दह--शत - 5 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 35

    "सर..."  राखी ने रॉनित को रोका। "ही इस माई ब्रदर।""ओह।" रॉनि...

  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

श्रेणी
शेयर करे

दह--शत - 5

एपीसोड ---५

महिला समिति की तरफ़ से कभी बच्चों के शेल्टर होम जाना हो या अस्पताल में सामान बाँटने समिधा कविता को बुला लेती है, बिचारी घर में पड़ी-पड़ी बोर होती रहती है ।

समिधा वहाँ जाते समय गाड़ी में कविता को बताती जाती है, “जैसे-जैसे दुनियाँ प्रगति कर रही है, महिलायें अच्छी शिक्षा पा रही हैं ये महिला समितियाँ भी बदल रही हैं । ये अब कोई रेसिपी या व्यंजन बनाना सीखने की जगह नहीं रही है । केम्पस में सुधार, आस-पास के गरीब बच्चों में सुधार आरम्भ हो जाता है । यदि कोई पदाधिकारी साहित्यिक अभिरुचि की होगी तो एक पत्रिका प्रकाशित करेगी, कोई केम्पस में बेकार पड़े स्टोर को सुंदर हॉल में बदल डालेगी ।

“ऐसा ऽ ऽ ।”

“हाँ ! इन कामों में मेन पॉवर तो ‘एडमिनिस्ट्रेशन’ की रहती है, इसलिए ये समिति बहुत काम कर लेती है । कविता तुम चाहो तो ‘शेल्टर होम’ में बच्चों को पढ़ाने का काम कर सकती हो। सप्ताह में दो तीन बार गाड़ी से जाना होता है ।”

“अरे नहीं, इस काम में मेरा इन्टरेस्ट नहीं है ।” वह गर्दन झटककर कहती है, “और हाँ, मैं एक बात पूछना चाह रही थी । आप रोज़ दोपहर डेढ़ घंटे सोती हैं । कोई बता रहा था आप कोई गोली खाकर सोती हैं ?”

“वॉट ? कैसा अजीब सा प्रश्न कर रही हो ? गोली खाकर क्यों सोऊँगी ? ‘मेन्टल वर्क’ के लिए दिमाग़ को आराम देना भी ज़रूरी है ।”

कविता को सोशल वर्क के रुचि नहीं है .तो फिर किस काम में रुचि है ? समिधा सोचती रह जाती है ।

xxxx

सप्ताह भर बाद ही समिधा ने दरवाज़ा खोला देखा कविता, बबलूजी व सोनल खड़े हैं । कविता उसे देखकर मुस्कराई, “बधाई हो जी ।”

“तो आप लोगों को खुश ख़बरी मिल गई ।”

“हाँ जी, कैसे नहीं मिलती ?”

बबलूजी अंदर आते बोले, “कल विकेश रास्ते में मिले थे वे बता रहे थे अक्षत एक वर्ष के लिए लंडन जा रहा है ।”

“हाँ, उपर वाले की मेहरबानी है । नेट के थ्रू उसे वहाँ जॉब मिल गया है ।”

वह जब बबलूजी से बात कर रही है तो ये देख हैरान हो गई कविता नीली, पीली, सफ़ेद रंग की लहरिया साड़ी में दीवार के बीच में खड़ी अधमुँदी आँखों से उसे एकटक घूरे जा रही है । उसके होठों पर हल्की मुस्कान की स्मित है लेकिन उन अधमुँदी आँखों में जंगली भयानक सा क्या है ? इन आँखों के सफ़ेद रंग से वहशीपन टपका पड़ रहा है । ये अधमुँदी आँखें किसी इन्सान की आँखें नहीं हो सकतीं । ये आँखें क्यों किसी जंगली जानवर की भयावहता की याद दिला रहीं हैं ? समिधा अपने को बहुत सुदृढ़ दिमाग़ वाली महिला मानती है लेकिन फिर भी उस पर टिकी इस भयावह दृष्टि में ऐसा ख़ौफ़नाक कुछ है कि समिधा को लगा कुछ क्षण के लिए उस के अंदर कुछ ज़ोर से हिल गया है । उसने सकपकाते हुए कहा, “अरे ! आप लोग खड़े-खड़े ही बात करेंगे या बैठेंगे भी ।”

तब तक अभय भी अंदर से ड्राइंग रूम में आ गये, “ओहो नमस्ते ! आप लोग आये हैं ।”

“नमस्कार भाई साहब !” कविता ने नज़ाकत से नमस्ते की ।

“बधाई हो भाई साहब । आपका बेटा लंडन जा रहा है ।” बबलू जी ने उठकर उनसे हाथ मिलाया ।

“सब लोग बधाई दे रहे हैं । मैं इस ख़बर से पत्थर जैसी हो गई हूँ ।” समिधा कहती है ।

“अरे ! लोग तो अपने बच्चों को विदेश भेजने के लिए पैसा खर्च करते हैं और आप ऐसा कह रही हैं ।”

“जब तुम्हारा कोई बच्चा विदेश जायेगा तब पता लगेगा । ऐसा लग रहा है जैसे कलेजा काटकर देना पड़ रहा है । मुझे तो ऐसा लग रहा है बरसों से हम एक परिवार, एक घर को संजोते आ रहे थे, वह बिखरना आरंभ हो गया है ।”

“आपके बेटे की जिंदगी बन जायेगी ।”

“वो बात ठीक है । आजकल फ़ोन व नेट की सुविधा है । पता नहीं पहले माँयें बेटे के बाहर जाने पर कैसे सहन करती होंगी ?” कहते-कहते उसकी आँखें छलछला आती हैं ।

“साहबज़ादे अक्षत है कहाँ ?”

“कम्प्यूटर के सामने बैठे-बैठे अपनी कम्पनी को मेल भेजते रहते हैं ।”

समिधा अंदर जाकर अक्षत को बुला लाती है । उसे देखकर कविता अपनी जगह से उठकर कहती है, “अक्षत जी ! आप यहाँ बैठिए ।”

अक्षत सोनल की पास वाली कुर्सी पर बैठने से सकुचा रहा है क्यों कि उससे एक दो बार ही मिला है ।

“काँग्रेट्स भैया ।” सोनल तिरछी नज़रों से उसे देखते हुए बधाई देती है ।

“थैंक यू ।”

“पार्टी कब दे रहे हैं ?”

“मॉम से पूछिये ।”

“पार्टी तो देंगे ही इसके जाने की तारीख निश्चित हो जाये ।”

उनके जाने से बाद समिधा का मन उस अधखुली भयानक आँखों में ही उलझा रहा । कविता उससे सात आठ वर्ष छोटी बी.ए. पास मामूली औरत है । वह क्यों उसकी दृष्टि से हिल गई थी ? बबलूजी बम्बई छः वर्ष रहे हैं, वह अपने बच्चों को लेकर इसी शहर में रही है । अच्छी खासी औरत अकेली त्रस्त हो जाये लेकिन ये कैसे विकट आत्मविश्वास से भरी रहती है ।

अक्षत से जाने से पहले वे लोग एक घरेलू पार्टी आयोजित करते हैं । कुछ खास मित्र परिवारों को ही बुलाया है । समिधा की नज़र से छिपा नहीं रहता । अपने परिवार की तरफ़ से सोनल अक्षत को बड़ी अदा से बुके देती है ।

दूसरे दिन ही अक्षत की फ़्लाइट है । अक्षत का चेहरा उतरा हुआ है, “मॉम ! मैं नर्वस फ़ील कर रहा हूँ ?”

“क्यों ? आई एम प्राउड ऑफ़ यू । कितनी मुश्किल से ये सब नसीब होता है ।”

उसके जाते ही समिधा का सारा शरीर शिथिल हो गया है । आँखों से आँसू तो नहीं निकल रहे लेकिन आँखों में स्थिर हो गये हैं । अक्षत उसका मातृत्व का पहला प्यार है, रोली दूसरा । बड़े चाव से उसने उन्हें पाला है, बहुत किताबें, पत्रिकायें पढ़कर डॉक्टर की एक-एक हिदायत मानकर । अक्षय के साथ काम करने वाला उनका मित्र विकेश हमेशा मज़ाक उड़ाया करता था, “आप हमेशा ‘टेन्स’ सी क्यों रहती है ? सबके बच्चे छोटे होते हैं । आप घड़ी देखकर सात बजे सुबह दूध देती हैं, नौ बजे फेरेक्स, बारह बजे फल....खैर कहाँ तक गिनाऊँ ? मुझे तो अपने बच्चों की चिन्ता होती है ।”

वह हँस पड़ी थी, “अभी आपकी शादी तो हुई नहीं है और बच्चों की चिन्ता ?”

“भाभी ! मुझे तो प्रोफ़ेशनल बीवी चाहिए । वो आपकी तरह मेहनत से बच्चे थोड़े ही पालेगी ।”

“मैं भी खाली थोड़ी बैठी हूँ । ट्यूशन्स करती रहती हूँ ।”

“लेकिन घर पर सबकी देखभाल भी तो अच्छी तरह करती हैं ।”

कॉलोनी की सड़कों, पेडों से सरसराती हवाओं में अक्षत की यादें बसी हैं । कॉलोनी के किसी हिस्से में निकलो, लगता है वह यादें साथ-साथ चल रही हैं । कभी प्रैम चलाती मंजु उसमें उसमें बैठा गदबदा अक्षत, हाथी के मोटिफ वाले बिंब को खींचता हुआ । प्रैम के चारों ओर चलते पाँच-छः बच्चे । कोई उसके गाल खींचता, कोई उसे हँसाने की कोशिश करता । दूसरी सड़क से निकलो तो लगता वह अपने स्कूल यूनिफार्म में साइकिल चलाता सामने आ जायेगा..... इस तिराहे पर उसे देखकर वह अपनी सनी रोक कर ‘पी’ ‘पी’ हॉर्न बजाने लगेगा....या सड़क पर अपना स्कूटर रोककर कहेगा “मॉम ! आपका ड्राइवर हाज़िर है ।”

कभी वह स्कूटर चलाता अक्षत एक गोल-मटोल बच्चा बनकर गोदी में आ जाता । रास्ता चलते लोग कमेन्ट्स करते “बाँनीसन बेबी”, “क्यूट बेबी ” । वह एक बड़े बेबी शो में प्रथम आया था ।

जब भी समय मिलता अक्षत लंडन में कम्प्यूटर के सामने बैठा होता और वैबकॉम लगाकर अपने घर के कम्प्यूटर के सामने । अक्षत चैट करते समय उदास गर्दन झुकाये बैठा रहता व संदेश देता ‘बस एक घंटे बात करनी है ।’ लेकिन पता नहीं चलता कब डेढ़ घंटा होता, कब दो घंटे गुजर जाते ।

रोली कभी भावनाओं में बहती समिधा को सम्भालती, कभी कम्प्यूटर को ।

एक दिन अक्षत इतना भावुक हो रहा था लग रहाथा अभी रो पड़ेगा । समिधा ने रोली को उठाकर की-बोर्ड पर टाइप किया, “कोलम्बस को याद करो, जो छोटे से जहाज में समुद्र में निकल पड़ा था जिसे अपने लक्ष्य तक नहीं पता था । उसने अपने को अकेले कैसे संभाला होगा ? ”

दो तीन दिन बाद उसे अक्षत का ई-मेल मिला, “आपका कोलम्बस चलता जा रहा है, चलता जा रहा है, मज़बूती से कदम बढ़ाता ।”

नीता व अनुभा उसके ड्राइंग रूम की मेज़ को छूकर कहती है, “टच वुड ! तेरा बेटा जनरस है , लंडन जैसी रंगीन जगह में भी पेरेन्ट्स से घंटों चैट करता रहता है ।”

अक्षत का एक सीनियर जब भारत आकर उनसे मिलता है, उसके विस्तार से समाचार देता है तब उसके कलेजे में शांति होती है ।

***

पोस्टमैन एक दिन ग़लती से कविता के घर का पत्र उनके घर डाल गया । समिधा को बाज़ार जाना था। उसने सोचा वहीं उसे पत्र देती निकल जाये ।

कविता के फ़्लैट का दरवाजा एक लम्बे आदमी ने खोला। समिधा एक अजनबी को देख थोड़ी अचकचा गई, “जी आप?”

“मैं वर्मा जी का रिलेटिव हूँ। अंदर आइए ।”

उसके सोफ़े पर बैठते ही कविता दूसरे कमरे से निकल कर आ गई। “नमश्का ऽ ऽ ऽ रजी...। ”

“तुम्हारा एक लेटर ग़लती से पोस्टमैन हमारे घर डाल गया था, उसी को देने आई हूँ।” समिधा को कविता के चेहरे पर बिछी घबराहट व बिखरे बालों को देखकर महसूस होता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है।

“थैंक्स . . . इनसे मिलिए . . . ये हैं मेरे जीजा जी।”

“नमस्ते।”

“नमस्ते, हाँ, समिधा तुमने बताया था तुम्हारी व बबलूजी की कज़िनस यहाँ रहती हैं । ये जीजा जी वही लगते हैं जो ‘इंटरनेशनल कम्पनी’ में काम करते हैं।”

“ हाँ, आपने ठीक पहचाना । इनका ट्रांसफ़र हो गया है। ये लोग हमारा शहर सूना करके जा रहे हैं।”

उसके जीजा जी ने एक मीठी नज़र से उसे देखा, “ दुनिया छोड़कर थोड़े ही जा रहे हैं? यहाँ आते रहेंगे। ”

“ वो तो है, अच्छा है, आप मिल गई हैं नहीं तो यहाँ रहना मुश्किल हो जाता। ”

“ अच्छा कविता, ! मैं चलता हूँ। तुम सब संडे को हमारे यहाँ आ रहे हो? ” उसके जीजा जी मेज़ पर रखा हैलमेट उठाकर उसे मीठी नज़रों से देखते हुये कहते हैं।

“ओ श्योर। ” कविता अपने सारे शरीर को लचकाती कहती है।

समिधा कविता के घर चाय पीने का मूड बनाकर आई थी लेकिन पता नहीं उसका क्यों दम घुटने सा लगता है। उनके जाते ही वह भी समय की कमी का बहाना बनाकर उठ लेती है।

इन जीजा से कविता का क्या रिश्ता है जो वह अचानक उसे अपने घर आया देखकर असहज हो गई थी ?

--------------------------------------------------------------------------------------------

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail ---kneeli@rediffamail.com