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जो घर फूंके अपना - 45 - बड़ी कठिन थी डगर एयरपोर्ट की - 1

जो घर फूंके अपना

45

बड़ी कठिन थी डगर एयरपोर्ट की -1

स्थायी/ अस्थायी प्रोपोज़ल वाली दुर्घटना के बाद मैं कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करता रहा कि भाई साहेब से वे शिकायत करेंगें और मुझे अपनी सफ़ाई पेश करनी होगी, पर जब कई दिनों तक भाई साहेब से फोन पर बात नहीं की तो चैन आया. भाई साहेब थे तो हैदराबाद में पर मेरा वहाँ का चक्कर अक्सर लगता रहता था. सोचा मिलूंगा तो समझा लूंगा कि गलतफहमी कैसे हुई थी. हमारी वी आई पी स्कवाड्रन कई सारी विशिष्ट व्यक्तियों को हैदराबाद की उड़ान पर ले जाती रहती थी. इन सबमे अतिविशिष्ट व्यक्ति थे तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरी जो प्रायः हैदराबाद जाते रहते थे. राष्ट्रपति महोदय और उन का पूरा दलबल हैदराबाद में राष्ट्रपति निलयम में ठहरता था और विशिष्ट उड़ान के चालक दल के सदस्य हैदराबाद के राजकीय अतिथि गृह में ठहराए जाते थे. मैं ऐसी उड़ानों पर जाता था तो चालक दल के साथ ठहरने के बजाय अपने भाई साहेब के घर चला जाता था जो बेगमपेठ हवाई अड्डे से काफी दूर था. कार से वहाँ तक पहुँचाने में लगभग पैंतालीस मिनट लग जाते थे. यह भी पुरानी बात है. आजकल तो सभी बड़े शहरों की तरह हैदराबाद की सड़कों पर भी वाहनों के सतत महायुद्ध के चलते आप केवल यह बता सकते हैं कि आप घर से निकलेंगे कब. कोई पूछे पहुचेंगे कब तो दीर्घ निःश्वास लेकर कहना पड़ता है “हरि इच्छा !” जैसे सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्ति के समय कोई नादान पूछ बैठे कि आपको पेंशन कितने सालों में नियमित रूप से मिलने लगेगी तो ग़ालिब के शब्दों की याद आती है “ कोई पूछे कि ये क्या है तो बताये न बने. ” बस एक सुविधा थी कि एयर पोर्ट से रवीन्द्रनगर आने जाने के लिए स्थानीय प्रशासन देववाहन अर्थात श्वेत एम्बेसेडर उपलब्ध करा देता था.

कुछ दिनों की संक्षिप्त प्रतीक्षा के बाद ही राष्ट्रपति महोदय का हैदराबाद जाने का प्रोग्राम बना. मेरे अनुरोध के अनुसार मुझे उस उड़ान पर भेजा गया. उन्हें लेकर हम अपरान्ह चार बजे हैदराबाद पहुंचे. दिल्ली वापस आने का अगले दिन सुबह आठ बजे का कार्यक्रम था. हमारे कैप्टेन महोदय ने जो मुझसे एक रैंक सीनियर थे सुझाव दिया कि इस बार मैं सबके साथ राजकीय अतिथिगृह में ही ठहरूं. , यदि सुबह कार से आने में कुछ देर सबेर हो गयी तो मुसीबत खडी हो जायेगी. पर यह बात उन्होंने उस कार के ड्राइवर के सामने कह दी जिसके लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. हमें कोई कहता कि राष्ट्रपति को किसी जगह समय से नहीं पहुंचा सकेंगे तो हमें जितना आघात लगता, उतना ही इन ड्राइवर महोदय को लगा. नम्रता और प्रतिवाद दोनों को बराबर बराबर अपनी आवाज़ में घोलते हुए वे बीच में कूद पड़े. “अइसा कइसा होवेंगा साहेब? मई भी इधर मिनिस्टर लोकां को बराबर एअरपोर्ट लाता. अईसा फ्लाईट मिस करेंगा तो कईसा चलेंगा?” हमारे कैप्टेन साहेब को उसकी भावनाओं से खेलना अच्छा नहीं लगा. हंसकर बोले “अरे भाई, ये साहेब फ्लाईट मिस करेगा तो प्रेसिडेंट साहेब को भी फ्लाईट मिस करना पड़ेगा -बस इतना याद रखना ”

ड्राइवर के प्रोफेशनलिज्म का सवाल उठ खडा हुआ था अतः उन्होंने मुझे जाने की अनुमति दे दी. मैं खुश होकर युनिफोर्म बदलकर सिविल ड्रेस में कर में बैठ गया. कार रवींद्र नगर पहुँचने वाली थी कि मुझे याद आया कि घर जाने की जल्दी में अपना आई डी कार्ड युनिफोर्म की पॉकेट से निकाल कर साथ ले आना भूल गया था. युनिफोर्म जहाज़ के अन्दर हैंगर में लटक रहा था अतः कार्ड तो सुरक्षित था, पर कल सुबह एयर पोर्ट आते समय कोई दिक्कत न हो यह सोचकर चिंता चढ़ गयी. लेकिन अब तक जहाज़ सीलबंद होकर स्थानीय सुरक्षा कर्मचारियों को सौंपा जा चुका होगा और उसमे प्रवेश कर पाना खासी समस्या होगी. मैंने मन मारकर इसकी चिंता न करने का तय किया. जल्द ही हम भाई साहेब के घर पहुँच गए. नियमतः वी आई पी उड़ानों के निश्चित समय से एक घंटा पहले हमें फ्लाईट क्लियरेंस आदि समाप्त करके जहाज़ पर उपस्थित रहना होता था. फ्लाईट क्लियरेंस तथा मौसम आदि की जानकारी लेने में आधा घंटा लग जाता था. अतः मुझे सुबह साढे छः बजे तक एयर पोर्ट पहुँच जाने के लिए सुबह छः बजे ही एअरपोर्ट के लिए निकल पड़ना था. ड्राइवर को मैंने चेतावनी दे दी कि अगली सुबह ठीक समय से आ जाए. घर का पता और भाई साहेब का फोन नम्बर नोट करके वह वापस चला गया. शाम को जब भाई साहेब, भाभी और बच्चों के साथ बैठकी जमी तो जो बात मेरे मन में कुलबुला रही थी उसी से मैंने शुरुआत की. अपने भेजे हुए उन इंश्योरेंस एजेंट महोदय की कहानी मुझसे सुनने के बाद भाई साहेब ने भी उसी की टक्कर के अपने दो चार संस्मरण सुना दिए तो मेरे मन से उन सज्जन से अभद्र व्यवहार करने का अपराध बोध निकल गया. गप्पें हांकते हुए वह शाम कितनी तेज़ी से बीत गयी कुछ पता ही नहीं चला. भाभी ने याद दिलाईं कि मुझे सुबह जल्दी जाना था तब जाकर बेमन से हम सब अपने अपने बिस्तरों में घुस लिए.

अगली सुबह स्वभावतः छः बजने से पांच -सात मिनट पहले ही तैयार होकर मैं कार की प्रतीक्षा करने लग गया. दस मिनट बीते, कार नहीं आई तो मेरे कान खड़े हुए. प्रशासन के संपर्क अधिकारी को फोन किया तो उन्होंने आश्वस्त किया कि कार चल चुकी थी, पहुंचती ही होगी. मुझे ढाढस बंधा. लेकिन दस मिनट और बीत गये तो मेरी बेचैनी बहुत बढ़ गयी. दुबारा फोन लगाया पर संपर्क अधिकारी का फोन व्यस्त मिला. घड़ी की सुइयां मेरा मज़ाक उड़ाते -उड़ाते रौद्र रूप में आ गईं और मुझे पसीना आना शुरू हो गया. स्पष्ट था कि ड्राइवर साहेब या तो रास्ता बहक गए थे या कार कहीं दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थी. पर उनके पहुँचने ना पहुँचने को लेकर भारत के राष्ट्रपति को तो प्रतीक्षा नहीं कराई जा सकती थी. मेरे चेहरे का रंग उड़ता देखकर भाई साहेब ने तुरंत अपनी कार निकाली. उसके बाद भाई साहेब ने कार जिस गति से चलाई उसकी मैंने आशा नहीं की थी. पर आशा इसकी भी नहीं की थी कि सुबह- सुबह जब सड़कें बिलकुल सूनी थीं घर से निकलते ही मेन रोड पर मुड़ते हुए वे सड़क का दुग्धाभिषेक करेंगे. साईकिल के कैरियर से दोनों तरफ दूध से भरे दो बड़े बड़े डोल लटकाए जिस ग्वाले को इन्होने टक्कर मारी, वह सड़क पर बहते हुए दूध का बहाव रोकने में तो असमर्थ था, पर टक्कर के बाद रुकी हुई कार के दरवाज़े को झटके से खोलकर भाई साहेब को तेलगु में धुआंधार गालियाँ देने में उसने एक क्षण भी नहीं गंवाया. उसके धाराप्रवाह भाषण को समझने भर तेलगु भाई साहेब को आती थी, समझाने को तो मैं भी स्वयं बिना तेलगु का एक शब्द जाने उसके संवाद का हर शब्द समझ पा रहा था. हम दोनों ने एक साथ उस भाषा में बोलने का प्रयत्न किया जिसे कोई किरगिजी, या मंगोलियाई भाषा बोलने वाला भी समझ जाता. इस भाषा का पहला अक्षर बटुवा था और दूसरा था रुपये. उधर भाई साहेब और इधर मैं, दोनों ने उसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए सौ-सौ रुपये का एक -एक नोट निकाला. पर इससे उसके आत्मसम्मान को बड़ी ठेस पहुँची. बात को जारी रखते हुए उसने जो कुछ कहा उसका मेरे मन ने तीन तरह से अनुवाद किया. पहला यह कि मुझे इतना बाजारू मत समझो कि तुमने नोट दिखाया और मैं सरकारी गवाह की तरह फ़ौरन बयान बदल दूँगा. दूसरा यह कि ये सौ – सौ रुपल्ली देने से क्या होगा? दूध का दाम पता है? और तीसरा यह कि रुपये- शुपये अपने पास रखो, तुमने मेरी गाड़ी गिराई अब मैं तुम्हारी गाड़ी की खबर लूंगा. शायद तीसरी बात में ही असली सन्देश निहित था. तभी इस शुभ कार्य में मदद लेने के लिए वह और जोर -जोर से चिल्लाकर भीड़ इकठ्ठी करने में जुट गया.

पता नहीं कहाँ से इन्ही दो मिनटों में मिनट में चार की दर से आठ दस प्राणी वहाँ इकठ्ठा हो गए. इनमे से कई सड़क पर लाखैरे घूमने वाले अधनंगे बच्चे थे जो अपनी फटी कमीज़ की बांहों से या मटके की तरह फूले हुए पेट पर तनी मैली- कुचैली बनियान से अपनी नाक पोंछते जा रहे थे. लग रहा था कि मौक़ा मिलते ही वे अपने अधमरे जिस्म के बावजूद कार पर पत्थर फेंकने के काम में सबसे आगे निकलेंगे. यदि इनसे साक्षात जीसस क्राइस्ट ने भी कहा होता कि जिसने कभी कोई पाप नहीं किया हो सबसे पहला पत्थर वही फेंके तो इन अभागों ने जिन्होंने सिवाय पैदा होने के कोई अन्य पाप नहीं किया था इस अवसर को पत्थर फेंकने का खुला आह्वान समझा होता. सडकों पर सारा जीवन बिताने की लम्ब्नी यात्रा के पहले चरण में ही वे उस शुभ घड़ी की तलाश में लग गए थे जब पहला पाप जल्दी से जल्दी कर सकें. इन छोटे शैतानों के अतिरिक्त दो तीन आदमियों के हाथ में पानी से भरी हुई प्लास्टिक की बोतलें थीं, पर पता नहीं उन सबको आज कब्ज़ था कि कोई अपने गंतव्य की तरह जाने की जल्दी नहीं दिखा रहा था. वे अभी चुपचाप खड़े आँखों ही आँखों में तौल रहे थे कि दूधवाले का साथ देने से दूध मिलने की संभावना और कार वाले का साथ देने से कुछ पैसे मिलने की संभावना में से किसमें ज्यादा वज़न था. इस भीड़ से फर्क अलग- थलग एक सज्जन दिखे जो हाथ में छड़ी पकडे और आँखों पर सुनहले फ्रेम का चश्मा लगाए हुए थे और अभी तक केवल एक मूक दर्शक का रोल निभा रहे थे. मुझे और भाई साहेब, दोनों को, समझ में आ चुका था कि जो बात वाहन टक्कर से बढ़कर वर्ग संघर्ष में बदलती जा रही थी उसमे जो शायद हमारा पक्ष ले ऐसे वे अकेले थे. वे तेलगू भाषी होने के साथ हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषी भी लगे. भाई साहेब ने उन्हें संबोधित करते हुए अंग्रेज़ी में कहा “ ज़रा इसे समझाइये, मैं तो क्षतिपूर्ति करने को तैयार हूँ पर ये नालायक पता नहीं क्या चाहता है. मैं थोड़ा जल्दी में था इसलिए कार से टक्कर लग गयी. बात ये है कि यह मेरा छोटा भाई है, जो तुरंत एअरपोर्ट नहीं पहुंचा तो भारत के राष्ट्रपति को इसकी प्रतीक्षा करनी पड़ जायेगी. इसके बिना वे वापस नहीं जा सकेंगे. ” मुस्कराते हुए उन्होंने तंज कसा “अच्छा? क्या इन्हें भारतरत्न की उपाधि से सम्मानित करने के लिए वे एअरपोर्ट पर प्रतीक्षारत खड़े हैं?” मुझे ऐसे व्यंग्य की चिंता करने का समय नहीं था. घड़ी में सात बज रहे थे. मेरे होश उड़ गए. हकलाता हुआ बोला “आप इस समय किसी तरह हमारी कार को जाने देने के लिए इस राक्षस को मना लीजिये. अपना फोन नम्बर दे दीजिएगा. मैं आपको फुर्सत से सारी बात बाद में समझा दूंगा. ”

क्रमशः ------------

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