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लोहा और आग़... और वे…

लोहा और आग़... और वे…

(कवि केदारनाथ सिंह के लिए, सादर)

कैलाश बनवासी

वह दिसम्बर के आख़िरी दिनों की एक शाम थी. डूबते सूरज का सुनहला आलोक धरती पर बिखरा पड़ा था.

यों तो शाम हर जगह की बहुत खूबसूरत होती है, किन्तु यदि आप भिलाई की सड़कों पर हुए तो क्या बात है! यहाँ, यदि आप स्कूटर पर भी हुए तो यहाँ की साफ-सुथरी सड़कें, सड़क के किनारों के हरे-भरे पेड़ और एक मनचाहा खुलापन और शांति – ये सब आपका मन इस कदर मोह लेंगी की आपकी इच्छा यहाँ साइकिल चलते हुए घूमने की हो जाएगी.

यही बात मैं उस शाम भिलाई के रुआबाँधा सेक्टर सड़क से अपने स्कूटर पर जाते हुए महसूस कर रहा था.

लोग हमेशा की तरह अपनी मोटर-गाड़ियों में बहुत तेजी से भाग रहे थे, एक-दूसरे से आगे निकलने को बेताब... जैसे की रेस हो रही हो. इसी अंधा-धुंध भागती भीड़ का मैं भी एक हिस्सा था. लेकिन मुझे किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं थी. शायद इसीलिये मैं अपने आजू-बाजू देख पा रहा था.

अचानक बायीं तरफ नजर गयी तो देखा, सामने के फैले हुए मैदान में कुछ लोग घेरा बांधे कुछ देख रहे थे. मुझे लगा कोई तमाशा होगा. लेकिन तमाशे की भीड़ तो एक-दुसरे के ऊपर टूट पड़ने वाली होती है. यहाँ महज दस-पंद्रह लोगों का झुण्ड था, वह भी बिखरा हुआ.

स्कूटर खड़ी करके आगे आया तो देखा वहाँ तमाशा नहीं, लोहार हैं.

मुझे बड़ा अजीब लगा. इस विकसित. आधुनिक औद्योगिक नगरी के मैदान में लोहार! मुझे हँसी भी आयी और आश्चर्य भी हुआ, कि जिस मैदान में इलाके का सबसे बड़ा साप्ताहिक बाजार शनिवार के दिन भरता है, जहां पाँव धरने की जगह नहीं मिलती, उस मैदान में मात्र कुछ लोहार?

लेकिन वे थे. वे राजस्थानी लोहार थे. उनका राजस्थानी होना उनका विशिष्ट पहनावा बता रहा था. पता नहीं किस जिले के? उनका पूरा परिवार था वहाँ, पूरी गृहस्थी थी. सामने तीन बैलगाड़ियाँ थीं जिनमें उनका माल- असबाब लदा था—खटिया, गुदड़ी, लालटेन सब.... दो तम्बू तने थे. बैलों को एक तरफ बांधा गया था जहां वे चारा चरने में मगन थे.

ये यहाँ कहाँ आ गए? वहाँ उपस्थित शायद हर शहरी व्यक्ति मेरी तरह सोच रहा था. उनकी आँखों और बातों में इन बंजारों के लिए दिलचस्पी थी.

मगर उन लोहारों की दिलचस्पी सिर्फ अपने काम में थी. वे अपने काम में लगे थे.

दहकती हुई भठ्ठी के पास एक दाढ़ीवाला जवान व्यक्ति बैठा था, मजबूत कासी हुई देह का मालिक. वह लाल दहकते अंगारों के भीतर लोहा रखता था और थोड़ी ही देर बाद जब उसे निकालता था;काला लोहा लाल हो चुका होता था. यह आग़ का जादू था, जो मुझे चकित कर रहा था, जबकि मैं भिलाई इस्पात सयंत्र के धमन भठ्ठी में ही नौकरी करता हूँ. आग के इस आदिम जादू से मैं एकदम रोमांचित था.

वह दाढ़ीवाला, जिसका चेहरा भठ्ठी की आँच में लाल दहक रहा था, अपने लोहे की संगसी से उस गरम और लाल लोहे को निकालता और उसे पीटनेवाले लोहे के बड़े और मजबूत टुकड़े पर रखता था.

इस लोहे को दो औरतें घन से पीट रही थीं. मजबूत, कद्दावर औरतें मानो लोहे की हों!जीता-जगता साँस लेता लोहा... ! आँच में दमकते उनके काले चेहरों से पसीने की बूँदें गिरती थीं, आग में चमकती हुई... आग की बूंदें.. !

वे लोहा ढाल रहे थे.

यह भी कोई कम हंसीं की बात नहीं थी की भिलाई, जो सारी दुनिया को इस्पात बेचता है, वहां ये अपना लोहा बेचने आये थे. अपना अनगढ़ और प्राचीन लोहा.

इन्हें देखते हुए मुझे अपने बचपन का भूला-बिसरा वह लोहार याद आया, जिसके पास हम बच्चे अपने-अपने भौरों (लट्टू) में आरी (कील) लगवाने जाते थे. यह लगभग पचीस साल पहले की बात है. दुसरे लोग लोहार के पास किन कामों के लिए जाते थे, हमें नहीं मालूम था, लेकिन हम लोहार के पास सिर्फ इसी कम से जाते थे—भौंरा में आरी लगवाने. आठ आने के भाव से.

भौरों में आरी लगवाने से न सिर्फ उसकी ‘आस’ बढ़ जाती थी, यानि वह ज्यादा देर तक जमीन पर घूम सकने में समर्थ हो जाता था, बल्कि वह हमारे खेल ‘आल-पाल गोद्दा’ के लिए अत्यंत ही उपयोगी हो जाता था. इस खेल में हारने वाले के भौरे को शेष खिलाड़ी अपने भौरे की नुकीली आरी से गोदा करते थे. शर्त के अनुसार पाँच बार या छः बार.

हम लोग प्यारू के भौंरे से बहुत डरते थे. कमबख्त के भौंरे की आरी इतनी नुकीली होती थी की मत पूछिए! मेरे आंसू निकल गए थे उस बार जब प्यारू ने अपने भौंरे की नुकीली आरी से मेरे भौंरे को गोदा था. मेरे प्यारे फिरोजी रंग के भौरे का केवल रंग-रोगन या छिल्पट नहीं उधड़ा था, बल्कि वह उसके दुसरे ही वार में सीधे दो टुकड़ों में फलक गया था—जैसे अमरुद को चाकू से काट दिया गया हो दो भागों में.

मैं रो रहा था और प्यारू हँस रहा था. वह अपने भौरे की आरी को उसी प्रकार चूम रहा था जिस प्रकार विजेता अपनी ट्राफी को चूमता है.

खेल में भी कितनी हिंसा छुपी होती है, उस दिन जान पाया था.

... वह काला लोहार चिमटी से पकड़कर भठ्ठी से लाल गर्म आरी निकालता और ठोंक-पीटकर नोकीला बनाता था. इस काम में उसका कर्री आँखों वाला किशोर बेटा मदद करता था घन से पीटने में और उसकी हंसमुख पत्नी घर के कामकाज के बीच आवश्यकतानुसार धौंकनी पर आकर बैठ जाती और हवा करने का पैडल घुमाने लगती थी.

‘’ लोहार, हमारी आरी बढ़िया चोक्खी रखना !’’ हम लोहार को साधिकार हिदायत देते थे, उसके ग्राहक जो ठहरे.

‘’ हाँ-हाँ, एकदम चोक्खी रहेगा. किसी के मूड़ में मारोगे तो खून की धार फूट जाएगी. ’’ वह अपने होठों के बीच इधर से उधर बीड़ी डुलाता जवाब देता.

आरी को संतोषप्रद नुकीला बनाने के बाद वह उस आरी के दुसरे छोर से लाल गर्म करके भौरे की कील की खाली जगह में गोभ देता और तुरंत भौंरे को वहाँ रखे धमेले के गंदले पानी में डुबो देता था.

छिस्स......

आग़ और पानी में कुछ देर के लिए मानो भीषण युद्ध छिड़ जाता है. कुछ ही पल बाद हम पाते हमारा भौंरा धमेले के पानी में उफला हुआ है. हर बार युद्ध में आग़ से पानी ही जीतता था, वह चाहे कितना ही गन्दला क्यों न हो.

... रुआबांधा के मैदान में इस समय आग़ और पानी का यही खेल चल रहा था.

सूर्य अभी आकाश के सबसे निचले हिस्से में था—लाल—बिलकुल दहकते कोयले की तरह. वहीं आस-पास सुलगती और चमकती लाल रेखाओं के बादल थे. आकाश के बाकी हिस्से में गाढ़ा नीला रंग भर रहा था.

सड़क से लोग वैसे ही गुजर रहे थे. कुछ यहाँ से चले गए थे तो कुछ नए आ गए थे. कुछ मनचले छोकरों का झुण्ड आ गया था... ये शायद आसपास के दुकानदार लड़के थे जो टाईमपास करने की गरज से आए थे. वे चुप न थे.

--अबे, तू कहे के लिए आ गया अपनी दुकान छोड़ के?

-- तेरा बाप भौत चिल्लाएगा, बेटा..

--चिल्लाने दे. तेरे बाप का क्या जाता है? तू किसलिए आया इधर?

---देख, देख साले को. क्या देखने के वास्ते आया तू?

--साला ऐसा देख रहा है जैसे जिन्दगी में पैले कभी देखाइच नई!

वे हँसने लगे. आस-पास खड़े लोग भी.

लड़के बहुत तेजी से अश्लील हो रहे थे.

लोहा पीटती वे औरतें इससे बिलकुल बेखबर.

अब एक लोहे को तीन जन पीट रहे थे. दो औरत और एक पुरुष—तीनो पास-पास किन्तु अलग-अलग दिशाओं में खड़े हुए. वे गरम लोहे को लगातार पीट रहे थे, एक के बाद एक. थोड़ी ही देर में उनके पीटने में गति आ गयी और एक अद्भुत संतुलन! एक लयबद्ध घन चलाना—टन!टन! टन!टन! तीनों का एक साथ घन चलाना कुछ वैसा ही संतुलन था जैसे कोई करतबबाज एक साथ तीन गेंदों को हवा में उछालता खेल रहा हो.

--‘अबे, कहीं हमको दिया जाए तो हम तो उस दाढीवाले का सर ही फोड़ डालेंगे!’ एक लड़का बोला. और सही बोला.

लोहा पीटने के बाद स्त्रियाँ अपने गृहस्थी के कामों में लग गयीं. और इतनी सहजता से की कोई शायद ही विश्वास करेगा की ये वही स्त्रियाँ हैं जो अभी-अभी लोहा पीट रही थीं. सुस्ती वहाँ कहीं नहीं थी. वे काम करते-करते ही मानो सुस्ता लेती हैं. पास ही ईंटों का एक चूल्हा जल रहा था जिसमें एक देगची चढ़ी थी. एक औरत एल्युमिनियम के परात में आटा सान रही थी और दूसरी चूल्हा देख रही थी. थोड़ी ही दूर पर एक बूढ़ा था, घनी सफेद दाढ़ी-मूछ वाला बूढ़ा, जो तैयार औजारों को रेत-पत्थर से धार दे रहा था. यहाँ की हर चीज अपने कम में लगी हुई व्यस्त थी. उनका कुत्ता तक व्यस्त था—बच्चों के साथ खेलता हुआ.

अँधेरा बढ़ रहा था लेकिन यहाँ आग़ थी. और आग़ की अनूठी महक थी. वही आग़ जिससे हमारी सभ्यता शुरू हुई और हमें अब तक पृथ्वी पर जीवित रखा है.

दाढीवाले आदमी ने भीड़ में खड़े एक लडके लो जब हंसी में अपने पास बुलाया तो बछा जाने क्यों बहुत डर गया और पीछे हट गया. बच्चे ने जरूर इस आदमी को जादूगर समझा होगा, जो आदमी को लोहे में बदल सकता है. आटा सानती औरत हँस पड़ी एकदम खिलखिलाकर. उसकी हँसी खुलकर इस अँधेरे होते समय में चरों और किसी उजाले की तरह फ़ैल गयी. मुझे लगा, यह दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत की सबसे शानदार हँसी है, जिसमें धातुओं की खनक गूँज रही है.

इतने सारे कुपुरुषों से घिरी हुई उस औरत की हँसी में एक गजब का साहस भरा था... बिलकुल लोहे की तरह ठोस. उस हँसी में अपने हर अँधेरे से लड़ने की छुपी हुई अकूत आग़ को मैं देख रहा था और उसकी आँच को महसूस कर रहा था, एकदम साफ-साफ !

ये बंजारे ! इनके घर-द्वार कहाँ हैं ? कौन ‘देस’ है और कौन जिला, जो इस शीत बरसाती ठण्ड में इतने खुले मैदान में डेरा डाले हुए हैं? बहुत इच्छा हुई की उनसे पूँछूं. लेकिन तुरंत अपनी मुर्खता का अहसास हो गया. ये दरअसल किसी जालौर, जैसलमेर अथवा जोधपुर के नहीं, वरन समूची धरती के हैं, और धरती के किसी भी छोर पर, किसी भी मौसम में ये इतने ही बेखौफ रह सकते हैं जितने की इस समय यहाँ. सिर्फ अपनी आग़ के सहारे!

यहाँ से बायीं तरफ कुछ आगे इन्हीं के कुनबे का एक आदमी नीचे बोरा बिछाकर अपनी दुकान सजाये बैठा था. बोर में लोहे की वस्तुएं—जिन्हें ये यहाँ बना रहे थे-रखी थीं—कुल्हाड़ी, बसूला, हथौड़ी, छेनी, पटासी, मटन काटने का छुरा, पेचकस...

उसकी दुकान में एक भी ग्राहक नहीं था. उसकी लोहे की चीजें मानो अपनी आँखें उठाकर ग्राहकों को देख रही थीं. उन चीजों की आँखों में किसी गाय की आँखों जैसी कातरता और सादगी थी.

कहाँ गए सारे ग्राहक ?

शायद सारे ग्राहक इस समय बिजली की चकाचौंध और रंगीनियों से सराबोर सिविक सेंटर के सुपर मार्केट की खूब सजी दुकानों में होंगे.. फ़ास्ट फ़ूड , कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम, कलर टी. वी., फ्रिज, वाशिंग मशीन, जूते इत्यादि खरीदते हुए; किसी अदृश्य अतीव आकर्षण में.... आखिर ग्राहक अपनी जरूरत की ही चीजें तो खरीदेगा, चाहे यह जरूरत कितनी ही झूठी, अवास्तविक और फैशनेबुल हो. जमाना इसी का है. इन फालतू और बेकार की चीजों को कौन खरीदेगा? कुदाल-- इसका कोई क्या करेगा? कुल्हाड़ी—कौन यहाँ जंगली है जिसे लकड़ियाँ कटनी है? सबके घरों में गैस है. बसूला—यहाँ बढ़ई ही कहाँ हैं?और रह गया छुरा, तो इतने सभी नागरिक क्या कसाई बन जायेंगे?

ये कौन से ज़माने की की चीजें बेच रहे हो बाबा? और किसलिए?

एक समय था, बचपन में तकरीबन ये साडी चीजें हमारे घर में हुआ करती थीं, अपने निश्चित स्थानों में, जिनसे पिताजी या दादाजी अक्सर काम लिया करते थे. मानलो बाबूजी अपनी साईकिल सुधार रहें हों और हम इस दौरान उन पाना-पेंचिस से खेला करते थे, झूठ-मूठ का यों ही, उनके काम की नक़ल करते. गाहे-बगाहे इन्हें पड़ोसी भी मांगकर ले जाया करते थे. हर घर में तब इनकी जरूरत हुआ करती थी. अब पता नहीं कहाँ चली गयीं ये चीजें. पुराना होते, जंग लगते देखकर या फालतू पड़ा देखकर मैं ने ही कभी किसी कबाड़ी को बेच दी हों... शायद हाँ... शायद नहीं... मैं अपनी ही विस्मृति पर झुंझला पडा. चीजों का इस तरह खोते चले जाना... लगता है हम अपनी ही चीजों को भूलते जा रहे हैं, और कितनी आसानी से!...

अचानक मुझे अपने बचपन का वह लोहार याक आया... कर्री आँख वाला उसका बेटा... हंसमुख पत्नी, छोटी सी झोपडी... क्या वे अब भी मेरे पुराने शहर में है?जीवित? लेकिन फिर तुरंत याद आया की जहां वह लोहार, और उसी के जैसे छोटे-मोटे मिस्त्री.. मोची, बढ़ई, साईकिल मेकेनिक वगैरह की गुमटियां थीं , वहां पर तो अब एक शानदार तिमंजिला कॉम्प्लेक्स है. और उसी की निचले फ्लोर वाली एक जगमगाती दुकान से मैंने अपने लिए जूता ख़रीदा था.. बहुत महंगा! और जूता खरीदते हुए मुझे सहसा याद आया था , की अरे, यह दुकान तो ठीक उसी जगह है जहां लोहार की झोपडी थी जो दिन-रात भठ्ठी के ताप से झुलसती रहती थी और विडंबना देखिए की मैं कीमती जूते पहनकर उस दुकान की चिकनी-चमचमाती फर्श को ठक-ठका रहा था-- ट्रायल लेते हुए, इस बात को बिलकूल ही भूला हुआ कि इसके ठीक निचे आग़ है, गरमी है, पसीना है, और है लोहे पर घन का मजबूत और अनवरत प्रहार... टन्न! टन्न! टन्न! टन्न!

और मैं सोचने लगा, कि यह बात दुकानदार को बतायी जाए—कि आपकी दुकान के नीचे आग़ है—तो कैसा रहे? ‘ अरे छोड़िये साहब.. ’ ऊपरी तौर पर भले ही वह हँस कर टाल जाएगा, लेकिन सचमुच में वह डर जाएगा. डर जाएगा की आग़ सचमुच में अभी भी न दहक रही हो! और वह आग़ मिटने की गरज से शनिवार को चौखट में और अधिक नीबू-मिर्च लगाने लगेगा, मंदिर या गुरूद्वारे में अपनी श्रध्दा दान के साथ बढ़ता जाएगा.

... उस बूढ़े की ग्राहकहीन दुकान देखते हुए अचानक मुझे अपने दादाजी की एक ख़ास बात याद आ गयी... कि वे जब-तब कुछ भी अंट-शंट सामान खरीद लाते थे, भले ही घर न]में उसकी कोई जरुरत न हो. इसी सनक के चलते वे कभी तोता ले आते थे तो कभी साँकल. एक बार तो उन्होंने हद क्र दी. जाने कहाँ से धान कूटने का मूसल उठा लाये! अब भला शहर में मूसल का क्या काम? पूछने पर हमेशा की तरह बोले, ऊंह, पड़े रहन दो. घर में पड़ा रहेगा तो एक दिन कुछ काम ही आएगा...

... कुछ सोचते हुए मैं बोरे वाली दुकान की तरफ बढ़ गया.

“ ये क्या उठा लाये? “ पत्नी बहुत हैरानी से उस कुल्हाड़ी को देख रही थी जो मैं खरीद लाया था. आपको अचानक ये क्या सूझ गया? कुछ भी अनाप-शनाप खर्च करते हो? भला घर में इसकी क्या जरुरत? किसने कहा था आपको ये खरीदने के लिए?”

मैंने कहा, ””दादाजी ने!”

तो वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं उसके पति के भेस में कोई दूसरा होऊँ !

***

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