होने से न होने तक - 8 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 8

होने से न होने तक

8.

बुआ का चेहरा उतर गया था किन्तु उन्होने उस बात पर आगे कोई बहस नहीं की थी। वे वैसे भी आण्टी के साथ विवाद में नही पड़तीं। यश ने कुछ परिहास किया था। आण्टी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आयी थी और फिर वे गंभीर हो गयी थीं,‘‘नही यश मज़ाक की कोई बात नहीं। मैं बहुत अच्छी तरह से अम्बिका की तकलीफ समझ सकती हूं। उसकी अपने घर में रहने की इच्छा भी। उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। बल्कि वही नैचुरल और सही है। आई एम हैप्पी कि उसने वहॉ जा कर रहने की बात सोची। अब इतने साल बाद फिर से वह घर आबाद होगा।’’ आण्टी के चेहरे पर उदासी घिरने लगी थी,‘‘सुदेश की जब डैथ हुयी थी तब लगभग इतनी ही उम्र थी वीना की। मैके ससुराल कहीं नहीं गयी थी वह। अपनी बच्ची को लेकर उसी घर में रहती रही थी। हम सबने यही राय दी थी उसे। अपने घर में अपनी तरह से रहो। कहीं भी किसी के पास भी जा कर रहोगी तो गिरी पड़ी सी ज़िदगी हो जाएगी...घर के एक कमरे और उसकी एक अल्मारी में सिमटी हुयी। अपने घर में चाहे जैसे भी रहोगी वह अपनी तरह से जीना होगा।’’ आण्टी नें सॉस भरी थी ‘‘जितने साल भी ज़िदा रही सम्मान से रही। सुदेश की कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता था। पर बाकी अच्छी तरह रही वह। अपने घर में अपनी तरह से।’’

मुझे लगा था बुआ को आण्टी की बात अच्छी नहीं लग रही है। बुआ के चेहरे पर क्रोध,खीज,खिसियाहट सब एक साथ है। आण्टी ने बुआ को समझाने की कोशिश की थी,‘‘वीना तो छोटी सी बच्ची के साथ अकेले ही रही थी। अब तो ऊपर किराएदार भी रहेंगे। परिवार वाले जाने बूझे भले लोग हैं।’’

‘‘फिर भी मॉ’’ यश ने शंका जतायी थी।

‘‘नहीं यश। अब कोई किन्तु परन्तु नहीं। रही सेफ्टी की बात उसका कुछ इन्तज़ाम किया जाएगा। फिर एक बार घर का हिसाब देख लें, नहीं सही लगेगा तो हास्टॅल का आप्शन तो कभी भी लिया जा सकता है।’’

मैं जानती हूं कि बुआ इस निर्णय से सहमत नही हैं। उन्होने हल्का फुल्का विरोध भी किया था पर आण्टी के सामने वे हमेशा ही कमज़ोर पड़ जाती हैं। उन की बात वे दो टूक ढंग से नही काट पातीं। मेरे मन पर से बोझा हटने लगा था। मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था कि आण्टी मेरी बात को इतनी आसानी से समझ लेंगी और उसे मान भी लेंगी। मैं यह भी अच्छी तरह से जानती हूं कि एक बार आण्टी के राज़ी हो जाने पर बुआ कोई गंभीर रुकावट नहीं डाल सकेंगी। पर मुझे इस समय बुआ के साथ घर जाने की सोच कर डर सा लग रहा है। मैं जानती हूं कि वे क्षुब्ध हैं और शायद देर तक वे सहज नहीं हो सकेंगी। मैं बुआ की इस समय की मनःस्थिति अच्छी तरह से समझ रही हूं। मुझे लगा था शायद इस स्थिति में उनका आहत महसूस करना स्वभाविक भी है। उनके घर की बेटी और निर्णय लेने का अधिकार किसी और के पास है और वह भी ऐसा निर्णय जिससे बुआ एकदम भी सहमत नहीं हैं। पर मैं स्वयं कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हूं।

कार के आण्टी के गेट से बाहर निकलते ही बुआ बड़बड़ाई थीं,‘‘मिसेज़ सहगल तो ऐसे कह रही हैं जैसे उनके अलावा भाभी और तुम्हारे लिए कभी किसी ने कुछ किया ही नही...जैसे सास ससुर के साथ रहतीं भाभी तो उनकी ज़िदगी घर के एक कमरे में बंद कर दी जाती।’’ वे कुछ देर को चुप हो गयी थीं और तेज़ी से दौड़ती कार के शीशे से बाहर देखती रही थीं। वे जैसे अपने आप से बात कर रही हों,‘‘एक कमरे में ही क्यों, मिसेज़ सहगल के हिसाब से तो घर की एक अल्मारी में सिमट जाती ज़िदगी।’’ बुआ ने मुड़ कर मेरी तरफ देखा था और वे होठ टेढ़ा कर के मुस्कुरायीं थीं,‘‘अरे भई जब भाभी ने किसी के साथ रहना चाहा ही नही तो कोई भला उनके लिए कर ही क्या सकता था? अम्मा पिताजी ने तो बहुत चाहा था कि भाभी तुम्हें लेकर उनके पास हरदोई आ जाए...पर नहीं...भाभी ने उनकी सुनी ही कब? उन्हें पढ़ाई करनी थी, नौकरी करनी थी, तुम्हे लौरेटो मे पढ़ाना था। अब भई वे लोग न लोरैटो को यहॉ से उठा कर ले जा सकते थे, न सी.डी.आर.आई. को। अम्मा को न भाभी का अकेले रहना पसंद था, न नौकरी के लिए इधर उधर दौड़ना।’’ बुआ कुछ क्षण के लिए चुप हो गयीं थीं और उस मौन के बीच ही अचानक एक झटके से उन्होंने अपनी बात को पूरा किया था,‘‘न उस अकेले घर में जाने अन्जानें लोगों का आना जाना ही।’’

मैं एकदम स्तब्ध रह गयी थी। बारह साल पहले चली गयी मॉ पर क्या बुआ कोई आरोप लगा रही हैं? वह भी किस तरह का आरोप। मैंने बुआ की तरफ देखा था। वे फिर से खिड़की के बाहर देख रही हैं। मेरे मन में बहुत कुछ घुमड़ा था...बहुत सा क्रोध...बहुत सा अपमान...बहुत सारा अकेलापन। पर मैं चुप रही थी। वैसे भी मैं क्या कहती। बहुत देर के लिए हम दोनो ही चुप हो गए थे। गाड़ी पी.एम.जी.आफिस के आगे से निकलती हुयी हलवासिया के सिग्नल पर खड़ी हो गयी थी। मैंने पहले सोचा था कि लौटते समय बुआ से हज़रतगंज रुकने के लिए कहूॅगी पर मैं चुप रही थी। कुछ बात करने का मन ही नहीं किया था। हज़रतगंज का मुख्य चौराहा पार करके गाड़ी आगे बढ़ी थी। बुआ ने मेरी तरफ देखा था,‘‘अम्बिका आइसक्रीम खाओगी बेटा ?’’

‘‘नहीं बुआ’’ मेरी आवाज़ भर्रा गयी थी। लगा था ऑसू गले में अटक गए हों।

‘‘खा लो’’ बुआ ने मेरी तरफ देखा था। उनकी आवाज़ अतिरिक्त रूप से कोमल थी और उन्होंने ड्राइवर से रोवर्स के किनारे गाड़ी रोकने के लिए कहा था।

इस समय मेरा आइसक्रीम खाने का मन सच में नही है। एक तो आण्टी के घर इतना खा लिया है कि पेट एकदम भरा है। वैसे भी मुझे यहॉ कुछ भी खाना अच्छा नहीं लगता...भिखारी बच्चे कार का शीशा थपथपा कर भीख मॉगते रहते हैं। खाते समय लगता है कि जैसे अपराध कर रहे हैं। यश इन बच्चों को कभी भीख नहीं देने देते हैं। कहते हैं कि तुम जैसे लोगों के कारण ही तो भीख पूरे प्रोफेशन की तरह पनप रही है। इसीलिए तो बच्चे किडनैप होते हैं क्योकि हम इन्हे पैसा देते हैं। अभी भूख्े मरने लगें भिखारी तो कोई बच्चा किडनैप नहीं होगा। जब से यश ने भिक्षा का गणित मुझे समझाया है तब से मैं कभी भी भीख नहीं देती। पर किसी भी भिखारी बच्चे को देख कर देर तक बेचैन हो जाती हूॅं। कारण चाहे कुछ भी हो पर उस बच्चे का तो कोई दोष नहीं है न फिर वह बेचारा तो भूखा नंगा ही है। अब तो हर भिखारी बच्चा मुझे चुराया हुआ और सताया हुआ भी लगने लगा है। तब केवल उस बच्चे का दुख ही नहीं उसके अनदेखे परिवार का दुख भी सीने में देर तक चुभता रहता है।

एक दिन इसी तरह मैं और यश कार में बैठ कर आइसक्रीम खा रहे थे। कार के बाहर से दो छोटे छोटे बच्चे भीख के लिए हाथ फैलाने लगे थे। मैं बेचैन होने लगी थी,‘‘यश ऐसे मुझसे नहीं खाया जाएगा। चलो इन्हें पैसा नहीं देना चाहिए। सही। पर इन दोनों को हम आईसक्रीम तो खिला सकते हैं न?’’

यश ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा था। उनके चेहरे पर इन्कार था। कुछ क्षण तक यश मेरी तरफ उलझन में भरे से देखते रहे थे फिर हॅस दिए थे। ठीक है। खिला देते हैं।’’ उन्होने पार्लर से लड़के को बुला कर दो कप उन बच्चों को देने के लिए कहा था। कुछ क्षण तक वह लड़का भौचक सा हम दोनों की तरफ देखता रहा था फिर अंदर जा कर आईसक्रीम ले आया था। जैसे ही उसने वे कप उन दोनों बच्चों को पकड़ाए थे वैसे ही न जाने कहॉ से टिढ्ढी दल की तरह अनेकों भिखारी बच्चों ने कार घेर ली थी। आस पास खड़े लोग ही नहीं सड़क चलते लोग भी हमारी कार की तरफ देखने लगे थे, जैसे इधर कोई नाटक चल रहा हो।

‘‘अरे’’ मेरे मुह से निकला था। मैं एकदम से हड़बड़ा गयी थी।

‘‘मैं तो पहले से जानता था कि ऐसा होगा।’’ यश हॅसे थे।

‘‘जानते थे तो कहा क्यों नहीं था।’’ मैं खिसियाने लगी थी। बच्चे कार के बाहर अभी भी शोर कर रहे हैं।

‘‘तुम समझतीं कि मैं कंजूसी कर रहा हूं।’’ यश हॅसे थे ‘‘फिर अपनी बड़ी बड़ी दोनो ऑखें बाहर निकाल कर मुझे डांटतीं कि तुममे कोई दया नहीं है। भई तुम्हारी आंखों से डर लगता है।’’

‘‘बेकार बात।’’ मैं झुंझलाई थी ‘‘अब क्या करें यश। इस भीड़ को हटाओ न किसी तरह। कितना तो फनी लग रहा है।’’

यश ने पार्लर वाले उसी लड़के को इशारे से बुलाया था,‘‘चुपचाप गिनो कितने बच्चे हैं।’’

वह चारों तरफ गर्दन घुमा कर देखने लगा था,‘‘तेरह।’’ वह थोड़ी देर बाद बोला था।

यश ने जेब से पर्स निकाला था। हिसाब लगाया था और कुछ नोट उसे पकड़ाए थे,‘‘यह पंद्रह कप के पैसे हैं। इन लोगों को खिला देना, एक तुम भी खा लेना।’’ यश के स्वर में आदेश था ‘‘खिला ज़रूर देना।अब इन सब को अपने साथ ले जाओ और इन्हें सामने से हटाओं।’’ और गाड़ी स्टार्ट कर दी थी।

‘‘कुछ और खाओगी?’’ बुआ पूछ रही हैं। उनके स्वर में प्यार है।

मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा था,‘‘नहीं बुआ।’’

उस दिन की याद में मुस्कराहट मेरे चेहरे पर शायद अभी भी है। बुआ ने उलझन भरी निगाहों से मेरी तरफ देखा था। मैं चुप रही थी और दूसरी तरफ देखने लगी थी। वैसे भी मैं उन्हें क्या बताती।

घर पहुच कर हम लोग लाऊॅज में पड़ी कुर्सियो पर बैठ गए थे। कुछ देर में बुआ ने उठ कर रेडियो खोल दिया था। उस पर मुकेश का कोई दर्द भरा गाना आ रहा है। मेरा मन उदास होने लगा था। बुआ अपनी तेज़ आवाज़ में कभी श्रेया से और कभी दीना से बात कर रही हैं। मन किया था अंदर चली जाऊॅ और बिस्तर पर ऑखें बंद कर के लेट जाऊॅ पर एक आलस्य में घिरी हुयी मैं वैसे ही बैठी रही थी। काफी समय ऐसे ही निकल गया था।

दीना खाने की मेज़ लगाने लगे थे,‘‘बुआ मैं खाना नहीं खाऊॅगी।’’मैंने कहा था।

‘‘अरे क्यो? यह क्या बात हुयी?’’

‘‘नहीं बुआ भूख नहीं है।’’

‘‘जितनी भूख हो उतना खा लेना।’’ बुआ ने दीना की तरफ देखा था,‘‘ऐसा करो दीना एक घण्टे बाद लगाना खाना,तब तक थोड़ी भूख लग आएगी।’’ बुआ ने दुलार से मेरी तरफ देखा था, ‘‘रात में भूखे नहीं सोते।’’

‘‘आज हम बेसनी बनाए हैं। आपको पसन्द है।’’दीना ने मनुहार की थी,‘‘थोड़ी खा लीजिएगा।’’

मैंने डर कर बुआ की तरफ देखा था। बुआ हॅसने लगी थीं,‘‘हॉ दीना तुम सब की प्लेट लगाओं। सब खाऐंगे।’’ बुआ वैसे ही हॅसती रही थीं और उन्होंने फिर से मेरी तरफ देखा था,‘‘दीना हमारी अम्बिका का बहुत ख़्याल रखते हैं। कोई पिछले जनम का रिश्ता है इनका तुम से।’’

दीना संकोच में बंधा सा मुस्कुराए थे,‘‘नाही मेमसाहब पिछले जनम का काहे को हमारा तो इसी जनम का रिश्ता है दीदी से।’’ फिर जैसे उसने भूल सुधार किया हो,‘‘अम्बिका दीदी से और आप सब से।’’

बुआ फिर हॅसी थी।

मुझे लगा था कि दीना काफी समझदार हो गए हैं। पूरी तरह से दुनियादार।

बुआ ने मेरी तरफ देखा था,‘‘तब तक तुम जा कर कपड़े बदल लो। नहाना हो तो नहा लो, अभी खाना लगने में तो देर है।’’

कुछ क्षण और मैं उसी आलस्य में बंधी सी बैठी रही थी फिर उठ कर खड़ी हो गयी थी।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com