Chhatave vetanman samay me ek do koudi ka aadmi books and stories free download online pdf in Hindi

छठवें वेतनमान समय में एक दो कौड़ी का आदमी!

छठवें वेतनमान समय में एक दो कौड़ी का आदमी!

कैलाश बनवासी

संतोष अपनी माँ को लेकर बस से जामुल गया था,डॉक्टर चांदवानी के यहाँ। वहाँ से उनकी जाँच कराने के बाद अपने गाँव करेली लौट आया। अच्छा हुआ कि माँ का बुखार सामान्य निकला।मलेरिया या डेंगू टाइप कुछ ए ेसा—वैसा नहीं। लेकिन जो बात ए कदम खल गई, वह यह कि डॉक्टर ने अपनी फीस फिर बढ़ा दी है।पहले सौ लेता था,आज डेढ़ सौ लिया!सीधे पचास रूपए की बढ़ोत्तरी!माँ को घर छोड़ने के बाद वह सीधे स्कूल आ गया—अपनी ट्राइसिकल में। उसका ए क पैर पोलियो ग्रस्त है,और वह लंगड़ाकर चलता है,जिसके चलते वह गाँव वालों के लिए ‘खोरवा संतोष' कहलाता है।यों भी किसी खोरवा—लंगड़ा को गाँव में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता,उनसे भेंटने का मतलब होता है— अपशकुन, काम का बिगड़ जाना।छत्तीसगढ़ी में तो ए क कहावत ही है जिसे वह बचपन से इनसे जब—तब सुनता आ रहा है—लंगड़ा—खोरवा बड़े उपाई,छानी में चढ़के बंदूक चलाई!यानी स्वभाव से ही उद्दंड और उधमी!जब संतोष स्कूल पहुँचा तो ए क बज चुके थे,अगस्त की तेज धूप थी,ए कदम चुनचुनानेवाली।उसका सांवला चेहरा इस तेज घाम में भाग—दौड़ से मानो झुलसकर और काला हो चला था।वह लंगड़ाते हुए कल रात किए अपनी चौकीदारी ड्‌यूटी की हाजिरी रजिस्टर में दस्तखत करने स्टॉफ रूम में पहुँचा।रजिस्टर यहीं की ए क मेज की दराज में रहती है।यहाँ इस समय साव सर और ठाकुर सर बैठे थे,और चक्रवर्ती मैडम ।शायद किसी नये टीवी सीरियल पर उनकी बात चल रही थी और वे हँस रहे थे।साव सर सीरियल के किसी कॉमेडियन की कॉपी कर रहे थे और चक्रवर्ती मैडम हँसकर दूहरी हुई जा रही थी।खासकर साव सर की अदायगी पर।

साव सर ने अचानक जब संतोष को देखा तो उन्हें गुस्सा आ गया जरा। वह पिछले दो दिन से स्कूल में नजर नहीं आया था।

‘‘क्यों,दो दिन से कहाँ गायब हो?''साव सर स्कूल के सीनियर व्याख्याता हैं,और प्राचार्य के अनुपस्थित होने पर वही प्रभारी होते हैं, जैसे कि आज।

स्ांतोष ने ध्यान से साव सर को देखा, स्वर के रूआब से वह परिचित है।

कहा‘‘,कहीं नहीं।यहीं हूँ सर।''

‘‘यहीं है तो नजर क्यों नहीं आया?''साव सर अपना व्यंग्यभरा गुस्सा रोक नहीं सके।

‘‘नाइट डयूटी है इसलिए रात को आता हूँ।साहब ने ही तो कहा है नाइट ड्‌यूटी करने।'संतोष अभी भी सहज था।

‘‘ओहो! तो तुम रात को आते हो!रात को आते भी हो या..?'' व्यंग्य करना साव सर अपनी होशियारी मानते हैं। वह कहकर चक्रवर्ती मैडम की ओर देख रहे थे,इस प्रत्याशा में कि मेरे रौब का मजा वह भी देखे।

‘‘मैं तो आता हूँ,सर...,'' कहने के कुछ सेकंड बाद संतोष को जाने क्या सूझा कि तल्खियत से बोला,‘‘आप आते हैं क्या रात में देखने के लिए ?''

‘‘ मैं ? मैं भला क्यों आऊँगा देखने?''साव सर का पारा चढ़ चुका था,‘‘सरकार मुझको बच्चों को पढ़ाने की तनख्वाह देती है,तुमको देखने की नही!ं ''

‘‘जब नहीं आते तो फिर कैसे पूछ रहे हैं?''संतोष को इस समय अपनी ड्‌यूटी पर साव सर के द्वारा शक किया जाना बुरी तरह खला था।

‘‘क्यों? तुमसे पूछ भी नहीं सकते?तुम इतने वी. आई. पी. हो गए ?''साव सर की आवाज सहसा तेज होकर जली हुई रस्सी के समान ए ेंठ गई थी,साथ ही अपने पद और अधिकार का दर्प उनके गोरे चेहरे पर लाल होकर चमकने लगा था। आँखों में बेहद क्रोध और नफरत।इतना कि बस चले तो भस्म कर दें इस साले दो कौड़ी के टेम्पररी चपरासी को!इसकी यह मजाल कि रेग्युलर कर्मचारी से मुँह लड़ाए !वह भी किसी सीनियर से!

संतोष ने कहा,‘‘वी.आई. पी. की बात नही,ं सर।आप तो मुझसे ए ेसे पूछ रहे हैं मानो मैं रात मे ड्‌यूटी करने नहीं आता।इसीलिए तो कह रहा था,आप रात को आते हैं क्या,?''

‘‘तुम बिल्कुल गलत बात बोल रहे हो! तुम ड्‌यूटी पर आ रहे हो कि नहीं तुमसे पूछ लिया तो बड़ा भारी अपराध कर लिया? तुम कोई कलेक्टर हो गए हो क्या?''

स्ांतोष बोला,‘‘कलेक्टर की बात नहीं,सर। आपको लगता है कि मैं नहीं आता तो किसी से पूछ लीजिए ।मैं तो रोज आ रहा हूँ।''

‘‘मैं किसी से क्यों पूछूँ?और वो भी तुम्हारे कहने से?आंय? तुम्हारा मामला है तो तुमसे ही पूछूँगा!..और सर लोगों से ए ेसे बात की जाती है?''

‘‘फिर कैसे बात की जाती है? आप जैसे पूछ रहे हैं मैं वैसे जवाब दे रहा हूँ।''संतोष भी उखड़ गया अब।

‘‘अच्छा!!''साव सर मन ही मन में सोचे,ए क टुच्चे टेम्पररी चपरासी की ये हिमाकत!हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ?

चक्रवर्ती मैडम सर से बोलीं,‘‘सर, आप इसके मुँह मत लगो।''

साव सर संतोष से बोले,‘‘तुम निकलो यार यहाँ से! म्ुाुझको तुमसे कोई बात नहीं करनी!''

स्ांतोष भी साव सर को गुस्से से देखता बाहर निकल आया।उससे और अधिक सहन नहीं हुआ था। साली रहे तो रहे नही ंतो छूट जाय ये नौकरी! वैसे भी कौन—सा मजा आ रहा है इसमें?

स्टॉफ ए कदम हैरान था—ये कौन —सा संतोष है? वह संतोष, जो हर काम के लिए ‘यस सर'के सिवा दूसरा कुछ नहीं बोलता,आज क्या हो गया? उसने इससे पहले कभी भी और किसी से भी इस तेवर में बात नहीं की थी।बड़बड़ाने लगे साव सर।..‘साला आज दिन में ही पी—पा के आ गया है लगता है! है बारह सौ रूपट्टी का टेम्पररी चपरासी,लेकिन तेवर तो देखो साले के!हम रेग्युलर लोगों से उलझ रहा है!आखिर है तो सेड्‌यूल कास्ट का! जात कितना भी छुपाओ, आखिर दिख ही जाती है। प्राचार्य को कहते हैं इस पर जरूर ए क्शन ले। निकाल बाहर करो साले को!''

‘‘दिसीज टू मच!ए ेसे बात की जाती है टीचरों से?बद्‌तमीज कहीं का!''मैडम बोलीं।

‘‘आप प्रिसिपल सर से फोन करो, सर। कम्पलेन करो इसकी। बहुत बढ़—चढ़ के बोल रहा है!''

‘‘आप फोन करो सर। अब्भी के अब्भी!''

और संतोष जब ए क हाथ से ट्राइसिकल का पैडल घुमाते अपने घर के रास्ते पर था,उसकी मोबाइल पे प्राचार्य का फोन आ गया,बहुत डाँटते हुए कि काम करना है तो ठीक तरह से करो,ए ेसी बद्‌तमीजी नहीं चलेगी। संतोष ने अपने गुस्से के बावजूद इस समय प्राचार्य से माफी मांग ली। कहा सर, अभी अस्पताल से आया था। माँ की तबियत दो दिन से खराब है। इसलिए परेशानी में कुछ ऊँच—नीच हो गया। सर माफ करेंगे। मैं साव सर से भी माफी मांग लूँगा।

...संतोष का मुंडा दरअसल पिछले हफ्ते से खिसका हुआ है,वो भी प्रिसिपल की वजह से! ठीक उसी दिन से जब ‘शाला विकास समिति' की बैठक हुई थी,जिसमें गाँव की सरपंच रेशमी नेताम,उप सरपंच गोपाल देशलहरे,मिडिल स्कूल की हेड मिस्ट्रेस काम्बले मैडम और पंचगण् ा आए थे। संतोष पिछले डेढ़ साल से स्कूल में मानसेवी भृत्य के रूप में काम कर रहा है।1200 रू. महीने पगाार पर।वह इस बार अपनी तनख्वाह मीटिंग में बात रखकर बढ़वाना चाहता था। उसके वेतन का निर्धारण् ा मुख्य रूप से प्रिंसिपल के ही जिम्मे है,जो सभा की सहमति से बढ़ा सकते हैं।हालांकि उसकी नियुक्ति शाला विकास समिति के अनुमोदन से ही हुई है।ग्राम पंचायत के बाकी सदस्य तो बस अनुमोदन करते हैं। वैसे भी उन्हें स्कूल के मामले से कोई खास लेना—देना नहीं है। बस नाम की समिति है। यों भी सरपंच के करने,देखने और खाने के पचीसों काम पड़े हैं।भला ए ेसे बेकार के मामले में उनकी क्यों दिलचस्पी होगी? और फिर,सरपंच का सारा काम तो उसका पति जोहन करता है। पत्नी तो खाली दस्तखत—मास्टर है।इन सबके बीच यह बात हुई थी। उसने मीटिंग में अपना वेतन थोड़ा—सा बढ़ाने के लिए प्राचार्य को ए क हस्तलिखित आवेदन अपनी बेटी दीप्ति के हाथ भिजवाया था..क्योंकि इस समय वह स्कूल के बच्चों की कापियों पर प्राचार्य की सील लगाने में व्यस्त था।

मीटिंग उस समय शुरू ही हुई थी। जैसा कि संतोष के उसके मित्र कृष्ण् ाा —जो गाँव का ए क पंच है—ने उसे बाद में बताया था।

‘‘ये क्या है?'' प्राचार्य बड़ी हैरानी से उस ए क पन्ने के कागज को देखा था।

‘‘ पापा ह दे हे।बड़े सर ला दे देबे कहिके।''स्कूल ड्रेस पहनी उसकी सांवली बेटी इतना ही बोल सकी थी।

‘‘सर,ये संतोष की बेटी है,पाँचवीं में पढ़ती है।'' काम्बले मैडम ने प्राचार्य को बताया था। बेटी उसका ए प्लीकेशन देकर अपनी कक्षा में चली गई थी।

प्राचार्य महोदय आवेदन को पहले मन ही मन में पढ़े थे। फिर हँसने लग थेे, जैसे उसमें कोई बहुत मजेदार बात लिखी हो! फिर सबको बताया था,‘‘देखो भई, हमारे स्कूल के चपरासी संतोष साहब का लेटर...। लिखता है...।'' वह अपनी हँसी रोक नहीं पा रहे थे। इस हँसी में उनकी थुलथुल देह हिल रही थी।

‘‘ए ेसा क्या लिखा है, सर?'' साव सर ने पूछाा था।

‘‘ लो यार, तुम्हीं पढो!'' प्रिंसिपल ने संतोष की चिट्ठी बगल में बैठे साव सर को दे दी थी।

अब सबके चेहरे पर कौतुक भरी मुस्कान थी,ए ेसा क्या लिख दिया है छठवीं—सातवीं पढ़े संतोष ने? जरूर कोई बेवकूफी वाली देहाती बात! तभी साहब इतना हँस रहे हैं!

‘‘सुनिये!'', अब साव सर ऊँची आवाज में उसे ए ेसे पढ़ने लगे, जैसे कोई बहुत ही मजेदार चुटकुला हो।

‘माननीय महोदय,मैं पिछले अप्रैल से इस विद्यालय में मानसेवी रूप मे ं1200 रू. महीने वेतन पर भ्ृात्य का काम कर रहा हूँ। पिछले ए क साल से मेरा वेतन यही है। लेकिन आप देख रहे हैं इधर दिनोंदिन महंगााई आसमान छू रही है। मेरे परिवार में माँ को मिलाकर कुल छह सदस्य हैं। मुझको दिये जा रहे वेतन में अब गुजारा बहुत मुश्किल हो गया है। इसलिए महानुभाव से निवेदन है कि मेरा वेतन कुछ बढ़ाने की अपार कृपा करेंगे।''

पढने के बाद साव सर के होठों में ए क दबी—दबी अश्लील—सी मुस्कुराहट उभर आई थी।बोल थेे,‘‘अब तुम्हारे परिवार में छै मेम्बर हैं इसके लिए क्या हम लोग जिम्मेदार हैं?''

इस पर हँस पड़े थे कुछ लोग।

फिर .प्राचार्य बोले थे,‘‘और महंगाई बढ़ रही है तो इसके लिए क्या हम लोग जिम्मेदार हैं?जाओ सरकार को लिखो..प्रधानमंत्री को लिखो। हम लोग क्या करेंगे अगर महंगाई बढ़ रही है तो?''

उन सबके सामने साहब ने उसकी जो फजीहत की थी,उसे वह कभी नहीं भूल सकता।

...संतोष को पता है प्रिंसिपल का वेतन लगभग 45000रू. महीना है। और फिर शाला में करीब 300 बच्चे पढ़ते हैं। सबसे शाला विकास का शुल्क 200 रूपया लिया जाता है। जिसमें से शाला के विकास के नाम पर खर्च करने का अधिकार प्राचार्य को है। वह समिति के अनुमोदन से ,खर्च करता है। यानी कुल 60000रू। इसमें से मेरे लिए 13000रू0 है। गर्मी में चूंकि स्कूल बंद रहते है ,ज्यादा काम नहीं होता,

इसलिए गर्मी के उन दो महीनों के उसे 500रूपए दिए जाते हैं।शेष 47000रूपए प्राचार्य खर्च करते हैं, स्कूल के लिए ।और कितने कमीशन लेकर खर्च किए जाते हैं यह भी वह जानता है!

तो सभा हँस रही थी। उसके वेतन बढ़ाने के नाम पर।

प्राचार्य बोले थे,‘‘पिछले साल ही तो उसका वेतन सौ रूपया बढ़ाया था,...अब क्या हर महीने बढ़ाऊँ?''

साव सर ने अपनी तिरछी मुसकान मुस्कुराके कहा था, ‘‘सर,कल को तो वो छठवाँ वेतनमान देने की बात कहेगा।आप देंगे ?''

‘‘मैं नहीं बढ़ाने वाला उसकी तनखा। अब क्या हर महीने बढ़ाता रहूँगा।देख भाई, तेरे को जमता है तो कर,नही ंतो ज्जा! अरे यहाँ कितने ही मिल जाए ंगे! शहर में कितने ही स्कूल मास्टर 500—600 में पढ़ा रहे हैं। इसको तो फिर भी हम 1200 दे रहे हैं। ंक्यों सरपंच महोदया, मैं ठीक कह रहा हूँ ना?' अपनी बात के समर्थन के लिए उन्होंने नाक की नोक पर खिसक आए चश्मे के ऊपर से अपनी बड़ी—बड़ी आँखों से सरपंच को देखा था।

सरपंच महोदया ने हमेशा की तरह मुस्कुराकर सहमति में अपना पल्लू ढंका सिर हिलाया था।

प्राचार्य का कहना जारी था,‘‘मैं अपने स्कूल का कोई नुकसान नहीं होने दूँगा। संतोष को तो अभी स्कूल की चौकीदारी भी करनी है ।देखो, बगल के गाँव अरमरी के स्कूल में पिछले महीने चोरी हो गई।स्कूल में क्या मिलता है?...अधिक से अधिक पंखे,ट्‌यूबलाइट..या खेलकूद के सामान! इन साले चोरों का कोई ठिकाना नहीं! मालूम है,जगतरा में चोर पंद्रह अगस्त के ही दिन झंडे वाली रॉड काट कर ले गए ...झंडे सहित! इतनी हिम्मत बढ़ गई है! इसलिए हमने सोचा है,संतोष अब रात में चौकीदारी भी करेगा। अब स्कूल के शिक्षकों को तो मैं नहीं बोल सकता रात को चौकीदारी करने को। जो अपने पास उपलब्ध है,उसी से काम चलाना पड़ेगा।क्यों,निषाद जी, मैं ठीक कह रहा हूँ?''प्राचार्य ने इस बार गाँव के पंच रामेश्वर निषाद से पूछा था।

बुजुर्ग निषाद ने इस पर कहा था,‘‘पर इस बारे में आप ए क बार संतोष से पूछ लीजिए ,सर।...वो आपको तनखा बढ़ाने को कह रहा है...और आप उसकी ड्‌यूटी बढ़ा रहे हैं?''

‘‘मगर अपने पास कोई ऑप्शन नहीं है। उसको काम करना होगा तो चौकीदारी करनी पड़ेगी...नहीं तो जा भैया,छुट्टी करा। हम किसी दूसरे को रख लेंगे।बहुत बेरोजगारी है इस देश में।ए क खोजोगे दस मिलेंगे,वो भी इससे कम रेट में।...फिर रात को स्कूल में सोना ए ेसा कौन—सा भारी काम है? उसको रात भर टॉर्च लेकर घूमते थोडीे रहना है? जैसे घर में सोता है,वैसे यहीं सो जाए !..मानलो अगर वो नहीं कहता है तो किसी दूसरे को नियुक्त कर लेंगे!और चार—पाँच सौ में तो गाँव का कोई भी बूढ़ा या अधेड़ राजी हो जाए गा! भला काम ही क्या है?''

जब मीटिंग के बाद प्राचार्य ने संतोष के लिए चौकीदारी भी करने का आदेश निकाला तो वह बिफर गया—‘‘मैं नहीं कर सकता सर दोनों काम!आप किसी और को रख लो। दिन को भी काम और रात को चौकीदारी?ये मुझसे नहीं होगा!''

प्राचार्य ने फिर अपना तर्क रखा था,‘‘अरे यार, तुमसे रात को कौन रोज—रोज चौकीदारी करने को कहता है? वो तो बस नाम का रहेगा। चौकीदारी का मतलब तुमसे रात भर जगवा के कोई चौकीदारी थोड़ी करवा रहे हैं। हफ्ते में दो—ए क दिन यहाँ सो जाया करना ताकि लोगों को लगे,हाँ, यहाँ रात को कोई सोता है।''

‘‘अगर कुछ हो गया कल को तो किसकी जवाबदारी होगी?फँसूंगा तो मैं ही न!''

‘‘तुम्हारे ऊपर इल्जाम थोड़ी आने देंगे! अगर चोरी हो गया तो हम तो बैठे हैं न जिम्मेदारी लेने के लिए । सरकार पहले अपने नियमित कर्मचारी को पूछेगी कि प्राइवेट कर्मचारी को? तू उसके लिए बेफिकर रह।''प्राचार्य ने फिर उसे समझाने और उसके हमदर्द होने के अंदाज से कहा,‘‘...देख ले भई, तू इतने दिनों से हमारे यहाँ काम कर रहा है इसलिए तेरे को इतना पूछ रहे हैं, नही ंतो काम करने वालों की कोई कमी है क्या! तू सोच ले तेरे को क्या करना है।''

स्ांतोष चिढ़ गया, नहीं सर, मेरे को नहीं करना है। उसके दिमाग में इस समय वही बात खटक रही थी,हवा में लहराता उसका आवेदन...और बीच सभा उसकी खिल्ली उड़ाता प्राचार्य...।गाँव में कोई भी बात तुरंत फैल जाती है,इस बात को वह बहुत अच्छे से जानता है। उसने सोच लिया कि इतने अपमान के बाद काम नहीं करना है।वेतन बढ़ाने की वाजिब मांग करने पर उल्टे काम का बोझ बढ़ा दिया। साफ है इनको काम कराना नहीं है। रख ले जिसको भी रखना है। वह बाहर निकल गया।उसके दिमाग में इस समय कई बातें थीं।ए क तो ये कि ये सरकारी कर्मचारी,जिनका काम वह पिछले ए क—डेढ़ साल से देख रहा हैं,भला कितना काम करते हैं? अपने दो—तीन पीरियड को तो ठीक से लेते नहीं लेकिन पेमेंट मिलता है तीस हजार—चालीस हजार! ए ेसा कौन—सा अनोखा काम कर देते हैं ये? प्राचार्य खुद साला दिन भर कुर्सी तोड़ते बैठा रहता है। चार लाइन का जवाब भी तो अपने मन से नहीं लिख सकता! ए ेसा आदमी पैंतालिस हजार पा रहा है! और वह सुबह से लेकर रात तक खटनेवाला सिर्फ 1200! सरकारी कर्मचारी होने का मतलब ए कदम सुख—सुविधा और आराम। इसमें कोई खलल नही! फिर अपना काम भी कौन सी ईमानदारी का कर रहे हैं ये? स्कूल को मिलने वाले हजारों के फंड में इसका गड़बड़—घोटाला क्या बाकी लोग नहीं जानते? रूपये लेकर कितने ही बच्चों का बेड़ा पार लगाया जाता है। और इसी साल सरपंच के बेटे का केस?साला पूरा डब्बा लड़का सेकंड डिविजन से पास हो गया! क्यों? क्योंकि सरपंच ने ए क दिन पूरे स्टाफ को मुर्गा खिलाया था, दारू पिलाया था। हम नहीं जानते क्या इनकी असलियत? चुप रहता हूँ। अपनी रोजी—रोटी चलते रहे करके।...उसने सोचा, साला सब जगे ए ेसी ही लूट है! उधर सांसद—विधायक अपना वेतन—भत्ता साल के साल दुगुना कर रहे हैं। इस पर कोई कुछ नहीं बोलता?मरना तो हम गरीबों का है!

स्ांतोष का मन खिन्न हो गया। छोड़ देगा ये नौकरी। मगर करेगा क्या? सोचा कहीं कुछ भी कर लूंगा। पर इतने कम पेमेंट में काम नहीं करूँगा! ए ेसी महंगााई के जमाने में आखिर ये होता कितना है?

सोचने को तो सोच लिया था उसने।

...मगर घर का खर्चा?

... बच्चों की पढ़ाई—लिखाई?

..इन बुनियादी सवालों के सामने वह हार गया।फिर उसने स्वीकार कर लिया था कि मान—अपमान हम जैसे लोगों के लिए नहीं है। सोच लिया कि ठीक है रात को स्कूल में सो जाया करेगा...।

इधर वह स्कूल में नियमपूर्वक सोने भी लगा था, मगर आज फिर यह बात हो गई!

अपने घर के आगे बने चौरा में बैठा है संतोष।घर के आगे चौक है जिसके ए क किनारे बरगद के नीचे कुछ लौंडे ताश खेलते बैठे हैं।हमेशा की तरह।गाँव का भी साला अजब हाल है! लगता है जैसे सदियों से। जैसे सदियों से यहाँ के अधिकांश लोग ए ेसे ही निठल्ले बैठे हैं...किसी के दरवाजे पर,तो किसी के आँगन में,या नही ंतो किसी चबूतरे में। कभी—भी दुर्गा चौक से निकलो तो हर बार यही नजाारा— पंद्रह—बीस लोगों का झुंड मक्खियों जैसे झूमे रहते हैं, दिन—रात पासे के खेल में लगे। देखनेवाले बढ़ते ही हैं,कम नहीं होते,बल्कि खेलने वाले को और जोश दिलाते रहते हैं—हाँ—हाँ,दुआ!हाँ दुआ!या,शिव मंदिर के पीपलवाले चबूतरे पर ताश खेलते जमे रहते हैं,क्या बूढ़े क्या जवान! और इनकी देखा—देखी स्कूल पढ़ने वाले लड़के भी! यही तो! मैं इसी सब से तो निकलने के लिए स्कूल की नौकरी की है! वरना दिन भर तो इन लोगों के साथ रहकर तो अपनी बु़िद्ध भी साली भ्रष्ट हो जाए !..स्कूल में उसे अपना काम अच्छा लगता है...समय पर स्कूल खोलना...,झाड़—बुहार,घ्ांटी बजाना,ऑफिस का काम करना,रजिस्टर या फाइल यहाँसे वहाँ ले जाना...और सबसे बढ़कर बच्चों के हँसी—खुशी का माहौल,जो उसे पहले गाँव की गलियों में बेकार भटकनेे से कभी नहीं मिलता था! पर स्कूल में भी आजकल कहाँ चैन मिल रहा है?उल्टे रात की ड्‌यूटी पकड़ा दिया साले र्प्रिंसिपल ने!

स्ांतोष को आज शाम सही में कुछ समझ नहीं आ रहा था। घर में दीप्ति,पायल और अनुराग'—उसके बच्चे— टीवी देख रहे थे।टीवी,जिसमें कोई दूसरी ही दुनिया होती है,बहुत चमकीली,बहुत वैभवशाली और बहुत रंगीन और बहुत खुशहाल, जिससे हमारा दूर—दूर तक कोई लेना—देना नहीं होता..ये ए कदम स्वस्थ,भरे—पूरे,खाते—पीते मस्ती करते युवाओं और बच्चों की दुनिया होती है,जिसे देखकर उनकी तरह से ही हो जाने की लालसा जागती है और ए ेसा कभी भी न हो पाने के कारण् ा ए क स्थायी कुंठा से भर जाते हैं हम। ब्लैक ए ंड व्हाइट टीवी, जो उसके पिछले काम ‘सट्टापट्टी लिखने' के दिनों की कमाई की है, जो साला इधर हर चौथे—पांचवे महीने बिगड़ जाता है,कभी इसके चित्र ए ेसे लहराने लगते हैं मानो टीवी ने भांग खा लिया हो!कभी साला फटे बाँस के समान जोर—जोर से ए ेसे आवाज करने लगता है मानो बकरे को हलाल किया जा रहा हो! फिर जिसे टा्रइसिकल में लाद कर पास के गाँव के टीवी—मेकेनिक की दुकान में ले जाना पड़ता है।...उसे अभी टीवी का यह शोर बिल्कुल नहीं सुहा रहा था जिसमें कोई मातारानी का भक्त गला फाड़कर भजन गा रहा था।उसके यहाँ ही क्यों, आसपास सबके घरों में अभी इसी का शोर था।संतोष इस घड़ी इस शोर—शराबे से कहीं दूर रहना चाहता था।वह पैदल—पैदल नाले की तरफ निकल आया।

कुछ आगे बस्ती समाप्त होने के बाद खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता है। अभी धान की खूब हरी फसल धुटने—धुटने तक है। पानी इस साल अच्छा गिरा है। देखते ही देखते भादो निकल जाए गा,फिर कुंवार बीतते—बीततेे फसल तैयार होने को आ जाए गी...।

...संतोष को आज भी इस बात पर जी कचोटता है कि गाँव में रहते हुए भी वह भूमिहीन है।बाप साले ने अपने दारू के चक्कर में तीन ए कड़ की जो खेती थी,पी—पाके के बरबाद कर दिया! अपनी औलादों के लिए कुछ नहीं बचाया हरामखोर ने!बड़ा भाई रायपुर में ट्रक—ड्राइवरी कर रहा है,तीज—तयौहार में घर आ गया तो आ गया। दूसरों को खेती के काम में लगे देखकर हर साल उसका कलेजा दुखता है। हर बार मन से आह निकलती है कि काश! अपना भी कहीं ए क—दो ए कड़ खेत होता! अपनी दारू के चलते सब औने—पौने भाव में बेच के मर गया डोकरा! अब हम लोग बिल्कुल खाली हाथ है। तीन बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी सर पर है।

‘‘अरे इधर कहाँ चपरासी साहब?''नाले के मोड़ पर सामने से आ रहा अंजोरी पूछता है। गमछा—बनियान पहने वह साइकिल के कैरियर में हरियर घास काटकर ला रहा है नाले पार के मैदान से। गट्ठर में रस्सी से तेज धार का हंसिया फंसा हुआ है।

स्ांतोष उसकी बात का बुरा नहीं मानता।गाँव—घर का संगवारी है।और जब से वह स्कूल में चपरासीगिरी कर रहा है,गाँव के अपने लोग मजाक में यही कहते हैं—चपरासी साहब!

‘‘अइसने घूमे बर निकले हों।'' वह अंजोरी को मुस्कुराकर टालू जवाब देकर खिसकाता है।अब अपनी समस्या वह किससे बाँटे!दो दिन पहले वह सरपिंंचन के घर उसे फटकारकर आया था,कि मैं तुम्हारे ही गाँव का बेरोजगार और अपंग आदमी हूँ,तुमको मेरा पक्ष लेना चाहिये तो उल्टा प्रिसिपल का साथ देती हो!सरपंचिन क्या कहती ?हौ—हौ करके किसी पुतली के समान अपना सिर डुलाती उसकी बात सुन ली, और भूल गई!

जाने क्या,ें उसे इस समय किसी से भी बात करने की इच्छा नहीं। लगता है बस चुपचाप कहीं बैठे रहो।वह ए कांत खोज रहा था कि अपनी समस्या के बारे में कुछ सोच सके। आज की घटना के बाद तो उसने सोच लिया है,स्कूल का काम छोड़ देगा, लेकिन अमृत—अपनी पत्नी—से क्या कहेगा?

सांझ धीरे—धीरे उतर रही है। संतोष नाले पर बने पुल पर भी नहीं बैठा।इधर आते—जाते लोग कुछ न कुछ बात करेंगे—यही वो अभी नहीं चाहता था। वह नाले के पार की पगडंडी में बजरी पर चलता हुआ कुछ आगे के महुए के पेड़ के नीचे बैठ गया।उसके काले मोटे तने पर अपनी पीठ टिकाए । सूरज इस बीच क्षितिज के नीचे उतर चुका था, लेकिन आसमान में अभी भी उसकी सुनहली आभा बची थी,कुछ तेज होकर,कि डूबने से पहले मानो अपनी सारी शक्ति झोंकते हुए ।सामने के नाले के बाढ़ का मटमैला जल अब सांवला हो चला था। अंधेरा अब इधर गहराने लगा था,और वातावरण् ा में ए क खामोशी छा गई थी। अभी केवल नाले के बहाव का शोर है।बैठे—बैठे संतोष का ए क मन तो रोने—राने को हो रहा था कि जिंदगी बीत गई इतनी, पर कभी ठीक से सुख नहीं पाया। हर हमेशा तकलीफ,झंझट परेशानी! इसलिए उसके मन में हमेशा उन लोगों के प्रति ए क डाह होता है,जो सुखी, तंदुरूस्त और हँसते—खेलते नजर आते हैं..जैसे टीवी के विज्ञापन के लोग। सच में कितनी अलग है इन लोगों की दुनिया हम लोगों की तुलना में! जहाँ रूपया है,सुविधा है आराम है..।

उसने मूल बात पर फिर विचार करना शुरू किया—अब आगे क्या किया जाए !आस—पास की कंपनी या फैक्ट्रीवाले उसे काम देंगे नहीं,उसकी विकलांगता के चलते।जहाँ गाँव के कितने ही लोग जाते हैं। फिर यहाँ से दस—बारह किलोमीटर दूर भी है!शहर में मानलो किसी दुकान में जाता है तो भी बीस किलोमीटर दूर आने—जाने का कष्ट।गाँव में बाहरी छोर पर हीरा सेठ की सब्जी बाड़ी है। गाँव की कुछ महिलाए ं वहाँ काम करने जाती हैं। कुछ साल पहले संतोष ने अमृत को भी वहाँ काम करने भेजा था। पर कुछ ही दिनों बाद उसने जाना बंद कर दिया...बाड़ी के मालिेक की नजर उसको ठीक नहीं लगी थी।अड़ गई मैं किसी दूसरी जगह निंदाई—कोड़ाई कर लूंगी पर वहाँ नहीं जाऊँगी!गाँव के लोग जानते हैं, सेठ और उसके बेटे हरामी हैं,इसके बावजूद लोग जा ही रहे हैं। उसने तब से भेजना ही बंद कर दिया। अमृत अब मनरेगा या ए ेसे ही किसी काम में भले चली जाती है,लेकिन बाड़ी नहीं। ठीक भी है। जानते—बूझते मक्खी नहीं निगली जाती। कुछ और जुगाड़ जमाना पड़ेगा।

और क्या?

और क्या?

...वही? जिसे उसने छोड़ दिया है स्कूल के काम के पहले।जानबूझकर।क्योंकि इसके चलते उसकी आदतें ए कदम बिगड़ गई थीं!यारी—दोस्ती निठल्ले,आवारा, जुआरियों,सटोरियों पियक्कड़ों और अपराधी किस्म के लोगों से बढ़ गई थी।घर भी जैसे ए क अड्डा बन गया था।खासकर सामने वाली खोली।कमाई थी इसलिए ढक्कन लगभग रोज ही खुलती थी, कभी—भी,दिन हो के रात।घर—आँगन की हवा में दारू की बदबू बसी—सी रहती थी।बड़ी मुश्किल से वह संग—साथ छोड़ पाया ।संतोष को फिलहाल वही रास्ता दिख रहा है,परभू के अड्‌डे में बैठने का काम। सट्टापट्टी लिखने का काम! काम में रिस्क है, पर कमाई भी है। इसी कमाई ने ही तो उसे बिगाड ़दिया था।उसने सुधरने के लिए स्कूल के काम को पकडा़। परभू तो उसको आज भी बुलाता है। उसका कारोबार अच्छा जम गया है।थाने से उसकी सेटिंग है। थोड़ी—बहुत दिखाने की मारपीट और धर—पकड़ के अलावा और कोई खतरा नहीं।

कुछ नहीं मिलेगा तो फिर से उसी लाइन को पकड़ लूँगा। देखा जाए गा जो होगा। जब साली दुनिया ही भले नहीं रहने देना चाहती तो यही सही!उसने आखिरकार खीझकर सोचा था।

...पर अमृत नहीं मानेगी। उसके लिए तो यही चपरासीगिरी ही ठीक है। भले ही इसमें रूपया नही है,घर का सुख—चैन तो है,और साफ—सुथरे काम होने का गाँव में सम्मान तो है!..देखते हैं...।

...घर पहुँचा तो रात के आठ बजे से भी अधिक का समय हो चुका था।इस समय तक गाँव थोड़ी थकन और आराम की मुद्रा में आ जाता है।लोग खाने—पीने और सोने की तैयारी में लग जाते हैं,खाली चौक—वौक में नयी उमर के छोकरों को छोड़कर।उन्हें मोबाइल में गाना सुनना और लड़कियों से बतियाना जो होता है देर रात तक..।

जाते ही पत्नी ने पूछा,‘‘कहाँ चल दे रहेस? कब से लइका मन से तोला खोजवाावत रहेंव।मुबाइल ला घलो घर में भुला गे रहे!''

उसने थोड़े आश्चर्य से पत्नी को देखा,—‘‘क्यों? क्या हो गया?''

अब पत्नी ने जरा कोमल स्वर में बताया,‘‘सुनो न...बड़ा गड़बड़ हो गे। बिलासपुर वाले जीजाजी खतम होगे। अभी उहाँ ले फोन आए रिहिस।''

‘‘अरे? कब?'' संतोष को जीजाजी के पिछले कुछ दिनों से बीमार होने की जानकारी थी। पर, इस तरह अचानक...?वह इस समय अब वो सारी बातें भूल गया जिसको लेकर पिछले दो घंटे से नाले के पास बैठा था।

‘‘ अभी ए काध घंटा पहले।'' बेटी दीप्ति ने बतायां।

...मतलब उसे जाना होगा।अमृत को भी ले जाना होगा।सुबह पाँच बीस को दुर्ग से छूटने वाली पैसेंजर से। तब कहीं वो दस—ग्यारह बजे तक वहाँ पहुँच पाए ंगे। उसने अपने बड़े भाई को भी खबर कर दी।

वह बिलासपुर जाने की तैयारी में लग गया। स्कूल का ध्यान आया तो उसने पड़ोस के पढ़नेवाले लड़के यशवंत को जाकर बता दिया कि स्कूल में बता देना ए ेसा—ए ेसा हुआ है,और बिलासपुर गया है करके।

गाँव में रमेसर की टाटा मैजिक किराये से चलती है।रात को ही उसे सुबह चलने के लिए बोल दिया ।वे सुबह चार बजे ही घर से निकल गए थे।

उन्हें लौटने में पाँच दिन लग गए । वहाँ दीदी की हालत ए ेसी थी, और भांजों ने भी कहा कि इधर सम्हालने वाला कोई नहीं है मामा, पगबंधी तक रूक जाओ...।ं वह रूक गया था।बगैर कुछ सोचे।

छठवें दिन जब वह काम पर लौटा तो उस दोपहर प्राचार्य का मुँह गुस्से से ए कदम लाल था,और फूला हुआ ,फूट पड़ने को आतुर,‘‘कहाँ चले जाते हो यार बिना बताये?पाँच दिन से तुम्हारी कोई सूचना नहीं है। ए ेसी नौकरी की जाती है? यहाँ सारा काम अटका पड़ा है।'' संतोष ने बताया कि वह स्कूल के दसवीं पढ़नेवाले लड़के यशवंत को आपको बता देने के लिए बोलकर गया था।आपको यकीन नहीं आता तो पूछवा लो।

‘‘कौन लड़का है बुलाओ तो।''

स्ांतोष उसे बुलाने जा रहा था तो उसको रोक दिया,कहा कि मैं बुलवाता हूँ।उन्हें शक था कि ये साला जरूर उस लड़के को पट्टी पढ़ा देगा! प्राचार्य ने खुद नवमी कक्षा के ए क लड़के को भेजकर दसवीं पढ़नेवाले यशवंत को बुलवाया।

लड़का थोड़ा डरते हुए आ खड़ा हुआ था।

प्राचार्य ने खुद पूछा,असलियत जानने के लिए ,‘‘देख बेटा, सच—सच बताना नहीं तो सोच लेना...!संतोष ने तुमको कुछ स्कूल में बताने के लिए कहा था?''

‘‘जी सर।''

‘‘क्या कहा था?''

‘‘बोला था,..मेरे जीजाजी का देहांत हो गया है तो मैं बिलासपुर जा रहा हूँ।तुम सर को बता देना।''

‘‘ अबे, तो तुमने मुझको क्यों नहीं बताया?'' प्राचार्य किसी वकील की तरह जिरह करने लगे।

‘‘सर, आप दूसरे दिन नहीं आए थे, तो मैंने कुर्रे सर को बता दिया था।''

‘‘अच्छा!पर कुर्रे सर ने तो मुझको कुछ नहीं बताया। बुलाओ कुर्रे सर को।''

माहौल गरम देखकर स्कूल के कुछ शिक्षक भी वहीं आ गए थे। उनमें से ही किसी ने बताया,‘‘सर, कुर्रे सर क्लास ले रहे हैं।''

‘‘अरे बुलाओ यार अभी। क्लास—व्लास तो होती रहेगी!पहले इसका निपटारा जरूरी हैं!

किसी ने कुर्रे सर को खबर कर दी,वह भकुआए से आ खड़े हुए ।

बातचीत की कमान प्राचार्य ने ही सम्हाल रखी थी।उनकी नजर में यह बहुत सीरियस मैटर था। संतोष के झूठ बोलकर छुट्टी लेने की पोल वह सबके सामने उजागर करना चाहते थे, ताकि दूसरे कर्मचारी भी उनसे झूठ बोलकर छुट्टी लेने की हिम्मत न कर सकें!ं

‘‘क्यों, कुर्रे जी,इस लड़के ने आपको संतोष के छुट्टी लने के सम्बंध में कुछ बताया था?''

कुर्रे सर को तब सहसा ध्यान आया, ‘‘ओहो!सॉरी सर, मैं तो आपको बताना ही भूल गया था। इस लड़के ने मुझको बताया था कि संतोष का जीजा खतम हो गया है और वो दो—चार दिन के लिए बिलासपुर जा रहा है करके। आयम सॉरी सर,इस लड़के ने मुझे चार—पाँच दिन पहले बता दिया था।''

प्राचार्य अब कुर्रे सर के ऊपर झल्लाए ,‘‘यार कुर्रे! आप भी गजब हो! आप पहले बता दिये होते तो इत्ती बात नहीं हुई होती!ठीक है,आप क्लास में जाइये ..और आगे के लिए ध्यान रखिए ..!''

‘‘आ.े क.े सर...सॉरी सर...।''

सब लोग चले गए ।वह फिर संतोष के ऊपर गरम हो गए ,‘तुमको हमको बताना चाहिये...मेरा नम्बर है तुम्हारे पास।''

‘‘मैंने सोचा सर, आपको खबर मिल गई होगी,इसीलिए ... '' फिर कुछ देर रूककर संतोष ने अपने वेतन की चर्चा छेड़ी,‘‘...सर, आज दस तारीख हो गई है...मेरा पेमेंट...?''

प्राचार्य महोदय अपनी आरामदेह रिवाल्विंग कुर्सी में झूलते हुए बोले,‘‘...हुम्म! इस महीने तुम्हारा पांच दिन ए बसेंट है...इसलिए पांच दिन का तुम्हारा वेतन कटेगा!''

क्या बोलता संतोष? चुपचाप अजीब भाव से देखता रहा... कुछ समझ पान,े कुछ न समझ पाने के भाव से।

‘‘ये लो!'' बहुत अहसान के भाव से प्राचार्य की मोटी हथेली उसकी ओर बढ़ी,जिसमें पाँच सौ के दो नोट थे। संतोष ने चुपचाप रख लिए , और सिर झुकाए बाहर आ गया। उसके मन में चल रहा था कि इतने दिनों में मैंने कभी भी बेकार की छुट्टी नहीं ली,और ए ेसे दुख का काम पड़ने पर भी पेमेंट काट दी! चाहते तो छोड़ सकते थे..इनका क्या नुकसान हो जाता?पर ...।और इस कदर अविश्वास!और इतनी पुलिसिया पूछताछ मानो मैंने उनको धोखा दिया हो!दिन—दहाड़े लूट लिया हो!

...स्ांतोष ने स्कूल का काम छोड दिया है।़ पंद्रह—बीस दिन हो चुके उसे छोड़े। लोग उसे फिर अक्सर बाजार चौक में परभू साहू के पानठेले के आसपास पाते हैं...कभी सामने गड़े लकड़ी के पटिए पर, या कभी ठेले के बगलवाली अंधेरी—सी कच्ची खोली के अंदर,जहाँ कहने को दो कैरमबोर्ड हैं,जिनके ऊपर बल्ब का तेज प्रकाश गिरता रहता हैं।गाँव के सब लोग जानते हैं,इसकी आड़ में यहाँ जुआ खिलाया जाता है, दारू की अवैध बिक्री होती है,सट्टा लिखा जाता है..।

स्कूल का स्टॉफ ए क दिन ए ेसे ही उसके बारे में बतिया रहा था।

ए क ने कहा,‘‘अपने को मालूम था,साला फिर से वही सब करने लगेगा।''

प्राचार्य बोले,‘‘अरे,बिगड़ी आदत थोड़ी सुधरती है इतनी जल्दी! यहाँ भी था तो कुछ न कुछ गायब होता रहता था...कभी बल्ब,तो कभी कैंची,कभी घड़ी का सेल तो कभी मोमबत्ती..। मुझको लगता है साला वोई टापता रहा होगा!''

‘‘तो उसके सिवा और कौन होगा,सर ?हम क्या करेंगे ए ेसी सड़ी चीजों का?''

साव सर बोले,‘‘सर,,कुत्ते की पूँछ को कितने भी साल पोंगरी में रखो, रहेगी आखिर टेढ़ी की टेढी!''

मैडम लोगों को यह बात बहुत मजेदार लगी, और इस पर वे बेतहाशा हँस पड़ी थीं।

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