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उमस

उमस

कैलाश बनवासी

तांगेवाले ने घोड़े की लगाम खींच दी।तांगा रूक गया।जाने किस हड़बड़ी में पहले माँ नीचे उतरी।सूटकेस भी माँ ने संभाल लिया।तांगेवाले की ओर बढ़कर पूछा—कित्ता पैसा हुआ?

—दो रूपये।तांगेवाला इत्मीनान से बीड़ी पी रहा था।

मैंने रोकना चाहा माँ को—रहने दो माँ..।

—तू चुप रह। माँ ने मुझे मीठी झिड़की दी।मैं बरबस मुस्कुरा पड़ी।ग्वालियर में ऑटो का भाड़ा देते वक्त भी माँ ने यही जिद की थी।माँ ए ेसी छोटी—छोटी बातों के लिए लड़ने की हद तक जिद्दी है।

उस चौरस्ते से माँ ए क गली की तरफ बढ़ी। मैं भी उस संकरी गली में उनके पीछे—पीछे चलने लगी।यह शहर मेरे लिए अनदेखा है।जिस गली से गुजर रहे थे बहुत घनी थी।घर—झुग्गी छोटे—छोटे और सटे हुए ।लगा,मजदूरों की बस्ती है।गली में मैले—कुचैले दुबले बच्चे खेल रहे थे।ए क बच्चा बपने खेल की धुन में दौड़ते—दौड़ते माँ से टकरा गया। मां चिल्ला पड़ी—अंधा है रे ?!

बच्चे का ध्यान मां के गुस्से पर कतई नहीं गया। वह बिलौटा छोकरा वैसे ही हँसता भग गया।

जगह—जगह नालियां फूटी थीं, जिसकी बदबू नाक में जमती जा रही थी। माँ कह रही थी,क्या बताऊँ रीतू, जल्दी—जल्दी में कोई दूसरा बढ़िया मकान नहीं मिला। इसलिए सोचा चलो जैसा भी है अच्छा है।अभी तुम्हारे बाबूजी को नया क्वार्टर मिलने वाला है। हमारी पड़ोसन बता रही थी उसमें दरवाजा खिड़की भी लग गया है। कुछ ही दिनों की बात है।यह मकान भी भला कोई मकान है!

मैं सुन रही थी।जैसे—जैसे आगे बढ़ रही थी,ए क अनजाना डर मुझे दबोचने लगा था।जाने किस अपराधबोध से मैं अपनेआप सिकुड़ती जा रही थी।

मैं शादी के दो साल के बाद अपने घर आ रही थी—मायके।

‘‘पता नहीं,क्या रखा हेता है यहाँ? शादीशुदा स्त्रियों का सबसे पहला आकर्षण् ा होता है मायके।किसी शादीशुदा महिला को खुश करना हो तो झट से उसके मायके की तारीफ कर दो। उनको तो अपने मायके का जैसे कुत्ता भी उतना ही प्यारा होता है जितने दूसरे लोग...।वाह जवाब नहीं तुम लोगों का!''यागेश हमें छोड़ने स्टेशन आया था और बावजूद प्लेटफार्म की गहमागहमी और शोर—शराबे के मुझे चिढ़ा रहा था।

‘‘देखो जल्दी आना...।''

‘‘क्यों मिस्टर? पहलीबार जा रही हूँ मायके।महीने भर जरा ठसन से रहूँगी।''मैं हँस पड़ी थी।

—ठीक है।अरे तो मुझे कौन सा तुम्हारे विरह में दाढ़ी—शाढ़ी बढ़ा के गाना वाना गाना है।अच्छा है,कुछ दिनों के लिए हम फिर कुँआरे हो जाए ंगे...।

—अच्छा अब मजाक छोड़ो।

— लो छोड़ दिया!

— ओफ्फो! तुम सुधरोगे नहीं!

—अच्छा भई।वह मेरा हाथ सहलाने लगा था, पत्र में लिखना...कैसा है सब कुछ।किसी बात को लेकर बेकार में नर्वस मत होना...।ठीक है?

मैं कुछ खोयी—खोयी सी मुस्कुरा दी थी,हाँ...।

ट्रेन ने लम्बी सीटी दी थी फिर धीरे—धीरे सरकने लगी थी...।

मँ हमारी शादी के दो साल बाद यहाँ आयी थीं।यह कहते हुए ,कि भला माँ—बाप भी अपने बच्चों से नाराज होते हैं कहीं? जबकि इस बीच मेरे कई पत्र या कहूँ माफीनामा,भेजने के बाद भी उधर से कोई जवाब नहीं आया था।मैं जवाब के आने का बेसब्री से इंतजार करती थी।हम दोनों अपने—अपने घरवालों और तमाम रिश्तेदारों से पिछले दो सालों से जैसे बहिष्कृत हैं। और दो साल के बाद कोई हमारे घर आया था। हमें कितनी खुशी हुई थी! इस खुशी को मैं बयान नहीं कर सकती! यह खुशी कि चलो अंततः किसी ने हमें अपना समझा!यहाँ हम दोनों अपने तौर पर चाहे कितने खुश हों,अपनें की याद,उनकी दूरी हमें तमाम कोशिशों के बाद भी किसी पक रहे फोड़े की टीस से तिलमिला देती थी,जब तब।

मँ मुझे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाना चाहती थीं। योगेश को कोई आपत्ति नहीं थी।बल्कि ए क खुशाी थी ए क नयी शुरूआत होने की...टूटा हुआ कुछ जुड़ने कीकृ।

और मेरे भीतर उमंगों और खुशियों का आसमान फैल गया गया था।खुशी के पलों में दुनिया कितनी भली लगने लगती है!बहुत प्यारी...जैसे तेज धूप में घना साया मिल गया हो।अपने लोग ज्यादा याद आने लगते हैं।मुझे रह—रहकर घर की याद आ रही थी जहाँ मेरी जिंदगी के बाइस साल बीते थे। अपनों के बीच की वह दुनिया और खूबसूरत होकर मेरी आँखों में उतर रही थी। माँ… बाबूजी… भाईकृबहनें...सब कुछ मेरी याददाश्त के ए लबम में तेजी से फड़फड़ाने लगे थे...।

सब कुछ कितनी जल्दी और कैसे बदल जाता है—जादू की तरह। मुझे अभी भी यही लगता है कि सारी दुनिया में बाबूजी सबसे ज्यादा प्यार मुझे ही करते हैं! बचपन से उनके मुँह लगी थी।माँ हमेशा ही बाबूजी को चेताती रहती थीं...देखो,लड़की की जात से इतना लाड—प्यार ठीक नहीं। कल को बिगड़ जाए गी...।

और मैं बिगड़ गयी। सचमुच।

बी.ए स.सी. फाइनल में थी उन दिनों।उस साल हमारे साइंस ग्रुप से ए क नाटक तैयार किया जा रहा था।नाटक में मैं भी थी। योगेश तब बेकार था और ए क डायरेक्टर की हैसियत से उसे कॉलेज में बुलाया गया था।नाटकों में उसकी गहरी रूचि है।इसलिए आता तो काम में ए कदम डूब जाता।घंटो रिहर्सल होता। शायद इसी का नतीजा था ि कवह नाटक बहुत सराहा गया और कॉलेज युनिवर्सिटि की चहारदीवारें फलांगकर ए क बड़ी प्रतियोगिता में पुरस्कृत हुआ। ठनहीं दिनों,हम दोनों का ए क दूसरे के लिए आकर्षण् ा बढ़ता गया था और हम बहुत करीब आ गए थे...।

कुछ महीने बाद उसे आकाशवाण् ाी में उद्‌घोषक की नौकरी मिल गई।अब यह सहज तो हरगिज नहीं था कि हम दोनों शादी कर सकें। मैं जानती थी,लोग चीखेंगे,चिल्लाए ंगे।इज्जत,खानदान,समाज इत्यादि के नाम पर तूफान मचेगा।...लेकिन ये सारी चीजें थीं जिन्हें अपने फैसले से हमें पीछे ही छोड़ना था।हम इस बवंडर से आगे निकल आए थे।

इसीलिए अपने घरों में हमारी चिट्ठियां पढ़ी भी नहीं जाती थी...या पढ़ी भी जाती हों तो हमारे और उनके बीच के फासले कम नहीं हुए थे।

...गली के छोटे दरवाजों और खिड़कियों से कुछेक चेहरे झांकने लगे थे।अस्त—व्यस्त और बदहाल पिचके चेहरेकृ।मुझे खासतौर पर गौर से देखते और माँ से पूछ बैठते—अभी ग्यारा बजे वाली गाड़ी से आई हो गज्जू की माँ?..और मुझे घूरने लग जाते—अपनी अपनी—धारण् ाा और मानसिकता के फ्रेम में कैदकर।

गज्जू,छोटा भाई गली में लड़कों के साथ कंचे खेल रहा था। थोड़ी देर तक वह मुझे हतप्रभ देखता रहा ,फिर खेलना छोड़कर चिल्लाता हुआ घर की तरफ दौड़ा—दीदी आ गयी! दीदी आ गयी!

दरवाजे पर दोनों छोटी बहनें खड़ी मिलीं— आओ दीदी! छोटा सा स्वागत। ए क हलकी मुस्कुराहट उनके चेहरों पर झिलमिला गयी। बारह साल की छोटी बहन मनीषा खुशी से किलक पड़ी थी—तुम ग्वालियर में रहती हो न दीदी! मैंनं उसके गाल और मुलायम बालों को सहलाकर प्यार किया।हँसकर पूछा, कौन—सी क्लास में है?

—सातवीं में जाउंगी इस साल।परसों ही तो रिजल्ट निकला है।मनीषा बताने लगी थी।इन दो सालों में उसका कद भी बढ़ गया था।

क्मरा छोटा था।दो कमरे,ए क रसोई और छोटी—सी परछी वाला मकान।कमरे में अँधेरा—सा था। रोशनी आने की जगह नहीं थी। ए क दरवाजा ही था जिससे हवा और रोशनी आ सकती थी।पूरा कमरा अस्त—व्यस्त और सामानों से अटा पड़ा था—संदूक,बिस्तर ,गद्दे,बर्तनकृ।वहाँ पड़ी खाट पर वर्षा ने चादर बिछा दी —बैठो न दीदी। मैंने इस बीच गौर किया,वर्षा भी कद—काठी में अंजलि के बराबर निकल आयी है...बीस की हो चुकी है।और उसके चेहरे पर अभी—अभी युवा होने की लुनाई आ गई हैकृजबकि अंजली के चेहरे पर कोई उदासी की परत है,जो इस चमक को धंधली कर रही है,चुपचाप...।

उस छोटे से कमरे की हवा थम—सी गयी थी।मुझे उमस धीरे—धीरे बेचैन करने लगी।पसीने से कपड़े जिस्म से चिपक गए थे।

—तू कौन—से इयर में है अंजलि?मैंने पूछा।

—फाइनल में।अंजलि ने संक्षिप्त जवाब दिया। वह गंभीर थी।

मैं चौंक गई,‘‘फाइनल?तेरा तो अब तक फाइनल हो जाना था न?''

‘‘हाँ''।

‘‘तब क्या फेल हो गई थी?''

‘‘उस साल तुम्हारे केस की वजह से बाबूजी ने ट्रांसफर करवा लिया था और...।''वह सहसा चुप हो गई थी।

ए क कील बहुत मजबूती से मेरे भीतर धँस गयी थी जैसे, बहुत गहराई तक।

‘‘इसी कारण् ा तो मैं भी मैट्रिक में फेल हो गयी थी।'' वहाँ खड़ी वर्षा ने इसमें जोड़ा।

म्ुझे मानो काटो तो खून नहीं। मैं कुछ नहीं कह सकी। कुछ भी नहीं। मुझमें उनसे आँखें मिलाकर बात करने की हिम्मत नहीं रही। तीर—सा कुछ धंस गया था।तो मेरे कारण् ा....।मैं यों ही परछी के बाहर देखने लगी...।बाहर धूप इस बीच और तेज हो गई थी और उसकी शीशे—सी चमक आँखों में चुभ रही थी।

मैंने पहली बार ध्यान दिया,उनके चेहरे आकर्षण् ाहीन लगने लगे है।ए क स्थायी गंभीरता वहाँ जड़ जमा चुकी है।मुझे लगा,जैसे महीनों बीत चुके हैं इन्हें खिलाखिलाए । कुछ है जो इन्हें कुतर रहा है धीरे—धीरे किसी चूहे की तरह।

कमरा किसी भट्ठी के समान तप रहा था। मैं पास रखे पंखे से हवा करने लगी। उफ! ये गरमी! ऊपर से कमरे की अस्त—व्यस्तता और बिखरा—बिखरापन इस गर्मी को जैसे और बढ़ा रहा था।कपड़े इधर—उधर फैले हैं या लटके हैं,कहीं संदूक पड़ा है,उसके ऊपर बिस्तरे का ढेर...रसोई में बर्तन औंधे या मुँह फाड़े पड़े हैं।कच्ची दीवाल पर टंगी गण् ोश, शंकर, दुर्गा आदि देवी—देवताओं के फोटो जाने कब से कालिख सेे धुंधला गए हैं,और इन्हें पोंछने की भी किसी को सुध नहीं। दीवाल और छत पर यही कालिख...जैसे ये घर का हिस्सा हो चुका हो...।मुझे सहसा विश्वास नहीं हो रहा था,ये मेरा ही घर है। घर में गरीबी थी।लेकिन ए ेसी अस्त—व्यस्तता या लापरवाही नहीं थी कभी। तो इसके लिए भी क्या मैं ही....?

क्यों? मेरे यहाँ से जाने के बाद घर को तुम लोगों ने पूरा कबाड़खाना बना डाला है! मैं हँसकर ही सही,लेकिन इसकी शिकायत करना चाहती थी, कसके।लेकिन जाने क्यों घुटकर रह गई।शब्द होठों पर आकर दम तोड़ देते हैं। और परिंदा पिंजरे में ही फड़फड़ाकर रह जाता है।याद करती हूँ,पहले कैसे कितने विश्वास और अधिकार से सब कुछ कह दिया करती थी। घर की छोटी—छोटी बातों में भी मेरी सलाह जरूरी होती थी और वह मानी जाती थी।

खामोशी कुछ देर तक वहाँ पसरे किसी अदृश्य भीमकाय जानवर की तरह गहरी—गहरी सांस लेती रही। माँ ने गज्जू को बाजार भेजकर नींबू मंगा लिया था।और शरबत बनाकर ले आयी।

ले। अभी खाने में देर है। शरबत पी ले जब तक।'' और गिलास मेरे आगे कर दिया।

मुझे अजीब—सी हिचकिचाहट होने लगी...क्योंकि यह अकेले मेरे लिए था...जैसे मैं घर की विशेष मेहमान होऊँ,और यही अटपटा लग रहा था।

और माँ इनके लिए ...?'' मैंने माँ से कहना चाहा।

अरे तू ले न बेटी! मँ पूरे लाड से बोली। लेकिन जाने क्यों मुझे उनकी यह लाड चुभने लगी थी।

और माँ मेरी मानसिक स्िथिति से बिल्कुल बेखबर कहे जा रही थी,‘‘इस साल बहुत गरमी पड़ रही है।तेरा ही घर अच्छा है जहाँ कूलर—पंखा है...।फिरिज का ठंडा पानी है। '' माँ मेरे घर की इन चीजों को याद करके सहज खुश हो रही थीं..जबकि वे चीजें इस पल मेरी आँखों में बुरी तरह खटक रहे थे।मैं नहीं चाहती थी कि अभी इन सबको इतना महत्व देके बताया जाय।

‘‘कित्ते दफे तो कह चुकी हूँ तेरे बाबूजी से।ए क दो पंखा ले आओ। ये गरमी तो हमें उबालकर रख देगी। मगर उनके आगे किसी की चलती है! दारू पीकर फेंक देंगे मगर ये सब नहीं करेंगे।तकरे जाने के बाद तो जैसे और ज्यादा पीने लगे हैं। और पीने के बाद उनको होश कहाँ रहता है!मारपीट करने लगेंगे...गाली—गालौच...।

मुझे जैसे किसी ने क्लोरोफार्म सृंघा दिया हो...ए क शून्य बड़ी तेजी से मेरे भीतर फैलता जा रहा था...।धूप,उमस,माँ,बहनें..सब कुछ मेरी हथेली से छूट रहे थे...।

शाम तक कहीं नहीं गयी। कहीं जाने की कोई इच्छा ही नहीं बची थी। जो सोचा था,जो सपने पाले थे और जो उत्साह था,सबको मानो पाला गया था। पूरा आसमान सफेद हो चला था...खाली,सपाट और उदास.....।

तभी गज्जू चिल्लाया— बाबूजी आ गए ...बाबूजी आ गए ...!

बाबूजी ने साइकिल परछी में खड़ी की। हाथ—मुँह धोकर फ्रेश हुए ।कुर्सी में धंसकर बैठ गए ।

मैंने बाबूजी के पैर छूए । जाने क्यों मैं सिहर रही थी।और बाबूजी भी पल भर के लिए असहज हो उठे।जैसे उनके सामने खड़ी मैं उनकी बड़ी बेटी नहीं,कोई और होऊँ,जिससे मिलते उन्हें बहुत संकोच हो रहा है...कि ये उनकी बेटी नहीं है...।मुझे अच्छा लगा था कि कालिख वाले कमरे की चालीस वॉट की कमजोर रोशनी में उनका चेहरा पल भर के लिए ही सही चमका था।

मुझसे पूछते रहे,कब आयी,सफर कैसा रहाकृवहाँ मकान कैसा है...। और जब कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने जब पूछा,योगेश कैसा है,सच,मेरी आँखों में आँसू आ गए थे खुशी के मारे..।

बोली,अच्छे हैं।

मैं उनसे ढेर सारी बातें करना चाहती थी। बाबूजी को बताना चाहती थी कि योगेश ने आपकी तबीयत का हाल पूछा है...आपको याद किया है...आपको बुलाया है...घर के सब लोगों को बुलाया है...अैर तुम सबको आना है..ए कदम...ए ेसे ही जाने क्या—क्या...।

लेकिन...

माँ आयी और पुराण् ा बाँचने लगी कि कहाँ कहाँ रेलगाड़ी रूकीकृकहाँ—कहाँ पानी पिया...क्या—क्या देखा...योगेश ने कैसे रिजर्वेशन करवा दिया था...।

रात बढ़ने के साथ—साथ गरमी थेड़ी कम होने लगी। फिर भी उमस बेचैन कर देने वाली थी।इससे मुक्ति के लिए हम बहनें छत पर आ गयीं...खुली हवा में...खुले आसमान के नीचे...।

आसमान उजला,ठंडा और चांदनी से भरा था। कुछ ही देर में धीरे—धीरे बहती ठंडी हवा मुझे तनाव से राहत देने लगी।

...गर्मियों की ए ेसी खूबसूरत और फुर्सत भरी रातों में अक्सर हमें नींद देर से आती थी।हम ठंडे बिस्तरों पर उलटते पलटते देर तक न जाने किन किन बातों पर खिखिलाती रहती थीं।पता नहीं कहाँ—कहाँ के किस्से निकल आते थे। दोनेां बहनें तब खूब सुनाया करती थीं। हम किसी झरने की तरह खिलखिलाते थे उन्मुक्त।

माँ को यह सब बिलकुल अच्छा नहीं लगता था।वह चिल्लातीं,‘‘ये क्या खिलखिल...? तुम लोग अब बड़ी हो गई हो! होश है कि नहीं?

नहीं। किसी के मुँह से छूटता तो हमारी खिखिलाहट दुगुने वेग से फूट पड़ती।और माँ कहने लगतीं,‘‘ लड़कियों को तो लाज—शरम वाला होना चाहियेफ तुम लोग तो पता नहीं कैसी लड़कियाँ हों!

तब वही अंजलि बहुत कम बोलने लगी है,मैंने महसूस किया है। वह चुपचाप या तो अपने काम में लगी रहेगी या पढ़ाई में जुटी रहेगी..या ए ेसे ही गुमसुम रहेगी...जाने क्या सोचती हुई।कुछ पूछने पर वह जैसे चौंक जाती है...और उसकी ठहरी हुई आवाज...।

अब मेरे पास पूछने को शायद कुछ नहीं बचा था।ना ही अंजलि को मुझसे कुछ पूछने की जरूरत रही जैसे।संवादहीनता का यह सन्नाटा,यह खालीपन किसी विशाल डैने वाले पक्षी के समान हमारे ऊपर मंडरा रहा था...।

वह छत के ए क कोने में टेबल लैम्प की रोशनी में कोई किताब पढ़ रही है। लैम्प का मद्धम पीला आलोक उसके गोरे से सांवले हो चुके चेहरे पर पड़ रहा है।

‘‘सोए गी नहीं,अंजलि...?'' मैंने पूछा। मैं यह पूछते हुए ही उससे जैसे कितनी दूर हो चुकी थी।

‘‘तुम सो जाओ दीदी,''वह मेरी तरफ ए क पल को देखती है,‘‘ मेरे ए ग्जाम है अगले मंडे से...।मुझे पढ़ना है।'' और फिर से पढ़ने में गुम।

खामोशी मुझे चुभने लगी।यों ही करवट बदलने लगी।हवा में ठंडक होने के बावजूद मुझे गर्मी लग रही थी।

सहसा मुझे ध्यान आ गया,ग्वालियर के हमारे पड़ोसी मिश्रा जी की लड़की जब पहली बार अपनी ससुराल जयपुर से लौटी थी,घर के सब लोगों ने कैसे उसे मानो सर पे बिठा लिया था।गहनों से लदी—फदी उनकी बेटी...हर पल इठलाती और चहकती...बात—बेबात खिलखिलाती...। जब तक रही,पूरा घर इसी तरह हँसी—खुशी से चहकता रहा...।

मेरे भीतर कुछ जम—सा गया था,कठोर...जो पिघलने का नाम नहीं लेता था...।

मैं क्या लेने आयी हूँ यहाँ? यह सवाल मुझ पर तेजी से हमला करता है।स्नेह? प्यार..?ममता?खुशियाँ? और मैंने क्या दिया है इन्हें...? बदनामी...बेइज्जती...! इन लोगों की बहुत ए हतियात से संभाली गई अमानत होती है—इज्जत। मैंने जैसे वही छीन लिया है इनसे। जो इन्हें सहमा—सहमाकर मुर्दा बनाती जा रही है धीरे—धीरे...किसी स्लो पॉइज़न की तरह...। मैं फिर उसी गहरे अपराधबोध से तड़प उठी थी।दिलो—दिमाग में फिर वही सन्नाटा गूँजने लगा था।

मैं अंजलि और वर्ष के लिए लड़के की बात पूछना चाहती थी। लेकिन...जाति...उस पर बिगड़ी हुई बड़ी बहन...कौन झांकेगा इस तरफ? मैं कुछ भी नहीं पूछ सकी थी।

मुझे याद नहीं,मैं कब चुपचाप रोने लगी थी।

पड़ोस की छत से कहकहे उठ रहे हैं। मुझे लगा,यह मिश्रा जी का परिवार है और उनकी बेटी जयपुर से आयी हुई है...वह खिलखिला रही है...कि खुशी से दमक रहा है उसका चेहरा...।

***

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