जननम - 4 S Bhagyam Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जननम - 4

जननम

अध्याय 4

उसने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।

"कोई आपको ढूंढने नहीं भी आए तो भी आपको फिक्र करने की जरूरत नहीं।" वह अंग्रेजी में बोला।

"पिछला समय याद नहीं है सोच कर फिक्र करने के बदले आने वाले समय में आपको क्या करना है उसके बारे में सोचिए। आपके लिए हम सब मदद करने लिए तैयार हैं।"

वह कुछ ना बोल कर दूर कहीं देखती हुई लेटी रही।

"लोग नए हैं गांव को नहीं जानती आप....."

वह हंसी।

"मेरे लिए तो यह संसार ही नया है ?"

"देट्स राइट" वह बोला, हंसते हुए "इसीलिए तो आप जिस शहर में भी रहो एक ही बात है। इसी शहर में रह जाइए आप ? यहां पर हाई स्कूल है। यहां कॉलेज भी है। आप किसी में भी टीचर बनकर रह सकती हैं।"

"डिग्री, सर्टिफिकेट कुछ भी नहीं है तो नौकरी कैसे मिलेगी ?"

"आप के विषय में हम बहुत स्ट्रिक्ट नहीं रहेंगे। आपकी योग्यता को देखकर हम आपको काम देंगे।"

"आप अस्पताल चलाते हैं या स्कूल ?"

"दोनों ही हमारे दादा जी का बनाया हुआ है।"

वह आश्चर्य से उसे देखने लगी।

"एक बूढ़े ने व्यक्ति के बनाए स्कूल को चला रहे हैं।"

"यहां सबके लिए सब जगह अपना हिस्सा है। फिर लावण्या, उस आदमी को बूढ़ा मत कहना।"

"क्यों ?"

"वे उसे पसंद नहीं करेंगे ?"

वह अपनी सुंदर दांतो को दिखाते हुए जोर से हंसी।

अब और यहां खड़े रहे तो ठीक नहीं है सोचकर एक मुस्कान के साथ और रोगियों को देखने चला गया। हां आज सब रोगियों से व्यंग में बात करना चाहिए मजाक करना चाहिए ऐसा उसे लगा। "ओफ ओफ... आप लोगों को कोई बीमारी नहीं है।" ऐसा बोलूं उसे ऐसा लगा। चलिए उठिए दौड़ो....! चेहरे को लटका के मत रखो ! हंसो!.. जोर से हंसो..."

आज धूप सुहा रही है। आज दोपहर के भोजन के लिए घर पैदल चला जाए ऐसा उसमें उत्साह आ गया। तालुका ऑफिस, पोस्ट ऑफिस, मुंसिपल स्कूल इन सबको बड़े चाव से निहारता हुआ वह चला। यह उसका अपना गांव है। इस गांव इसकी मिट्टी इसकी हवा को छोड़कर कहीं और जाना उसे पसंद नहीं । पिता के चेहरे को देखा ही नहीं सिर्फ दादा जी के छांव में ही वह बड़ा हुआ उसके मन ने कभी चोरी नही की ऐसा वह सोच भी नहीं सकता।

"फिर भगवान ही कोई लड़की को यहां भेज दे तो सही !"

जिस दिन मां ने यह बात बोली उसी दिन लावण्या यहां आई।

यह अकस्मात घटना है? दैविक संकल्प है ! लावण्या तुम यहीं रुक जाओ....

"हेलो !"

उसने चमक कर देखा। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर राजशेखर वहां सामने खड़े थे।

"ओ! हेलो !"

"अभी मैं तुम्हें कांटेक्ट करने की सोच ही रहा था आनंद !"

"क्या बात है ?"

"आपके अस्पताल में वह लड़की है ना ?"

"कौन सी लड़की ?"

उसके पेट के अंदर कुछ उथल पुथल हुआ, बेवकूफ ! अब यह सब जो बोल रहे हैं उस एक ही लड़की के बारे में तो है-

"वही जो बस में बच गई थी उसे ढूंढते हुए कोई आया है !"

उसे एक भ्रम एक धोखा जैसे समझ में ना आने वाली मनोस्थिति पैदा हुई।

आनंद ने राजशेखर को ठीक से देखा।

"जो आया है वह कौन है ?"

"मामा” बता रहा है।"

"वे उसका प्रूफ लेकर आए हैं क्या ? उस लड़की की फोटो वैगरह कुछ लाए हैं क्या? नहीं तो उस लड़की को देखने के पहले कोई निशानी बताई ?" कहकर आनन्द चुप हुआ |

राजशेखर की निगाहों में थोड़ा सा आश्चर्य दिखा।

"आप क्यों इतने परेशान हो रहे हो आनंद ? ठीक से पूछताछ किए बिना हम उस लड़की को नहीं भेजेंगे..."

वह अपने को थोड़ा संभाल कर धीरे से बोला; "उसका केस आपको पता है ना ? टोटल एमिनेसिया ! पुरानी कोई बात उसे याद नहीं। इस तरह एक विस्मृति की स्थिति में उस लड़की को रिश्तेदार बताते हुए कोई आए तो उस पर विश्वास नहीं कर सकते।"

राजशेखर धीरे से मुस्कुराए।

"एक्जेक्टली बहुत सुंदर लड़की है यह भी मैंने सुना।"

"सुंदर है या नहीं, वह एक विचित्र स्थिति में रह रही लड़की है।"

"सुंदरता भी मिली हुई है यह बहुत बड़ी विशेष बात है। सब कुछ अच्छी तरह से पता लगाए बिना उसे नहीं भेजेंगे। आप फिकर मत करिए।"

"वह आदमी कहां है ?"

"वह मेरे ऑफिस रूम में बैठे हैं। आप इस तरफ कैसे आए ?"

"मैं घर खाना खाने जा रहा हूं।"

"आप खाना खाने जाइए। मैं उस आदमी को 1 घंटे बाद लेकर आऊंगा।"

"ओके !"

'आराम से लेकर आओ। कोई जल्दी नहीं है' ऐसा बोलने की उसे इच्छा हुई अपने अंदर उठी तीव्र इच्छा को उसने दबा लिया। आखिर में यह है तो सोचा हुआ विषय ही है फिर भी उसके मन में इस तरह अचानक दुख कहां से आ गया उसे खुद आश्चर्य हो रहा था । उसने तुरंत अपने आप को संभाला। 'मेरी उम्र 28 साल। मैं जिम्मेदार डॉक्टर हूं। इस गांव का एक सम्मानित आदमी। समझदारी के साथ चलना ही होशियारी है। लावण्या के रिश्तेदार आ गए.... सो व्हाट ? यह मेरी भांजी है। बांए कान के पास एक मस्सा है, है कि नहीं देखकर बताइए ऐसा यदि वह कोई निशान नहीं बताएं तो जैसे सिनेमा में होता है वैसे। मैं उसीलपट्टी इसे लेकर जा रहा हूं। जाने दो जाने दो आराम से लेकर जाओ। मुझे उससे जो अपनत्व तो मिला है मैं सिर्फ 10 दिन का है। उनका तो पूरे जन्म का साथ है। लावण्या अपनी लंबी बाहों के पंख जैसे फड़फड़ा कर, "इतने दिन आपने मुझे देखा उसके लिए थैंक्स। "ऐसा मुस्कुरा कर गाड़ी में जाकर मामा के साथ जाते हुए हाथ हिला देगी.... आखिर में एक मुस्कान दिखाकर-गाल में पड़े गड्ढे... 1 हफ्ते से मन में आ रही भावनाओं से अनजान..... ओ उसको जो भूलने की बीमारी है वह मुझे आ जाएं तो अच्छा रहेगा। 10 दिन से जो अनुभव किया वह सिर्फ सपना है यह भी याद नहीं रहे तो कितना अच्छा होगा....'

वह जब घर पर गया तो अम्मा घर पर नहीं थी अच्छी बात है। किसी के घर तिरुपुगर भजन में गई होगी।

आनंद खाना खाकर जल्द ही अस्पताल की तरफ रवाना हुआ।

'सो दैट इज देट' अपने आप में बोला।' अब उसे और मुझे असमंजस की स्थिति में रहने की जरूरत नहीं। खोए हुए नाम को ढूंढने की जरूरत नहीं। दिशाहीन बीच समुद्र में रह रही हूं ऐसी बातें कहने की अब जरूरत नहीं। उसके नाम को याद करने के लिए कुल गोत्र बताने के लिए एक मामा आ गए। उन्हें साफ-साफ बता देना होगा। लावण्या अभी यात्रा करने की स्थिति में नहीं है, और दो-तीन हफ्ते के बाद ही उच्चलंम पेंटी, तुल्लुकंम पेंटी को ले जा सकते हो ऐसा बोलना पड़ेगा.....'

उसे अचानक ज़ोर से हंसना पड़ेगा ऐसे लगा। कैसे बच्चे जैसे उसके मन ने सोचना शुरु कर दिया यह सोचकर उसे थोड़ा बुरा लगा। मुझे क्या हुआ है?

वह अस्पताल के कंपाउंड में घुसा तो दोपहर की खुमारी में सब लेटे हुए थे।

वह सीधे अपने ऑफिस के कमरे में गया। किसी काम में उसका मन नहीं लगा किसी का इंतजार करते हुए बैठा रहा।

कलेक्टर की जीप कंपाउंड के अंदर आती खिड़की से दिखाई दी । कुछ ही समय में दरवाजे को धीरे से खटखटा कर राजशेखर एक नए आदमी के साथ अंदर आए।

"यही मिस्टर वेदनायकम हैं।"

आनंद उठा।

"आइए बैठिए ! बैठिए श्रीमान वेदनायकम।"

वेदनायकम सीधा सरल आदमी तमिल के पुजारी जैसे था। उसने धीमी मुस्कान के साथ उन्हें देखा।

"कहिए श्रीमान वेदनायकम, अपनी बात तो बताइए। "वे एक बड़े इतिहास की कहानी शुरू करने वाली आवाज में बोले: "पिछले महीने 21 तारीख होगी सोचता हूं। मेरी दीदी, उसका पति और उसकी लड़की राधा तिरूचि वापस आने के लिए रवाना हुए। मैं गांव गया था। मैं परसों ही वहां से वापस आया। आते ही पता चला वे जिस बस से रवाना हुए थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। सुनते ही मैं सदमे में आ गया।

वे भावनाओं में खोकर थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले "फिर मैंने 20 साल की लड़की बच गई पेपर में पढ़ा। मुझे लगा वह राधा ही हो सकती है इसलिए देखने आ गया।"

"उस लड़की की कोई फोटो आदि लाए हो ?"

"फोटो तो नहीं है।"

"वह लड़की कैसी है थोड़ा सा उसके बारे में बताइए। यदि आप बता रहे हो वैसा हो तो डॉक्टर मालूम कर लेंगे।"

"लड़की को देखकर ही बता दूंगा ना !"

"कोई बात नहीं। आप थोड़ा बताइए रंग, लंबाई आदि के बारे में यह हम पूछ रहे हैं इसका एक कारण है....."

"साधारणतया लंबी वह लड़की।"

"रंग ?"

"गौरी अच्छी बहुत सुंदर है।"

आनंद को अंदर से कुछ खुल गया जैसा महसूस हुआ। अगली बात गाल में पड़ने वाले गड्ढे के बारे में बोलेंगे क्या?

"आपको एक फोटो साथ लेकर आना चाहिए था।"

"क्या कह रहे हो ! दीदी का पूरा परिवार है खत्म हो गया उस समय फोटो के बारे में याद किसे रहेगी ? आप लोग पेपर में तो ऐसा लिखते ? यह असमंजस की स्थिति क्यों ? वह लड़की मेरी भांजी है तो मैं बता दूंगा। वही मामा कहेगी मुझे।"

आनंद कुछ कहने के लिए मुंह खोलने वाला था इतने में राजशेखर जी के हाव भाव को देख चुप हो गया।

राजशेखर उठे।

"ठीक है आइए। पेशेंट को देख सकते हैं ना डॉक्टर ?"

"हां हां क्यों नहीं।"

अस्पताल में एकदम शांति थी।

लावण्या आंखों को बंद कर लेटी हुई थी चित्र के जैसे...!' अरे श्रीमान वेदनायकम यह निश्चित रूप से तुम्हारी भांजी नहीं होगी। इतनी सुंदर भांजी ? सचमुच नहीं हो सकता। वह गोरी आपने बताया। आपने जो वर्णन किया उससे 100 गुना सुंदर ज्यादा है यह लड़की.....!

पहली बार लावण्या को देखकर राजशेखर की निगाहें आश्चर्य चकित रह गई।

आदमी क्लीन बोल्ड आनंद ने सोच लिया।

तुरंत अपने को संभाल कर राजशेखर ने पूछा "क्यों मिस्टर वेदनायकम ! यह लड़की तुम्हारी भांजी है?"

आवाज सुनकर लावण्या ने आंखें खोली। आनंद को देखकर उसने एक पहचान वाली मुस्कान बिखेरी। परंतु और लोगों को देखते ही असमंजस में पड़ी।

"क्या बात है मिस्टर वेदनायकम ?"

"नहीं जी !" फिर बोले "यह लड़की नहीं है।"

क्रमश...