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उसकी वापसी

उसकी वापसी

कैलाश बनवासी

मैं यहाँ नहीं रहना चाहती! बिलकुल भी नहीं रहना चाहती!ये जगह बिल्कुल भी अच्छी नहीं है!पिछले तीन दिन से, जब से मुझे होश आया है, मम्मी से बस यही जिद करती हूँ कि मुझको यहाँ से ले चलो...ले चलो...। पर मम्मी है जो सुनती ही नहीं। बोलती है-हाँ बेटा, बस। कल हम लोग चले जाएंगे। रोज बोलती है कि हम कल चले जाएंगे करके।

बोलते-बोलते अक्सर मम्मी की आँखों में आँसू आ जाते हैं। मैं जानती हूँ, वो मेरे लिए रोती है...मैं बीमार जो हूँ। मैं मम्मी को नहीं रूलाना चाहती। मैं कोई गंदी बच्ची थोड़ी हूँ! मैं तो अपने मम्मी-पापा की अच्छी बेटी हूँ! मम्मी ने मेरे को यह सिखा के रखा है-अपनी मम्मी की सबसे प्यारी बेटी! सबसे अच्छी बेटी!

पर जाने वाला कल नहीं आता। मैं तो अभी ठीक से चल भी नहीं पाती। नहीं तो तुरंत भाग जाती। मेरे पूरे बॉडी में कैसे-कैसे तो बेंडेज लपेट के रखे हैं! मेरे तो अभी हाथ-पैर भी ठीक से नहीं हिलते, नहीं तो सचमुच भाग जाती। आपने मुझको देखा नहीं है न पहले, इसीलिए। पहले देखे होते तो ऐसी बात थोड़ी करते। स्कूल की स्पोर्ट टीचर हमेशा मेरा उदाहरण देती हैं। यहाँ तक कि मेरे क्लास टीचर को भी बताती हैं तो वो हँसती हैं-अरे, आशी...वो तो भइया क्लास में सबसे उधमबाज!कितने मुश्किल से तो इसको हम संभालते हैं। वो सही बोलती हंै। मम्मी भी जब पैरेंट्स मीटिंग में आती है तो मेरी शैतानी के किस्से उसे सुनाती हैं । मम्मी उनके सामने मुझे डाँटती है-बेटा नई..स्कूल में ज्यादा मस्ती नई करते...आगे से नई करना...। पर मैं भी किसी की कहाँ मानती हूँ। स्कूल हो या घर, खेलेंगे नहीं तो हम बच्चे भला और क्या करेंगे? फिर सारे पोएम याद है। एबीसीडी..एक्स वाइ जेड...सब तो याद है! होमवर्क भी डेली के डेली कर लेती हूँ। मम्मी कराती है। मुझे तो स्कूल में कब्भी भी पढ़ाई के लिए सजा नहीं मिली। फट् से बता देती हूँ जो पूछती हूँ। ये मन्की...ये एप्पल..ये फ्लावर..ये रोज..ये पिकॉक...सब याद है...। खुश होकर मम्मी मेरे गाल से गाल सटाती है, मेरे घुंघराले बाल -जो उनको बहुत पसंद है-को समेटकर कहती है-मेरी होशियार बच्ची! और पापा को भी बताती है-अरे, इसको सब आता है...सब!पापा मुस्कुराते हैं। खुश होते हैं। पापा कभी-कभी घुमाने ले जाते हैं पार्क या मार्केट..। पर सच कहूँ, न जाने क्यों मुझे लगता है, पापा न मम्मी जैसे प्यार मुझको नहीं करते। पर मम्मी तो मेरे बिना रह नहीं पाती। मैं भी नहीं रह पाती। इसीलिए तो मम्मी से जिद करती हूँ...मुझको घर ले चलो...।

यहाँ अकेले पड़े-पड़े सब मुझे कितना याद आते हैं- अपना घर..स्कूल...मेरी फ्रेंड्स...टीचर..।

यहाँ कैसा तो अजीब-सा लगता रहता है। सब दरवाजे-खिड़की बंद! हरदम। ये एक काफी बड़ा हाल है जिसमें लाइन से बेड लगे हुए हैं। यहाँ सब बच्चे ही हैं, कोई छोटे, कोई बड़े। कोई लड़का कोई लड़की। और सबके बॉडी पर ऐसे ही पट्टी बंधे हुए। किसी- किसी का तो पूरा चेहर जला हुआ...देखके मुझको बहुत डर लगता है...डरावनी पिक्चर में देखते हैं न, वैसे ही। ये तो अच्छा हुआ कि गरम पानी मेरे मुँह पे नहीं गिरा...नहीं तो मैं भी कुछ ऐसी ही दिखती। मम्मी पापा भी बोलते हैं कि अच्छा हुआ चेहरे पे नहीं गिरा...नहीं तो...। हाँ, मैं जानती हूँ। मेरे चेहरे पे गिरा होता तो मैं कितनी भद्दी दिखती। फिर मेरा ब्याह थोड़ी होता! मुझे सब पता है, सुंदर लड़की का ही ब्याह होता है, भद्दी लड़कियों का नहीं। मेरी क्लास की सोनाक्षी है न, उसकी बुआ एकदम दुबली-पतली और छोटी-सी है, और चेहरा भी संुदर नहीं है इसीलिए उसकी शादी नहीं हो सकी। सोनाक्षी ने एक बार बताया था। पर वो बुआ कितनी अच्छी है! हमेशा हंस-बोल के बात करती है।

मेरे बगलवाली बेड पर एक दीदी है...आठ साल की। वो परसों आई है। पता है, उसके पापा ने न गुस्से में इसकी मम्मी को और इसको जला दिया! इसकी मम्मी बेचारी तो उसी दिन मर गई। आज इसको पूछने के लिए एक पुलिस वाली आंटी आई थी। डाॅक्टर के साथ। उनके साथ एक और भी आदमी था जो लिखने का काम कर रहा था। मेरी तो कुछ समझी में नइ आ रहा था। पुलिस को देख के मेरे को भी थोड़ा-थोड़ा डर लग रहा था। ये दीदी तो मारे डर के कुछ बता ही नहीं पा रही थी। एकदम फटी-फटी आँखों से इनको देख रही थी। जैसे वो समझ ही नहीं पा रही हो कि ये सब क्या हो रहा है। पुलिसवाली आंटी बार-बार कह रही थी, डरो मत बेटा..यहाँ तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा...। वो आंटी हँस के पूछ रही थी तब भी ये बोल नहीं पा रही थी। जाने क्यों वो बार-बार दरवाजे की तरफ देखने लगती थी...जैसे वहाँ कोई है...छुपा हुआ...बहुत डरावना!...कोई सींगवाला राक्षस! जो इसके बताते ही भड़ाम से दरवाजा तोड़कर यहाँ आ जाएगा और इसका गला दबा देगा! डर के मारे वो बोल ही नहीं पाती थी। गले से बस अजीब डरावनी आवाज निकल रही थी। जब आंटी ने इससे बार-बार पूछा, बेटी तुमको किसने जलाया...तुम्हारी मम्मी को किसने जलाया...तो इतना बस बोली-पापा। और वो एकदम रोने लगी...माँऽऽऽऽओ माँऽऽऽऽऽओ..माँ.ऽऽऽ..।

मेरे को लगा ये झूठ बोल रही है। भला पापा क्यों जलाएंगे मम्मी को? मम्मी तो सबको खाना बना के देती है, घर की साफ-सफाई करती है, हमको स्कूल के लिए तैयार करती है...हमको टिफिन देती है...। ऐसी मम्मी को भला पापा क्यों जलाएंगे ?झूठ बोलती है ये लड़की। जरूर इसने कोई गलती की होगी, इसके पापा गुस्सा हो गए होंगे तो अपना बचने के लिए झूठ बोल रही है ये।

पर ये झूठ क्यों बोलेगी भला?ये दीदी तो बेचारी खुद रो रही है। यहाँ तो इसे कोई डाँट नहीं रहा। फिर क्यों ये इतना डरी हुई है? अब क्या पता? इसके बारे में मम्मी से पूछना पड़ेगा ।

पर मैं तो अब बोल ले रही हूँ। मेरे से कोई पूछे तो मैं फट्-फट् जवाब दूँगी। मेरे को तो सब अच्छे से याद है। मैं स्कूल से लौटी ही थी। तीन बजा रहा होगा। मेरे को जोर से भूख लगी थी। घर में मम्मी भर थीं। दादा-दादी तो कल से बाहर कहीं घूमने गए हैं...कहाँ ? हाँ, याद आया...शिरडी! शिरडी गए हैं। सांई बाबा के पास। पापा अपनी दुकान में थे। मालूम है काहे की दुकान है ? नल के पाइप-वाइप की दुकान हैं। पापा बहुत बिजी रहते हैं। रात को आते हैं। मैं तो तब तक सो चुकी होती हूँ। कब्भी-कब्भी ही ऐसा हुआ है कि पापा आए और मैं जग रही हूँ। तो उस दिन मेरे को बहुत जोर से भूख लगी थी। मैं मम्मी को बता रही थी-आज न मम्मी स्पेशल डे था। पता है, सबकी मम्मी ने आज एक ही डिश बनाके भेजा था-ढोकला! आपने क्यों नहीं दिया ? मम्मी बोली‘, अरे, मैं भूल गई थी आशी। बाद में मेरे को याद आया। रूक, मैं तेरे लिए अभी बना देती हूँ। ’ और मम्मी किचन में चली गई थी। मैं सोफे में ही टैडी बियर से खेलने लगी थी। आपको मालूम है, वो मेरे से बात करता है! हाँ मेरी सब बात सुनता है, मेरी हर बात मानता है। मेरे साथ वो खेलता भी है! हम दोनों न मिलके खूबिच मस्ती करते हैं। मैं अकेली हूँ न। मेरा कोई भाई नहीं है। मेरी दादी हमेशा बोलती है-‘रे आशी, तेरा एक भाई भी होना चाहिए। तू अपनी मम्मी को बोलाकर मेरे को एक ठो भइया चाहिये। ’ मैं बोलती थी तो शुरू-शुरू में मम्मी हँस देती थी। मेरी दादी फिर बार-बार बोलती थी और मुझसे पूछती थी, ‘तू बोली अपनी मम्मी को ?’ पर बाद में मेरे कहने पर मम्मी जाने क्यों एकदम चुप हो जाने लगी। मैं मम्मी को देखती थी, वो ये बात सुनके जाने कहाँ खो जाती थी...बोलती नहीं थी कुछ भी। वो परेशान हो जाती थी सुनके। मानो मैंने ऐसा कुछ बोल दिया जो मुझको नहीं बोलना चाहएि। हाँ, एक बार तो गुस्से में आ गई, ‘‘ क्या भाई-भाई करे जा रही है तू ? जो बोल रहे हैं जा के उन्हीं को बोल! वही लोग लाके देंगे कहीं से तेरे को तेरा भाई! मेरे से इसके बारे में मत बोला कर। समझी!’’ मालूम नहीं, क्या हो जाता है सुनकर। एक बार तो वो रोने लगी थी। तब से मैंने जान लिया, मेरे को मम्मी से ये बात नहीं बोलना है। भले ही दादी कितना ही बोले। भले ही मेरे से गुस्सा हो जाए। मेरे लिए तो ये अपना टैडी बियर ही अच्छा। मालूम नही, ं क्यों दादी मम्मी के पीछे पड़ी रहती है-एक लड़का होना चाहिये घर में। ये सब आखिर कौन संभालेगा? लड़की तो ब्याह के बाद दूसरे घर चली जाएगी। हमारे कुल का क्या होगा? दादी इस समय बहुत कड़क दिखती है-ठीक हमारे स्कूल के प्रिंसिपल के समान! चेहरा गुस्से से काला हो जाता है, और बोलने में कैसा तो कड़कपन...जैसे बात नहीं कर रही हो, किसी को पत्थर फेंक के मार रही हो! मैं देखती हूँ, और मन ही मन जानती हूँ..दादी कभी भी मम्मी को पसंद नहीं करती। कब्भी भी नहीं। वो बेचारी तो उसका आगे-आगे से हर काम करने की कोशिश करती है...टाइम पर चाय, टाइम पर नाश्ता, खाना ...फिर कभी-कभी रात को उनके पैर दबाना। तब भी न दादी हमेशा पापा से मम्मी की शिकायत करती रहती है-‘अर, े बता दे जा के अपनी बीवी को...मेरे से बगैर पूछे क्या बनेगा, इसका फैसला मत किया करे! अरे, अभी मैं जिंदा हूँ! ये तो मेरी एक बात नहीं सुनती! बहुत चढ़-बढ़ गई ये!आखिर जैसे घर से आई है उसके गुन तो वही रहेंगे!’ सुन के पापा एकदम गुस्सा हो जाते हैं, मम्मी को जोर-जोर से डांटने लगते हैं बहुत गुस्से से...‘तू आखिर करती क्या हैदिन भर? मेरे माँ-बाप का ध्यान नहीं रख सकती?’

कभी-कभी मम्मी भी गुस्से से दादी से लड़ पड़ती हैं-जो बोलना है मेरे को बोलो!मेरे माँ-बाप को कुछ मत बोलो!’ फिर दादी और चिढ़ जाती है-‘क्यों नहीं बोलूँ ? अरे हमारा अहसान मानो जो तुम्हें अपने घर की बहू बना के लाए हैं!वरना तुम्हारे बाप की हैसियत ही क्या है!रोड मे फल का ठेला लगाने वाला अपनी बेटी को दे ही क्या सकता था? जाने क्या जादू किया तुम लोगों ने मेरे इकलौते बेटे पर कि तुमको देखके हाँ बोल दिया। वरना इसके लिए एक से बढ़ के एक रिश्ते आ रहे थे। तू अभी-भी किसी घमंड में मत रहना हाँ, जिस दिन हम लोगों का मन करेगा, फैसला कर देंगे...।

उफ्फ! ये दादी की बात आते ही न सब कुछ का कुछ होने लगता है! मेरे ऊपर भी हमेशा गुस्सा करती रहती है। मुँह में पान भरे, दिन भर सोफे में बैठी-बैठी हमेशा डांटते रहती है-ये मत कर लड़की..वो मत कर लड़की! बार-बार न मेरे को लड़की बोलती रहती है। मेरी फ्रेंड के दादी लोग ऐसा नहीं बोलते। मैंने रूचि से पूछा है। तो यही दादी क्यों ऐसा बोलते रहती है भला? हमेशा कहती हैं ‘तेरे को न लड़की नहीं, लड़का होना था। भगवान ने गलती कर दी। ’

मेरे को दादी की बात समझ नहीं आती। पर मैं कुछ नहीं कर सकती। अभी बहुत छोटी हूँ न।

तो मम्मी मेरे लिए किचन में ढोकला बना रही थी। उसी समय पापा का फोन आया। पापा ने मम्मी को कुछ कागज खोज के रखने के लिए कहा कि मेरे को वो कागज ले के सरकारी आॅफिस जाना है काम से। मम्मी कागज खोजने में लग गयी। कागज अलमारी में खोजने के बाद किचन में गयी । तब तक मेरे को भी भूख एकदम जोर की लग गयी थी। मैं दौड़ी-दौड़ी मम्मी के पास चली आई-हो गया मम्मी...? और जाके मम्मी से लिपट गयी। मेरे हाथ में उनके साड़ी का पल्लू फंसा था और मैं उचक के गैस चूल्हे पर चढ़े बर्तन को देख रही थी। साड़ी मेरे हाथ में फंसने के कारण मम्मी घूम गयी और उनके घूमने से मेरा हाथ बर्तन के हैंडल पर पड़ गया अचानक...और बर्तन का गरम पानी पूरा मेरे ऊपर आ गिरा। एक पल को तो मेरे को समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ...पर दूसरे ही पल तेज जलन से मैं एकदम जोर से चीखने-चिल्लाने लगी यहाँ-वहाँ दौड़ने लगी। मुझे ऐसे तेजी से चीखता चिल्लाता देख मम्मी भी जोर-जोर से चीखने लगी ...। इसके बाद क्या हुआ मेरे को अच्छे से नहीं मालूम...बस इतना याद है मम्मी ने मेरी जलन ठंडी हो जाए सोचकर तुरंत ठंडा पानी मेरे ऊपर डाल दिया था...खूब सारा! मैं तब भी भयंकर चिल्ला रही थी । मम्मी का चिल्लाना सुनके पड़ोस की आंटी भी आ गई...। इसके बाद क्या हुआ मेरे को नहीं मालूम...। होश आया तो खुद को यहाँ पाया।

नाना और नानी तो मुझे देखने रोज ही आते हैं । पहले दिन से ही। मेरी पिंकी मौसी भी। आते हैं तो कुछ नकुछ लेके आते हैं...बिस्किट, टाफी, चाकलेट...। नाना आते ही पूछते हैं-‘और कैसी तबीयत है बेटा?’ मैं बताती हूँ अब अच्छी हूँ नाना। देखो, अब मैं तो चलने लगी हूँ! तो नाना अपनी सफेद झबरीली मूँछों सहित खुश होकर हँसते हैं। नाना-नानी मुझको बहुत चाहते हैं। जब भी मम्मी के साथ इनके घर डोंगरगढ़ जाती हूँ तो कितना प्यार-दुलार करते हैं। और पिंकी मौसी तो मुझे पल भर को भी नहीं छोड़ती!उंगली पकड़ के पूरे मुहल्ले भर घुमाती रहती है, जाने किसके-किसके घर। साइकिल में बिठा के अपनी फ्रेंड्स के घर भी ले जाती है...कभी चाकलेट...कभी आइसक्रीम...। नाना का घर बहुत छोटा है। खपरैल वाला...मट्टी का बना...मुश्किल से दो कमरा है और किचन। और लेट्-बाथ। फिर भी मेरे को इनके घर अच्छा लगता है। दादी पता नहीं क्यों हर समय इनसे चिढ़ी रहती है, जैसे इन लोगों ने उसका कोई बड़ा नुकसान कर दिया हो!

...दादा-दादी आज आज आएंगे, ऐसा बता रही है मम्मी। कल वे लोग चले हैं तो आज पहुंच जाएंगे।

ये बहुत बड़ा हास्प्टिल है। और महंगा भी होगा। चार बार तो पोंछावाली आंटी पोंछा कर जाती है, फिर दिनभर डॉक्टर, नर्स, कम्पाउंडर के चक्कर...। कभी मलहम, कभी इंजेक्शन, कभी दवाई तो कभी पट्टी..। यहाँ पड़े-पड़े बहुत अजीब लगता है। आस-पास के बेड वालों से बात करके मन बहला लेती हूँ। वैसे इस हाल में खेलने का भी सामान है-बाॅल है, लकड़ीवाला घोड़ा है, फर्श पर भागने वाला हैलीकाप्टर है। हैलिकॉप्टर मैं तो अब इनसे थोड़ा-थोड़ा खेलने लगी हूँ। डॉक्टर अंकल बोलते हैं, खेला कर। जितना ज्यादा खेलेगी उतना जल्दी अच्छी होगी। कल बोले, ‘आशी, तू क्यों घर जाने की जिद करती है? तेरी मम्मी बता रही थी। आज पांच ही दिन हुए हैं...अभी दस दिन और रहना पड़ेगा तुमको। तू समझले तेरे को अभी से विंटर वेकेशन लगी है...स्पेशल वेकेशन!स्कूल की चिंता मत कर, वहाँ तुमको कोई कुछ नहीं कहेगा। ’ मेरा तो मन बैठ गया-दस दिन!बाप रे! यहाँ तो एक-एक दिन इतना भारी है!कैसा तो अजीब सन्नाटा रहता है। कोई आवाज नई। सिरिफ पंखे के चलने की..घर्र..घर्र..घर्र..। और नाक में हरदम दवाइयों की बदबू...अजीब-सी...नाम लेते ही मतली आती है। पर क्या करूँ ?

लो, मेरे दादा दादी आ गए!

मेरी बेटी...मेरा बच्चा!दादा ने मुझको गले-से लगा लिया है। दादी भी पास बैठी मेरे। पहले तो मैं दादी को पहचानी ही नहीं। क्योंकि यहाँ जो भी आता है हरे रंग का एप्रन डाल के आता है। दादी को देखा तो वो बिल्कुल अजीब लग रही थी-एकदम कार्टून फिल्म की कोई चुड़ैल बुढ़िया टाइप! मेरे को तो उनको देखके बहुत हँसी आ रही थी। पर दादी को देखो, तो उनका चेहरा आज भी कैसा कठोर...। दादा पूछने लगे-‘क्या कर रही थी तू..? ऐसा कैसे हो गया ?’तो मैं उनको बताने लगी। वैसे मेरे से पहले मम्मी-पापा ने तो इनको सब बता दिया होगा,, फिर मेरे से क्यों पूछ रहे हैं?इनको मम्मी-पापा के कहे पर विश्वास नहीं है क्या?

मैं बता ही रही थी कि दादी फटाक से बोलती है, ‘‘अजी इससे क्या पूछते हो? ये तो बच्ची है। हम एक-दो रोज के लिए बाहर क्या गए...घर में इतना बड़ा कांड हो गया!सारी गलती इसके माँ की है! एक बच्ची है उसका भी तो ध्यान नहीं रख सकती! उसी की गलती के कारण ये सब हुआ है! वो तो है ही ऐसी!’’

मैंने बताने की कोशिश की, ‘अरे नइ दादी, वो तो मेरे हाथ से बर्तन गिर गया था...। ’

पर दादी कुछ सुनने को तैयार नहीं। बोली, ‘‘ये तो कहो भगवान ने चेहरे को बचा लिया!नहीं तो पता नहीं इस लड़की का क्या होता? सच बात ये है कि इसकी मम्मी की ही गलती है! जहाँ पानी गरम हो रहा है वहाँ बच्चे को भला कोई क्यों जाने देगा ? उसी की गलती के कारण बैठे-बिठाए घर पर इतनी बड़ी मुसीबत आ गई! इतना खरचा बैठ गया!’’ जब दोनों निकले तो मुझको अजीब लगने लगा, क्यों आ गए ये दोनों?जरूर मम्मी को भला-बुरा कहेंगी। दादी तो वैसे भी मम्मी से बात-बात पर चिढ़ती रहती है।

बाद में जब मम्मी आयी तो उनका चेहरा बिल्कुल उतरा हुआ था...जैसे किसी ने डांट लगाई हो। शायद थोड़ी देर पहले रोयी भी थी। हमेशा हँसने वाली मम्मी आज ठीक से बात नहीं कर पा रही थी...कुछ बात थी जो उनको खाये जा रही थी...भीतर ही भीतर..।

बाहर क्या बात हुई, मैं ये तो नहीं सुन सकी हूँ, पर लगता है, मम्मी को सभी ने इसीलिए बहुत डांटा है कि वो मेरा ध्यान नहीं रख पाती..एक छोटी बच्ची का। दादी को लगता है मम्मी ने जानबूझकर किया है...और दादी की बातों में आकर पापा भी यही समझने लगे है, अब वो भी मम्मी को डांटने लगे हैं...। शायद तब मम्मी भी बोली होगी , मैं अपने बच्चे के लिए ऐसा क्यों करूंगी? आप लोग ऐसा सोच भी कैसे सकते हो? इसको साल भर पहले जब डबल निमोनिया हुआ था तब कौन ध्यान रखता था ?...मैं ही तो थी जो दिन-रात लगी रहती थी। वो सब कुछ आपको दिखाई नहीं देता ?

...ये सब मैं सुन रही हूँ...चार-चार दरवाजे के पीछे से...कुछ नहीं सुनाई देने के बावजूद। जाने कैसे, पापा भी हमेशा दादी की बातों में आ जाते हैं, अभी तक सब ठीक चल रहा था, लेकिन दादा-दादी के आते ही पापा का रवैया भी मम्मी के लिए बदल गया है...मैं समझ नहीं पा रही हूँ, क्यों...?

इतना पक्का है कि मुझको लेकर घरवालों में कोई टेंशन चल रही है। मम्मी बुझी-बुझी-सी रहने लगी है, पापा का मुँह जाने किस बात पर सूजा रहता है...मूड उखड़ा-उखड़ा..। .क्या है यह साफ-साफ मुझे भी नहीं पता। पर है। शायद इस महंगे हॉस्पिटल के इलाज के खरचे को लेकर। जब से दादी आयी है तब से टेंशन है। आज यहाँ नौंवा दिन है। डॉक्टर्स कह रहे हैं, यहाँ इसे अभी चार-पाँच दिन और रहने दीजिए। अभी इस स्टेज में हम पेशेंट को ले जाने की इजाजत नहीं दे सकते। डाॅक्टर्स अपनी राय पर कायम है। पापा तय नहीं कर पा रहे हैं, जबकि मम्मी चाह रही है कि नहीं, अभी रहने देते हैं, जब डॉक्टर्स खुद ही कह रहे हैं कि तब पेंशेंट के साथ कुछ भी होगा, वो हमारी जवाबदारी नहीं होगी...। पापा चिंता में हैं। लेकिन उनके सामने अपना बजट भी है। शायद अस्सी हजार अब तक खर्च हो चुके हैं...वो आगे और खर्च नहीं करना चाहते...।

या शायद दादी का उन पर कोई दबाव है कि कोई जरूरत नहीं लड़की पर इस तरह...।

आज दसवें दिन आखिरकार पापा ने मम्मी से अपनी बात मनवा ली है। मम्मी को राजी होना पड़ा है। हॉस्पिटल के एक पेपर पर दोनों ने साइन करके दे दिया है..कि मरीज को हम अपनी जिम्मेदारी पर ले के जा रहे हैं...।

शाम को अस्पताल से डिस्चार्ज हुई।

मैं इतने दिनों बाद बाहर की दुनिया में आयी हूँ...खुली हवा में...। तो सब कुछ मुझे एकदम नया-नया-सा लग रहा है...मानो ये सब मैं पहलीबार देख रही हूँ-लोग...दुकानें...सड़क...पेड़...नीला आसमान...सब! खूब अच्छा लग रहा है कि हम घर जा रहे हैं। पापा ने एक शॉप से मेरी पसंद की चाकलेट खरीदी है। मैं बहुत खुश हूँ। पापा कार चला रहे हैं। पिछले साल दीवाली में खरीदे थे। मम्मी के साथ मैं पीछे की सीट पर। पापा थोड़े अनमने-से हैं, लेकिन खुश रहने की कोशिश कर रहे हैं। पर मम्मी बिल्कुल चुप है। एक तनाव...और अजीब-सी हताशा है उनके चेहरे पर...मानो बहुत लड़ने के बाद भी अपनी लड़ाई हार गयी हों । वो कुछ घबराई, कुछ खोई-खोई सी है। कार के शीशे थोड़े उठे हुए हैं जिनके पार से ठंडी हवा आ रही है, मेरे घुंघराले बाल उड़ रहे हैं। मम्मी मुझे अपने से सटाए उन्हें संवार रही है...। जाने क्यों, मुझे वो रह-रहकर चूम लेती है, अपनी बांहों में समेट लेती है...कुछ ऐसे जैसे अगर उसने मेरा ध्यान नहीं रक्खा तो मुझको कोई उनसे छीन के ले जाएगा...।

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कैलाश बनवासी, 41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.)

मो. 9827993920

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