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आधा आदमी - 12

आधा आदमी

अध्‍याय-12

ज्ञानदीप पढ़ते-पढ़ते सो गया। जैसे कभी ओबामा पढ़ते-पढ़ते सो जाते थे। जैसे बर्नाड शा, मदर टेरेसा, कपिल देव, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, सुभाष चन्द्र बोस। ज्ञानदीप लम्बी-लम्बी घरराहटे ले रहा था। जैसे कभी मुकेश अंबानी, बेजान दारूवाला, हेमा मालनी, सुभाष घई लिया करते थे।

सुबह उठते ही ज्ञानदीप फ्रेश हुआ। जैसे ही दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठा वैसे ही दरवाजे पर दस्तक हुई। ज्ञानदीप झल्ला कर उठा और इरफान खान की तरह फेश बनाता हुआ दरवाज खोला तो सामने कमली खड़ी थी। यह तो कहो कमली थी वरना कोई और होता तो वह फटकार लगाता कि उसके होशफ़ाख्ता हो जाते।

‘‘भैया! यह गांधी जी कौन हैं.‘‘ कमली के मुँह से यह सवाल सुनकर ज्ञानदीप सकते में आ गया। और सोचने लगा, ‘बताओ इस बच्ची को यह नहीं मालूम की महात्मा गांधी हैं कौन? कैसा स्कूल हैं? जहाँ के टीचर बच्चों को यह भी नहीं बताते।

‘‘यह हैं महात्मा गांधी। इन्हें हम राष्ट्पिता और बापू भी कहते हैं। इन्होंने हमें अंग्रेजों से आजादी दिलायी। सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाया.‘‘ कहकर ज्ञानदीप ने कमली को किताब दे दिया।

किताब पाते ही कमली का चेहरा खुशी से ऐसे चमकने लगा। जैसे वर्षो के बाद पाये एवॉर्ड पर सलमान खान का चमका था।

कमली ने ज्ञानदीप को अच्छा काँसेप्ट दे दिया था। मगर उसका सारा ध्यान तो दीपिकामाई के पन्नों में खोया था। जैसे सोनिया गांधी का अपनी पार्टी में, ओबामा को आतंकवाद खत्म करने में, शाहरूख खान को ‘हैप्पी न्यू ईयर‘ में।

ज्ञानदीप ने झट से दरवाजा लाँक किया। जैसे अक्सर अमिताभ बच्चन करते हैं। वह सलमान रश्दी की स्टाइल में पढ़ने बैठ गया-

भूरी को कपड़ा उतारते देख, मैंने मुस्करा के पेशाब का बहाना किया, ‘‘थोड़ा धैर्य रखव रजऊ, बस हम्म यूँ गई अउर यूँ आई.‘‘

‘‘कहीं तुम मुझे चकमा तो नाय दे रही हव?‘‘

‘‘तुमैं भी कोई चकमा दे सकता हय मेरे रजऊ.‘‘

अपनी प्रशंसा सुनते ही भूरी खुशी से कुप्पा हो गया।

मैं मौके का फायदा उठाते ही घर से बाहर आया। तभी एक आदमी को जाते देख मैंने उससे मदद माँगी, ‘‘भाईसाब! मुझे बचा लीजिए.‘‘

‘‘हाँ! बोलों क्या बात हैं?‘‘ लम्बें-चौंड़े आदमी ने पूछा।

मैंने उससे सारी बात बताई तो उसे मुझ पर दया आ गई, ‘‘अगर तुम नहीं चाहोगी तो तुम्हे कोई भी हाथ नहीं लगायेगा.’’ वह लम्बा-चैड़ा आदमी मुझे अपनी बस में ले गया।

मैंने बातों ही बातों में पूछा तो उसने बताया कि मैं एक ड्राइवर हूँ।

मैं बस की पिछली सीट पर जाकर लेट गया। और मन ही मन सोचने लगा, ‘कहीं वे लोग यहाँ न आ जाए.‘

‘‘सो गई क्या?‘‘ ड्राइवर ने आकर पूछा।

मैंने ‘हूँ’ करके इसलिए चुप्पी साध ली। कहीं यह भी हमारे साथ बत्तमीजी न करें। अचानक उसने मुझे पीछे से आकर भींच लिया और चुम्मा-चाटी करने लगा। मैं उसकी इस हरकत पर सन्न रह गया। डर के मारे मेरी देह काँप रही थी। मैं यह सोचकर चुप रह गया कि जहाँ दस आदमी मेरे साथ गलत काम करते, वही एक ही सही।

वह लम्बा-चैड़ा आदमी मुझे उत्तेजित किए जा रहा था। धीरे-धीरे मेरा ज़िस्म ढीला पड़ता जा रहा था। कहीं हद तक मुझे भी मज़ा आने लगा था। मैं उसे चाहकर भी मना नहीं कर पाया। ड्राइवर जैसे ही मेरे साथ सम्भोग करके उठा। वैसे भूरी ड्राइवर की ऊँची आवाज सुनाई पड़ी।

‘‘कौन हैं?‘‘ ड्राइवर ने उठकर पूछा।

‘‘मैं भूरी ड्राइवर हूँ.‘‘

‘‘क्या काम है?‘‘

‘‘नीचे आओं.‘‘

ड्राइवर बस का गेट खोल कर नीचे गया।

‘‘उका लाई के तुम इहाँ अच्छा नाय किये हव.‘‘ भूरी ड्राइवर तैश में बोला।

‘‘उ हमरे जान-पहचान के दोस का लड़का हय। अउर सेधाई इही में हय इहाँ से चुप्पे-चाप चले जाव.‘‘ ड्राइवर की बात सुनकर, भूरी गुस्से का घूट पीकर चला गया था।

सुबह होते ही ड्राइवर ने मुझे बस में बैठाया। पूछा, ‘‘कब मुलाकात होगी?‘‘

‘‘भगवान जाने.’’

तभी सन्नो बस में आ गई। ड्राइवर पान की दुकान पर जाकर खड़े हो गए और वही से मुझे देखने लगे। मैं भी उसे बीच-बीच में देख रहा था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में मुझे प्यार की लहरे उठती दिख रही थी।

बस चल पड़ी थी। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा, वह मुझे एकटक देखे जा रहा था।

‘‘अरी उधर का देख रही हय ई बता कईसे कटी तेरी रात?’’ सन्नों ने आँख मटका कर पूछा।

‘‘चल भाग, तै अपनी बता रात में कैं आदमी से कराये हव?‘‘

‘‘पहिले तै बता?‘‘

‘‘हमरी आदत तो तै जानती हय कि हम्म दसवाली तो हय नाय.‘‘

‘‘आय बहिनी, हम्म तो आठ-नौ लोगों को सीरजा अउर होइते तो सीरीज जातिन.‘‘

19-4-1978

मैं उस दिन मज़ार से जियारत करके लौट रहा था कि तभी रास्ते में ड्राइवर मिला। उसके साथ भूरी ड्राइवर भी था। उसे देखते ही मेरे तन-बदन में जैसे आग लग गई। ड्राइवर ने मुझे होटल में चलने को कहा। पर मैं भूरी ड्राइवर के साथ नहीं जाना चाहता था। मगर ड्राइवर की जिद् के आगे मुझे जाना पड़ा।

मैंने छुटते ही पूछा, ‘‘हाँ! बोलो क्या बात करना हैं?’’

तब तक भूरी ड्राइवर बोल पड़ा, ‘‘डांस करना हैं.‘‘

‘‘कितने रूपये नाईट दोंगे?‘‘

‘‘बीस रूपये.‘‘

मैंने बीस रूपये सुनते ही हामी भर दी, ‘‘ठीक हैं पर पार्टी कहाँ की हैं? और स्टेज कहाँ लगेगा?‘‘

‘‘अमे यार, कहाँ की पारटी अउर कहाँ का एस्टेज, बस के अंदर टेप लगाई देबै अउर तुम नाचेव, हम्म दोनों बईठ के देखिब.‘‘ भूरी ड्राइवर व्यंगात्मक हँसी हँसा।

मैं उसकी नियत भाप गया था। मैंने कड़े लहज़े में जवाब दिया, ‘‘हम कोई सड़क की रन्डी नहीं हूँ जो पैसे की लालच में आकर तुमारे साथ चल दूँगी.‘‘ कहकर मैं होटल के बाहर आया।

मेरे पीछे-पीछे ड्राइवर भी आ गया। मैंने उससे भी दो टूक में कह दिया, ‘‘एक बात आप भी कान खोल कर सुन लो, आप जैसा मुझे समझ रहे हैं मैं बिलकुल वैसा नहीं हूँ। मैं एक कलाकार हूँ। और अपनी कला को बेचता हूँ न कि इज्ज़त को, अगर मुझे जरा भी पता होता कि आप के दोस्त यह हैं, तो मैं कभी आप से दोस्ती न करता.‘‘

7-6-1978

ज़ुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने,

इस बहाने से मगर देखे ली दुनिया हमने।

उस दिन बारिश बहुत तेज हो रही थी। उसी बारिश में ड्राइवर मुझसे मिलने मेरे घर तक आ गया। पता नहीं कहाँ से उसे मेरा एड्रेस मिल गया। यह तो कहो इत्तफाक से दरवाज़ा मैंने खोला था। वरना कोई और खोले होता तो गज़ब हो जाता।

मैंने दरवाज़े पर बात करना उचित नहीं समझा। इसलिए मैं उसे चाय के होटल में ले आया। और छुटते ही सवाल किया, ‘‘अब क्या करने आये हो?‘‘

‘‘ख़ुदा के लिए मुझे माफ कर दो दोबारा ऐसी गुस्ताख़ी नहीं होगी.‘‘

मैंने देखा उसकी आँख भर आई भर थी। मैं अपने आप को रोक न सका और उसे माफ़ कर दिया।

‘‘मैं अब ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे आप के दिल को कोई तकलीफ पहुँचे.‘‘ कहते-कहते ड्राइवर की आँखें डबडबा आई थी।

‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ। अब यह बताओं क्या आप की शादी हो गई?‘‘ मेरे इस सवाल पर उसका चेहरा उतर गया था।

दोबारा पूछते ही उसने बताया, ‘‘मेरी दो बेटियाँ हैं। क्या फिर भी आप मेरा साथ करेगी?‘‘

‘‘आप का साथ करने से हमें कोई एतराज नहीं हैं। मगर आप के परिवार वाले.‘‘

‘‘आप परिवार वालों की चिंता मुझ पर छोड़ दीजिए.‘‘

‘‘अच्छा यह बताइए, एक दिन की चाहत हैं या सब दिन की?‘‘

‘‘नहीं-नहीं बाबू, मैं तुम्हारे साथ कभी धोखा नहीं करूँगा.‘‘

ड्राइवर के मुँह से अपने लिए ‘बाबू‘ सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा था। मन ही मन मैं उसे चाहने लगा था। इसलिए मैंने अपने और शरीफ बाबा के संबंध के बारे उसे सब कुछ बता दिया था। क्योंकि मैं किसी भी कीमत पर ड्राइवर को खोना नहीं चाहता था।

फिर यही से हम-दोनों का मिलना-जुलना शुरू हो गया। न एक पल वह मेरे बिना रह पाता और न ही मैं।

12-7-1978

दर्द मेरा, मेरा अपना ही समझ पाया क्या

तुमसे क्या शिकवा की मैं खुद भी समझ पाया क्या

मेरी चाहत का तो अज़ामे-सफ़र लम्बा क्या

तलाशे-रोशनी में बुझ गया चरागे-दिल

मैं किस तलाश में निकला था हाथ आया क्या।

फिर एक दिन शरीफ बाबा को मेरे और ड्राइवर के संबंधो के बारे मे पता चला तो उसने ड्राइवर को धमकाया और दोबारा मुझसे न मिलने की कड़ी हिदायत दी।

जब मैं ड्राइवर से मिला तो उसने सारी बातें बताई।

‘‘मैंने मोहब्बत की हैं तुमसे कोई खेलवार नहीं। मुझे तुमसे मिलने से कोई नहीं रोक सकता.‘‘

‘‘बाबू! मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करता हूँ......मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकता.‘‘ कहते-कहते ड्राइवर फफक पड़े थे।

कोई मुझसे इतनी मोहब्बत करेगा यह मैंने कभी ख़्वाब में भी नहीं सोचा था। उसकी आँखों में आँसू देखकर मेरे मन में उसके प्रति बेपनाह मोहब्बत जाग गई थी। मैं अपने अंदर उमड़ते प्यार को रोक न पाया, ‘‘जितना तुम मुझसे प्यार करते हो उससे कहीं ज्यादा मैं तुमसे प्यार करता हूँ.‘‘

‘‘मैं जानता हूँ बाबू, पर यही बात तुम्हें शरीफ बाबा के मुँह पर कहना होगा.‘‘

‘‘मैं एक बार नहीं, हजार बार यही कहूँगी.‘‘

‘‘ठीक हैं कल इसी समय हम लोग यहाँ मिलेंगे.‘‘

दूसरे दिन जब मैं बस स्टैण्ड पहुँचा तो देखा, ड्राइवर और शरीफ बाबा एक-दूसरे के गले में हाथ डाले खड़े थे। एक पल के लिए तो मैं सन्न रह गया। मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। माज़रा क्या हैं समझ में नहीं आ रहा था।

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