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आधा आदमी - 14

आधा आदमी

अध्‍याय-14

‘‘अरे पहिले घूम तो लूँ फेर देखी जाईगी.‘‘

‘‘जईसी तेरी मरजी.‘‘

जजमानी में मिलें बधाई के पैसे से बेटी अम्मा ने सभी के साथ-साथ मुझे भी बाँटा दिया। मैंने बाँटा लेकर उन्हें सलाम किया।

खाना खाने के बाद बेटी अम्मा ने कहा, ‘‘जिसे लेटना-बैठना हय वे छत पैं चली जायें.‘‘

‘‘का गुरू, इहाँ इत्ती जल्दी सब सोई जात हय?‘‘ मैंने धीरे से चंदा से पूछा।

‘‘नाय बहिनी, इहाँ का टेम दूसरा हय सात बजे के बाद सब खान्जरा करती हय.‘‘

‘‘चलव गुरू, देखी ई लोग का करती हय.‘‘

‘‘तुम देखव, हम्म तो चली खान्जरा करने.‘‘

सुबह हुई तो मैंने चंदा से पूछा, ‘‘रात-भर तो गुरू खूब खान्जरा कियव, का रोज अईसे होत हय.‘‘

‘‘अउर का, तुम भी खूब खान्जरा किया करव मौज भी मिलेगी साथ झलके भी, जिसमें से आधा तुमारा अउर आधा तुमारे गुरू का.‘‘

‘‘हम्में खान्जरा नाय करना हय, क्यू की अगर हम्म इनके घर से गंदी हो गई तो कहीं अउर हिजड़ो में कसम खाने लायक न रहूँगी.‘‘

एक हफ्ता बीतने के बाद हम लोग अपने शहर आ गए थे।

25-12-1978

‘‘मैं खाना खाकर बैठा ही था कि शरीफ बाबा शराब के नशे में आया और अम्मा से कहने लगा, ‘‘मैं इसे अपने भाई से जादा मानता हूँ, खरचा देता हूँ सब कुच्छ इसका पूरा करता हूँ। फिर भी यह गलत-सलत आदमियों के साथ इधर-उधर घूमता हय.‘‘

‘‘अगर तुम भाई बता के खिलाते तो हम हँस के खाती कभी गलत काम न करती। पर जरा पूछव इनसे हम्में ई का बना के पूरा करते हय.”

‘‘यह तुम लड़कियों की तरह कब से बोलने लगे?‘‘ माँ ने कड़े लहजे में पूछा।

‘‘गलती से निकल गया.‘‘ मैं बड़ी चतुराई से झूठ बोल गया था।

‘‘बोलव भइया, का बना के देते हव मेरे लड़के को?‘‘ माँ ने पूछा।

‘‘ई का बतायेगा अम्मा, ई हम्में अपनी बीबी समझता हय। अउर हमरा ज़िसम नोचता हय। इका ई बर्दास्त नाय हय कि मैं कहीं जाऊँ या किसी से मिलूँ। जब ई सारे गलत काम इससे करेक हय तो काहे न हम्म हिजड़ो में चला जाऊँ.‘‘

यह सुनते ही अम्मा सन्न रह गई। जैसे उसे साँप सूघँ गया हो। आखि़रकार उसने हिम्मत करके पूछ लिया, ‘‘तुम इकी बीबी हव? होश में हव या नयी। दिमाग़ तो नाय फिर गवा तुमारा.‘‘

‘‘हाँ! दिमाग फिर गया हय हमारा, एक बात आप भी सुन लो हमने अपनी जिंदगी को जिंदगी नाय समझा। का नाय किया तुम लोगों के लिये, चोरी-चोरी स्टेज परोग्राम किया। हिजड़ो से मिला। जब तक की हुस्न हय तब तक ई भी हमरा पूरा करेंगे। जिस दिन हम ढल जायेंगे तब ई का पूरा करेंगे? कहते हय न गाल पर बोटी तब तक के यार की रोटी....।‘‘

‘‘नयी बेटा, तुम मेहनत-मजूरी करव जो भी रूखा-सूखा होगा हम मिल बाँट के खा लेगें। मगर बेटा, अईसा कुच्छ मत करना जिससे खानदान की नाक कट जायें .‘‘

‘‘नयी अम्मा, जब तक के मेरी जिंदगी हय तब तक मैं तुम लोगो को ऊ सारी खुशियाँ दूगाँ। मेरी जिंदगी का क्या हय। मत सोचो मेरे बारे में। मुझे जहाँ जाना था वहाँ पहुँच गया। अगर मेरे मेहनत-मजूरी करने से घर चलता तो मैं ई सब कभी न करता। चाहे इके लिये रिक्शा ही चलाना पड़ता तो चलाता.‘‘

मेरी बातों से अम्मा ख़ामोश हो गई थी। दुख और परेशानी की रेखाएँ साफ-साफ उसके चेहरे पर झलक रही थी। मैंने पहली बार अम्मा को इतना बेेबस और असहाय देखा था। वह कहना तो बहुत कुछ चाहती थी मगर कह न सकी।

शरीफ बाबा चला गया था। मैं आँसुओं का घूँट पीकर बाहर चला आया था।

8-1-1979

मैं जब घर पहुँचा तो सब लोग मुझसे लड़ने लगे। मैं रोज-रोज की लड़ाई से तंग आ गया था। मैं घरवालों को बिना बताये अपने बूआ-फूफा के घर आ गया। और उनके वहाँ झाँडू-पौंछना, बच्चों को स्कूल पहुँचाने का काम करने लगा।

अक्सर मेरे फूफा बिजनैस के सिलसिले में लखनऊ जाया करते थे। उस दिन वह मुझे अपने साथ ले गए। दिन-भर इधर-उधर घूमने के कारण मैं पूरी तरह से थक गया था। फूफा मुझे होटल में ले गए। बिस्तर पाते ही मैं सो गया।

अचानक मेरी नींद खुली तो देखा, फूफा मेरी पैन्ट उतार रहे थे।

ज्ञानदीप ने सेलफोन बजते ही देखा, दीपिकामाई की काँल थी। उसने ओके करते ही नमस्ते किया।

”ठीक हूँ, आप अपना बताइए?‘‘

दूसरी तरफ़ से आवाज आई, ‘‘बेटा! हमने तुम्हें इसलिए फोन किया हैं। उस दिन जो तुम गैस की दवा लाये थे। वह जब आना तब लेते आना। पैसा आओंगे तब दे दूँगी.‘‘

‘‘ऐसा कह के क्यों आप मुझे शर्मिन्दा कर रही हैं.‘‘

‘‘नहीं-नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं हैं.‘‘

‘‘वैसे आप कब आ रही हैं?‘‘

‘‘मैं परसों आ जाऊँगी.‘‘

‘‘तो ठीक हैं.‘‘

‘‘और बताओं क्या कर रहे थे?‘‘

‘‘आप की डायरी पढ़ रहा था.‘‘

‘‘हिजड़े की डायरी पढ़कर सिवाय ग़म के कुछ नहीं मिलेगा.‘‘

‘‘माई! मैं उसी ग़म को पढ़ना चाहता हूँ। उसे अपने स्तर से भोगना चाहता हूँ.‘‘

‘‘अल्ला! न करे किसी दुश्मन पर भी मेरे ग़म की परछाई पड़े। बेटा! मैं नहीं चाहती कि फिर कोई दूसरी दीपिकामाई बने......।‘‘

इससे पहले ज्ञानदीप कुछ कहता कि फोन कट गया। ज्ञानदीप ने कई बार काँल की मगर फोन नहीं मिला।

ज्ञानदीप बिना एक पल गँवाये दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-

मैं रोता-चिल्लाता रहा पर फूफा ने मेरी एक न सुनी और अपनी हवस मिटा ली।

मैंने वापस आकर सारी घटना बूआ को बताई। तो वह उल्टे ही मुझ पर बरस पड़ी, ”तो क्या हुआ तुम्हारे फूफा ही तो थे.‘‘

‘‘फूफा हैं तो क्या किसी की गाँड़ मारते फिरेगें, अगर यही काम तुम्हारे बच्चों के साथ कोई और करता तो कैसा लगता?‘‘

यह सुनते ही बूआ तिलमिला उठी, ‘‘अगर तुम्हें यहाँ रहना हैं तो यह सब करना होगा.‘‘

‘‘मैं भूखी मर जाऊँगी पर कभी तुम्हारे घर नहीं आऊँगी.” मैं रोता हुआ चला आया था।

फिर मैं अपने चाचा की दुकान पर काम करने लगा। दो-चार दिन मेरे प्रति उनका व्यवहार ठीक-ठाक रहा। पर उसके बाद उनकी भी नियत मेरे ऊपर खराब हो गई। इससे पहले वह कोई हरकत करते मैं घर चला आया था। और सोचने लगा, ‘हे भगवान क्या हमारी जिंदगी में यही सब लिखा हैं....?‘‘

7-2-1979

जो मेरे वास्ते नफ़रत का ख़्वाब रखते हंै।

हम उनके दस्त पे अब भी गुलाब रखते हैं।।

उस दिन ड्राइवर मुझे मिले और बीच चैराहे पर माफ़ी माँगने लगे। एक बार तो जी में आया कि न माफ़ करूँ। पर कहते हैं न प्यार अंधा होता। मैंने सब कुछ भुलाकर उन्हें माफ़ कर दिया। हम-दोनों पहले की तरह फिर से मिलने-जुलने लगे थे।

रात-भर ड्राइवर के पास रहने के बाद जब मैं सुबह घर पहुँचा। तो अम्मा मुझे देखते ही बौखला उठी, ‘‘हरामजादे रात भर कहा था?‘‘

‘‘कही-नहीं वीडियों देख रहा था.‘‘

‘‘आज-कल तुमरा दिमाग बहुत खराब हो गया। शक्ल देखा हैं, किस तरह हो गई हंै। अगर तुमरी यह सब हरकत तुमरे बाप को पता चल गई तो तुम्हें जिंदा जमीन में गाड़ देगें। यह तुमारा रात-रात भर घूमना और घर से गायब रहना आख़िर इसका क्या मतलब हैं। सच-सच बताओं तुम कोई गलत काम करके तो नहीं लाते हो?‘‘

‘‘मैंने आप को उस दिन भी बताया था। इतने बड़े परिवार का खर्चा कहाँ से चलता? पिताजी और भैंया की दवा, इन लोगों पढ़ाई-लिखाई, तीज-त्यौहार में कपड़ा यह सब कहाँ से आता? कभी सोचा हैं आप ने.....?‘‘

‘‘ऐसी ज़िल्लत भरी जिंदगी से तो अच्छा मर ही जाऊँ.‘‘ कहकर अम्मा रो पड़ी।

‘‘ऐसा मत कहो अम्मा, आप नहीं जानती हम आप लोगों से कितना प्यार करते हैं। यह सब हमने जान बूझकर नहीं किया हैं। शायद भगवान को यहीं मंजूर हो.‘‘ कहते-कहते मैं भी फफक पड़ा था, ‘‘आज अगर हमारे तीनो भाई इस लायक होते तो हमें यह दिन न देखना पड़ता.‘‘

28-3-1979

मेरे बताये टाइम अनुसार ड्राइवर आ गये थे। मैं यह सोचकर बहुत खुश था कि आज वह पहली बार मेरा प्रोग्राम देखेंगे।

नक्कारा बजते ही गुल्ली स्टेज पर चढ़ी और नाचने के साथ-साथ गाने लगी-

मेरी नाजुक नरम कलाई रे,

मैं पनिया कैसे जाऊँ?

अपने ससुर की ऐसी लाडली

पंडाल से आवाज़े उठने लगी, ‘‘अबै ओए, ससुर की लाडली भागत हय कि इहाँ से खींच के मारूँ ईटा.‘‘

‘‘अबै काली कंघी नाचत हय कि बंदर की तहर कूदत हय.‘‘ दूसरे ने कहा।

‘‘मारव-मारव ऽऽऽ‘‘ पब्लिक के शोर-शराबा के आगे गुल्ली को स्टेज से नीचे भागनी पड़ी।

फिर मैं स्टेज पर गया और गाने लगा-

बक्सर जिला भोजपुरी बा

आरा के आगे पटना

बतावा ड्राइवर बाबू

किरावा लेबू कित्ता

यह गाना सुनते ही ड्राइवर के साथ-साथ पूरा पंडाल झूम उठा। प्रोग्राम खत्म होने के बाद हम-दोनों ने खाना खाया और सो गये।

अगले दिन जब ड्राइवर से मिला तो उन्होंने मेरी जमकर प्रशंसा की, ‘‘अब कहीं भी तुमारा प्रोग्राम होगा तो मैं जरूर देखने आऊँगा.‘‘ कहते-कहते ड्राइवर भावुक हो गए थे, ‘‘बाबू! अगर मेरा बस चले तो मैं तुम्हें अपनी आँखों से कभी एक पल भी दूर न होने दूँ.‘‘

‘‘यही हाल तो अपना भी हैं। मन करता है भाग कर तुमारे पास चली आऊँ.‘‘

फिर मेरे आगे ड्राइवर ने एक प्रस्ताव रखा, ‘‘तुम मेरे साथ बस पर क्यों नहीं चलते.‘‘

उनका इतना कहना क्या था मैंने हामी भर दी।

फिर क्या था। अगले दिन से मैं ड्राइवर के साथ बस पर चलने लगा। हम-दोनों खूब मौजमस्ती करने लगे। हमारी खुशियाँ ज्यादा दिन तक चल न सकी। वह जरा-जरा बात पर शक करने लगा और मुझे मारने-पीटने लगा।

28-5-1979

एक दिन मुझे पता चला कि ड्राइवर का संधंब एक औरत से हैं। प्रत्युत्तर में मैंने सवाल किया तो उन्होंने मुझे मारने लगा, ‘‘तुम मुझ पर शक करती हो.‘‘

‘‘जो बात सही हैं उसे तुम झूठ साबित नहीं कर सकते.‘‘

‘‘तुम भी तो अपने पुराने यार से मिलने जाती हो.‘‘

‘‘हम कहीं भी किसी के साथ रहूँ, गलत काम नहीं करती.‘‘ मैं कहकर चला आया था।

25-7-1979

आख़िरकार वहीं हुआ जिसका मुझे डर था। अम्मा ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। जबकि मैंने उन्हें बताया कि मैं औरत के काबिल नहीं हूँ।

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