भी गए तो इस वक्त दर्द शायद ही महसूस हो..

वह एकाएक भावुक कैसे हो गया इतना? सिवाय इस गँवई आकर्षण के और कोई कारण समझ में नहीं आया.

स्स्मने शिवनाथ का पानी है.ज्यादा गहरा नहीं,घुटने-घुटने तक पानी.इसके पर ही उसका गाँव है. नदी का पात ज्यादा चौड़ा नहीं है.वह इसी तरंग में उसे पार कर गया.—ओह.कैसा चांदी सा उजला चमकता पानी....

...और भावुक तो वह तब भी हो गया था जब गनपत--ताऊ का बेटा-- का भेजा पोस्टकार्ड उसे मिला था.शायद परसों. तुरंत चले आओ.काका की तबीयत बहुत खराब चल रही है....

इसके पहले इस तरह के दो-चार पत्र और मिल चुके थे लेकिन वह बस टालता रह गया था.लेकिन इस बार वह पत्र मिलते ही चला आया था.विभिन्न आशंकाओं में डूबा.

सहसा उसने अपनी गति तेज कर दी.मन में एक अजीब भय घर करने लगा था.धड़कन बढ़ गयी थी.

...घर के सामने नीम का छतनार पेड़ है. पेड़ के नीचे माँ बैठी थी. देखते ही धक्का लगा. माँ सफेद धोती में ? एकबारगी विश्वास नहीं हुआ. माँ की आँखें पल भर को चमकी उसे देखकर,फिर फूट-फूट कर रोने लगी...

उसने पूछा था—कब हुआ यह सब? सुनकर आश्चर्य से भर गया—आज से बारह दिन पहले..

तो शायद तार विभाग की गड़बड़ी से तार नहीं मिला...?

उसी बेचैनी में उसने मुंगे के पेड़ के नीचे पड़ी झंगली सी खटिया डाल ली. पसर गया उस पर.माँ ने खाने के लिए पूछा था.उसने ना कर दी. माँ ने भी विशेष जोर नहीं दिया.सामने परछी पर बाबू की पुरानी धुंधली सी फोटो लगी है.घर का रंगरूप वही है जैसा पिछले वर्ष देखकर गया था.वही पुरानी खपरैलों की छानी,जिस पर काई बेतरह जम गई है.मुंगे का पेड़ सूखकर बूढा हो चला है.उसकी छोटी-छोटी पीली पट्टियां आंगन में बिखरी पड़ी है.उसके सामने के सरे दृश्य जैसे गायब ही गए हों...केवल शूओंय हो.समय जैसे स्थिर हो गया हो.

उदासी में लिप्त घर एकदम शांत है. केवल पेड़ पर बैठी चिड़ियाएँ चहचहा रही हैं..

किसी से ज्याद बातचीत नहीं हुई.न बड़ी माँ से,न गनपत से.

अब मन में अनजाने ही ताऊ के भय का वृत्त फैलने लगा है.आगामी घ्त्नान के प्रति सचेत होता जा रहा है. बचपन से ही वह ताऊ के नाम से थर्राता आया है.भले ही वो प्यार से क्यों न बुलाएँ. घर का हर सदस्य उनके रहते सहमा- सहमा रहता है.घर में उनकी आगया ही सर्वोपरि.उनके खेत या किसी काम से बाहर जाने पर ही कोई हँस-बोल सकता है.गाँव में भी गिनती के लग मिलेंगे जिनसे ताऊ की बोलचाल हो. अक्सर उनकी कहासुनी हो जाती है हर किसी से. बाबू से भी कितनी दफे लड़ाई हो चुकी है.कोई शौक बाकी नहीं रहा उनसे. शराबी हैं.जुआ भी खेलते हैं.और वक्त मिलने पर चिलम का दम भी भरते हैं.

बरबस इच्छा हो रही थी कि उठकर चला जाय वह.लेकिन ताऊ का सामना करना ही होगा.अब जो भी हो, कोपभाजन बनना ही होगा.गलती उसी की है...एक नालायक बेटे के बोध से समूचा शरीर सिकुड़ा जा रहा था.दुविधा में फंसा लेटा रहा खटिया पर.

थोड़ी देर में ताऊ घर आ गए.

ताऊ के खांसने कि ही आवाज़ से उसे बिजली के करेंट सा झटका लगा. परछी में बैठी उदास माँ उठकर भीतर चली गयी.ताऊ को वह बड़ा कहता है—पिता के बड़े भाई. उसने देखा,उसे देखते ही बड़ा कि घनी भौंहें तिरछी हो गयीं.बड़ा के हाथों में लम्बी-लम्बी घासों का गट्ठर था. वे गय्या कोठे की ओर बढ़ गए और चारा देने लगे. बकरियां भी उछलकूद कर मिमियाने लगीं. बड़ा कि कर्कश आवाज सुनाई पड़ी—“ अब आए हो रमेसर बाबू ! सब कुछ ख़त्म हो गया तब ? बाप बिचारा औलाद के मुखदर्शन को तरस गया. मगर वह रे बेटा !!”

उनका व्यंग्य उसे अपने सर पर तेज आरे सा चलता महसूस हुआ. सफाई में कुछ कहना चाह...मगर होंठ फड़ाफड़ाकर रह गए. लगा,उसके बोलने से बड़ा और भी बिदक जाएंगे. उनका कहना जारी है,” हमने तीन तारीख को चिट्ठी भिजवाई.चले आओ बेटा.बाप का आखिरी टाइम है.तुमको देख ले तो चैन से मर सकेगा. मगर साहब पहुँच रहे हैं अट्ठारा-उन्नीस को. इधर सारे किरिया-कर्म का खर्चा,दसगात्र में जात-सगा में पंगत नेवता...सब कौन निबटाता हमारे सिवा? तुम्हारा बाप खुद कहता था,ऐसी औलाद से बेऔलाद भला था. सब जानते हैं,किस कारण से आए हो तुम? भूल जाओ उस चार एकड़ धनहा खेत को. तेरे कर्मों को देखकर ही सब गनपत के नाम कर दिया. अब जमीन-जायदाद का मोह यहाँ तक खींच लाया. लेकिन अब कुछ नहीं मिलेगा रमेसर बाबू इतना जान लो, बस !”

उसमें न सुनने कि शक्ति रह गयी थी न कुछ कहने की.दिल-दिमाग में एक शून्य भाँय- भाँय करने लगा. क्या हो गया है उसे? इतना रक्तहीन जीव कैसे हो गया वह? पलटकर जवाब क्यों नहीं देता? लेकिन इसका उत्तर उसे खुद नहीं मालूम.

दिन भर घर का वातावरण बोझिल और उदास रहा. कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा.सबके होंठ सिल गए हों जैसे. हर क्षण उसे लगता रहा,गर्म लाल सूजा उसे चुभाया जा रहा है...

शाम को मस्तिष्क कुछ शांत हुआ. थोड़ा आराम सा मिला. वह यों ही टहलने गाँव में निकल पीडीए.और घुमते-घूमते जगदीश के घर चला गया.

जगदीश घर पर ही था. उसके बचपन का दोस्त है.देखते ही एक हलकी मुस्कान उसके चेहरे पर खिंच आई. और दोनों कुछ देर बाद साथ घूमने निकल पड़े.

जगदीश से मिलने पर भी उसे कुछ उलझन महसूस होती रही. वह बोलता यों भी कम ही है. और ऐसे में तो जैसे जबान ही सिल गयी है-अपने अपराधी होने का अहसास दबोचे जा रहा था उसे. जगदीश ने पूछा,कब आए? और जगदीश ही आगे बोलता चला गया, “कैसे आदमी ही यार तुम भी? गए तो गाँव को पलटकर नहीं देखा? इधर तुम्हारे बाबूजी जाने किस बिमारी से रगड़ाते रहे तीन-चार महीने. यहाँ कौन बैठा है उनको अस्पताल ले जाने वाला. आखिरी दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गयी,तब तुमको चिट्ठी भेजी गई. पर तब क्या होना था? जो होना था वो तो हो चुका था.”

फिर धीमे स्वर में वह फुसफुसाने लगा, “तुम्हें मालूम है,तुम्हारे बड़ा ने जमीन बहुत जोर-जबरदस्ती से गनपत के नाम लिखवाया है. और जाने किस दबाव में आकर बीमार आदमी ने वही कर दिया जो वो चाहते थे...खिला-पिला के फुसला लिया तुम्हारे सीधे-सादे बाबू को. पूरे गाँव ने देखा है—भाई-भाई में ऐसा धोखा और लूट ! बाप रे!

... और स्वर्ग सिधार जाने के बाद तो और दुर्गति हो गई उनकी. गनपत कहता रहा,काका की चिता जलेगी,पर तुम्हारे बड़ा के आगे किसकी चलती है? अंत में मिटटी दी गयी उनकी जिद पर. लकड़ी का खर्चा बचेगा करके.और अर्थी भी निकली किस्में? तुम्हारे घर की पुराणी सीढ़ी पर...!

दोनों खेत-खार पर करते उस वीरान मैदान कि तरफ आ गए थे जहां गाँव में आग-मिटटी दी जाती है. जगदीश ने उसे वह जगह बतायी जहां उसके पिता को मिट्टी दी गयी थी.

देखा,...मिटटी की एक छोटी सी समाधि...जमीन से कुछ उभरी हुई. उस पर बिखरे हुए कुछ फूल...सूखकर बदरंग हो चुके...वह बच्चों कि भांति फफक पड़ा था...

दक्षिण-पश्चिम में आकाश का रंग लाल है. दूर सघन वृक्षों के झुरमुट के पीछे सूरज डूब रहा है. सभी वृक्ष शांत हैं..किसी मौन तपस्या में लीन हों जैसे.

उसने निश्चय कर लिया.कल माँ को वह अपने साथ ले जाएगा.—इन ‘अपनों’ से दूर...माँ कि उदास आँखों की मूक व्यथा अब समझ पा रहा है. ..माँ जरूर साथ जाएगी.

सांझ अब गहरी हो चली है.पूरे वातावरण पर कोहरे की परत चढ़ आई है.इन्हीं कोहरों में खोता जा रहा है गाँव का सारा आकर्षण....

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कैलाश बनवासी,41,मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

मो.-- 98279 93920

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