होने से न होने तक
36.
बीस तारीख की मीटिंग का नोटिस आया है। मीटिंग होने की बात पर हम सब को थोड़ी उलझन हो जाती है। पता नही किस बात पर मिसेज़ चौधरी चिड़चिडाने लगें,किस बात पर तानों की भाषा में बोलने लगें। फिर इस बार विशेष रूप से लगा था कि अभी कुछ दिन पहले हुई कार्यशाला के संदर्भ में न बुलायी गयी हो यह मीटिंग। वैसे तो सभी कुछ बहुत अच्छी तरह से निबट गया था पर अपने इतने लम्बे अनुभव से हम लोग जान चुके हैं कि मिसेज़ चौधरी को सही दिखायी नहीं देता है और उसके बीच ग़लत ढूॅड निकालने की उन्हे आदत है। वह किसी भी काम से ख़ुश होने में या हम सब की तारीफ करने में विश्वास नही करतीं।
मिसेज़ चौधरी ने बोलना शुरू किया था। वे विद्यालय को लेकर अपनी आशाऐं,अपेक्षाऐं और योजनाऐं बताती रही थीं। कोई बात बहुत ग़लत भी नही लगी थी। पर अन्त तक आते आते उनका स्वर सख्त होने लग गया था,‘‘जो कुछ यहॉ सालों से चल रहा था वह सब हमें पता है। फन्ड्स की हेरा फेरी, स्टाफ की मनमानी और उद्ंदडता।’’
एक आदत की तरह मानसी का मुह कुछ कहने के लिए खुला था और उनका हाथ कुछ बोलने की अनुमति मॉगने के लिए ऊपर उठ गया था। मिसेज चौधरी ने एक बार सख्त निगाह से उनकी तरफ देखा था और अपनी बात उसी स्वर में जारी रखी थी,‘‘हमें पता है कि जो कुछ यहॉ चल रहा था उसे बदलने में समय लग सकता है। हमे यहां आये काफी समय हो चुका है और हम और समय बर्बाद करने के लिए तैयार नही हैं। हमें बदलाव चाहिए और तुरंत चाहिएं उसके लिए हम आपसे मदद की अपील करें उतना समय हमारे पास अब नहीं है और हम उसकी ज़रूरत भी नही समझते हैं। इसलिए हम रास्ते बनाऐंगे और आपको उन पर चलना होगा। उन्हे लागू करना हमारा काम है। हो सकता है हमें उसके लिए कुछ हार्श डिसीशन्स लेने हों।’’ उन्होने घूर कर पीछे बैठी मीनाक्षी की तरफ देखा था,‘‘हम आपको यह भी बता दें कि हम स्टाफ को बताने आए हैं। उनसे राय करने के लिए या उनसे कुछ पूछने के लिए नहीं आए हैं।’’ वह बात उन्होने सभी को संबोधित करके कही थी पर कुछ क्षण के लिए उनकी निगाह मानसी पर ठहर गयी थी। वे कुर्सी पर बैठ गयी थीं। स्टाफ में बहुत धीमें से सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी जैसे बहुत चुपके से। तभी मिसेज़ चौधरी को कुछ याद आ गया था। वे वैसे ही बैठी रही थीं और उन्होने सब की तरफ देख कर हाथ को धीमे से उठाया था जैसे चुप हो जाने का आदेश दिया हो। हाल में एकदम सन्नाटा हो गया था,‘‘देखिए मैनेजमैण्ट का काम कालेज को मैनेज करना है। मैनेजर या मैनेजमैंण्ट जब फादर फिगर बनने की कोशिश करता है तो केऑस होता है इसलिए आप लोग पिछले मैनेजमैण्ट की दुहाई देना बन्द कर दीजिए। जैसा यहॉ चल रहा था वैसा अब नही चलेगा। वैसे भी हम पास्ट की बात नहीं सुनना चाहते। आपके पास फ्यूचर के लिए कोई प्लान हो तो हमसे बात करिए। क्या था और आपने कालेज के लिए क्या क्या किया उस कहानी को हम बहुत बार सुन चुके हैं और उस में हमारा कोई इन्टरैस्ट नही है।’’वे प्रबंधक अग्रवाल की तरफ देख कर हॅसी थीं। वे भी हॅसे थे।
तीन चार दिन बाद ही सुना था कि प्रबंधतंत्र ने जूनियर सैक्शन की एक टीचर और प्रिंसिपल मिसेज़ दुबे को सस्पैंड कर दिया है। जिसने सुना वह स्तब्ध रह गया था। अभी कुछ दिन पहले ऑडिटोरियम में अपने लोगों की बातचीत याद आने लगी थी। पद्या का हैरान चेहरा याद आता है,‘‘अब कितना?इससे ज़्यादा क्या?’’
अपनी ताक़़त दिखाने के लिये कोई ऐसा भी कर सकता है। कोई किसी की नौकरी भी छीन सकता है। इतना तो हम लोग सोच भी नही सकते थे। मिसेज़ दुबे सालों से इस विद्यालय में थीं और करीब बारह साल से तो जूनियर सैक्शन की प्रिंसिपल के पद पर काम कर रही थीं। उनकी लगन,ईमानदारी,योग्यता और संस्था के प्रति उनकी निष्ठा के कारण पुराना मैनेजमैंण्ट उनका बहुत आदर करता था।
‘‘यह तो होना ही था’’ मानसी जी ने दुखी आवाज़ में कहा था,‘‘पूरे कालेज में उन्हे एक दो बलि के बकरे तो बनाने ही थे ताकि सब के बीच उनके आतंक का संदेश पहुंच सके। अब देखना उनसे ऑख मिला कर तो क्या कोई ऑख उठा कर भी बात करने की हिम्मत नहीं कर पाएगा। फिर जूनियर सैक्शन तो पूरी तरह से उनके अंगूठे के नीचे है। ग्रान्ट इन एड लिस्ट पर तो है नहीं जो सरकार का कोई कानून उस पर लागू होता हो। इसी लिए तो यह लोग उस सैक्शन को ग्रान्ट इन ऐड में लाने की कोशिश नही करते। उस के लिये एप्लायी तक नही करते। उसी सैक्शन से जेबें भरती हैं और उन्हीं पर ऑखें तरेरते हैं। वहीं तो जी भर कर मनमानी कर सकते हैं। हर तरह की धॉधली करते हैं यह लोग। वहॉ तो रावण राज्य चल ही सकता है...चलो तुम्हे रखा, तुम्हे बाहर निकाल दिया।’’ मानसी जी ने अपने विशिष्ट अंदाज़ में हाथ गिराने और उठाने की मुद्रा बनायी थी।
‘‘ज़िदगी भर शशि अंकल वहॉ के पैसे के साथ मनमानी करते रहे। अपनी सारी गुडनैस के बावजूद उन्होंने इस सैक्शन को कभी ग्रान्ट दिलाना नहीं चाही ताकि वहॉ सरकार की पकड़ न रहे। राम सहाय जी अपने पूरे टैन्यौर फायनैन्स बुक्स ही सही करने में लगे रहे। इस सैक्शन के लिये उन्होंने भी कुछ नही किया। उन लोगों बेचारों को उन्होने कभी कोई महत्व ही नहीं दिया। वे ईमानदार आदमी थे। उस सैक्शन के पैसे का उन्हें कोई लालच नही था। कोशिश करते तो इस सैक्शन को भी ग्रान्ट दिला सकते थे तो आज इन बेचारों की ऐसी दुर्गत तो न होती। वैसे भी उनकी रुचि हायर एडॅूकेशन में ही थी। उसी पर ज़्यादा मेहनत की उन्होंने।’’नीता ने कहा था।
‘‘नौकरी पेशा क्लास को डीमारैलाइज़ करने का सबसे कारगर हथियार उसमें नौकरी का डर पैदा कर देना है। ऐसे लोगों का मकसद दोषी को दंड देना नही होता बल्कि उससे ज़्यादा सब के बीच में डर का सदेश भेजना होता है ताकि कोई निगाह मिला कर भी बात न कर पाए। उससे उनको ताकतवर होने का एहसास मिलता है।’’ केतकी ने कहा था।
उन लोगों ने सही ही कहा था। जूनियर सैक्शन की तो नौकरी उनके हाथों में है पर यहॉ तो इन्टर और डिग्री तक की टीचर्स अजब तरह से डरी हुयी सी लग रही हैं। जल्दी ही जूनियर स्टाफ ही नहीं हर सैक्शन की टीचर्स में एक प्रकार का भय धीरे धीरे स्थायी भाव की तरह ठहरने लग गया था। यह वही चन्द्रा सहाय पी.जी.कालेज है कभी जिसकी हवाओं तक में आज़ादी की ख़ुशबू आती थी। जिसकी टीचर्स कभी शशि अंकल से आराम से बात कर लेती थीं। उनके साथ हॅसते थे। उनके साथ संस्था को ले कर सपने देखते थे। अपने अधिकार के लिए लड़ते थे और बेहतरी के लिए काम करते थे। वह विद्यालय के लिए एक प्रकार का जज़्बा था जो हम सब की धड़कनों मे बसा था।
सुना यह भी था कि मिसेज़ चौधरी ने मीनाक्षी के गाना न गाने का लिखित जवाब प्रिंसिपल से मॉगा है। उन्होने क्या स्पष्टीकरण दिया यह पता नहीं। सभी मित्रें मीनाक्षी को लेकर चिन्तित हो गयी थीं। हम सभी को लगा था कि ज़्यादा कुछ नही तो भी परेशान करने के लिए उसका ऐक्सप्लनेशन तो मॉग ही सकते हैं। उसको लेकर कोई बहाना नही बनाया जा सकता था क्योंकि प्रोग्राम के एक दिन पहले और अगले दिन वह कालेज आयी थी।
‘‘अरे यह डिग्री सैक्शन है। यहॉ की टीचर्स को ले कर मनमानी करना इनके लिए इतना आसान नही है। फिर किस बात का ऐक्सप्लनेशन मॉगेंगे उससे कि आप गाना गाने क्यो नहीं आईं?’’ मानसी ने माहौल को हल्का करना चाहा था। वह न हमारे हमारे कालेज की एक्टिविटी थी न ही सब्जैक्ट की। यह ठलुआ औरतें संस्थाऐं खोल लेंगी और सारे साल हमसे नचवाती और गवाती रहेंगी और हम बेवकूफों की तरह से नाचते रहेंगे। हम सब लोग मना कर दे तब भी क्या कर लेंगी यह ?’’मानसी जी के स्वर में चैलेंज है।
‘‘अरे यार पानी में रह कर मगर से बैर करना आसान है क्या?’’ रूपाली बत्रा के स्वर में लाचारी है।
‘‘वही तो’’ मानसी जी झुंझलायी थीं,‘‘हमारे उसी डर का तो फायदा उठा रहा है यह मैनेजमैंट। जब तक हम छोटी मछली हैं तब तक यह बड़ी मछलियॉ हमे आराम से खाती रहेंगी और हमारी ख़ुराक पर पलती रहेंगी। हम तो कहते हैं जिहाद कर दो।’’मानसी ने बड़े नाटकीय अंदाज़ में हाथ को ऊपर उठाया था,‘‘इंकलाब ज़िदाबाद।’’ वे अपने मसखरे अंदाज़ में हॅसी थीं। साथ में केतकी भी हॅसी थी।
‘‘अरे।’’कोई बोला था। उस स्वर में घबराहट है।
आफिस से चपरासी किसी नोटिस पर साईन कराने के लिए आया हुआ है। वह रजिस्टर खोले हुए हम सब के बीच ही खड़ा है और सबसे दस्तख़त करा रहा है। अंदर के साइड रूम में आया चाय बना रही है। मानसी जी की बगल में बैठी रूपाली बत्रा और अंजलि माथुर ने अर्थ भरी निगाह से एक दूसरे की तरफ देखा था और जाने के लिए उठ कर खड़ी हो गयी थीं।
धीरे धीरे यह महसूस होने लगा था कि स्टाफ और प्रबंधतंत्र के बीच तनाव गहराने लगा है। शायद तनाव पैदा करना ही मिसेज़ चौधरी और प्रबंधक गुप्ता का मकसद ही था। कहते हैं तानाशाह का एक मनोविज्ञान होता है-आस पास के माहौल में आतंक पैदा करना। उस को दूसरों के चेहरों पर ठहरा हुआ भय आनन्द देता है और सामने वाले के चेहरे की हॅसी उसमें क्रोध भरती है। शायद तानाशाहो की इसी मानसिकता ने गैस चैम्बर्स और यातना शिविरों का इजाद किया था और हॅसते खेलते आबादों को मुर्दाघरों मे बदल कर रख दिया था। इतिहास कितने ही ऐसे द्रष्टांतों का मजबूर गवाह रहा है।
इतिहास केवल राज्यों और राष्ट्रो का ही तो नहीं होता। वह तो छोटी बड़ी संस्थाओं का भी होता है और उनका उत्थान और पतन भी होता ही है। पतन के भी कितने आयाम हो सकते हैं...एक...दो...या और भी अधिक।
Sumati Saxena Lal.
Sumati1944@gmail.com