होने से न होने तक - 35 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 35

होने से न होने तक

35.

जितनी आसानी से और जितनी जल्दी यश ने हॉ कर दी थी उसको ले कर मन में बाद तक कुछ चुभता रहा था। क्या यश मेरी तरफ से ही आग्रह किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि किसी भी प्रकार के अपराध बोध से मुक्त रह सकें वे? क्या आण्टी समझ गयी थीं वह बात? ख़ैर जो भी हो।

एक अकेलापन है। एक जान लेवा ख़ालीपन दिल और दिमाग पर जम गया है। मुझे तो एक एक क्षण बिताना कठिन हो रहा है। यश के बिना यह जीवन कैसे कटेगा पता नहीं। लग रहा है कोई चमत्कार हो जाए जो दिल और दिमाग पर लदा यह बोझ और बेचैनी अनहुयी हो जाए। पर कैसे।

पॉच दिन बीत चुके यश नहीं आए हैं। यश वापस चले गये क्या? मुझसे बिना मिले? अच्छा ही है। यश से मिलने की, उनके सामने बैठ कर उनसे बात करने की कोई भी इच्छा नहीं है शायद मन में। शायद उतना साहस भी नहीं। समझ नही पाती कि यश सामने होंगे तो उन से क्या बात करूॅगी। यह भी समझ नही आता कि यश साथ होंगे तो मैं कैसा महसूस करुंगी। अब तक तो आण्टी पूरी तरह से स्वस्थ हो चुकी हांगी और अब तक तो यश सिंगापुर लौट ही चुके होंगे। पर यश मुझसे बिना मिले कैसे चले गये यह बात दिमाग में बार बार घूमती रही थी। लगा था जैसे ज़िदगी अचानक अकेली और रीती हो गयी हो।

ग्यारह जनवरी से सभागृह में एन.एस.एस. का डे कैम्प शुरू हो गया था। सुबह नौ बजे से झाड़ू, टोकरी और झाड़न लिए लड़कियॉ वहॉ मॉजूद थीं और सफाई का काम शुरू हो गया था। पॉचों यूनिट्स की इंचार्ज टीचर्सं बैठ कर लड़कियों को काम करते देखती रही थीं और आपस में बातें करती रही थीं। एन.एस.एस. की सभी टीचर्स ख़ुश थीं कि चलो चार दिन का कैम्प तो बड़ी आसानी से बिना किसी दौड़ भाग के अपने ही कैम्पस में ही निबट गया।

‘‘पर यूनिवर्सिटी में क्या लिखेंगे कि सभागृह में क्यों और क्या काम किया गया?’’कृष्णा अग्रवाल ने पूछा था।

‘‘अब दीपा दी ही बताऐंगी कि वहॉ क्या लिख कर भेजें’’ कंचन वाहल बोली थीं।

‘‘बगल में ही जो अस्पताल है लिख देंगे कि वहॉ का कम्पाउण्ड साफ किया।’’ कृष्णा अग्रवाल ने सुझाव दिया था।

‘‘ऐसे कैसे। कुछ भी लिख देंगे क्या। अस्पताल से वैरीफाई नही कराना पड़ेगा क्या।’’ कंचन ने झुंझला कर कहा था।

मानसी ने डपटा था,‘‘अरे अभी तो मिसेज चौधरी की मुसीबत से निबट लें पहले बाकी पेपर फार्मेलिटी की बात बाद में सोंचेंगे।’’मानसी ने अपनी बात पूरी की थी।

‘‘अरे बेकार ही परेशान हो रहे हैं हम लोग।’’ पद्या ने पूरे प्रकरण को बड़े हल्के ढंग से निबटा दिया था,‘‘हम लोगो को ही चिन्ता रहती है। कितने ही कालेज हैं जो अपने ही कैम्पस की धुलाई पुछाई करा कर हर साल अपने डे कैम्प निबटा देते हैं।’’

‘‘हमारे तो समझ नही आता कि एन.एस.एस. कैम्प के नाम पर हमेशा स्टूडैन्ट्स को झाड़ू और झाड़न ही क्यों पकड़ा दिया जाता है। अरे भई पढ़े लिखे बच्चों से पढे़ लिखे सोशल वर्क कराने चाहिए। सरकार को पैसा फेंकना है। कालेजों को अपनी भागीदारी का खाता भरना है और स्टूडैन्ट्स को सर्टिफिकेट लेना है। चलो भैया हो गया काम।’’ मानसी ने अपनी राय दी थी,‘‘सब एक दूसरे को इस्तेमाल कर रहे हैं। पूछो सोसायटी का कौन सा भला होना है करोड़ों अरबों रुपयों की इन स्कीम्स से। बस नाम धर दिया है सोशल सर्विस स्कीम।’’

‘‘नहीं होने को होता भी है भला। महाराष्ट्र में तो कहते हैं इन स्कीम्स में बड़ा मीनिंगफुल काम हुआ है। अभी भी हो रहा है।’’

तभी मिसेज़ चौधरी के साथ दीपा दी आ गयी थीं और बातचीत वहीं रुक गयी थी।

बारह जनवरी को सुबह ग्यारह बजे से कार्यक्रम शुरू होना है। सभी सैक्शन की टीचर्स दस बजे से पहले वहॉ पहुंच गयी थीं। एन.एस.एस. की पॉचों यूनिट्स अपनी टीचर्स के साथ सुबह से सफाई और सजावट के लिए मौजूद हैं। आठ दस और महिलाऐं भी वहॉ दिख रही हैं। स्मार्ट, सुन्दर साड़ियॉ पहने, डिज़ाइनर पर्स के साथ। अतिथि होतीं तो बैठी होतीं। किन्तु वे लोग तो मंच माईक आदि की व्यवस्था देख रही हैं। मंच पर बैठने वाले अतिथियों की कुर्सियों के सामने मेज़ पर फोलियो रख रही हैं। जिज्ञासा जल्दी ही शॉत हो गयी थी। जूनियर सैक्शन की मिसेज़ चटर्जी के पति रजिस्ट्रार रजिर्स्ट्ड सोसायटी के दफ्तर मे काम करते हैं उन्होने ही बताया था कि मिसेज़ चौधरी ‘वुमैन वैल्फेयर एण्ड रिसर्च’’ नाम की कोई स्वैच्छिक संस्था चला रही हैं।

रोहिणी दी हॅसी थीं,‘‘ओ तभी अक्टूबर में ‘गर्ल चाइल्ड पर सैमिनार हुआ था, नवम्बर में महिला कल्याण पर लैक्चर हुआ था। अब तीन दिन का यह वर्कशापं। अभी तो आठ मार्च का महिला दिवस आना है।’’

मानसी जी खुल कर हॅसी थीं,‘‘हर दूसरे महीने की एक्टीविटीस का यह नाटक तीन साल से झेल रहे हैं। पर अब समझ में आया है। अपनी संस्था खोली हुयी है और वहॉ का खाता हम सब की चॉद पर पूरा होगा। वैन्यू हमारा आडिटोरियम, साफ सफाई हमारी लड़कियॉ,व्यवस्था हमारी टीचर्स और भीड़? वह भी हम ही हैं।’’

इण्टर की मंजुला शुक्ला ने मानसी की तरफ देखा था,‘‘अभी तो कुर्सी पर बैठे तीन साल ही हुए हैं। अभी तो फिर भी इफ्तदाए इश्क है। आगे आगे देखिए होता है क्या।’’

‘‘होना क्या है,’’इन्टर की शालिनी बोलीं थीं,‘‘पहले साल थोड़ी सख्ती की थी इन्होंने,उसके अगले साल थोड़ी और ज़्यादा की। इस साल थोडी और ज़्यादा कर रही हैं। इस साल इनकी इन एक्टिविटीज़ का नम्बर भी बढ़ता दिख रहा है। अब अगले साल’’

मंजुला ने शालिनी की बात बीच में काट दी थी,‘‘अरे यार तुम तो फ्यूचर को एकदम डार्क पेन्ट कर रही हो।’’

‘‘जो सच है वही तो कह रहें हैं।’’ शालिनी ने कन्धे उचकाए थे।

‘‘तीन साल से जीना हराम कर दिया है। अब कितना? इससे ज़्यादा क्या करेगी?’’पद्या के स्वर में हताश सी हैरानगी है।

‘‘बिल्कुल सही कह रही है शालिनी।’’मानसी जी ने अपनी टिप्पणी दी थी ‘‘सिर्फ पेपर वर्क कर करके यह सब बड़ी भारी सोशल वर्कर हो गयीं। मलिन बस्तियों की स्त्रीयों पर हो रही है यह वर्कशाप। पूछो इनमें से कोई गया है उन बस्तियों में।’’मानसी के स्वर में वास्तविक रोष है ‘‘सरकार को देखो इन लोगो के वल्गर सपनों को पूरा करने के लिए कल्याण के नाम पर करोड़ों ख़र्च कर रही है। पूछो उन ग़रीबों को क्या मिल रहा है उसमें से। असल में सरकार में भी तो इन्हीं के चट्टे बट्टे बैठे हैं। इनकी सारी समाज सेवा कागज़ के पन्नों और आंकणों में पूरी हो जाती है। कभी फील्ड पर तो जाते ही नहीं यह लोग और महज़ कागज़ भरने के लिए लाखों की ग्रान्ट पा रहे हैं। जिन ग़रीब मजबूरों के नाम पर पैसा पा रहे हैं ये लोग वे बेचारे तो भूखो मर रहे हैं। वाह रे भारत सरकार और उसकी कल्याण नीतियॉ।’’

प्रायमरी सैक्शन की मिसेज़ चक रुअांसी लगने लगी थीं,‘‘अरे आप लोग तो सीनियर सैक्शन वाले हैं, आराम से हैं। यहॉ तो पचास फाइल कवर बनाने का आर्डर आर्ट टीचर को दे दिया गया। दो टीचर और पचास कवर। हफ्ते भर से रात देर तक बैठ कर यही काम कर रहे हैं। पसंद नही आए तो कुछ भी कैसे ही बोलती हैं। ड्रांइग का सामान मंगाने का जो सालाना बजट था उसमें आधे से ज़्यादा पैसा इसी में निबट गया।’’

तभी बाहर से हल्का शोर हुआ था,‘‘चीफ गैस्ट आ गयीं ’’किसी ने कहा था।

‘‘कौन हैं चीफ गैस्ट ?’’ किसी दूसरे ने पूछा था।

‘‘महुआ साहनी हैं। सैंन्ट्रल वुमैन वैल्फेयर बोर्ड की चेयर पर्सन हैं। शायद किसी मिनिस्टर की पत्नी हैं।’’

तब तक मिसेज़ चौधरी महुआ साहनी को ले कर मंच तक पहुंच चुकी थीं। मंच पर स्वागत गीत इन्टर की म्यूज़िक टीचर वन्दना चटर्जी ने गाया था। कैमरे के बटन दबने की चकाचौंध हॉल में होने लगी थी। टोकरी में सजा एक बहुत बड़ा गुलाबों का गुलदस्ता मिसेज़ चौधरी ने मुख्य अतिथि को भेंट किया था।

‘‘कम से कम हज़ार रुपए।’’मानसी धीरे से बोली थीं।

‘‘क्या ?’’बगल में बैठी प्रियंवदा ने पूछा था।

‘‘गुलाब के फूलों का यह गुलदस्ता।’’

उसके बाद तो बुके देने की लाइन लग गयी थी। एक एक कर के कम से कम दस बारह और मानसी सबकी कीमत आंकती रही थीं...तीन सौ...दो सौ...चार सौ...’’

सब लोग निबट गए तो मानसी चुप हो गयी थीं। प्रियंवदा ने उनके हाथ को हिला कर पूछा था‘‘कुल कितने हुए?’’

‘‘क्या?’’ मानसी ने पूछा था।

‘‘रुपये?’’

और दोनों हॅसने लगी थीं। अचानक मानसी गंभीर हो गयी थीं‘‘कभी कभी बड़ा दुख होता है।’’ मानसी धीरे से बुदबुदायी थीं‘‘समाज सेवा के नाम पर किस तरह से पैसे का व्यभिचार हो रहा है। प्लेन से आयी होंगी। फाइव स्टार होटल में ठहरी होंगी। हज़ारों के यह फूल...यह सजावट...फोटोग्राफी...इस सब का कल्याण से तो कहीं दूर दूर का वास्ता नहीं। इतने में तो कुछ ग़रीब औरतों का सच में उद्धार हो जाता। पर नहीं। वैलफेयर प्रोजैक्ट्स का कितना पैसा नाली में जा रहा है।’’

‘‘हॉ’’ केतकी ने अजब निगाहों से मानसी जी की तरफ देखा था। उसका चेहरा क्रोध और विद्रूप से सिकुड़ गया था,‘‘हॉ! कर्टसी यह और इन जैसे घटिया और बेईमान सोशल वर्कर और हमारी निक्कम्मी मूर्ख सरकार।’’

‘‘अरे सरकार में भी तो सब इन्हीं के भाई बिरादर बैठे हैं तभी तो इतनी आसानी से ग्रान्ट्स मिल जाती है इन्हें। कितने ऐसे हैं जिन्हें जैनुइन काम करने के लिए भी ग्रान्ट नहीं मिलती।’’ मानसी जी ने गुस्से से कहा था। तभी मंच से भाषण बाजी शुरू हो गयी थी, मुख्य अतिथि का स्वागत, उनकी महानता और सेवाओ के चर्चे। उस के बाद अपनी संस्था के बारे में विस्तार से...उसका लक्ष्य,उसके प्रयास, उपलब्धियॉ,योजनाऐं और सरकार से सहयोग की अपेक्षाऐं और अपील।मानसी अपने पर्स से छोटा सा नोट पैड और पैन निकाल कर उस पर कुछ लिखने लगी थीं। मैं उनके ठीक पीछे बैठी हूं। मैंने उनकी कमर के खुले हिस्से को अपनी ऊॅगली से हिलाया था,‘‘मानसी जी बड़े ज्ञान की बात हो रही है जो प्वाइन्ट्स नोट कर रही हैं ?’’

मानसी चुपचाप लिखती रही थीं और थोड़ी देर बाद वह नन्ही सी नोट बुक मुझे पकड़ा दी थी। मैं उसे पढ़ने लगी थी। शायद मानसी ने यह कविता अभी यहीं बैठ कर बनायी है।

वातानुकूलित

सभागृहों की,

नर्म गद्दियों पर

बैठ कर, समाज के लिए, चिन्तित

होने वाले समाज सेवियों चुप हो जाओ,

बंद करो यह बकवास,

तुम्हारी बातों से,

इरादों से,

बू आती है,

उनकी मलिन बस्तियों

से अधिक, बदबूदार.

कविता के एक तरफ ‘‘बहुत सही’’ लिख कर मैं ने उसे चार बार अण्डर लाइन कर दिया था। फिर वह नोट बुक एक से दूसरे के हाथ में घूमती रही थी और सब एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते रहे थे।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com