डरना जरूरी है bharat Thakur द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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डरना जरूरी है

सुनसान वीरानी पगडंडी पर वो परछाई न जाने कब से अपनी आहट को समेटे रात के इस अंधियारे को छेड़ते हुए जा रही थी। रात के सन्नाटे को चीरती हुई उल्लुओं की आवाज सीधे हृदयाघात के लिए काफी थी। परंतु परछाई की धड़कने कमजोर नही थी। उसे आदत थी ऐसे बीहड़ जंगलों की जो अकेले थे पर हमेशा उसके आस पास थे। चंद्रमा बार बार काले धूसर बादलों में छुप कर ये जता रहा था कि वह भी इस सुनसान जंगल के कोनो में अपनी रौशनी नही पहुंचाना चाहता। सियार की रोने की आवाज जैसे उस परछाई के लिए मामूली बात थी। हर जंगल मे वो यूँही घूमता! हमेशा भ्रमण पर रहता! हर प्रकार के डर को वो महसूस करना चाहता था ताकि अगली स्वलिखित उपन्यास या यूं कहें डरावनी कहानियों से अपने पाठकों को रोमांचित कर सके! डर ही बिकता है। इस डर को फैलाने के लिए कई यत्न किये मनोहर ने! पर अब एक और नया किस्सा चाहिए था। हर रोज नए किस्से नही घड सकता था लेखक! इसलिए वो आज राजघाट के जंगलों में वीरान किले की ओर चल दिया। सुना है उससे वीरान किला कोई और नही! डर को लिखने के लिये डर को जीना जरूरी था।

रात को इस जंगल मे कोई पागल व्यक्ति ही आ सकता है। वो अपने आप को पागल से कम नही समझता था। उसका नाम मनोहर था। उसने कही पढा था राजघाट के जंगलों के बारे में! तब से उसे उत्सुकता जगी थी कि एक रात उस किले में जरूर बिताएगा। उसके कोई मित्र नही थे और न ही कोई बंधु! अकेला जीव था..शायद यही वजह है की वो हर डर को जीना चाहता था।

रात का पहला पहर लग चुका था पर मनोहर को वो किला अब तक नजर नही आया। वह काली बावड़ी का भूत, चुड़ैल का बदला, प्यासी आत्मा वगैरह वगैरह के बारे में लिख लिख कर ऊब गया था। डर अब भी उससे कोसो दूर था। वो चला जा रहा था। किट पतंगों की आवाजें उसे डराने की कोशिश में नाकाम रह रही थी। जंगल मे बहुत दूर चले जाने के बाद मनोहर किसी भी इंसानी बस्ती से कई कोस दूर आ गया था।

तभी, एक सुनसान जगह पर ऊंची ऊंची किलेनुमा दीवार नज़र आई। मनोहर अपनी मंजिल तक पहुंच गया था। उसकी कालिख दीवारें मनोहर की आंखों से टकराती है। इस जंगल मे इस किले का होना मानो किसी चमत्कार से कम नही था। घना जंगल और ये किला! दोनों एक दूसरे के पूरक लग रहे थे। यह ठीक किसी भूतिया कहानी जैसे थी। काला मटमैला किला और बाहर बड़े से गेट तक फैली सुखी पत्तियों का आतंक इस अंधेरे में भी साफ साफ दिख रहा था। किला न तो भव्य था और न बड़ा! किला छोटा था। शायद उस समय कोई छोटी रियासत! दीवारों के पार अंदर शिरकत करते ही उसे एक हवेली नज़र आई। आस पास पेड़ और लताओं ने अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया था। किले के अंदर खाली जगह और बीच मे हवेली थी। किले में कही रौशनी नही थी।

इस जंगल मे ये सुनसान किला सहसा ही मनोहर के मस्तिष्क में एक कहानी की शक्ल लेने के लिए आतुर था। किले को अंधेरे में देख रूह भी कांप जाए पर मनोहर जैसे सहज ही था। उसे अतिविश्वास था कि भूत वगैरह नही होते क्योकि वो खुद को इन सबसे ऊपर मानता था। कालिख से पुता हुआ किला पथिक को अपने अंदर समाने हेतु डरावनी मुद्रा में भयंकर शक्ल अख्तियार किये हुए था। बरसो से जमी धूल हवेली को भभूत समान जकडे हुई थीं। भभूत शब्द दिमाग मे आते ही मनोहर ने अपने बैकपैक को नीचे उतारा और उसमें से एक पाउच निकाला। पाउच में महाकाल की भभूत साथ मे थी। मनोहर हर वक़्त उस भभूत को अपने पास रखता। भभूत लगाते ही वातावरण में एक अद्भुत गंध पसर गयी। मानो अलौकिक चीजो के लिए कोई संदेश थी भभूत! उसने उसे अपने गले पर लगाया और बैग से टॉर्च निकाली। हवेली के गेट को खोलते ही मानो बरसो से शांत चित्त लिए हुए वातावरण सहसा ही जग गया। यू लग रहा था मानो हवेली के कालिख पर एक कुटिल मुस्कान उभर आई थी। पर मनोहर में डर किंचित मात्र भी नही था।

"कोई है?? कोई है यहाँ??" मनोहर ने गंभीर होती उस किले के अंदर उपस्थित हवेली में किसी सजीव के होने की कल्पना से आवाज लगाई।

काफी देर तक कोई आवाज नही आई। मनोहर गेट के अंदर तक जाकर हवेली के दरवाजों तक दस्तक देने के लिए आतुर हो गया था। मनोहर के कदमो तले रौंदी हुई एक एक पत्ती मानो मनोहर से बदला लेने के लिए आतुर हो गयी थी। पवन का झोंका भी उन्हें हिला नही पा रहा था। न जाने कितने वर्षों से वो मार्ग में बिछी हुई थी किसी अजनबी के इंतज़ार में! आज अजनबी ने आते ही उसे अपने पैरों तले मसल दिया। पर अजीब बात थी मसलने पर भी पत्तियां शांत थी। उनसे कोई आवाज ही नही निकली। मानो आनेवाले तूफान के आगमन का उन्हें पहले से पता हो!

मनोहर ने हवेली के दरवाजे को देखा। किसी रजवाड़े की तरह माकूल कारीगरी से बनाया हुआ प्राचीन दरवाजा था। वक़्त के घनघोर पहिये भी दरवाजे पर की गई कारीगरी धूमिल नही कर पाए थे। दरवाजो पर तरह तरह की आकृतियां बनी हुई थी। दो आकृतियों ने मनोहर का ध्यान विशेष आकृष्ट किया। दोनों जीभ निकाले किसी राक्षस की आकृतियां थी। सामान्यतः दरवाजो पर ऐसी आकृतियां कोई बनवाता नही। दोनों राक्षसो की जिव्हा से काले रंग के गोल कड़े लगे हुए थे। मनोहर ने एक राक्षस की जिव्हा से लटक रहे काले कड़े को दरवाजे पर दे मारा। मानो दरवाजे पर कई वर्षों की धूल एक साथ जमीं पर आ पड़ी। दरवाजो पर बनी अन्य आकृतिया मनोहर को घूरने लगी। पर मनोहर का ध्यान बाहर बरामदे में था। गेट बंद हो चुका था। शायद मनोहर ने ही बन्द किया हो पर मनोहर ने इस बात को नजरअंदाज किया।

मनोहर ने एक बार पुनः राक्षस की जिव्हा से लटक रहे काले कड़े को दरवाजे पर दे मारा। इस बार मनोहर के व्यवहार में तल्खी थी। इसी वजह से मनोहर ने ध्यान नही दिया कि उसने इस बार दूसरे राक्षस की जिव्हा खींची थी। राक्षस अब ग़ुस्से में प्रतीत हो रहे थे। जिव्हा को खींचना किसी को भी क्रोध दे सकता है! फिर ये तो आकृतियां थी। दरवाजे पर अन्य आकृतिया अब एक दूजे को घूर रही थी। दरवाजे पर भिन्न भिन्न आकृतियाँ बनी हुई थी। बैल, घोड़े, बकरी, हाथी, शेर, पक्षी और न जाने क्या क्या बना हुआ था। मानो जंगल में रहने वाले प्रत्येक प्राणी को उकेर दिया हो!

धड़ाम की आवाज से दरवाजा खुलता है। मनोहर को यकीन नही होता कि इस सुनसान जगह पर भी कोई रहता है। सामने लालटेन लिए हुए एक अजीब सी शक्ल वाला वृद्ध पुरुष आया। उसके शक्ल पर जगह जगह घांव बने हुए थे। चेहरे पर चेचक के दाग भी भयावह लग रहे थे। एक आंख भी पूरी तरह से सफेद थी। मनोहर का दिमाग एक एक डिटेलिंग को नोट कर रहा था।

"कौन हो? इतनी रात को कौन आया है इस किले में?" वो वृद्ध इंसान बोल पड़ा।

"मैं! मनोहर!! यहाँ से गुजर रहा था तो ये किला दिखा। रात काफी हो गयी है। अगर रात गुजारने के लिए आश्रय मिल जाता तो आभारी रहता!"

"महाशय? कौन महाशय है!! क्या नाम बताया तुमने गिलोय! ये कैसा अजीब नाम है?" उस भयावह मुख पर और भयावहता उभर रही थी। पर मनोहर जैसे उसकी बातों से हंस पड़ा। उसे बहरा मान इस बार मनोहर ने चीख चीख कर अपना प्रयोजन बताया।

"तो इसमें चिल्लाने की क्या बात है! आओ.. आ जाओ भीतर... वैसे भी इस हवेली में कोई आता जाता नही! मेरा आश्रय भी यही है। आज एक दिन के लिए तुम्हारा भी हो जाएगा।"

मनोहर को अंदर आने की इजाजत दी। लालटेन की रौशनी कम थी पर काफी लग रही थी। पूरी हवेली किसी समय जरूर आलीशान रही होगी। जगह जगह प्राचीन कला के नमूने बिखरे हुए थे। दीवारों पर एक से बढ़कर एक नक्काशी फैली हुई थी। कही कही चित्रकारी भी नजर आ रही थी। हवेली के अंदर बिल्कुल ठीक सामने सीढ़िया थी। उन सीढ़ियों पर एक बहुत बड़ी पेंटिंग थी। मुछो पर तांव देते किसी देवदूत समान प्रतीत होते किसी राजा की पेंटिंग लग रही थी। उसके पास ही बाई और दाई तरफ दो और पेंटिंग्स थी। वे दोनों पेंटिंग्स किसी स्त्री की थी। सारी चित्रकारी जीवंत लग रही थी। सीढ़िया दो भागों में विभक्त थी। एक बाएं और दूसरी दाएं! बीचों बीच वो चित्रकारी ऐसी थी कि आनेवाले आगंतुकों को पहले वो देख ले! इजाजत ले और तत्पश्यात हवेली में समिल्लित हो! हवेली में जगह जगह अजीब मोटे से मकड़ जाल बने हुए थे। लग रहा था जैसे मकड़ियां अब पूर्ण विकसित होकर इस पूरी हवेली पर अपना पूर्ण एकाधिकार स्थापित करेगी!

"बाबा! ये कौन है?" मनोहर ने उस चित्र की ओर इशारा करते हुए जिज्ञासावश पूछ लिया।

"मौन! मैं मौन नही हु! पूछो क्या पूछना है?" वृद्ध इंसान की बाते मनोहर को जैसे ठठोली लग रही थी।

मनोहर ने इस बार फिर चिल्लाना उचित समझा। मनोहर के चिल्लाते ही हवेली में बीचों बीच लगे झूमर भी कांपने लग गए।

"ये!! ये तो यहां के राजकुमार कुंवर रामप्रताप थे। और दोनों तरफ बनी तस्वीर उनकी दोनों रानियों की थी। बाएं ओर पुष्पलता और दाएं ओर विद्यावती!"

मनोहर दोनों तस्वीरों को देख मंत्रमुग्ध हो गया। दोनों किसी अप्सरा से कम नही लग रही थी। दोनों के चित्र अनेकानेक माणिक से सुसज्जित थे। प्रत्येक चित्र की आंखे बिल्कुल ही वास्तविक लग रही थी। मानो अभी तस्वीर से बाहर आ जाये और बाते करने लग जाये। पूरे हॉल में कई जानवरो की मृतक प्रतिमाये लगी हुई थी। कुल मिलाकर किसी भुतहा कहानी के लिए बिल्कुल उचित जगह पर मनोहर पहुंच गया था।

"बाबा! क्या नाम है आपका? कब से रह रहे हो यहां?" इस बार मनोहर स्वतः ही चिल्ला कर बोल पड़ा।

"मैं! बेटा! पता नही कितने वर्ष हो गए यहां? जब से आया हु यही का होकर रह गया हूं। कही आ जा सकता नही! सुनाई भी कम देता है। इसलिए पड़ा रहता हूं एक कोने में! इस हवेली के उत्तराधिकारी ने मुझ अकेली जान को इसके रखरखाव की जिम्मेदारी दी है। पूरे किले में बस यही जगह है जो रहने लायक है बाकी तो तुम देख ही चुके है। अब तुम उस कमरे में चले जाओ। मैं कुछ खाने पीने की व्यवस्था करता हु।" उस वृद्ध ने सीढ़ियों से सटे एक कमरे की ओर इशारा किया और खुद बाए ओर मुड़कर अंधेरे में अंतर्धान की मुद्रा ले ली। मनोहर ने टॉर्च ऑन की और उस कमरे की ओर बढ़ चला। तीनो चित्र मानो मनोहर को ही घुर रहे थे। मनोहर एक बार उन चित्रों को करीब से देखना चाह रहा था। खासकर पुष्पलता की पेंटिंग दूर से ही मनोहर को आकर्षित कर गयी थी। गजब की खूबसूरती समेटे हुए थी पुष्पलता! किसी अप्सरा से कम नही थी। शालीन और खूबसूरत, आंखों में जैसे अलौकिक गहरा समंदर जिसमे मनोहर डूब चुका था। मनोहर ने अपना पहला कदम सीढ़ियों पर रखा। एक वायु का झोंका उसके बालो से टकराया। मनोहर ने दूसरा कदम रखा ही था कि उसके कंधों पर एक मजबूत हाथ आ पड़ा।

"कहाँ जा रहे हो? तुम्हारा कमरा ऊपर नही है। जाओ उस कमरे में जाओ!" वृद्ध ने मनोहर को एक कमरे की ओर इशारा करके कहा।

वृद्ध ने अपनी भौंहों को चढ़ा दी थी। उसकी आवाज में कर्कशता थी। मनोहर सीढ़ियों से अपने पैरों को पुनः फर्श पर रख दिया और अपने गंतव्य की ओर बढ़ा। पीछे से एक और आवाज गूंजी!

"ऊपर न जाना महाशय! मैं खुद भी नही जाता। बहरा हु पर जानता हु, ये किला कोई आम हवेली नही है।" इतना कह वृद्ध मुड़कर फिर उस अंधेरे में अंतर्धान हो गया। मनोहर को वृद्ध की बात विचित्र लगी पर उसके दिमाग मे एक अनोखी कहानी का ताना बाना बुनना शुरू कर दिया था।

मनोहर ने कमरे में शिरकत की। कमरे में एक आलीशान बेड लगा हुआ था पर बाकी सामानों पर एक सफेद चादर ओढ़ा रखी थी। मनोहर ने एक एक कर चादर को खींचा। प्राचीन कारीगरी के दीवान और सोफे बने हुए थे। सामने लकड़ी की विशाल अलमारी भी थी। मनोहर ने बेड पर अपना बैग रखा और बाकी चीजो को टटोलने लगा। कमरे में लकड़ी के कई प्रकार की कलाकृतियां बनी हुई थीं। मनोहर निहार ही रहा रहा था की लकड़ी के अलमारी से एक आवाज आने लगी। 'धक.. धक..' आवाज बिल्कुल अलमारी से ही आ रही थी। मनोहर ने यहां वहां देखा पर कोई नही था। 'धक धक' की आवाज दुबारा आईं। मनोहर को समझ नही आ पा रहा था कि आखिर ये आवाज अलमारी से क्यो आ रही है? ऐसे लग रहा था कि कोई उस अलमारी में फंसा हुआ है और वो धीरे धीरे नॉक कर रहा हो!

मनोहर ने पहला कदम उस ओर बढ़ाया ही था की आवाज यकायक बन्द हो गयी। मनोहर अचंभीत हो गया था। उसने टॉर्च से अलमारी के चारो तरह रौशनी डाली, पर कही कुछ न था। मनोहर ने उस आवाज को इग्नोर कर बेड के पास पड़ी आकृति को उठाया। आकृति किसी छोटे बच्चे की थी। जिसके हाथ में एक छोटा डिब्बा होता है। बच्चा उसे छुपाने की कोशिश करता हुआ दिख रहा है, ऐसी कारीगरी की गई थी। लकड़ी का बनाया हुआ बच्चे का चित्रण उत्तम कारीगरी का प्रतीक था। तभी, अलमारी से आवाज आई। इस बार आवाज पहले की आवाज की तुलना में अत्यधिक तेज थी। मनोहर ने टॉर्च की दिशा उसी ओर मोड़ दी। आवाज और तेज हो रही थी। धक... धक... ऐसी आवाज काफी थी दिल की धड़कनों के बढ़ने के लिए। मनोहर उस लकड़ी की अलमारी के बेहद नजदीक पहुंच गया था। मनोहर के माथे पर पसीने की कुछ बूंदे निर्मित हो गयी थी।

पर मनोहर को विश्वास था की दुनिया मे भूत प्रेत नही होते! होता है तो इंसान का डर! भय ही इंसान को उसके प्रारब्ध से तोड़ देता है और नित नवीन भ्रम पैदा करता है। मनोहर उस अलमारी तक पहुंचता है। अलमारी को खोलता है। अलमारी में भी मकड़ जाले बने हुए थे। पूरा किला मानो मकड़ जालो के चक्रव्यूह में कैद था! कुछ जालो को हटाने के बाद जैसे कोई सुनहरी वस्तु पड़ी हुई थी। धूल भी उस सुनहरी वस्तु का ज्यादा कुछ बिगाड़ नही पाई थी। मनोहर ने उस वस्तु को अलमारी से निकाला। उस पर जमी धूल को साफ की! उस वस्तु ने किसी किताब की शक्ल ली!

मनोहर ने उत्सुकतावश उस किताब को खोला! मानो कमरे में यकायक पवन की साय साय आवाज आने लगी! पुस्तक के पहले पन्ने पर लिखा था,,

'इस पुस्तक को खोलते ही आप एक अलग ही दुनिया का जायजा लेंगे!'

अचानक कुछ ऐसा हुआ कि आंखों से विश्वास नही हो रहा था। वहां रात अचानक दिन में बदल गया था। चारो तरफ रौशनी हो हो गयी थी। मनोहर ताबड़तोड़ कमरे से बाहर आया! वो हवेली जो थोड़ी देर पहले धूल के खंखारो से भरी हुई थी पर दूधिया सफेद रौशनी में नहा चुकी थी। सारी कलात्मक चीजे चमक रही थी। झूमर इस तरह दमक रहा था जैसे वाकई अपने नाम की सार्थकता दे रहा हो! मकड़ जालो से अद्भुत रौशनी प्रेक्षित हो रही थी। मनोहर के मुख पर शिकन नही थी अपितु मुस्कान थी!

मनोहर ने सीढ़ियों पर लगे उन चित्रों को देखा! रामप्रताप की तस्वीर और विद्यावती की तस्वीर तो लगी हुई थी। पर पुष्पलता अपने चौखटे में नही थी। मनोहर आश्चर्यचकित था। वह सीढ़ियों पर बढ़ता है। पहला कदम रखते ही एक बार पुनः वही पवन का झोंका उसके बालो को सहलाने आ गया। दूसरा कदम रखते ही मनोहर ने मुड़कर देखा अबकी बार वृद्ध इंसान उसे रोकने के लिए दूर दूर तक नही था।

मनोहर एक एक सीढ़िया चढ़कर रामप्रताप की बड़ी फ़ोटो तक पहुंच जाता है। रामप्रताप और विद्यावती, दोनों की आंखे मनोहर पर ही टिकी हुई थी। मनोहर को एक मधुर आवाज आती है... कोई गीत गूंजता सा उसके हृदय तक को छू लेता है। मनोहर दांयी ओर वाली सीढियां लेता है। वह उन सीढ़ियों से उस आवाज की ओर बढ़ता है। वो कर्णप्रिय आवाज उसके मस्तिष्क में जैसे कोई चाशनी घोल रही थी।

"इंतज़ार.... इंतज़ार.... लंबे समय तक किया इंतज़ार...
इस बेजान बंजर जमीन पर आ जाओ एक बार... "

पहले कभी ऐसा गाना सुना नही था मनोहर ने! वो ऊपरी मंजिल तक पहुंच जाता है। कई विशाल कमरे बने हुए थे। पर आवाज एक कोने के कमरे से आ रही थी। वही से छन कर एक दिव्य रौशनी भी आ रही थी। मनोहर उस कमरे की ओर बढ़ चला। उसे गाने के साथ साथ एक मद्धम सी मदहोश करने वाली भीनी खुशबू भी आ रही थी। उसके आंख, कान और नाक तीनो जैसे उस किले की हवेली में खो से गये थे। उसके कदमो में बहकाव नजर आ रहा था। वह किसी मदमस्त की तरह खींचा चला जा रहा था। कमरे के मुहाने पर आकर मनोहर अंदर झांकता है। कमरा रौशनी से सरोबार था। मनोहर की आंखे एक बारगी चौंधिया जाती है। वह ध्यान से देखता है। एक सुशील सुकुमारी आईने के सामने बैठ अपने मुलायम रेशमी केशो को संवार रही थी। वही गाना गा रही थी। आईने में मनोहर ने उस सुंदर स्त्री को देखा तो उसे देखते ही मनोहर का माथा ठनका! ये तो पुष्पलता थी!!

उसका रूप इतना मनोहारी था की मनोहर अपने आप को उसे देखने भर से रोक नही पा रहा था। पुष्पलता अपने केसरयुक्त बदन पर किसी इत्र का इस्तेमाल कर रही थी। उसकी गंध पूरे कमरे में बिखर गयी थी। मनोहर को किसी मादकता ने घेर लिया था। वह उस रूपयौवनी पर पूरी तरह मंत्रमुग्ध हो गया था। दिमाग कह रहा था कि ये झूठ है पर हृदय.... मनोहर का हृदय बार बार दिमाग को झुठला रहा था। आखिर में विजयी तो मनोहर का हृदय ही रहा। पुष्पलता के कंठ में मानो साक्षात सरस्वती विद्यमान थी। पुष्पलता का ध्यान कमरे के दरवाजे पर जाता है। वह उठ खड़ी हुई और मनोहर को घूरने लगी!

मनोहर जैसे यकायक अपने मादकता भरे अनुभव से बाहर आया!

"कौन हो तुम? इस प्रकार हमारे कमरे में झांकने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? क्या तुम्हें अपने जीवन का भय नही!" पुष्पलता की आंखों से अंगारे बरस रहे थे पर मनोहर का मन तो उसकी आंखों ने मोह लिया था। मनोहर ने कुछ हिम्मत जुटाई थी कि एक आकृति उसके शरीर के आर पार निकल गयी। मानो कमरे में कुछ विशेष रौशनी वाले तंतु उस आकृति को अजीब तरीके से सम्हाले हुए थे। वो आकृति धुंधली सी थी। मनोहर ने पहले कभी ऐसा देखा न था।

"कुंवर जी ने आपको बुलाने का संदेशा भिजवाया है। मैंने दरवाजे पर दो बार दस्तक दी पर आप अपने गीत की वजह से दस्तक को सुन न पाई!" वह आकृति किसी सिपाही की थी। धुंधला होता सिपाही इतना कहते ही पुनः मनोहर के आर पार निकल गया।

पुष्पलता ने आईने के पास पड़ा हुआ फूल उठाया और कमरे से बाहर आने लगी। मनोहर एक ओर हो गया। पुष्पलता ने मानो मनोहर को देखा ही नही था। वह गलियारे से होते हुए किसी जुगनू की भांति दमकती हुई जा रही थी। मनोहर का दिमाग अब चक्कर खाने के लिए आतुर था... ये असम्भव है। ऐसा पहले कभी न हुआ था मनोहर के साथ वह उसी कमरे के पास ठिठक कर रहा गया था। मनोहर कमजोर दिल का नही था। उसने कई भूतिया खंडहरों में रात बिताई पर आज जो उसके साथ घटित हो रहा है वो अजीब था... भयावह नही!!

कुछ देर बाद, जब सब कुछ शांत लग रहा था, वह भी उसी गलियारे से होता हुआ पुनः उन्ही सीढियों के दोराहे पर आकर खड़ा हो गया था। पूरी हवेली में अलग ही प्रकार की चमक थी। अलग ही रूप निखर आया था उस हवेली का! मनोहर का ध्यान सहसा ही कुंवर रामप्रताप तथा विद्यावती के चौखटों पर गया। दोनों नदारद थे। अब तीनो चौखटे खाली बेजान पड़े हुए मनोहर की ओर टकटकी लगाए हुए चिढा रहे थे। मनोहर को लगा कि शायद वह किसी अलग ही काल मे पहुंच गया था। शायद! ये उस सुनहरी किताब की वजह से! मनोहर जैसे ही सीढ़ियों से उतरने लगा बाई ओर से कुछ कर्कश ध्वनि उसके कानों में पड़ी। वह मुड़ा और न चाहते हुए भी वह उस ध्वनि की ओर अग्रसर हुआ। वह एक गलियारे में पहुँच गया। वहां कई कमरे बने हुए थे। मनोहर पहले कमरे के अंदर झांकता है। वहां एक अनोखा भव्य कमरा था। अनगिनत चमकीली झूमर लटक रही थी। दीवारों पर नक्काशी इतनी शानदार थी कि देखते ही रहे! छोटे छोटे कांच के रंग बिरंगे टुकड़ो से पूरा कमरा पटा पड़ा था। शायद ये किसी राजा का हो! तभी, एक आवाज सनसनाती हुई मनोहर के कानों तक पहुचती है।

"महाराज! मैं आपकी पटरानी हु! आपने एक दासी को अपनी रानी बनाया। मैं चुप रही! परंतु, आपने जैसे मुझे तिरस्कृत ही कर दिया! मैं इस राजमहल में एक खिलौना बन कर रह गयी! ये नागवार है!"

मनोहर ने देखा ये शायद कुंवर जी की दूसरी पत्नी विद्यावती थी। वह सुंदर तो थी पर इतनी नही की जितनी पुष्पलता थी! पर मनोहर कुंवर को देख नही पा रहा था।

कुंवर रामप्रताप जैसे उस रानी के सामने से अंतर्धान हो गए हो! ऐसे लग रहा था कि रानी विद्यावती दीवारों में अपने ही अक्स से बात कर रही थी! तभी, मनोहर के शरीर को चीरती हुई एक दासी निकली! ये ठीक वैसे ही था जैसे वो सिपाही मनोहर के शरीर के आर पार निकला था। दासी अजीब लग रही थी। धुंधली सी किसी चमक के साथ वो दासी रानी विद्यावती के सम्मुख खड़ी हो गयी थी।

"रानी माँ! रानी पुष्पलता अभी कुंवर जी के साथ है। जहर मिला हुआ पानी पुष्पलता को दे दिया गया है। अब बस कुछ देर की बात है!" इतना सुनते ही रानी विद्यावती ने अपनी कुटिल मुस्कान बिखेर दी।

मनोहर जैसे कुछ समझ नही पा रहा था। जिस परी को उसने अभी देखा था उसे खोने का एहसास ही मनोहर को भयभीत कर गया। मनोहर जैसे आगे के कमरों में पुष्पलता को ढूंढने चला जाता है। एक कमरे के आगे आती रौशनी देख मनोहर रुक जाता है। उस कमरे में कुंवर किसी दीवान पर बैठे हुए थे और पुष्पलता उनके सामने नाच रही थी। मनोहर इसके पहले की कुछ कर पाता, पुष्पलता वही बेहोश हो जाती है। उसके पैरों से घुंघरू टूट कर फर्श पर बिखर जाते है। कुंवर अब भी दीवान पर बैठे हुए थे। मनोहर का गला सुख जाता है पर धीरे धीरे तड़पती पुष्पलता उसकी आँखों के सामने दम तोड़ रही थी। उसके मुख से खून की धारा बह रही थी। उसकी आंखें बंद हो गयी थी। शायद धड़कने रुक गयी थी। कुंवर अब भी दिवान पर बैठे हुए थे। उनके मुख पर कोई भाव नही था। किसी भी प्रकार की कोई हलचल नही थी। दीवान के पीछे के दरवाजे से विद्यावती उस कमरे में आती है। पुष्पलता को जमीन पर पड़ी देख उसके चेहरे की खुशी कम नही होती। वह कुंवर के बिल्कुल पीछे खड़ी थी। कुंवर में कोई हलचल नही थी। विद्यावती ने कुंवर के सर पर अपना हाथ फेरा। कुंवर वही दीवान से नीचे गिर गए। विद्यावती जोर से चीखी पर कुंवर के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। कुंवर के पास वही प्याला था जिससे पुष्पलता ने पानी पिया था। सम्भवतः कुंवर ने भी वही विष मिश्रित पानी पिया हो! विद्यावती जोर से चीख पड़ी। कुछ सिपाही दौड़कर आते है। उन्होंने कुंवर और पुष्पलता को मरा हुआ पाया! वे अपनी धारदार तलवारों विद्यावती के गले को वही रेत देते है। सर धड़ से अलग होते वक़्त एक गहरी चीख उभरी। एक बवंडर उभरा और उन तरंगों से सभी सिपाही उस बवंडर में गोते लगाने लगे। एक आवाज गूंज रही थी।

"नही मर सकती! नही मर सकती.... मैं!!"

विद्यावती की चीख पूरे किले में किसी नासूर की भांति गूंजती रही। उसका सर अपने धड़ से अलग होकर कुंवर के गोद मे गिर जाता है। कुंवर की आंखे खोई खोई सी थी। जैसे वो उस शरीर मे था ही नही बल्कि पुष्पलता के साथ कब का चला गया। विद्यावती का सर अब भी जागृत अवस्था मे लग रहा था। उसकी आंखें खुली की खुली थी। वह देख पा रही थी। विद्यावती ने अपना सर घुमाया। उसकी आंखें मनोहर पर पड़ी। मनोहर जैसे अंदर तक सहम गया। वो आंखे तीक्ष्ण थी। किसी घातक हथियार के समान! जैसे कोई रोग पैदा कर गयी मनोहर के मन मे! मनोहर वहां से उल्टा पांव भागना चाह रहा था पर जैसे उसके पांव किसी ने झकड लिए थे। विद्यावती धड़ से अलग किया हुआ सिर अब जोर जोर से चीख रहा था। पूरी हवेली गुंजायमान हो रही थी। मनोहर की हड्डियां भी अब कांपने लग गयी थी। मनोहर जैसे तैसे अपने जकडे हुए पैरों से वहां से लंगड़ाते हुए निकलता है। मनोहर उनकी मृत्यु का साक्षी बन गया था। मनोहर उस कमरे में जाकर पुष्पलता को अपने हाथों से उठाना चाह रहा था। पर मनोहर इस काबिल नही था। वह सीढ़ियों से उतरकर उन चौखटों को देखता है। चौखटों में सभी की तस्वीरें पुनः यथावत लगी हुई थी। मनोहर सीढियों से उतरकर पुनः अपने कमरे में दाखिल हो जाता है। वहा वह किताब खुली पड़ी थी। उस किताब को मनोहर बन्द करता है। किताब बन्द होते ही पुनः जैसे कोई कालिख ने पूरी हवेली को अपने मे समेट दिया था। सारी रौशनी बुझ चुकी थी। अंधेरा सर्वत्र फैल गया था। मनोहर के मन मे भी अंधेरा पसर गया था। उसके आंखों में पुष्पलता की मूरत जैसे हट ही नही रही थी।

वृद्ध उसके दरवाजे पर कुछ खाना ले आता है।

"ये रूखा सूखा ही है इस बूढ़े के पास!" वृद्ध खाना रखकर अपनी लालटेन लिए वहां से निकलने ही वाला था कि मनोहर ने रोक दिया।

"बाबा! पुष्पलता क्यो मर गयी?" वैसे तो वृद्ध ऊंचा सुनता था पर पता नही कैसे वृद्ध ने ये बात एक बार मे ही सुन ली।

"तो तुमने वो किताब खोल ली! पुष्पलता और विद्यावती को जीते हुए देखना और रोज मरते हुए देखना! अजीब सी चल रही है मेरी जिंदगी! पता नही कैसी कसक है विद्या के रूप में, की मैं आज तक उसके रूप को बस रोज की तरह निहारता हु! पर कुछ कर नही पाता! उसे ही देखता हूं और देख देख कर जीता हु! मौत भी कमबख्त नही आती मुझे! हर रोज सुबह होने पर सोचता हूं की मैं इस किले को छोड़ दु! पर एक बार उस रूपवान परी को देखने का जी करता है। उसे देखता हूं! और इस काले किले की रखवाली करता हु! जब से आया हु यही का होकर रह गया हु! कैद में हु!"

"बाबा! पर मेरे इस मन से उस रूपवती का चेहरा हट ही नही रहा है। मैं जैसे अपने आप को भूल गया हु! मुझे मेरा कोई अस्तित्व नही लग रहा है। मेरी दुनिया जैसे समाप्त हो चुकी है। मेरे जीवन का मकसद जैसे अब सिर्फ पुष्पलता को पाना ही है।"

"तुम्हे पुष्पलता से मोह हो गया है और मुझे विद्या... दोनों मुझे मेरे हृदय को बार बार घायल करती है!" वृद्ध अपनी हु धुन में था।

मनोहर के माथे पर लगी भभूत जैसे चमत्कारिक ढंग से चमकने लगी। मनोहर को जैसे कोई अदृश्य शक्ति झकझोर रही थी। उसके मुख से स्वतः ही उद्गार निकल रहे थे।

"विद्यावती की प्रबल इच्छाशक्ति से वही रोज दोहराया जा रहा है। पुष्पलता एक छलावा है। उसकी रूपकला इस छलावे को बढ़ाती है। इन सबकी जड़ विद्यावती है। इस घेरे को तोड़ना होगा। इस सुनहरी किताब को जलाना होगा!"

मनोहर जैसे किसी तंद्रा से टूटकर बाहर आया हो! ये आवाज कहाँ से आई के मनोहर कभी न जान पाया।

मनोहर अपने बैकपैक से एक लाइटर निकालता है। लाइटर की अग्नि से उस सुनहरी किताब को जलाने की कोशिश करता है।

"नही! नही! इस किताब को नही! मुझसे मेरे जीने का मकसद न छीन ऐ यात्री!" वृद्ध चिल्लाता है। पर मनोहर जैसे अपनी ही धुन में था। एक अलग ही ताकत थी उसके साथ जो इस किले की चीख को समाप्त करना चाह रही थी। किताब में आग लग जाती है। हवेली की सारी प्रतिकृतियां जैसे थर्राने लग गयी थी। दरवाजे पर निर्मित सभी आकृतियाँ, उस लकड़ी के सिरों के अंदर दौड़ लगा रही थी। झूमर बुरी तरह से झूल रहा थी। मानो अभी गिर पड़ेगी और बिखर जायेगी! विद्यावती का चित्र स्वतः ही जल उठता है। बाहर सुखी पत्तियां किसी बवंडर का शिकार हो गयी थी।

तभी एक लाठी मनोहर के हाथों पर पड़ती है। मनोहर के हाथ से वो किताब नीचे फर्श पर गिर जाती है। वृद्ध के हाथों में लाठी थी। उसकी आंखें लाल भड़क थी। उसमें न जाने कहा से कोई अप्रतिम शक्ति आ गयी थी। वृद्ध ने मनोहर को उठाया और एक ओर फेक दिया।

"मुझसे मेरी जिंदगी मत छीन! नही मर सकती मैं.. नही मर सकती मैं..."

मनोहर कुछ समझ ही नही पा रहा था। ये वाक्य तो विद्यावती के थे। ऐसे लग रहा था कि वृद्ध के हाथों में हाथी जितना बल आ गया था। मनोहर कुछ समझ पाता उससे पहले वृद्ध ने मनोहर के गले को दबोच लिया। मनोहर वृद्ध के हाथों को छुड़ा ही नही पा रहा था। मनोहर को अपने गले मे अप्रतिम दर्द हो रहा था। उसकी साँसे अटक रही थी। उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा रहा था। वृद्ध का सिर विद्यावती के रूप में बदल जाता है। तभी एक धारदार तलवार से वृद्ध के गर्दन पर वार होता है। उसका धड़ अलग हो जाता है। अब सिर और धड़ के बीच कुछ इंच का फासला बन जाता है। पर मनोहर के गले की पकड़ जस की तस बनी हुई होती है। धीरे धीरे मनोहर की आंखों की पुतलियां चौड़ी हो जाती है। इतना भयावह दृश्य उसने कभी देखा नही था। नंगी तलवार से एक और वार होता है, इस बार तलवार विद्यावती के सर के बीचों बीच लगती है। एक जोरदार चीख निकलती है जो पूरी हवेली को थर्रा कर छोड़ देती है। विद्यावती के हाथों की पकड़ ढीली हो जाती है। मनोहर फर्श पर गिर जाता है।

मनोहर बुरी तरह खांस रहा था। उसकी आंखों के सामने अंधेरा था। मनोहर के पास ही वो सुनहरी किताब जल रही थी। हर लपट विद्यावती के धड़ को और बेचैन कर रही थी। वह किसी मदमस्त हाथी की तरह डोल रहा था। वह फर्श पर गिर जाता है। वह उस किताब को अपने हाथों से ढूंढ रहा था। विद्यावती के सिर के दो टुकड़े हो जाते है। दोनों आपस मे जुड़ने का प्रयास करते है पर जुड़ नही पाते! तभी, कुंवर रामप्रताप दिखाई देते है। एक हाथ मे वो चमत्कारी तलवार थी और दूजे हाथ मे तांबे की प्याला! ये वही प्याला था जिसे पीकर पुष्पलता और रामप्रताप दोनों चल बसे थे। मनोहर निढाल पड़ा फर्श पर, अपनी आंखों से ये भयावह मंझर देख रहा था। रामप्रताप ने उस प्याले के पानी को धड़ के अंदर विसर्जित किया। लग रहा था मानो कोई तेजाब उस धड़ के अंदर जा रहा था। धड़ बुरी तरह कांप रहा था। धड़ के अंदर से धुआं उठ रहा था और थोड़ी ही देर में धड़ किसी रेत में तब्दील हो जाता है और फर्श पर बिखर जाता है। वो सुनहरी किताब पूरी तरह जल जाती है। विद्यावती का सिर भी रेत में बदल जाता है। उसका चित्र भी पूरी तरह से जल जाता है।

रामप्रताप अपनी मुछो को तांव देता हुआ अंतर्धान हो जाता है। हवा में पूरी तरह घुल जाती है उसकी छवि! मनोहर अपनी आंखों पर विश्वास नही कर पाता! वह फर्श से कराहते हुए उठता है। कुछ देर पहले जो अंधड़ आई थी वो ठहर सी गयी थी। पूरी हवेली मानो झर्झर अवस्था के चरम पर पहुंच चुकी थी। मनोहर ने सीढियो पर देखा। विद्यावती का चित्र पूरी तरह जल चुका था। पर बाकी के चौखटों में से रामप्रताप का चित्र गायब था। पर पुष्पलता का चित्र अब भी जस का तस बना हुआ था।

********

सुबह होती है। मनोहर की आंख खुलती है। वह उठता है और हवेली पर एक नज़र दौड़ाता है। कल तक जो चीजे जीवंत सी प्रतीत हो रही थी, आज सारी मृतप्रायः लग रही थी। पूरा उजाड़ और वीरान सा लग रहा था किले का ये हिस्सा! वह अपने बैग को उठाता है और निकलने लगता है। इन यादो को एक किताबी मूरत देने! अब उसे पता था कि भूत प्रेत होते है। उनकी भी कहानियां होती है। अब वो भी डर लगने लगा था।

तभी, मनोहर को एक आवाज गूंजती सी प्रतीत हुई। मनोहर उस आवाज को पहचानता था। वह कर्णप्रिय आवाज सीधे उसके हृदय को झखझोरने के लिए काफी थी! वो आवाज... वो गीत.... उसी जगह से आ रहा था जहां मनोहर ने पहली बार सुना था। वह जट से सीढियो पर चढ़ता है और दाई ओर मुड़कर सीधे पुष्पलता के कमरे के बाहर खड़ा रह जाता है। वही मादकता से भरी भीनी खुशबू उसका स्वागत करती है। वह कमरे के अंदर झांकता है। पुष्पलता आईने के सामने संवर रही थी। वह अपने रेशमी बालो को बांध रही थी। उसकी नज़र मनोहर पर पड़ती है। वह उठती है और मनोहर के पास आती है। मनोहर के गालों को वो छूती है। मनोहर की धड़कने बढ़ जाती है।

"वह मुझे नही मारती, तो मै मार देती उसे!!" इतना कहते ही पुष्पलता जोर जोर से हँसती है। उसकी हंसी पूरे किले में गूंजने लगती है। पुष्पलता की हंसी विभत्स रूप ले रही थी। वह मादक नही अपितु अब एक कुटिल आत्मा नजर आ रही थी।

पुष्पलता वही खड़े होकर अपने पैरों को पटकती है। उसके घुंघरू की आवाजें पूरे किले में गूंजने लग जाती है। मनोहर पुष्पलता का हाथ छुड़ा पागलो की भांति भागता है। वह सीढियो से जल्दी जल्दी उतरता है। वह दरवाजे तक पहुंच जाता है। पर दरवाजा बंद था। मनोहर अथक प्रयास करता है पर दरवाजा खुल ही नही रहा था। मनोहर के कानो में वो गीत गूंज रहा था।

"इंतज़ार.... इंतज़ार.... लंबे समय तक किया इंतज़ार...
इस बेजान बंजर जमीन पर आ जाओ एक बार... "

दरवाजे के बाहर वो राक्षस की आकृति अपनी जीभ निकाल हंस रही थी। अब दो आकृतियों की जगह एक ही राक्षस बच गया था, जैसे अब एकाधिकार रह गया था। ऐसा नही था कि मनोहर का हृदय पुष्पलता के लिए अब भी धड़क रहा था पर वह अब इस किले में नही रहना चाहता था।

मनोहर ने भभूत को तो बैग में ही छोड़ दिया था। वह अपने बैग को अपने पीठ से उतारता है। जैसे ही वह भभूत को निकालने अपने बैग में हाथ डालता है, पुष्पलता उसके पास होती है। उसके बिल्कुल करीब.. इतने करीब की मनोहर अब उसे महसूस कर सकता है। पुष्पलता अपने हाथ से उसका हाथ थामती है। मनोहर के हाथों को पुष्पलता अपने चेहरे तक ले जाती है।

"विद्यावती की रूह में हम सब कैद थे..
असीम ताकत की मल्लिका थी,
उस ताकत को मैंने भी महसूस किया..
अब वो ताकत मेरी है.. अजीब सकुन है..
मृत होकर भी जीवित रहना...
जिस तरह वो वृद्ध विद्यावती का शागिर्द था,
उसी तरह अब तुम भी मेरे शागिर्द हो!
तुम मेरे हो!!"

मनोहर के सामने पुष्पलता का चेहरा पूरा बदल जाता है। वह एक मासूम चेहरे से अपने आप को बदल लेती है। अब उसका चेहरा बड़ा ही विभत्स था। जगह जगह से खून रिस रहा था। छिद्र उभर आये थे उसके चेहरे पर! हर एक छिद्र से कोई किट निकल रहा था...किट उस पूरे किले में फैल गए थे..ऐसा विभत्स चेहरा देख मनोहर की चीख पूरे किले में गूंजती है। मनोहर का शरीर बुरी तरह ऐंठ जाता है। वह अपने शरीर को हिला भी नही पा रहा था।

पुष्पलता अब दुबारा वही मादकता भरी मुस्कान लिए पुनः अपने पुराने रूप में आ जाती है। मनोहर समझ ही नही पा रहा था। मोहपाश के बंधन में वो झकडा हुआ महसूस कर रहा था। पुष्पलता ने उसका हाथ थामे उसे अपने पीछे पीछे अपने कक्ष तक ले जाती है। मनोहर उसके पराधीन हो उसके रूप के जाल में फंस जाता है। पुष्पलता का सौंदर्य अप्रतिम था। मनोहर अपने आप को रोक नही पाता.. वह भी उसके साथ हो लेता है।

वो गीत मादक ध्वनि में पूरे किले में गूंज रहा था..

"इंतज़ार.... इंतज़ार.... लंबे समय तक किया इंतज़ार...
इस बेजान बंजर जमीन पर आ जाओ एक बार... "

किसीने असत्य ही कहा है कि डर को लिखने के लिए डरना जरूरी नही!!

******समाप्त******

भरत ठाकुर
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