कुबेर - 42 Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कुबेर - 42

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

42

आज आख़िरी दिन था वेगस में। जिस लिंक की तलाश थी उसके कोई आसार कहीं से कहीं तक दिखाई नहीं दे रहे थे इसीलिए आगे की चर्चा का तो कोई सवाल ही नहीं था। सम्पर्क सूत्र पाना या नए सम्पर्क बनाना इतना आसान नहीं होता। हालांकि कल सुबह निकलना था परन्तु मन हो रहा था कि अभी से एयरपोर्ट चले जाएँ। कई बार ये लोग जल्दी वाली फ्लाइट में जगह हो तो एडजस्ट कर लेते हैं – “अगर ऐसा हो जाए तो भाईजी, आज ही घर निकल जाते हैं।”

डीपी को अपने इस बेतुके इंतज़ार का कोई मतलब नज़र नहीं आ रहा था। भाईजी भी अब थोड़े बेचैन हो रहे थे, घर जाने के लिए उतावलापन उनमें भी साफ़ नज़र आ रहा था – “हाँ डीपी, मैं भी यही सोचता हूँ। रुकने से कोई फ़ायदा नहीं। अगर हमें लिंक मिलनी होगी तो न्यूयॉर्क में भी मिल जाएगी। इस बार नहीं तो अगली बार।”

“जी भाईजी, सामान पैक करके रखते हैं। जल्दी की फ्लाइट मिल जाएगी तो जल्दी पहुँचना बेहतर होगा। धीरम और ताई भी अकेले हैं।”

कपड़े बैग में डालते हुए कुछ पलों की चुप्पी के बाद एकाएक ऐसा कुछ दिमाग़ में आया कि डीपी कुछ चिन्तित हो उठा। अपनी चिन्ता के बारे में भाईजी से बात करनी आवश्यक समझी, इतनी आवश्यक कि तत्काल उन्हें बताना ज़रूरी था।

“भाईजी, अचानक ख़्याल आया और इससे मेरे मन में एक बात का डर पैदा हो गया है...”

“वह क्या? डर, कैसा डर?”

“वह यह कि कसिनो में पैसा लगाने के बारे में सोचकर हम कहीं जुए के खेल को बढ़ावा तो नहीं दे रहे। शायद यह दादा के सिद्धांतों के खिलाफ़ हो। अगर यहाँ खेलते हुए लोगों के घर बरबाद होते हैं तो हमें ऐसे व्यवसाय में हाथ ही नहीं डालना चाहिए।”

“डीपी यह जुआ तो है परन्तु जहाँ तक मैं सोचता हूँ यह अन्य व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय ही है। यहाँ जुआ खेलने तो आते हैं लोग लेकिन ऐसे लोग नहीं आते जो खेल कर ख़त्म हो जाएँ। ये सारे अमीर लोगों के शौक हैं। किसी ग़रीब के पास इतना पैसा नहीं होता कि वह इस चकाचौंध की दुनिया में आकर अपनी मेहनत का पैसा लगाए और बरबादी की ओर क़दम बढ़ाए। यहाँ जो आते हैं वे तो सिर्फ अपना मनोरंजन करने आते हैं।”

“अच्छा!”

“बिल्कुल डीपी, यक़ीन मानो, ये सारे लोग यहाँ ऐश करने ही आते हैं। यहाँ आकर इन्हें पैसा कमाने का इतना लोभ नहीं होता बल्कि ये तो उस रोमांच को महसूस करने आते हैं जो जुए की हर चाल को चलने के बाद इन्हें मिलता है। यहाँ आकर फिर चाहे वे जुआ खेलें, शराब पीएँ या शबाब में पैसा लगाएँ। हमारे इस बिज़नेस को न करने से कुछ रुकेगा तो नहीं, हम नहीं करेंगे तो कोई और करेगा।”

“हाँ यह तो है...” डीपी मानो अभी भी पूरी तरह से आश्वस्त होने की कोशिश में था कि सचमुच यह जुए का खेल एक व्यापार है।

“विश्वास करो, हम इस व्यवसाय में हाथ डाल कर कोई ग़लत काम नहीं करेंगे। यह जुए का खेल सिर्फ़ मनोरंजन का खेल है। हर अमीर आदमी जब यहाँ आता है तो एक राशि तय करके आता है कि आज उसका खेलने का बजट कितना है। उस बजट के अंदर ही वह रहेगा। इसके बाद अगर वह जीता तो जीता व हारा तो हारा। उसे इस हार से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। हमारे हाथ खींच लेने से यह सब बंद तो नहीं हो जाएगा। क़ानून और सरकारी नियंत्रणों के बीच यह व्यवसाय चलता है।”

“आप कहते हैं तो ठीक ही होगा, अगर ऐसा है तो ठीक है भाईजी। बस मैं यही सोच रहा था कि कहीं मैं दादा की सोच के खिलाफ़ तो नहीं जा रहा हूँ।”

“तुम ही नहीं डीपी, मैं भी दादा की सोच के खिलाफ़ कभी नहीं जाऊँगा। मैं भी उन्हीं की छाया तले पला-बढ़ा हूँ। अन्य धंधों की तरह ही यह एक धंधा है, अधिक से अधिक अमीरों को लुभाने का धंधा। यकीन करो, इसमें पैसा लगाने के बारे में सोच कर हम कुछ ग़लत नहीं कर रहे हैं।

“एक और ख़ास बात, कसिनों से प्राप्त राजस्व को यहाँ के ‘नेटिव अमेरिकन्स’ यानि ‘एबओरिजनल्स’ के उत्थान के लिए लगाया जाता है। उनकी शिक्षा के लिए, उनके इलाज के लिए अस्पतालों आदि में ख़र्च के लिए यह राशि सरकार द्वारा संरक्षित होती है।”

“अच्छा! ये लोग कौन होते हैं?”

“ये यहाँ के मूल निवासी हैं जिन्होंने आज तक अपनी परम्पराओं को बचाए रखने के लिए अपने दायरों से बाहर न आकर वहीं अपने जीवन-यापन की व्यवस्थाएँ की हैं। सरकारी नीतियाँ उनके लिए काफी उदारवादी हैं। उनका एरिया जहाँ वे रहते हैं ‘रिज़र्व’ कहे जाते हैं जहाँ उन्हीं का आधिपत्य होता है। केंद्र शासन के तले उनका अपना शासन होता है। कोई सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता वहाँ। लास वेगस के आसपास कई रिज़र्व हैं जो कसिनो के राजस्व के हक़दार हैं।”

इस नयी जानकारी के बारे में समय मिलते ही और पढ़ने की उत्सुकता हुई डीपी को। भाईजी की बात से आश्वस्त हुआ वह, अन्यथा अचानक आए इस ख़्याल से उसका नये बिज़नेस का उत्साह थोड़ा ठंडा पड़ गया था। अपनी परोपकारी योजनाओं के लिए कमाना तो चाहते हैं, पर क़ानून सम्मत हो कर और नैतिक तरीकों से।

दोपहर के खाने का समय हो रहा था। नीचे जाकर खाना खाकर सीधे एयरपोर्ट जाने की योजना थी। लंच के लिए जब नीचे गए तो लॉबी में वे एक अधेड़ उम्र की महिला से टकराए जो वहीं घूम रही थी। पचपन से साठ के बीच की उम्र होगी। चेहरे और पोशाक से भारतीयता का बोध हो रहा था। वह अपनी धुन में कहीं जा रही थी। भारतीय चेहरों को देखकर वह चौंक गयी। चौंक कर रुकी, कुछ याद करने की कोशिश करते हुए डीपी को एकटक देखती रही फिर देखते हुए बोली – “मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं आपको जानती हूँ, मैंने आपको कहीं देखा है।”

“मैं न्यूयॉर्क से आया हूँ।” कुछ धुंधली-सी तस्वीर डीपी के दिमाग़ में भी थी लेकिन स्मृति में नहीं।

“लेकिन मैं तो कभी न्यूयॉर्क गयी ही नहीं। माफ़ कीजिए, कोई कन्फ्यूज़न हो गया था शायद।” वह थोड़ा-सा सकुचाते हुए आगे बढ़ गयी मानो कोई ग़लती हो गई हो उससे।

“क्या आप भारत से हैं?” डीपी ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, उन्हें रोक कर बात करने की कोशिश की।

“जी”

“मैं भी भारत से हूँ।”

“तो शायद मैंने आपको भारत में कहीं देखा होगा, मगर कब, कहाँ, कुछ याद नहीं आ रहा सिवाय इसके कि आप मेरे परिचित-से हैं।”

“मुझे भी कुछ याद नहीं आ रहा... आपका नाम सत्यवती देवी तो नहीं, मुख्यमंत्री जी की फोटो के साथ...”

“हाँ, हाँ, वही, मेरे पति मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वही तो मैं सोच रही थी कि नज़रें धोखा कैसे खा रही हैं। हाँ, अब याद आया। जीवन-ज्योत में दादा के साथ देखा था शायद...”

“जी जी, बिल्कुल सही पहचाना आपने, तो आप यहाँ कैसे?”

“अब मैं यहीं रहती हूँ, अपने बेटे के पास।”

“और मंत्री जी भारत में?”

“मंत्री जी नहीं रहे अब। उनका स्वर्गवास हुए तो सालों हो गए। पार्टी भी बदल गयी। सब कुछ ख़त्म हो गया।” यह कहते हुए उनके शब्दों की उदासी साफ़ झलक रही थी।

“अच्छा, माफ़ कीजिए मुझे मालूम नहीं था। आपको पता चला होगा कि दादा भी हमें छोड़ कर चले गए हैँ।”

“हाँ, मेरी एक मित्र ने बताया था दादा के बारे में।”

सत्यवती देवी और इनके राजनेता पति जो मुख्यमंत्री भी थे उनके दादा से बहुत अच्छे संबंध थे। शायद इसीलिए उन्हें वेगस में देखकर एक सुखद अनुभूति हुई थी। वे ख़ुश थीं क्योंकि सालों बाद अपने इलाके से किसी से मिल रही थीं, वह भी दादा के शिष्यों से। वे और उनके पति दादा का बहुत आदर करते थे। कई बार जीवन-ज्योत गए थे वे। जीवन-ज्योत से उनकी आत्मीयता उनके चेहरे से झलक रही ख़ुशी के द्वारा इंगित हो रही थी।

उनके अपने पुराने, अच्छे दिन एक अनोखी आभा दे गए थे चेहरे पर। इसी प्रसन्नता में उन्हें शाम को घर आने का निमंत्रण मिला। डीपी ने भाईजी को देखा, मौन सवाल था यह पूछते हुए कि – “क्या करें, एयरपोर्ट चलें या इनके घर।”

उन्हें चुप देखकर वे बोलीं – “क्या बात है, आपकी फ्लाइट है क्या?”

“जी, फ्लाइट कल सुबह है।”

“बस तो फिर तो सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। आप घर आइए, डिनर पर। बैठेंगे, बातें करेंगे।”

इस बार भाईजी ने थोड़ी औपचारिकता जताते हुए कहा – “जी, सत्यवती जी, हम वैसे ही चाय पर आ जाते हैं, कृपया डिनर का कष्ट मत उठाइए।”

“जी हाँ, भाईजी ठीक कह रहे हैं, चाय पर आ जाते हैं।” डीपी ने भाईजी की बात का समर्थन करते कहा।

लेकिन उनका आग्रह जारी रहा - “कष्ट की तो कोई बात ही नहीं है। आप हमारे इलाके से हैं। मंत्री जी और दादा अच्छे मित्र थे। आपकी जो इच्छा हो खाइएगा। आप घर आइए, मेरे परिवार से मिलिए। यहाँ तो बहुत कम ऐसा मौका मिलता है कि भारत से कोई आए और हम उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर पाएँ।”

अब “हाँ” कहने के अलावा कोई चारा नहीं था। वैसे विचार अच्छा ही था, कम से कम घर का खाना खाने मिलेगा, उनका मेलजोल बढ़ेगा। वे अपना पता, फ़ोन नंबर दे कर, “शाम छ: बजे मिलते हैं” कह कर चली गयीं।

शाम को डीपी और भाईजी टैक्सी से जब उनके घर पहुँचे तो वे स्वागत के लिए तैयार थीं। रियलटर न चाहते हुए भी अपने मुलाकातियों की आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा कर ही लेते हैं। भाँप लेते हैं कि सामने वाले तेली में कितना तेल है। सत्यवती जी के घर और घर की चीज़ें बोल रही थीं कि – “मालिक के घर में दूध-दही की नदियाँ बह रही हैं।”

उनकी बहू और दो छोटे बच्चे भी थे। बेटा सोमेश अभी काम से आया नहीं था। हल्के-फुल्के नाश्ते के साथ बातें शुरू हुईं। डीपी ने अफ़सोस जताया कि कि मंत्री जी अब नहीं रहे। दादा के बारे में भी बताने लगा कि किस तरह वह दादा के साथ न्यूयॉर्क शहर आया था और दादा को सदा के लिए खो दिया। पुराने परिचितों से दूर-दराज़ की जगहों पर मिलने का मौका मिले तो आत्मीयता घनी होने में समय नहीं लगता। वही हुआ, आपस में बातें इस तरह होने लगीं जैसे उनके मन हल्के होने के रास्ते ही खोज रहे थे।

सत्यवती देवी ने लंबी साँस ली और अतीत के चक्कर लगाते हुए बताने लगीं अपनी आपबीती। वह सब कुछ जो उनके साथ हुआ था। एक भरा-पूरा अतीत यों चला जाए ज़िंदगी को वीरान करके तो कितना भी मजबूत इंसान हो, कहीं न कहीं से टूटता ज़रूर है और उस टूटन को जोड़ने में शेष जीवन बलि चढ़ जाता है। सत्यवती देवी शायद इसी दौर से गुज़र रही थीं।

राजनीति, सरकार, कुर्सी ये सब एक दूसरे के पर्याय हैं। अगर एक पाया टूटा तो शेष ढाँचा भरभरा कर गिर जाता है। पार्टी बदलती है, सरकार बदलती है, कुर्सी भी बदल जाती है। विरोधी खेमे में बैठना एक अभिशाप-सा है। वहाँ बैठे-बैठे सारे विरोधी ही विरोधी नज़र आते हैं, अपना कोई नहीं रहता। सत्ता के गलियारों की विभीषिका एक-एक करके अपना वीभत्स रूप दिखाने लगती है।

सत्यवती देवी ने ऐसे सत्य का सामना किया था जिसकी कड़वाहट ने उन्हें देश छोड़ने को मज़बूर कर दिया था। वे बताती रहीं कि – “हमने देखा है अपनी आँखों से कि राजनीति में कैसे एक इंसान को पलकों पर बैठा लेने के बाद नीचे गिरा दिया जाता है। वे उस इलाके के जाने-माने नेता थे जो राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके थे। उनकी पार्टी के हारते ही पासा पलट गया। चारों ओर से उन पर बेबुनियाद इल्ज़ामों की, भ्रष्टाचार के आरोपों की बारिश होने लगी। आख़िर कब तक लड़ते, टूट चुके थे। मन के टूटते ही शरीर ने भी हार मान ली और एक दिन हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गयी।”

भाईजी और डीपी सहानुभूति जताते हुए उन्हें हौसला दे रहे थे, वे बोलती रहीं – “लेकिन उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद भी यह सब रुका नहीं। एड़ी से चोटी तक सब कुछ बदल गया था। सत्ताधारी लोग और पार्टियाँ हर दम खाट खड़ी करने को आमादा रहतीं।”

उनकी आपबीती सुनते हुए डीपी सोच रहा था कि हर इंसान को अपने हिस्से का संघर्ष तो स्वयं करना ही पड़ता है। वे बताती रहीं कि उस हादसे के बाद बेटे सोमेश को जब अमेरिका में नौकरी मिल गयी तो उसने माँ को वहाँ अकेले छोड़ने से इंकार कर दिया। बच्चे के भविष्य के लिए उन्होंने उसके साथ ही देश छोड़ दिया। एक बार जो देश छोड़ा तो बस फिर कभी जाने का मन नहीं किया। यहाँ बसने का फैसला लेना भी इतना आसान नहीं था और भारत में रहना भी आसान नहीं था।

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