Hone se n hone tak - 34 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 34

होने से न होने तक

34.

लड़कियों को बता दिया गया था कि अब की से चार दिन का डे कैम्प नाट्य सभागृह मे होगा। कैंण्टीन इंन्चार्ज को बुला कर रिफ्रैश्मैंट के ढाई सौ पैकेट ग्यारह से चौदह जनवरी तक नाट्यालय में पहुंचाने के लिये बता दिया गया था।

मानसी बड़बड़यी थीं,‘‘लो भईया फेको नाली में सरकार का पैसा। क्या बढ़िया समाज सेवा है।’’

प्रियंवदा सिन्हा मधुर सा हॅसी थीं,‘‘मानसी तुमऽ भीऽऽ। ख़ुद ही सुझाती हो और ख़ुद ही बड़बड़ाती हो।’’

‘‘और क्या’’ मानसी ने दीपा दी की तरफ देखा था,‘‘दीदी के कारण सुझाया था और उनके कारण बड़बड़ा रहे हैं।’’

‘‘उनके कौन ?’’ किसी ने पूछा था।

‘‘वही मिसेज़ चौधरी।’’

समस्या के काफी कुछ सुलझ जाने के कारण माहौल का भारीपन छटने लगा था। दीपा दी आज मुद्दत बाद स्टाफ रूम में आयी हैं और साथियों के साथ बैठ कर अच्छा लग रहा है उन्हें सो बाद तक बैठी रही थीं।

तभी मीनाक्षी स्टाफ रूम में घुसी थीं। अप्रत्याशित रूप से दीपा दी को देख कर क्षण भर को झिझकी थी फिर उन्हे नमस्कार करके उनके ही बगल में बैठ गयी थी।

दीपा दी उसे देख कर एकदम ख़ुश हो गयी थीं ‘‘अरे मीनाक्षी हम तुम्हे ही याद कर रहे थे।’’

‘‘क्यों दीदी।’’ वह फीका सा मुस्कुरायी थी। वह बेहद सुस्त लग रही है।

दीपा दी ने उसके बुझे स्वर की तरफ ध्यान नही दिया था,‘‘मीनाक्षी बारह तारीख को तुम्हें मिसेज़ चौधरी के फंक्शन में हमेशा की तरह गाना है। तुम्हारे लिए मिसेज़ चौधरी ने ख़ासतौर से लिख कर भेजा है।’’उन्होंने हाथ में पकड़े हुए कागज़ उसके सामने दिखाए थे।

मीनाक्षी ने जैसे एकदम तड़प कर अपना सिर नकार में हिलाया था,‘‘दीदी प्लीज़। मुझे फुर्सत दे दीजिए। मुझसे नही गाया जाएगा। इस साल दो बार मुझे वे अपने प्रोग्राम्स में गवा चुकी हैं। पर दीदी इस बार नहीं। मैं नही गा पाऊॅगी।’’ उसकी ऑखों में ऑसू डबडबाने लगे थे।

‘‘बात क्या है मीनाक्षी? तुम तो गाना हमेशा एन्जाय करती थीं? अब क्या हो गया?’’

‘‘करती थी। पर अब नहीं। नॉट नाऊ।’’ उसकी आखो से ऑसू गिरने लगे थे,‘‘सॉरी दीदी।’’ उस ने पर्स में से रूमाल निकाल लिया था,‘‘पर मुझसे गाने के लिए मत कहिए। एस इट इस आइ एम फीलिंग लो।’’

दीपा दी ने एक बार उसकी तरफ देखा था। कुछ कहने के लिये होंठ हिले थे और चुप रह गयी थीं। उनके चेहरे पर बहुत सारे सवाल थे पर उन्होने पूछा कुछ नहीं था।

अगली क्लास का समय हो गया था। स्टाफ रूम में एक बार फिर से हलचल चालू हो गयी थी। कमरे में आवागमन शुरू हो गया था। कई टीचर्स उठ कर अल्मारी में से रजिस्टर चॉक और सामान निकालने लगी थीं। कमरे के बाहर से आए लोग आते जाते दीपा दी के पास कुछ क्षण रुक कर बात कर रहे हैं। बातचीत की मिली जुली आवाज़े,चलने फिरने की आहटें और अल्मारियॉ खुलने बन्द होने की खड़खड़ाहट। दीपा दी जाने के लिए उठ कर खड़ी हो गयी थीं। उनके साथ ही बैठे हुये लोग भी खड़े हो गये थे। बहुत से लोग क्लास के लिए जा चुके हैं। जल्दी ही कमरे में काफी कुछ सन्नाटा लगने लगा था।

कौशल्या दी किसी काम से कालेज आयी हुयी हैं। कमरे से बाहर जाती मीनाक्षी को वे एकटक देखती रही थीं,‘‘मीनाक्षी कुछ परेशान दिख रही है। कोई नयी बात तो नहीं।’’उनके स्वर में चिन्ता है।

‘‘उसकी ज़िदगी का कोई सिरा पकड़ ही नहीं आ रहा दीदी। ख़ुद उसके भी नहीं।’’नीता ने कहा था।

‘‘घर वाले ?’’ दीदी ने पूछा था।

‘‘अभी तक घर गयी कहॉ थी। केतकी के घर आ कर उतरी थी। उसी ने एक छोटा सा घर किराये पर दिलवा दिया है। घर वालों को जब से पता चला है तब से आफत किये हुए हैं। तब से घर में तूफान आया हुआ है।उस की मम्मी बेटे और देवर से छिप कर दो बार केतकी के घर पर आ कर उससे मिल चुकी हैं। उस को घर लौट आने के लिये समझाती हैं। मीनाक्षी के बहुत आग्रह करने पर भी उस के घर जाने से उन्होंने मना कर दिया था।’’

‘‘तब?’’

‘‘बेहद नाराज़ हैं। घर में कोई भी किसी तरह से भी इस रिश्ते को मानने के लिए तैयार नही है।’’

‘‘क्या कहते हैं ?’’

‘‘उदय जी को छोड़ने के लिए कहते हैं।’’

‘‘अरे। अब उससे फायदा ? तुम लोग बात करो न उनसे।’’

‘‘क्या बात करें दीदी।’’ नीता के स्वर में हताशा है,‘‘हम लोगों से तो वे लोग वैसे ही नाराज़ हैं। उन्हे लगता है हम लोगों के बढ़ावा देने से इतनी हिम्मत कर ली उसने।’’नीता कुछ क्षण के लिए चुप हो गयी थी। फिर जैसे धीरे से फुसफुसायी थी वह,‘‘शायद बहुत ग़लत भी नही कहते वह लोग।’’

कौशल्या दी ने चौंक कर नीता की तरफ देखा था। उनकी आखों में सवाल है। उन्होने कुछ कहने को मुह खोला था पर फिर कुछ पूछा नहीं था। मुझे लगा था कि यदि वे पूछती तो नीता क्या जवाब देती। नीता को यही लगता रहता है कि मीनाक्षी के मन में कुछ भी नही था। उदय जी के प्रति उसकी हीरो वर्शिप को ज़बरदस्ती केतकी ने मोहब्बत का रंग दे दिया और उसके मन में ख़ामख्वाह मोहब्बत का बीज डाल दिया और मूर्खो की तरह यह मीनाक्षी उस सूत्र को पकड़ कर बैठ गयी। केतकी की कल्पना को सच बना दिया उसने और अपनी बलि चढ़ा दी।

सुबह लिली का फोन आया था। लिली यश के यहॉ काम करती है। घर के सभी नौकरों को सुपरवाइज़ करना और पूरे घर के सभी कामों की निगरानी करना उसका काम है। आण्टी ने मुझ को बुलवाया था। शाम को मैं उनके घर पहुंची तो अप्रत्याशित रूप से यश को वहॉ पाकर आश्चर्य हुआ था। अभी दस दिन पहले ही तो गए थे यश। पता चला था कि आण्टी को एन्जाईना का अटैक हो गया था इसलिए यश आए हुए हैं। आण्टी के कमरे में गई तो वे कमजो़र लगी थीं। यश कहीं काम से जा रहे थे सो चले गए थे। आण्टी ने चाय कमरे में ही मॅगा ली थी। वे इधर उधर की बातें करती रही थी। अचानक उनका स्वर नरम हो गया था और उन्होंने मेरे घुटने पर हाथ रख दिया था,‘‘यश की शादी कर देती मैं तो तसल्ली हो जाती। चौंतीस साल के हो चुके यश। अब नही तो फिर कब करेंगे? इतना अच्छा रिश्ता है। सिंगापुर की ही फैमिली है। तीन जैनरेशन से रह रहे हैं वहॉ वे लोग। सोचो उस पराये देश में अपने कुछ लोग होंगे...एकदम अपनी फैमिली...फिर बिसनैस में भी उन लागों से मदद रहेगी ही। लड़की में कोई कमी नही’’ आण्टी कुछ क्षण तक ठहरी हुयी निगाह से मेरी तरफ देखती रही थीं,‘‘सच बात तो यह है कि ऐसी लड़की और ऐसा परिवार शायद हमें इण्डिया में तो ढूंडे से भी न मिलता।’’ आण्टी के स्वर में हल्की सी झुंझलाहट है,शायद निगाहों में भी,‘‘ हम सबको गौरी बहुत पसंद है पर सारा घर समझा कर थक गया मानता ही नहीं,’’ आण्टी नें अर्थपूर्ण निगाहों से मेरी तरफ देखा था,‘‘तू ही समझा अब अपने भाई को। तेरी बात वह नहीं टालेगा।’’

चाय का प्याला मेरे सफेद चिकन के सूट पर लुढ़क गया था। एक बड़ा सा भूरा दाग। ‘भाई’ शब्द मन में खटकता है और मुझ को लगा था कि आण्टी मेरा ‘साइकोलाजिकल ट्रीटमैंट’ कर रही हैं।

करीब एक घण्टे बैठ कर मैं नीचे उतरी तब तक यश वापिस आ चुके थे। देखा वे बाहर के बराम्दे में चुपचाप अकेले बैठे हुए हैं। मैं सामने की कुर्सी पर बैठ गई थी,‘‘तुम क्या समझते हो यश कि तुम शादी न करके मुझे बड़ा सुखी कर रहे हो। ईश्वर न करे यदि किसी दिन आण्टी को कुछ हो गया तो एक अपराध बोध मुझे हमेशा तकलीफ देता रहेगा कि मैं वह कारण थी जिसके पीछे उनका यह छोटा सा सपना भी पूरा नहीं हो सका। अकेला बेटा होने के नाते इस घर के लिए भी तुम्हारे कुछ फ़र्ज़ हैं। गौरी सबको बहुत पसंद है।’’मैं कुछ क्षणों के लिए चुप हो गयी थी,‘‘फिर मेरे ऊपर ऑण्टी के बहुत सारे एहसान हैं यश।‘‘ मेरी आवाज़ कॉपी थी और मेरी ऑखों में पानी भरने लगा था। आगे मुझे क्या कहना है यह मुझे समझ नहीं आया था।

यश ने मेरी तरफ देखा था। उन ऑखों में एक अजब सी हताशा है, एक गहरी द्विविधा। वह कुछ क्षण तक मेरी तरफ ठहरी हुयी निगाहों से देखते रहे थे,जैसे कुछ पढ़ रहे हों,‘‘ठीक है अम्बिका, तुम सब की जो इच्छा हो वही करो।’’

यश उठ कर चले गए थे। बाहर जाते यश को मैं दूर तक देखती रही थी और मुझे एक नितान्त अकेलेपन के एहसास ने भर दिया था। पर कुछ क्षणो के लिए वह एकाकीपन बोझ नहीं लगा था जैसे कोई जुआरी दॉव पर अपना सब कुछ हार जाए,पर फिर भी ख़ुश हो कि उसकी इस हार से किसी और का तो घर भर सका। मैं बराम्दे की उस कुर्सी पर बहुत देर तक अकेले बैठी रही थी।

जाने के लिए उठ कर खड़ी हुयी थी तो जैसे अचानक कुछ क्षण पहले की तसल्ली धुंधलाने लगी थी। लगा था सारा शरीर शिथिल हो गया हो। एक एक कदम में कई कई मन का बोझा। बराम्दे से पोर्टिको तक की वह पॉच सीढ़ी उतरते तक लगा था जैसे यहॉ से लुट पिट कर जा रही हूं-अकेली और पूरी तरह से पराजित। पता नहीं क्यो अपमानित सी भी। पोर्टिको के संगमरमर के थमलों पर चढ़ी बटन रोसेस की गच्झिन बेलें,पोर्टिको के पार दिन के उजाले में एकदम साफ दिखायी देता साफ सुथरा तराशा हुआ सा लॉन। आण्टी के घर में सब कुछ वैसा ही होता है और वैसे ही होता है जिस तरह आण्टी प्लान करती हैं। उस सैट अप में मेरी कोई जगह नहीं है यह बात तो मुझे पहले से पता थी। मुझे यह बात पहले से पता होनी ही चाहिए थी। फिर भी इतनी बेचैनी? यश,यश का यह घर, इस पल इस घर में अपनी उपस्थिति सब कुछ अनायास एकदम पराया और बेगाना सा लगने लगा था। अच्छा है इस क्षण कोई मेरे साथ नहीं है। मेरी ऑखो से ऑसू बहते रहे थे। मैंने उन्हें रोकने की कोशिश भी नही की थी। मन तो किया था कि ज़ोर ज़ोर से रोऊॅ। गेट से बाहर निकल कर मैं सड़क के बायीं तरफ को बने फुटपाट के एकदम किनारे चलती रही थी। सड़क पर से दो तीन रिक्शे निकल चुके हैं, मैंने किसी को नहीं रोका था। लगा था ऐसे ही चलती जाऊॅ अनन्त तक।

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