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कुबेर - 44

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

44

एक अच्छी आराम और विराम से भरी यात्रा में एक परिवार से जुड़ कर न्यूयॉर्क लौटना काफ़ी सकारात्मक था। वेगस और कसिनो में निवेश के बारे में भाईजी जॉन और डीपी दोनों अपने तई अध्ययन करने लगे, सारी बारीकियाँ समझने लगे। कसिनो की छोटी-छोटी चीज़ें समझने के लिए अटलांटिक सिटी के कसिनो के भी चक्कर लगाए क्योंकि यह वेगस की अपेक्षाकृत बहुत नज़दीक था। यहाँ पर भी कसिनो का व्यापार था। ऊपर बने होटलों का ऐश्वर्य और मनोरंजन बढ़ाने के बारे में नयी तकनीकें क्या हो सकती हैं उनके लिए टूरिस्ट प्रधान जगहों पर अपनी टीम भेजने का दोनों ने मन बनाया। उनके कसिनो में एक बार जो कोई आए तो उसे इतना कुछ मिल जाए कि लोगों को कहीं और न जाना पड़े। होटल के कमरे से नीचे उतरें और कसिनो की वादियों में रम जाएँ। अपने संगीत बैंड, नाट्य दल, स्टैंडिंग कॉमेडी शोज़ और ऐसी कलात्मक प्रस्तुतियों को व्यावसायिक स्तर पर पेश करने का दुःसाहस वे कर सकते थे।

कहते हैं रणभूमि में लड़े जाने से पहले युद्ध दिमाग़ में लड़ लिया जाता है। ठीक वैसे ही बाज़ार में पैसा लगा कर धंधा करने से पहले दिमाग़ में धंधा कर लिया जाता है। सारा हिसाब-किताब, सारी जोड़-तोड़ पहले ही हो जाती है।

यही हुआ। पहले दिमाग़ में और फिर कागज़ पर योजनाएँ बनती रहीं, पनपती रहीं। किसी प्रकार की शीघ्रता की कोई आवश्यकता नहीं थी। न्यूयॉर्क जैसे महानगर ने पैदल चलने से पहले घुटनों के बल आगे बढ़ना सिखाया था। दौड़ने से पहले ठीक से चलना सिखाया था। वही प्रक्रिया दोहराने में विश्वास था। बहुत दिन हो गए थे, अब कुछ चुनौतियाँ स्वीकार करने में कोई हर्ज़ नहीं था। जिस निवेश में सोमेश था वहाँ फिलहाल कोई संभावना नहीं थी लेकिन उसके संपर्क सूत्रों से तलाश होती रही। सोमेश यह बात जानता था कि आए दिन यहाँ नये प्रोजेक्ट शुरू होते रहते हैं। पुराने में भी कई निवेशक बदल जाते हैं तो अवसर भर मिलने की देर थी।

उस अवसर की प्रतीक्षा करके बैठे नहीं रहे भाईजी जॉन और डीपी। तलाश करते रहे क्या होता है उन हज़ारों मशीनों का ऑपरेटिंग सिस्टम। कैसे काम करती हैं ये मशीनें। कैसे लुभाती हैं अपने उपयोगकर्ताओं को। अगर यह व्यापार पूरी तरह से मनोरंजन करता है तो मनोरंजन के साथ-साथ पैसा कमाने की चाहत तो होती ही है। वे मशीनें जो पैसों की खनक सुनाने के लिए खिलाड़ियों को घंटों अपने सामने बांधे रखने की ताक़त रखती हैं। दूसरी और एक निश्चित समय में हमेशा लाभकारी रहने वाला व्यापार जो मशीनों को तय कंप्यूटर प्रोग्राम के भरोसे छोड़ देता है।

व्यापारी को अपने ग्राहक की मन:स्थिति पहचाननी आनी चाहिए। तभी वह अपने उत्पाद को उसके दिमाग़ में बैठा पाता है। छोटे-छोटे सिक्कों से खेलने वालों को हर चार-पाँच कोशिश के बाद कुछ मिलना चाहिए ताकि खन-खन की आवाज़ कानों में गूँजती रहे। सिर्फ़ जो खेल रहा है उसी के कानों में नहीं बल्कि दूर-दूर तक सुनायी दे। मशीनों को प्रोग्राम ही कुछ इस तरह किया जाता था। ऐसा नहीं था कि यह खेलने वालों को पता नहीं था, सब जानते थे वे पर शायद हर चार-पाँच राउंड के बाद आने वाले खन-खन में उन्हीं का नाम लिखा हो। आशाओं से जीवन चलते हैं और अपने जीवन के लिए पैसों की आशा करना प्रकृतिदत्त स्वभाव है मनुष्य जाति के लिए। इसी स्वभाव को लाभ में बदलने का शहर है लॉस वेगस।

सोमेश को किसी ख़ास प्रोजेक्ट के गठन होने की ख़बर मिली तो आरंभिक मीटिंग में उसकी टीम भी ख़ास हिस्सा ले रही थी। कुछ प्रमोटर्स पंद्रह-बीस प्रतिशत राशि का गणित जमाने के लिए अपने समीपी और पारिवारिक मित्रों से आगे नहीं जाते। यही अवसर होता है जब कोई निवेशक कम लागत पर अधिक हिस्सा ले सकता है। यदि इसमें सर्वाधिक लाभ है तो प्रोजेक्ट आगे न बढ़ पाने की स्थिति में तगड़ा नुकसान भी उसी को होता है। निर्धारित आधार राशि मिल जाने पर ज़मीन का क्रय, नगर निगमों याकि सिटी की सरकार द्वारा उसके उपयोग निर्धारण, और विभिन्न विभागीय अनुमतियों की इतनी जटिल प्रणाली है कि कारोबार कभी भी हिचकोले खाने लग जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

सोमेश के अनुसार प्रमोटर्स की साख असंदिग्ध थी। वे लास वेगस में तीन प्रोजेक्ट सफलता पूर्वक पूरे कर चुके थे। उसने जॉन और डीपी की प्रारंभिक हिचक और जिज्ञासाओं को शांत करने की हर संभव कोशिश की। यह कारोबार नौसिखियों के लिए जुआ है और निपुण लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण अवसर।

प्रोजेक्ट 131 की प्रारंभिक बैठकों की सूचनाएँ जॉन, डीपी और सोमेश को, सोमेश के सलाहकार बराबर दे रहे थे। इसी बीच ख़बर मिली कि संबंधित क्षेत्र के नेटिव ने भी इस प्रोजेक्ट में पाँच प्रतिशत निवेश करने का मन बनाया है। क्षेत्रीय एबओरिजनल्स का जुड़ना यानि सरकारी झंझटों का न्यूनतम हो जाना था। कुछ घंटों में ही प्रमोटर्स के लक्ष्य पूरे हो सकने की पूरी संभावनाएँ थीं। सोमेश, जॉन और डीपी तीनों ने पाँच-पाँच प्रतिशत हिस्से की प्रारंभिक राशि तुरंत जमा कराने की कार्यवाही शुरू कर दी। कई प्रोजेक्ट ऐसे आते हैं जिनमें वह प्रोजेक्ट रातों-रात बिक जाता है। प्रोजेक्ट 131 के साथ भी ऐसा ही हुआ। कागज़ पर सारा काम अपना स्वरूप पा ले तो आधा काम तो हो ही जाता है। शेष भौतिक ढाँचे में होने वाला काम बस आधा ही है। एक बार शुरू हुआ तो उसे पूरा करना है बस।

जॉन की पूरी टीम ने इस निवेश में रुचि जतायी, वहीं डीपी की टीम ने भी रुचि ली। उनकी टीम की अनुशंसा यह थी कि यदि कोई प्रारंभिक निवेशक अपना पूर्ण या आंशिक हिस्सा बेचना चाहे तो हमें कुछ ऊँची दर देकर उनके हिस्से को ख़रीद लेना चाहिए। यह ऐसा निर्णय था जिसने प्रमोटरों के हौसले बुलंद कर दिए थे। उनके लिए यह इतना बड़ा समर्थन था कि कभी कोई कमज़ोर कड़ी निकली तो उसे सम्हालने के लिए तीन बड़ी कंपनियाँ उनके साथ हैं। कारोबार में यही होता है। विश्वास के दाम हैं और प्रोजेक्ट 131 इस पर सुदृढ़ होता गया। इस समय मुनाफ़े के बारे में सोचने की नहीं, अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की ज़रूरत थी।

विचार से विचार मिले, पैसों से पैसे मिले, हाथों से हाथ मिले। श्री गणेश हुआ।

एक लंबा मिशन था, लंबा इंतज़ार भी था। लंबी इमारतें थीं तो लंबी निवेश राशि भी थी। लंबी ज़िम्मेदारियाँ थीं, लंबी ख़्वाहिशें भी थीं।

वेगस की कालीनमयी धरती पर पत्थर नहीं थे पर पत्थरों जैसी मजबूती थी इरादों की।

अब जब तक वेगस में पैर जमते, सफलता क़दम चूमती, तब तक न्यूयॉर्क में लगाए पौधे फल देने लगे। यानि जो ज़मीनें औने-पौने दामों में ख़रीदी गयी थीं वे अब टकसाल में बदल गयी थीं।

भूमि ही ऐसा संसाधन है जो नियत, सीमित मात्रा में उपलब्ध है और इसकी माँग निरंतर बढ़ती रहती है। जिसने अर्थशास्त्र न भी पढ़ा हो उसके लिए भी यह समझना कठिन नहीं कि लंबे समय के लिए भूमि में लगाया गया निवेश निश्चित ही लाभदायी सौदा है। यह एक बहुत बड़ा संकेत था आगे बढ़ने के लिए। अवसर था वेगस में निवेश का। वह सारी अतिरिक्त पूँजी अब वेगस में आकर झंडे गाड़ने को तैयार थी। न्यूयॉर्क के अनुभव पर्याप्त थे। योजना यही थी कि – “न्यूयॉर्क का बिज़नेस वैसे ही चलता रहेगा। वेगस में एक अलग शाखा खोली जाएगी।” एक महानगर से दूसरे तक की दूरी भी पर्याप्त थी।

वैसे भी आज के दौर में दूरियों का कोई महत्त्व ही नहीं रहा। पूरी दुनिया ही एक शहर जैसी लगती है। अगर किसी व्यक्ति के पास काम करने के लिए अपनी टीम हो, प्रबंधन कौशल हो, सफल नेतृत्व करने की बलवती इच्छा हो तो आगे बढ़ते क़दमों को कौन रोक सकता है। डीपी को यही लगता रहा कि जो वह अर्थपूर्ण ढंग से सोच सकता है, कागज़ पर योजना बना सकता है तो वह उसे आकार भी दे सकता है।

***

“कुबेर का ख़जाना नहीं है मेरे पास जो हर वक्त पैसे माँगते रहते हो।”

अपने बचपन में माँ की जो फटकार सुनी थी और चुप ही रहा था वह। मन ही मन एक प्रण किया था कि - “माँ के लिए एक दिन यह ख़जाना हासिल करके रहूँगा मैं।”

आज अपने उस प्रण को पूरा कर चुका था धन्नू। उसकी वह चुप्पी अब बोल रही थी। इतने सालों बाद कुछ रुपयों के लिए नकारी गयी माँग ने एक ऐसे दिमाग़ को रच दिया था जिसकी वह नन्हीं सोच एक विस्तार लेकर विश्वव्यापी सोच बन चुकी थी। अपनी माँ को याद करते हुए, दोहराते हुए कि - “देख माँ, अपने बेटे का ख़जाना, जिसमें एक नहीं कई कुबेर हैं और कई ख़जाने भी हैं।”

हर भाषण के बाद तालियों की गड़गड़ाहट में अपनी माँ के शब्द उनके ज़ेहन में होते। पत्थर की लकीरों से कुरेदे, घंटियों की आवाज़ों से घनघनाते और प्यारी थपकियों के बीच सपनों में झुलाते। अभी भी तालियाँ बज रही थीं। काफी देर तक युवा श्रोतागण खड़े होकर अभिवादन करते रहे।

यह कुबेर के लिए एक ऐसा अवसर था जिसे यादगार बनाना था। अपनी कोशिशों और क़ामयाबियों को दोहराना था। युवाओं की भीड़ को उस गति से परिचित करवाना था जिसके लिए सालों की तपस्या काम आयी थी। अपने प्रयासों की सार्थकता को भुनाना था। इस पार या उस पार की सीख देकर। मजबूत इरादों का कल रचने की पगडंडी बनाकर। ऐसा कल जिसे पाने की, छीनने की चाहत किसे नहीं होती। हर कोई चाहता था कि इस भाषण के हर शब्द पर चले। रोमांचक भविष्य की कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते हज़ारों नवयुवक और नवयुवतियाँ जिनकी सराहती, मुस्कुराती, बोलती, हज़ारों आँखें एक ही शख्स पर थीं, कुबेर पर। उनका व्यक्तित्व, उनका आत्मविश्वास और उनका शब्द-कौशल नौजवान पीढ़ी के दिलों पर अमिट छाप छोड़ रहे थे।

भाषण का एक-एक शब्द प्रेरणादायी था। जोश भरने वाला और उत्साहित करने वाला। हर एक श्रोता को ऑटोग्राफ की चाह थी पर कुबेर का कहना था – “मैं ऑटोग्राफ दूँगा पर पहले आपका ऑटोग्राफ लूँगा। एक दिन आपको बताऊँगा कि देखो मैंने आपका ऑटोग्राफ आपके मशहूर होने से पहले ही ले लिया था।”

कई बार सुना था बड़े लोगों को यह कहते हुए कि – “मैं ऑटोग्राफ देना नहीं बनाना चाहता हूँ। आपको बनाना चाहता हूँ इस लायक कि मैं एक दिन आपसे ऑटोग्राफ माँग सकूँ।” कोई नया वाक्य नहीं था यह। उनके पहले भी कई लोग यह कह चुके थे पर वे अपनी मौलिक छाप इस पर छोड़ना चाहते थे, अपने अनुभवों को सुनाकर। उस खुली किताब की तरह जिसमें जीवन के तमाम कोरे पन्नों पर अथक परिश्रम की स्याही से उकेरे वे पल थे जो ज़िंदगी की जमा पूँजी थे। किताबें तो बहुत पढ़ी थीं उन्होंने परन्तु किसी परीक्षा के लिए नहीं, जीवन जीने के लिए पढ़ी थीं।

धनंजय प्रसाद, उर्फ़ धन्नू, उर्फ़ डीपी, सर डीपी, उर्फ़ कुबेर। जीवन का एक हिस्सा अपने नामकरण धनंजय से छोटा होकर धन्नू के नाम रहा। एक हिस्सा डीपी और सर डीपी के नाम रहा, एक बड़ा और अंतिम हिस्सा कुबेर के नाम रहा और सदियों तक रहेगा। न्यूयॉर्क की बहुमंज़िला इमारतों पर, लास वेगस के अत्याधुनिक टावर पर और ख़ास तौर से युवा पीढ़ी के होठों पर सदियों के लिए छाप छोड़ने वाला, इतिहास रचता एक नाम ‘कुबेर’। बिज़नेस टायकून भी कहा गया लेकिन धीरे-धीरे टायकून कुबेर हो गया। अंदर के धन्नू को कुबेर नाम ही पसंद था। कुबेर माँ की याद दिलाता था।

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