Aadha Aadmi - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

आधा आदमी - 15

आधा आदमी

अध्‍याय-15

मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी। उलटा उन्होंने धमकी दे डाली, कि अगर तुमने शादी के लिए हाँ नहीं की तो हम-दोनों का मरा मुँह देखोंगे।

‘‘तो ठीक हैं अगर आप लोगों की यही जिद् हैं तो कर दीजिए हमारी शादी, मगर बाद में यह मत कहना कि हमारी वजह से किसी और की जिंदगी बर्बाद हुई.‘‘

मेरी अम्मा का मायका नेपाल में था। वह लड़की देखने नेपाल चली गई थी। एक हफ्ते के बाद अम्मा ने हम-दोनों भाइयों को लड़की देखने नेपाल बुलाया। हम-दोनों भाई वहाँ पहुँचे। पहले से ही वहाँ दो लड़कियाँ मौजूद थी। अम्मा ने मेरे लिए जो लड़की पंसद की थी वह किसी फिल्मी हिरोइन से कम नहीं थी। जबकि सुंदरता के मामले में मैं उसके पैर की धूल के बराबर भी नहीं था।

दूसरी वाली अम्मा ने बड़े भाई के लिए पंसद की थी। रस्म-रिवाजों के अनुसार हम-दोनों भाइयों की शादी मंदिर में हो गई।

7-8-1979

जो गुनाहों से बचे हैं उनको हम सज़दा करे।

आदमी औरत के रिश से अलग रिष्ता भी हैं,

अब ये हम पर हैं कि उसको किस तरह देखा करें।

उस दिन मेरी सुहागरात थी। मेरे अंदर एक घुटन-सी थी। वह चारपाई पर घूँघट काढ़े बैठी थी। मैं चारपाई के एक किनारे अज़नबी की तरह बैठा था। अजीब-सी कंपन मेरे हाथ-पैरों में हो रहा था। घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल था। कमरे का सन्नाटा काफ़ी ख़ौफ होता जा रहा था।

अंततः मैंने पूछ ही लिया, ‘‘आप का क्या नाम हैं?‘‘

‘‘शान्ता.‘‘ उसकी धीमी आवाज़ में आकर्षण था।

मैं अपनी इस बेवकूफी पर मन ही मन मुस्कराया। जबकि मुझे उसका नाम पता था। कुछ देर के लिए सन्नाटा फिर से छा गया। सुबह के चार बजने वाले थे। मैंने अपनी शर्म मिटाने के लिए कमरे की लाईट बंद कर दी थी। मगर घबराहट अभी भी बनी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? अगर मेरी जगह कोई और होता तो न जाने अब तक क्या कर जाता। मगर मैं पसीने से तरबतर था। वह एकदम बुत बनी बैठी थी। इसी कशमकश में कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

हफ्तों गुजर गए। शर्म के मारे मैं अपनी पत्नी से आँख नहीं मिला पा रहा था। मैं अंदर ही अंदर घुट रहा था। मेरी इस घुटन को अम्मा भाँप गई थी। उनके पूछते ही मैंने सारी बात बताई।

अम्मा ने मुझे डॉक्टर को दिखाया। फिर क्या था मुझे सुबह-शाम सुईयाँ लगने लगी। हफ्तों तक यह कार्यक्रम चला।

उस दिन मैं यह सोचकर कमरें मे गया कि आज अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करके ही रहूँगा। जैसे ही मैं उसके बगल में लेटा ही था कि वह झूमने लगी। उसे झूमता देखकर, मैं भाग कर बाहर आ गया और अम्मा को बताया।

जब अम्मा ने उसे झूमता देखा, तो वह भी डर गई।

अम्मा उसे कभी पंडित तो कभी मौलवी को दिखाती। कभी इस मज़ार पर तो कभी उस मज़ार पर ले जाती। मगर उसके बावजूद भी मेरी बीबी ठीक नहीं हुई थी।

2-9-1979

जब मैंने अपनी पत्नी की बात मेहरे, जनानियों से बताई तो वे बोली, ‘‘चल हट मेहरे, जब तक उका ठीबयो (सम्भोग) न तब तक भूत-शैतान-चुड़ैल न उतरय्हें.‘‘

‘‘अरी भक, तुम तो बहिनी हमका मरवायें डरबैं लगी हव। ई सब हम्म कुच्छ भी नाय जानित हय.‘‘

‘‘जईसे तुम मरदों के बगैर नाय रह पाती हव, वईसे औरतें भी नाय रह पावत हय। इसलिये जब तक अपनी बीबी की लेहव न तब तक ऊका अइसेन झटके अइय्हें.‘‘

2-1-1980

मैं भगवान का नाम लेकर कमरे में गया और वक्त की नज़ाकत को देखते हुए पत्नी से लिपट गया। वह भी मुझसे लिपट गई थी। मगर उसकी पकड़ मुझसे काफी सख़्त थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसकी उँगलियाँ मेरी पीठ में घुस जायेंगी। उसकी साँसे तेज-तेज चलने लगी थी। वह भट्टी की तरह तप रही थी। मैं उसकी तपन के आगे पिघलता जा रहा था। मेरे अंदर का पौरूष जगने लगा था। पूरे ज़िस्म में एक अजीब-सा कंपन होने लगा था। पूरा कमरा गर्म साँसों से गूँज रहा था।

ज्ञानदीप पढ़ते-पढ़ते सो गया। जैसे पढ़ते-पढ़ते टालस्टाय, नेल्सन मंडेला सो जाते थे। जैसे गुनगुनाते किशोर कुमार। जैसे काँसेप्ट सोचते-सोचते विमल राय, जैसे लिखते-लिखते रिल्के, मार्खेज सो जाते थे।

सुबह देर से उठने के कारण ज्ञानदीप जल्दी-जल्दी फ्रेश हुआ और शाहरूख स्टाइल में पढ़ने बैठ गया-

उस रात काफी मशक्कत के बाद मेरी सुहागरात हुई। मेरी प्यास तो मिट गई थी। मगर पत्नी की प्यास बुझी की नहीं यह मैं नहीं जान सका। जो आनंद मुझे ड्राइवर से संभोग करके मिला था। वह आनंद मुझे अपनी पत्नी से नहीं मिला।

जबकि मेरी पत्नी थी बला की ख़ूबसरत। एक-एक अंग उसका साँचें में ढला था। जो उसे एक बार देख लें तो सिर्फ देखता ही रह जाता था। वह भी बहुत सेक्सी थी। उसे मेरे जैसे की नहीं, किसी लम्बें-चौड़े, हट्टे-कट्टे मर्द की जरूरत थी, जो उसे पूरी तरह से संतुष्ट कर सके।

18-1-1980

पंडित- मौलवियों ने बताया कि उस पर शैह हैं। मैं उसे मंदिर-मस्जिद-मजारों पर ले जाकर उसके अच्छा होने की दुआ माँगने लगा। साथ-साथ यह भी गुज़ारिश करता, हमें एक लड़की दे दो जो हमारे चिराग़ जलईयां हो जाये। कोई फिर हमें यह न कह सके कि मेहरा-हिजड़ा था तो इसके बच्चे नहीं हुए।

मैं महीनों तक पत्नी को लिए मंदिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरूद्धारा के चक्कर काटता रहा।

भगवान ने मेरी दुआ कुबूल कर ली थी। सातवे महीने में ही मेरी बच्ची का जन्म अस्पताल में हुआ। बच्ची बहुत कमजोर थी।

डॉक्टर ने कड़ी हिदायत दी, ‘‘इसे रूई में लपेट कर रखना जरा भी बाहर की हवा लगने मत देना.‘‘

डॉक्टर के बताये अनुसार मैंने घर में सारा इंतजाम कर दिया था। मेरी माँ-बच्ची का बहुत ध्यान देती थी। पर मेरी पत्नी मेरी माँ से हर दम किसी न किसी बात को लेकर झगड़ती रहती।

उस दिन तो हद हो गई। उसने मेरी अम्मा को डायन तक कह दिया। मुझसे जब रहा नहीं गया तो मैंने उसे दो तमाचे मारे।

12-2-1980

इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा।

अब अगर दुआ दोंगे तो मर ही जाऊँगा।।

पूरे एक साल हो गया था ड्राइवर से मिले हुए। कभी एक ऐसा दौर भी था जब हम एक-दूसरे से पल भर के लिए भी ज़ुदा नहीं होते थे। काश! वह वक्त वापस आ सकता तो मैं फिर से उन पलों को जी लेता। मगर कहते हैं न बीता वक्त कभी चाह कर भी वापस नहीं आता। रह जाती हैं तो सिर्फ़ उसकी यादे।

15-3-1980

मैं और मुन्नी घंटाघर के मैदान में बैठे थे। सामने बैठा एक आदमी मुझे एकटक देखे जा रहा था। जब मुझसे बर्दास्त नहीं हुआ तो मैंने उसे ईशारे से बुलाया। और पूछा, ‘‘मैं इतनी देर से देख रही हूँ आप मुझे घूरे जा रहे हैं?‘‘

‘‘क्या करूँ इन निगाहों को दोश दूँ या आप को, आप हैं ही ऐसी.....क्या मेरा साथ करेंगी?‘‘

‘‘अपनी शक्ल देखी हैं। चले हैं साथ करने.‘‘ कहकर मैं वहाँ से चला आया था।

दूसरे दिन जब मैं घंटाघर पहुँचा। तो वह मेरा पहले से खड़ा इंतजार कर रहा था। मैंने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया था।

उस दिन जब मैं शाम को घर लौटा तो पता चला अम्मा मेरी बीबी को अस्पताल लेकर गई हैं। मुझे समझते जरा भी देर नहीं लगी। क्योंकि मेरी बीबी पेट से थी। मैंने देखा, मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं था। मैं पैदल ही बदहवास-सा अस्पताल की तरफ भागा जा रहा था। और रास्ते भर यही सोचता रहा, ‘हे भगवान! मेरे पास तो पैसा भी नहीं हैं। अब क्या होगा?‘

तभी किसी के पुकारते ही, मैंने पलटकर देखा, तो कोई और नहीं वही घंटाघर वाला आदमी था।

उसने तपाक से पूछा, ‘‘क्या बात हैं आप इतनी परेशान क्यों हैं...?‘‘

मैंने संक्षेप में उससे बताया।

वह बोला, ”आप बिलकुल परेशान मत होइये चलिए मेरे साथ.”

मैं रिक्शे पर बैठकर उसके साथ अस्पताल पहुँचा। तब तक मेरी बच्ची मर चुकी थी। मैं अपनी बच्ची की मौत से अंदर तक हिल गया था।

मैं अस्पताल का बिल चुका कर अपनी बीबी को लेकर घर आ गया था।

दूसरे दिन जब मैं उस आदमी से मिला। तो मैंने उससे माफी माँगा। उसने मुझे गले से लगा लिया और कहा कोई बात नहीं।

कहते हैं डूबने वाले को तिनके का सहारा होता हैं। इसीलिए भगवान ने इसराइल को मेरी जिंदगी मे भेज दिया था। मैंने ड्राइवर और शरीफ बाबा से अपने संबंधो को लेकर इसराइल को सारी बातें बताई।

इसराइल तपाक से बोला, ‘‘वह आप का अतीत था और मै आप का वर्तमान हूँ। मुझे सिर्फ़ आप से मतलब हैं.‘‘

15-5-1980

मांजिल तो मेरी यही थी,

बस जिंदगी गुज़र गई

यहाँ तक आते-आते।

मैंने जो पैसे बचाये थे उससे मैंने शहर से बाहर एक बिसवां जमीन खरीद ली थी। और बाकी पैसे इसराइल से लेकर कच्चा घर बना लिया था। और उसका नाम हम-दोनों ने ‘मोहब्बत महल‘ रखा था।

जब भी हम-दोनों का मन करता हम वहाँ जाकर अपनी प्यास बुझा लेते। उस दिन हम-दोनों वहीं रूक गए।

जब सुबह घर आया तो बीबी आगबबूला हो गई, ‘‘आखिर तुम रात-रात भर रहते कहाँ हो? कौन-सा ऐसा काम करते हो जो तुम्हें रात भर बाहर रहना पड़ता हैं, बोलों.......?‘‘

‘‘औरत हो तो औरत बन के रहो समझी, जादा मरद बनने की कोशिश मत करना। नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। अब भागों यहाँ से मेरी खोपड़ी मत खाओं.‘‘ कहकर मैं लेट गया।

मैं शाम को नहा कर बैठा ही था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने जाकर दरवाजा खोला, तो देखा इसराइल का माथा खून से लथपथ था।

सेलफोन की घंटी बजते ही ज्ञानदीप की पढ़ने की तन्द्रा भंग हुई। उसने उठाकर हैलो कहा।

दूसरी तरफ से इसराइल की आवाज आई, ‘‘पायल का खून हो गया हैं.‘‘

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